जीवन ये कितनी बार मरा
सोच, विकल होता है अब ये
कहां उठा औ कहां गिरा।
मर मर कर जीवन में अबतक
कुछ पाया तो क्या पाया
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।
जो करना था वो किया नहीं
खुल कर जीना था जिया नहीं
प्रतिपल खुशामदी में बीता
मन की अपने किया नहीं।
सांझ ढले जीवन बेला में
पछतावा करके क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।
सब चले जिधर दो पैर चले
सब रुके जहां दो पैर रुके
दूजे पदचिन्हों पर चल चल
जाने कितनी बार झुके।
लिख सकते जो इतिहास यहां
उसे दोहरा कर के क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।
भूतकाल से सीखा ना कुछ
वर्तमान में कभी जिया नही
हर पल जुगत का फेर किया
यत्न कभी कुछ किया नहीं।
सांझ ढले फिर जीवन के
अब पछताया तो क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20अक्टूबर,2020
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