विकल मन।

विकल मन।

मन संतप्त है उर अशांत
जनमन अंतर्मन भयाक्रांत
अवनी अंबर शिथिल हो रही
चिंतन मनन सब हुए क्लांत।

दिनकर अपना तेज खो रहा
गुंफित नभ में कहीं खो रहा
अवसादों की वीराने में
अनजाने ही व्यथित हो रहा।

सरिता का उद्गम हुआ क्लांत
सरिता का तट भी है अशांत
जब सागर है बांह पसारे
लहरें फिर क्यूँ भयाक्रांत।

क्यूँ शब्दों पर पहरा लगता
ग्रीवा में कुछ ठहरा लगता
क्यूँ कर चेतना सुप्त हो रही
जीवन यहां अधूरा लगता।

अदृश्य वेदना तड़पाती है
रह रह उर को भटकाती है
काल चक्र है चला ये कैसा
उँगली अपनी छटकाती है।

मौन विकल है सारा जीवन
उम्मीदों पर आश्रित उपवन
एक नया प्रारंभ जोहता
आज प्रतीक्षारत जीवन।

उद्विग्न काल प्रकृति अशांत
जल, थल, नभ सब हुए क्लांत
विकल आज है जन गण मन
कब होगा पुलकित ये उपवन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06अक्टूबर,2020






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