तक्षक- भारत का गौरव।

तक्षक- भारत का गौरव।  

भारत की माटी का गौरव
चीख चीख कर बोल रहा है
कान खोल कर सुन लो प्यारों
बातें सच्ची खोल रहा है।।

भूल ना जाना तक्षक को तुम
प्रतिकार यहाँ सिखलाया था
जो जैसी भाषा में समझे
उसको वैसा समझाया था।।

कासिम के वारों से बीती
यहाँ सदी थी वो चौथाई
टूट चुके थे मंदिर मठ सब
धरती की आँखें भर आयीं।।

अपने अभियानों में उसने
एक युवा ना जीवित छोड़ा
जो भी सम्मुख खड़ा हुआ था
उसका शीश झुका कर छोड़ा।।

आठ बरस का था बालक वो
जिसने देखा मनुज का भक्षक
वही कथा का मुख्य पात्र है
प्यारों उसका नाम है तक्षक।।

सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक
थे पिता वीरगति को पाया
उस अरब सेना ने गाँव में
फिर जमकर उत्पात मचाया।।

खींच खींच कर महिलाओं का
मनमाना अपमान किया था
रोने लगी मनुजता सारी
आतंकी ने काम किया था।।

भयाक्रांत हो सारे जन जन
स्थिति को जैसे भाँप चुके थे
देखा रौद्र रूप मृत्यू का
अंदर तक सब काँप उठे थे।।

क्रमशः--

देख परिस्थिति, युद्ध वहाँ की
उसकी माँ सब समझ चुकी थी
चिपकाया छाती से उसने
एक निर्णय पर पहुँच चुकी थी।।

और क्षत्राणी ने इक पल में
तलवार म्यान से खींच लिया
काटा शीश बेटियों का अरु
छाती में अपने घोंप लिया।।

एकाएक घटित घटना से
बालक ने जैसे सीख लिया
मौन हो गया उस क्षण से यूँ
ज्यूँ जीवन का रण सीख लिया।।

देख भूमि पर मृत अपनों को
धीरे से फिर आँखें पोंछीं
निकल पड़ा फिर वहाँ गाँव से
बात नहीं कुछ रुककर सोची।।

मुख पर कोई भाव नहीं था
आँखें लाल रहा करती थीं
ऐसा लगता मानो उसकी
आँखें कुछ खोजा करती थीं।।

नागभट्ट कन्नौज का शासक
इक महा प्रतापी राजा था
जिसने अपने रण कौशल से
धरती का आँचल साजा था।।

वीर तक्षक के किस्से कितने
जन जन में गाये जाते थे
एक वार में हाथी मारा
सबको बतलाये जाते थे।।

अतुल पराक्रम के किस्से भी
नागभट्ट के मशहूर हुए थे
अरबों के अगणित मंसूबे
रण कौशल से तोड़ चुके थे।।

नियम सनातन का माना था
पीछे से ना वार किया था
उसकी इस एक विनम्रता ने
हरदम कितना वार सहा था।।

क्रमशः--

आज सभा थी लगी वहाँ पर
संकल्प वहाँ कुछ होना था
दुश्मन के हमलों के आगे
वहाँ उत्तर कैसा देना था।।

इतने सारे वाद विवाद में
उत्तर कुछ जब समझ ना आया
अंत में तक्षक खड़ा हुआ फिर
अपनी शैली में समझाया।।

नियमों से यदि युद्ध लड़े तो
फिर जीत नहीं हम पाएंगे 
भागेगा वो पीठ दिखाकर
रण से हमको भरमाएँगे।।

मर्यादा जो नहीं जानता
मर्यादा वो क्या समझेगा
जिसकी जैसी शैली है वो
वैसी ही भाषा समझेगा।।

याद करिये देवल मुल्तान
जब दाहिर पराजित हो गए 
निरीह प्रजा के साथ न जाने
कैसे कैसे व्यवहार हुए।।

है शत्रू अपना बर्बर इतना
धोखा होगा जो बात करेंगे
जो शत्रु पर विश्वास किया तो
जनता से हम घात करेंगे।।

नैतिकता की बातें सारी
बेमानी तब हो जाती हैं
दुश्मन जब हो सम्मुख अपने
विजय मात्र ही रह जाती है।।

मर्यादा का निर्वाह किया तो
धोखा हम फिर से खायेंगे
दुश्मन को यदि छोड़ दिया तो
फिर से हम सब पछतायेंगे।।

शत्रु का कोई धरम नहीं है
न है उसकी मर्यादा कोई
मूल सनातन को मानेगा
नही उसका इरादा कोई।।

उसका तो बस धरम यही है
के शत्रु का शीश झुकाना है
लूट पाट कर त्रास मचाना
जन जन में भय फैलाना है।।

नैतिकता उनसे करते हैं
मर्यादा को जो समझते हैं
जैसा जो भी व्यूह रचेगा
हम भी वैसा ही रचते है।।

सोचो यदि जो हार मिली तो
परिणाम यहाँ कैसा होगा
औरत अरु बच्चों से सोचो
व्यवहार यहाँ कैसा होगा।।

अच्छा होगा यदि हम सब भी
दुश्मन जैसा ही सोचेंगे
उसके जैसा वार करेंगे
तब ही उसको हम रोकेंगे।।

राजा ने जब नजर उठाई
बस मौन सभा में पसरा था
लगता था जैसे लोगों का
विश्वास वहाँ पर गहरा था।।

उस मौन सभा ने सोच लिया
इतिहास नया रचने वाला
आने वाला वक्त वहाँ पर
नूतन था कुछ करने वाला।।

क्रमशः---

अगले दिन दोनों सेनाएँ
सीमाओं पर पहुँच चुकी थीं
इक दूजे के व्यवहारों को
जैसे वो सब समझ चुकी थीं।।

युद्ध मात्र अब विकल्प था बस
नहीं कहीं अब माफी होगा
आने वाला जो प्रभात था
भीषण रण का साक्षी होगा।।

रात अँधेरी गहराई थी
अरिदल में सारे सोये थे
अपने बल के मद में डूबे
सब सुख सपनों में खोये थे।।

तक्षक के नेतृत्व में सेना
अरिदल पर फिर टूट पड़ी
अरु सोये शत्रु के खेमे में
वो यम की भाँती टूट पड़ी।।

हो सकता है ऐसा हमला
शत्रु ने कभी नहीं सोचा था
रात्रि बनेगी काल वहाँ पर
सपने में भी ना सोचा था।।

बड़ी भयानक निशा वहाँ थी
तक्षक मौत बन टूट पड़ा था
अरिदल के सीने पर जैसे
मौत बना वो झूल पड़ा था।।

उसका तेज जहाँ जहाँ पड़ा
अँधियारा छँटता जाता था
जिस रास्ते से वो गुजरा था
अरिदल से पटता जाता था।।

रात वहाँ थी घोर अँधेरी
नहीं कहीं सुनने वाला था
लगता था ऐसा अरिदल में
भोर नहीं होने वाला था।।

क्रमशः--

हुई भोर जब निज सीमा पर
शत्रू नहीं देखा राजा ने
ऐसा क्या था हुआ रात में
मन ही मन सोचा राजा ने।।

लिए सैनिकों को फिर राजा
अरिदल के खेमे में पहुँचा
देखा जब वो दृश्य वहाँ का
मन ही मन में फिर वो चौंका।।

अरिदल के सारे सैनिक सब
इधर उधर को भाग रहे थे
राजा की सेना के आगे
भीख प्राण की माँग रहे थे।।

तनिक देर ना की राजा ने
अरु अरिदल पर वो टूट पड़े
रौद्र रूप देखा सेना का
अरिदल के बल सब टूट पड़े।।

मिली विजय जब सेना को तब
राजा का मन फिर हरषाया 
तक्षक को जब न पाया उसने
सारे सैनिक को बुलवाया।।

इक इक कर सब लगे खोजने
भीड़ में चेहरा चमक रहा था
यम की गोदी में सोया था
मौन पड़ा वो दमक रहा था।।

उस नीरवता के क्षण में भी
मौन तक्षक कुछ बोल रहा था
उसने जो कुछ त्याग किया था
कण कण में रस घोल रहा था।।

वीरता के शिखर पुंज हो तुम
आर्यावर्त अभिमान करेगा
जब वीरों की बात चलेगी
वहाँ तक्षक का नाम रहेगा।।

मातृभूमि के रक्षण हेतु अब
नया पाठ सिखलाया तुमने
प्राण देना ही विकल्प नहीं
लेना भी सिखलाया तुमने।।

उसके एक वार के कारण
वर्षों तक दुश्मन सो ना सके
ऐसा पाठ पढ़ाया उसने
सदियों तक दुश्मन छू न सके।।

धन्य धन्य है मातृभूमि ये
भारत को अगणित वीर दिया
दूर किये जन जन के संकट
अरु दूर सभी के पीर किया।।

अगणित वीरों का रक्त मिला
तब ये धरती मुस्काई है
खून पसीने से सींचा जब
ये फसलें तब लहराई हैं।।

कितने जीवन बलिदान हुए
माँ का आँचल तब लहराया है
आकाशों में दूर दूर तक
ये ध्वज अपना फहराया है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20सितंबर, 2021


जीवन की मधुमय प्याली।

जीवन की मधुमय प्याली।  

बढ़ती उम्र के साथ ढल रही मेरे यौवन की लाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जैसे जैसे कदम बढ़ रहे आशाएँ सब मचल रहीं
पर दायित्वों के बोझ तले लगता है कुछ कुचल रहीं
मचले मन के भाव सँभालूँ जैसे उपवन का माली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

गया बालपन यौवन आया कितने सावन बीत गए
कुछ समझा कुछ समझ न पाया पल भर में सब रीत गए
आज उमर के मोड़ पर खड़ा देखूँ बस रस्ता खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

कितना कुछ सुलझाया लेकिन खुद में इतना उलझ गया
रिश्तों के इस भँवर जाल में जीवन जैसे उलझ गया
उलझन सुलझन भरी राह में हाथ रह गए हैं खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जीवन की वीथी ने कितने गीत सुनहरे रच डाले
भावों का ले मधुर सहारा प्रीत मनहरे लिख डाले
लिखे गीत जीवन के पथ के फिर भी है वीथी खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

बीती रातों के कितने ही याद सँभाले बैठा हूँ
और लरजते अधरों की फरियाद सँभाले बैठा हूँ
रुँधे गले, पर बोल रहा हूँ पलकों की भर कर प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

आ जाओ मिल जाओ जैसे रात दिवस में घुल जाती
रश्मि भोर की किरणों से ज्यूँ अगणित कलियाँ खिल जाती
खुल जाता आकाश हृदय का भरती जीवन की प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19सितंबर, 2021

चिंतन हर बार किया।

चिंतन हर बार किया।   

जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया
अरु कितना कुछ अपनाने को
हमने जीवन हर बार जिया।।

क्या कभी मिलेगा उचित सहारा
नहीं कभी भी देखा हमने
देगा कोई साथ हमारा
नहीं कभी भी सोचा हमने।।

फिर भी जग को अपनाने को
कुछ समझौता हर बार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

कदम कदम पर घातें गहरी
घनी अँधेरी रातें पसरी
दूर भले था सूरज लेकिन
अपनी नजरें जाकर ठहरीं।।

नए उजाले खातिर हमने
रातों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

आशाओं के बाग सजाओ
जीवन उपवन बन जाएगा
सपनों को साकार बनाओ
हिय मृदु मधुवन बन जायेगा।।

मधु का रस चखने की खातिर
काँटों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18सितंबर, 2021



कोटि कोटि सुख पावत।

कोटि कोटि सुख पावत।  

कमल नयन पद पंकज उपमा
छवि अतुलित मन भावत
शोभा अति विशाल मन मोहत
साची कह गुन गावत
अंग अंग पिय प्रेम सजत हौ
देखी जबहि लुभावत
कहे अजय छवि देख प्रभू की
कोटि कोटि सुख पावत।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16सितंबर, 2021

सूरदास: काव्य रस एवं समीक्षा।

जीवन-परिचय- महाकवि सूरदास का जन्‍म 'रुनकता' नामक ग्राम में सन् 1478 ई. में पं. रामदास घर हुआ था । पं. रामदास सारस्‍वत ब्राह्मण थे और माता जी का नाम जमुनादास।

सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है।

भक्‍त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज तथा पुस्‍तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्‍थों की संख्‍या 25 मानी जाती है।
  • सूरसागर 
  • सूरसारावली 
  • साहित्‍य-लहरी 
  • नाग लीला
  • गोवर्धन लीला
  • पद संग्रह
  • सूर पच्‍चीसी
  • सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्‍ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्‍यक्‍त सूक्ष्‍म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्‍देह करने लगे है।


सूरसागर सूरदास जी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'सूरसागर' में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हज़ार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् 1658 विक्रमी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा, मेवाड़ के 'सरस्वती भण्डार' में सुरक्षित पायी गई हैं।

यह इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।

2. इसका मुख्य उपजीव्य (आधार स्त्रोत) श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कंध का 46 वाँ व 47 वाँ अध्याय माना जाता है।

3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था।

4. भागवत पुराण की तरह इसका विभाजन भी बारह स्कन्धों में किया गया है।

5. इसके दसवें स्कंध में सर्वाधिक पद रचे गये हैं।

6. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा हैं – ’’सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।’’

  • इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला' और 'भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता।
सूर ने कृष्ण की बाललीला का जो चित्रण किया है, वह अद्वितीय व अनुपम है। 
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है – “”गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही।

सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।

सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। “सारंग’ शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए –
सारँग नयन, बयन पुनि सारँग,
सारँग तसु समधाने ।
सारँग उपर उगल दस सारँग
केलि करथि मधु पाने ।।

सूरसागर' में नन्द यशोदा तथा अन्य वयस्क गोपियों का बालकृष्ण के प्रति प्रेम, आकर्षण, खीझ, व्यंग्य, उपालम्भ आदि सब कुछ वात्सल्य रस की ही सामग्री है।

सूरसागर के वर्ण्य विषय का आधार 'श्रीमद्भागवत' है। भक्ति को भव्य एवं उदात्त रूप में चित्रित करते समय श्रृंगार और माधुर्य का जैसा वर्णन सूर ने अपने सूरसागर में ब्रजभाषा में किया है , वैसा उनसे पूर्व किसी लोकभाषा में नहीं हुआ है।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं –
उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,
किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की ।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी ।
इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं – किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं –
निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर हँसि समुझाय,
सौह दै बूझति साँच, न हाँसी।
और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की,
रचि पचि बात बनावत ।
सगुन – सुमेरु प्रगट देखियत,
तुम तृन की ओट दुरावत ।।
उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ –
रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत ।
अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?
नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ?
सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ?
अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है –
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि,
मदिरा मत्त प्रमाद ।
सूर श्याम एते अवगुन में
निर्गुन नें अति स्वाद ।।

(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है।
(2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
(3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है।
(4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है।
(6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है।
(7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है।
(8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।

इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है।

सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं।

रंग दो कान्हा                                                    

मोहे रंग दो कान्हा
अपने ही रंग में
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं
रम जाऊं तुझमें आज।।

जो रंग रंगी राधा रानी
जिसमें झूमी मीराबाई
जो रंग में कबीरा नाचा
नाचे खुसरो और रसखान।
मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया
डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।

तुम बिन है अब कौन सहारा
तुम ही करो उद्धार
कौन है आपन कौन पराया
तुम ही सबका आधार।
अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो
बन  जाऊं चैतन्य जैसा आज।।

मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब
रम जाऊं तुझमें आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


कितने रावण यहाँ जलाओगे।

कितने रावण यहाँ जलाओगे।  

सोचो कैसे दशहरा मनाओगे
बुराई से कैसे पार पाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

माना सीता का हरण किया मैंने
और प्रभू को लाख दुख दिया मैंने
मैं तो रावण था दुष्ट पापी था
आज किस किस से तुम बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

भारत माता भी आज रोती है
उसकी आवाज ना सुनाई देती है
कहीं आतंक और कहीं बुराई है
कैसे इससे इसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

क्यूँ सुनसान यहाँ की सड़कें है
आधी आबादी यहाँ पे डरते हैं
लाखों रावण छिपे हैं खालों में
उसके डर से कैसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

कहीं पे चोरी है कहीं घोटाला है
जैसे लोकशाही पे डाका डाला है
वोट के लिए धर्म को भूले हैं
कैसे सबको यहाँ जगाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहॉं जलाओगे।।

सोचो इक दिन मुझे जलाने से
क्या मिलेगा खुशी मनाने से
कदम कदम पे कितने रावण हैं
इतने तुम राम कहाँ से लाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15सितंबर, 2021





तेरी मेरी कहानी।

तेरी मेरी कहानी।   

चलेंगे हम साथ जब मिलकर हवायें गुनगुनाएँगी
ये अंबर झूम कर गाएगा धरती मुस्कुराएगी
कभी काँटे मिलेंगे और कभी फूलों की बरसातें
हों चाहे जैसा भी मौसम फिजायें गीत गाएंगी।।

बनूँ मैं गीत जीवन का तुम्हारे दिल में बस जाऊँ
के जो भी गीत तुम गाओ बस वो ही गीत मैं गाऊँ
नहीं मुझको तमन्ना चाँद की तारों की बरातों की
तुम्हारा साथ जो पाऊँ मैं नूतन प्रीत लिख जाऊँ।।

मैं अपने गीत गजलों में तुम्हारा नाम लिखता हूँ
हो भले कितनी तपिश मैं तो सुहानी शाम लिखता हूँ
मचलती हैं हवाएँ जब भी छूकर मेरे भावों को
तुम्हें राधा मैं लिखता हूँ और खुद श्याम लिखता हूँ।।

के जितने गीत हैं लिखे सभी में तेरी कहानी है
बना जो मैं दीवाना तो बनी तू भी दीवानी है
तुम्हारे प्रीत में बसकर यही बस मैंने है जाना
मैं कान्हा तुम्हारा हूँ तू मेरी राधा रानी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14सितंबर, 2021

नव प्रभात।

नव प्रभात।   

घोर निराशा के क्षण में भी
जीवन का प्रकाश देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

जीवन के झंझावत में मैं
जाने कितनी बार घिरा हूँ
कदम कदम चलने की खातिर
पथ में कितनी बार गिरा हूँ
जग के सारे झंझावत में
आशा अरु हुलास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

सकुचित भावों से निकले जब
आशा को विस्तार मिला है
अरु जीवन में नव प्रभात के
भावों को संसार मिला है
पग पग जीवन में कितने ही
उल्लास मचलते देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है

पग पग पथ भटकाने खातिर
घृणा द्वार पर आन खड़ी थी
अंतस को बहकाने खातिर
दुविधाएँ हर बार खड़ी थीं
दुविधाओं के पार निकल कर
हमने नव प्रभास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13सितंबर, 2021

मेरे मनमीत।

मेरे मनमीत।  

पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेंरे मनमीत तुम्हीं हो।।

निज पलकों के स्वप्न सुनहरे
मैं जिसे समर्पित करता हूँ
मृदु हिय के सब भाव मनहरे
मैं जिस पर अर्पित करता हूँ
हृदय हुआ सम्मोहित जिससे
भावों की वो प्रीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

मृदुल कल्पना के पाँखों पर
दोनों दूर तलक जाएँगे
इक दूजे को पाने खातिर
परबत से भी टकराएंगे
जिसने मन में प्रीत जगाया
भावों का वो गीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

गंगा की पावन धारा सा
निरमल निश्छल जीवन अपना
कलियों सा सम्मोहन जिसमें
पुष्पित पुलकित उपवन अपना
जिसने मन उपवन महकाया
कलियों का वो रूप तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

रचें चलो हम गीत सुनहरा
जो नीरवता में भरे प्राण
सारा जग गुंजित हो जिससे
दे प्राणों को जो अकुल तान
भावों को जो मुखरित कर दे
जीवन का संगीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12सितंबर, 2021

राम नाम महिमा।

राम नाम महिमा।  

राम नाम अति सुंदर एका देखहिं भालहिं रूप अनेका
एकहि नाम जगत के तारा जिन पर है विश्वास हमारा
प्रभु राम कृपा जिनपर होई सकल काज संपूरण होई
देखि विचारि सोचि जब कहहू राम कृपा 
तब मिलही सबहू
दया धरम नृप धर्म है एका करहु काज विचारी विवेका
हानि लाभ मद मोह अनेका जे जपै नाम छूटहि सोका
कहत अजय मन सुंदर राखा मिलहि भक्ति फल सुंदर चाखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11सितंबर, 2021


खुद का खुद से मेल।

खुद का खुद से मेल।  

मन का सूना अंधकार ले
कैसे तुम मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

कदम कदम पर चोटें कितनी
जाने कितनी आघातें 
कहीं घनेरे दुख के बादल
कहीं खुशी की बारातें
उलझे मन के फेर में कहीं
खुद से क्या मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो 
कैसे फिर चल पाओगे।।

हानि लाभ जीवन के पहलू
इक आता इक जाता है
पथ भूला जो इसमें पड़कर
चैन कहाँ फिर पाता है
हर्ष विषाद में पड़े कहीं तो
पथ में क्या चल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

पल पल बीत रहा है जीवन
कितने ही आकाश लिए
घट घट रीत रहा ये क्षण क्षण
मन में अगणित आस लिए
क्षण भंगुर इस जीवन में
रोक भला क्या पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

क्षण भर को बादल ढँकने से
सूरज क्या छिप जाता है
मन के दरपन में देखा जो
खुद से वो मिल पाता है
खुद को यदि पहचान लिए तो
जग से फिर मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10सितंबर, 2021




मैंने बस प्यार किया।

मैंने बस प्यार किया।   

जो कुछ भी तुमने दिया मुझे
सब मैंने स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैने तो बस प्यार किया।।

मत पूछो के मौन रुदन के
पल हिस्से में क्यूँ आये
कुछ तो ऐसे कल्मष होंगे
जिसने पथ से भटकाये
अपने उस कल्मष की खातिर
मैंने पश्चाताप किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मेरे दीवानेपन को भी
तुमने पागलपन माना
जग ने तो था किया पराया
तुमने बेगाना जाना
तेरे बेगानेपन को भी
हँसकर के स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मैंने जग के तानों को भी
समझ पिया जैसे हाला
ये अश्रू बने मेरी मदिरा
अरु पलक बनी मधुशाला
पर जो अश्रू गिरे पलकों से
उनका भी सत्कार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

हिय बंधन में बँध कर सोचा
दो पल खुद को भी जी लूँ
पा लूँ मैं भी सुख जीवन का
हिय मृदु मधुरस मैं भी पी लूँ
जीवन ज्वाला में जिया किया
उर में पर मधुमास जिया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2021





स्वर्ग बनाने आया।

मन की अभिलाषा- स्वर्ग बनाने आया।  

मैं कोई अवतार नहीं हूँ
इक तिनका हूँ महासमर में
जीवन के इस महासमर में
अपना पात्र निभाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

पाप पुण्य के खेल में यहाँ
कितने जीवन झूल रहे हैं
निज भावों के पलने खातिर
पुण्य पंथ को भूल रहे हैं
पग पग सबका पंथ सुखद हो
कंटक सभी हटाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

जन भावों को सम्मान मिले
निजता का अधिकार मिले
विकल विवश अरु दीन हीन को
जीने का अधिकार मिले
अरु कर्तव्यों की पृष्ठ भूमि का
आदर्श यहाँ बताने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

वेद पुराणों की वाणी को
जन मन उच्चारित कर दो
राष्ट्र प्रेम की स्वस्थ भावना
जन गण जन के हिय में भर दो
गूँजे गिरी कानन सिन्धु पवन
ऐसा भाव जगाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08सितंबर, 2021

अनजान सफर इस दुनिया का।

अनजान सफर इस दुनिया का।  

अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर, चल पाया
हालातों को स्वीकार किया 
वो ही इसमें है पल पाया।।

घनघोर अँधेरी रातों में
दीपक बन कर जला किया
उम्मीदों अरु आशाओं का
बना सितारा जिया किया
वो ही अँधियारों से लड़ कर
दूर क्षितिज तक जा पाया
अनजान सफर इन दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

बादल कितने पलकों में ले
चला कदम जो सँभल सँभल
यादों की बारातों में भी
मुस्काया है जो पल पल
वही सँजोया यादों को भी
वही स्वयं को जी पाया
अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

आकाश चूमता परबत हो
या सागर की गहराई
तूफानों का शोर बहुत हो
या फिर नीरवता छाई
काँटों की परवाह नहीं की
वही पंथ पर चल पाया
अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07सितंबर, 2021

प्रेम का बंधन।

प्रेम का बंधन।  

हो भले ही स्वर्ण का ही पर रास कब आता है बंधन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

हानि लाभ से मुक्त हृदय तो
फिर पुण्य पावन ये धरा है
भौरों के गुंजन से समझो
उपवन परागों से भरा है।।
शुष्क यदि उपवन यहाँ तो मन को तड़पाता है क्रंदन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

रात की वो गुमनामियाँ भी
इस रोशनी में गुम हुईं तब
अधरों से बरसे जो मोती
ये ताप भी शीतल हुये तब।।
शब्दों में आक्रोश ना हो मौन भी करता है नरतन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

है कौन ऐसा जो जगत में
प्रिय प्रेम से कुंठित हुआ हो
जो भी स्वयं से दूर भागा
प्रिय प्रेम से वंचित हुआ वो।।
प्रीत, पावन, पुण्य करता पतझड़ को करता है सावन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2021

मन के गीत।

मन के गीत।  

मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा
कुछ गीतों को तुम गाना
कुछ गीतों को मैं गाऊँगा।।

जग की सारी रीत सुनाना
जो कुछ बीती हमें बताना
कुछ तुम मेरे मन की सुनना
कुछ अपनी तुम मुझे सुनाना।।

अपने दिल पर जो बीती है
उसको गीतों में गाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

मन के भावों को लिखना है
मन के गीतों को गाना है
मन के भाव समझने खातिर
खुद को भी तो समझाना है।।

मन से कोई चूक हुई तो
मन को भी मैं समझाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

इस पार खड़ा जो जीवन है
उस पार न जाने क्या होगा
साँझ ढले अपने जीवन का
आकाश न जाने क्या होगा।।

लेकिन जो कुछ मुझे मिलेगा
हँस कर के मैं अपनाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2021

पग पग हमको राह दिखाए।

पग पग हमको राह दिखाए।  

( शिक्षक दिवस पर गुरु को समर्पित रचना )

ऊँची नीची इन राहों में
जब जब भी पाँव लड़खड़ाए
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

घनी अँधेरी रातों में भी
बनकर दीप हरा अँधियारा
ज्ञान दिया सम्मान दिलाया
पथ  पथ फैलाया उजियारा

जब जब हम भटके राहों में
और जहाँ भी हम घबराए 
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

राष्ट्र धर्म और मानवता का
राह प्रमुख है ये बतलाया
ऊँच नीच का भेद गलत है
जीवन में हमको समझाया।।

जब जब भी बेचैन हुए हम
अरु जब जब भी हम भरमाये
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

लिखूँ शब्द क्या मैं महिमा में
इतना मुझमें सामर्थ्य कहाँ
वहीं लेखनी मुस्काती है
मिले गुरू का आशीष जहाँ।।

लेखनी जब भी घबराई है
ज्ञान योग के दीप जलाए
पल पल ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04सितंबर, 2021



हिंदी की अभिलाषा।

हिंदी की अभिलाषा।   

हिंदी ने कब ये चाहा है बस उसका ही सम्मान करो
लेकिन भाषा के झगड़े में इसका ना अपमान करो।।

हिंदी ऐसी भाषा है जो भारत के दिल में बसती है
जब सब भाषाएँ हँसती हैं तब जाकर ये भी हँसती है।।

था रहा क्रांति का दौर यहाँ जब हिंदी ही पहचान बनी
एक सूत्र में बाँधा भारत और क्रांति का आह्वान बनी।।

पग पग कितने कष्ट सहे हैं तब जाकर ये मुस्काई है
बँधी बेड़ियाँ जब टूटी हैं अधरों पर रौनक आयी है।।

रीति काल हो भक्ति काल हो सबने इसका गुणगान किया
छायावादी, आधुनिक काल कितने ही काव्य महान दिया।।

भारतेंदु, प्रेमचंद, जयशंकर, दिनकर जी का साथ मिला
अगणित राष्ट्रकवि कवियत्री की कलमों से इसका रूप खिला।।

वेद, पुराण, गीता, उपनिषद कितने ग्रंथ लिखे हिंदी में
तुलसी, कबीर, सूर, रसखान सबने मंत्र दिए हिंदी में।।

कितना कुछ पाया हिंदी से हिंदी से ही पहचान बनी
पर जाने क्यूँ अपने घर में यूँ लगता ये मेहमान बनी।।

हिंदी दिवस मनाने को क्यूँ तारीखों में बँध जाते हैं
ऐसा क्यूँ लगता है जैसे हम हिंदी से शरमाते हैं।।
 
बात समझना आवश्यक है बिन हिंदी कुछ पहचान नहीं
जिसकी अपनी भाषा ना हो दुनिया में उसका मान नहीं।।

चलो बनाएं ऐसा भारत सब भाषा को सम्मान मिले
लेकिन अपनी प्रिय हिंदी को हर हृदय में उचित स्थान मिले।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03सितंबर, 2021


मैं आशा के गीत लिखूँगा।

मैं आशा के गीत लिखूँगा। 

घना अँधेरा चाहे जितना
भले निराशा पग पग में हो
भले पराजय द्वार खड़ी हो
या फिर बिखरा बिखरा पथ हो
बिखरा पथ कितना भटकाये
फिर भी अपनी जीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

भले रात हो कितनी काली
घनी अमावस बन कर छाये
भले दामिनी तड़ तड़ तड़के
या घनघोर घटायें छायें
पंथ पटे हों बाधाओं से
नहीं रुका हूँ नहीं रुकूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

शत्रु कौन है मित्र कौन है
करना क्या है मुझे जानकर
बढ़ता हूँ कर्तव्य मार्ग पर
हार जीत को धर्म मानकर
मन के सारे अँधियारों को
बन कर दीपक दूर करूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

घोर विपत्ति के पल, चाहे
विकट विवशता राहें रोकें
अवरोधक हों चाहे जितने
या फिर पग पग कोई टोके
असफलता के कलि कपाल पर
आशाओं की जीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

जीवन की मुश्किल राहों में
मैं पग पग हँसता जाऊँगा
दूर क्षितिज तक जाना  है तो
परबत से भी टकराऊँगा
लहराऊँगा परबत परबत
सागर सागर प्रीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03सितंबर, 2021

आशा ने करवट बदली हैं।

आशा ने करवट बदली हैं।  

उम्मीदें फिर नई सजी हैं
रातों की सिलवट बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आश ने करवट बदली हैं।।

कितने ही प्रतिमान गढ़े हैं
बीते इतिहासों ने अब तक
अरु नूतन अनुमान गढ़े हैं
कितनी आशाओं ने अब तक।।

सपनों वाली भोर हुई है
इच्छाएं घट घट बदली हैं
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली हैं।।

नई उमंगें नया मंत्र है
नई तरंगें नया तंत्र है
नवयुग है ये नव प्रभाव है
नव प्रभात है पुण्य पंथ है।।

लोलुपता के महल ढह रहे
भोगवाद भावना बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली है ।।

राष्ट्र भावना हुई बलवती
षड्यंत्रों का नाश सुनिश्चित
दुनिया के कोने कोने में
भारत का सम्मान सुनिश्चित।।

स्वस्थ भाव से स्वच्छ भाव से
जनतन ने करवट बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2021



मौन के सम्मान में हूँ।

मौन के सम्मान में हूँ।  

ये मत कहो के मुग्ध हूँ मैं
सच कहूँ तो ध्यान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

जो तुम मुखर हो शब्द से
तो भाव से मैं भी मुखर
जो तुम प्रखर निर्माण से
तो कर्म से मैं भी प्रखर।।

तुमसे यहाँ किसने कहा के
मान के अभिमान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

प्यार का आकार हूँ मैं
स्वप्न इक साकार हूँ मैं
पंक्तियों में हैं गढ़े जो
आस का संसार हूँ मैं।।

उस आस के आकाश का मैं
मौन इक अभियान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

रात की किसको फिकर है
भोर पर अपनी नजर है
हूँ मुसाफिर चल रहा मैं
मंजिलों की ये डगर है।।

कुछ छूट ना जाये कहीं पर
हर कदम इस ध्यान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

अब क्यूँ डरूँ मैं शाप से
इस शोक से संताप से
क्यूँ करूँ मैं व्यर्थ जीवन
अवसादों में विलाप से।।

छंदों में बँधा इक गीत हूँ
अरु उसी के गान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2021

मैं क्या करूँगा।

मैं क्या करूँगा।   

है मिला जग से बहुत कुछ
प्यार भी सत्कार भी
और शब्दों से खिला है
गीत का संसार भी
पर गीत जो तुम गा न पाए
गीत गाकर क्या करूँगा
जो तुम हमारे हो न पाए
संसार में मैं क्या करूँगा।।

लोग कहते हैं शब्द में
है छुपा संसार ये
भाव जिस हिय में बसे है
बसते वहीं प्यार भी
पर जिस हृदय में प्यार ना हो
बस कर वहाँ मैं क्या करूँगा
जो तुम हमारे हो न पाए
संसार में मैं क्या करूँगा।।

वक्त की पाबंदियों से
तुम घिरे हम भी घिरे
वक्त के आगोश से क्या,
पता लम्हा कब गिरे
हाथों से छूटा जो लम्हा
फिर शोक कर के क्या करूँगा
जो तुम हमारे हो न पाए
संसार में मैं क्या करूँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31अगस्त, 2021




उपवन बोलो कब रोता है।

उपवन बोलो कब रोता है।  

झेल थपेड़े तूफानों के 
आँधी से हैं चोटें खाई 
पग पग कितना कष्ट सहा है
मुख से लेकिन उफ ना आयी
कितना सुनता, पर हँसता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

सींच लहू से पैदा करता
कदम कदम रखवाली करता
क्यारी क्यारी स्वप्न सँजोता
पंक्ति पंक्ति के खर है हरता
पग पग बस स्वप्न पिरोता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

जब जब जिसने जैसा चाहा
जग को पुष्प दिया है उसने
जाने कितने शूल चुभे हैं
लेकिन कष्ट सहे सब उसने
सहता, विश्वास नहीं खोता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

जाने कितने ताप सहे हैं
स्वेद बूँद से लथपथ लथपथ
चला अकेला राह बनाने
लिखने रचने पग पग नव पथ
पग पग उम्मीदें बोता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

सींच जड़ों को संस्कारों से
पुण्य पवित्र पावन करता है
आशाओं अरु व्यवहारों से
अंतस के सब खर हरता है
पावनता पग पग ढोता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

सच है सबकी इच्छाओं को
पूरा करना आसान नहीं
अंतस के भावों को जाने
कहीं ऐसा प्रावधान नहीं
सुनता है, कोशिश करता है
उपवन बोलो कब रोता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अगस्त, 2021



सब गीत लिखे जीवन के।


सब गीत लिखे जीवन के।

सब गीत लिख दिए जीवन के
जो शेष बच गए प्राक्क्थन।।

प्रातःकाल ड्योढ़ी पर सूरज
दे आहट करता है नर्तन
रूप सजाता है जीवन का
पल पल भरता है आकर्षन।।

भावों को अभिव्यक्त करे जो
नूतन आशा का अभिनंदन
सब गीत लिख दिए जीवन के
जो शेष बच गए प्राक्क्थन।।

पुरवाई का झोंका लहका 
कहीं किसी का बहका मन
झूम झूम कर कलियाँ नाची
 कहीं किसी का नाचा तन।।

बह के पुरवा के झोंके में
कलियों ने भरा राग नूतन
सब गीत लिख दिए जीवन के
जो शेष बच गए प्राक्क्थन।।

गूँजी है खनक हवाओं की
छूकर मन का पावन चंदन
अब क्यों व्यथित व्यथाएँ होंगी
बस खुशियों के होंगे नर्तन।।

छंद छंद नवगीत सजे हैं
पंक्ति पंक्ति भावों का वंदन
सब गीत लिख दिए जीवन के
जो शेष बच गए प्राक्क्थन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अगस्त, 2021


मुक्तक।

मुक्तक। 

गोधूली बेला में बनकर दीपक तुम यूँ आये
मेरे मन मंदिर में तुमने लाखों दीप जलाए
प्रीत जगे अंग अंग में यूँ सजे बाहों का हार
ज्यूँ संझा के आँचल में शशि सुंदर रूप दिखाए।।


पाषाणों से कहना चाहा।

पाषाणों से कहना चाहा।

जिससे भी मन की बात कही वो मौन हुए या दूर हुए
शायद मैंने भूल करी जो पाषाणों से कहना चाहा।।

पल पल जिनपर प्यार लुटाया
जिनपर है विश्वास जताया
जिनको हरपल अपना माना
उनसे ही ठोकर है खाया।।

विश्वास जताये जितने ही हम उतने ही मजबूर हुए 
शायद मैंने भूल करी जो विश्वासों पर चलना चाहा।।
शायद मैंने.........।।

जाने अनजाने वारों ने
दिल को कितना घात दिया है
कितने मीठे व्यवहारों ने
पग पग पर आघात दिया है।
आघात मिला जितना दिल को सबसे उतना ही दूर हुए
दूर हुए चाहे सबसे हम लेकिन दिल से मिलना चाहा।।
शायद मैंने.........।।

करी प्रेम की आशा जब भी
तब तब छल का वार हुआ है
टूटा हूँ जब शीश झुकाया
कुछ ऐसा व्यवहार हुआ है।
व्यवहार हुआ है कुछ ऐसा के हटने को मजबूर हुए
मजबूर हुए लेकिन फिर भी दिल से सबसे जुड़ना चाहा
दूर हुए चाहे सबसे हम लेकिन दिल से मिलना चाहा।।
शायद मैंने...........।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
        26अगस्त, 2021





कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।

कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।  

जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये
कुछ माला में गूंध गए अरु
कुछ पग पग पर ठोकर खाये।।

पलकों ने कब चाहा उसके
प्रिय अश्रू गिरे अरु मिट जायें
आहों ने कब चाहा दिल के
अरमान गिरे अरु मिट जायें
हंसे कभी कभी रोये अश्रू
और कभी बदली बन छाये
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

अंतर्मन ने कब चाहा है
भाव दबे और कुम्हलायें
मधुमासों ने कब चाहा है
हाय बिरह की वो पीड़ाएँ
आशाओं के महाकुंभ में
हैं अंतर्मन की ज्वालायें
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

पग पग दीप जलाए जितने
आस प्राण में आये उतने
अहसासों की पृष्ठ भूमि पर
स्वप्न सुनहरे आये उतने
पलकों की ड्योढ़ी पर सपने
कभी हँसाये कभी रुलाये
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अगस्त, 2021


कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बदल से।

कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बदल से।

ना पूछो ऐसे क्यूँ दिखते हैं जग को हम यूँ पागल से
कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बादल से।।

मस्त बहारों का आशिक हूँ
मदमस्त यहाँ मैं फिरता हूँ
मेरे मन को जो भाता है
वो खुलकर के मैं करता हूँ।।
चंचलता है नदिया से सीखी अरु लहराना सागर से
कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बादल से।।

जग के संतापों को सारे
हमने हँसकर के टाला है
फूल मिले या काँटे जग से
सबको हँसकर के पाला है।।
धैर्य लिया धरती से हमने मिलना जुलना गंगाजल से
कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बादल से।।

जीवन के सारे रंगों ने
मिलकर के रूप सजाया है
कलियों अरु पुष्पों ने मिलकर
सारा उपवन महकाया है।।
पंछी से कलरव सीखा है अरु खिलना माँ के आँचल से
कुछ रंग चुराए हैं हमने इस आवारा बादल से।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अगस्त, 2021

प्यासा सावन।

प्यासा सावन।  

प्यासा सावन, प्यासी रातें प्यासी न रह जाये चातकी
अब तो खुलकर मन की कह दो घुटकर न रह जाये चातकी।।

हमने तेरे स्वागत में
दिल के तोरण द्वार सजाए
नेह बिछाए पलकों के
अरु बाहों के हार सजाए।
हर आहट पर जा जा ठहरीं आँखें तकतीं राह द्वार की
प्यासा सावन, प्यासी रातें, प्यासी न रह जाये चातकी।।

दिन की मौन उदासी को
रातों ने आँचल में पाला
अधरों से ना कही गयी 
पलकों ने वो सब कह डाला।
भोर हुई तो पलकों ने ही कह डाली सब बात रात की
प्यासा सावन, प्यासी रातें, प्यासी न रह जाये चातकी।।

विरह वेदना के क्षण में
मन को कितना समझाया है
तेरे संग बितायी जो
यादों से दिल बहलाया है।
डरता है दिल भूल न जाओ वादों वाली बात रात की
प्यासा सावन, प्यासी रातें प्यासी न रह जाये चातकी।।

सावन जाने से पहले
आ जाओ झलक दिखा जाओ
जैसे गले लगाया था
फिर मुझको गले लगा जाओ।
ऐसा ना हो इस जीवन में दिल की न कह पाए चातकी
प्यासा सावन, प्यासी रातें, प्यासी न रह जाए चातकी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24अगस्त, 2021   

जाने कैसी अनबन है।

जाने कैसी अनबन है।   

इन किस्मत की रेखाओं से
ना जाने कैसी अनबन है
जब भी खुलकर जीना चाहा
अवरोधों से घिरा गगन है।।

दुख में सुख की करी कल्पना
तब तब खुद को तन्हा पाया
जब चले समय की राहों में
बिखरा बिखरा लम्हा पाया।।

इन बिखरे लम्हों से अपनी
फिर जाने कैसी ठनगन है
इन किस्मत की रेखाओं से
ना जाने कैसी अनबन है।।

देखो अलसाई आँखों में
रातों की सभी कहानी है
माथे की ये सिलवट सारी
सब कहती उसे जुबानी है।।

मेरी नींदों की आँखों से
क्या जाने कैसी ठनगन है
इन किस्मत की रेखाओं से
ना जाने कैसी अनबन है।।

अपने पैरों के छालों के
पीड़ा की परवाह नहीं की
चला पंथ मैं भले अकेला
मुख से लेकिन आह नहीं की।।

जाने इन राहों से मेरी
फिर ठनी रही क्यूँ ठनगन है
इन किस्मत की रेखाओं से
ना जाने कैसी अनबन है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अगस्त, 2021







श्रृंगार से सजने लगे।

श्रृंगार से सजने लगे।  

तुम जो आये जिंदगी में ये साज सब बजने लगे
मेरे मन के भावों के श्रृंगार सब सजने लगे।।

निर्वात का घेरा यहाँ था
बस शून्यता चहुँ ओर थी
बेरंग थी दुनिया मिरी ये
ना ओर थी ना छोर थी।।

तुम जो आये जिंदगी में ये शून्य सब भरने लगे
मेरे मन के भावों के श्रृंगार सब सजने लगे।।

शून्यता के उन पलों में हम
मौन खुद खोजा किये हैं
और रास्तों पे जब चले हम
मौन कुछ सोचा किये हैं।

तुम जो आये जिंदगी में ये मौन सब बजने लगे
मेरे मन के भावों के श्रृंगार सब सजने लगे।।

हाथ तेरा क्या हाथ आया
सभी रास्ते खुलने लगे
कितने गीत कोरे पृष्ठ पर
अहसास के लिखने लगे।।

धड़कनों ने गीत गाये अरु साज सब बजने लगे
मेरे मन के भावों के श्रृंगार सब सजने लगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       23अगस्त, 2021



क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।

क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।   

उम्मीदों के आसमान पर 
जाने कैसी बदली छाई
हमने जब जब हँसना चाहा
क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।।

रहे ताप में जीवन भर हम
पंथ तुम्हारा शीतल रखा
जाने कितने दंश सहे हैं
हृदय को अपने कोमल रखा।।

निर्मल रखा मन भावों को
फिर भी जाने ठोकर खाई
हमने जब जब हँसना चाहा
क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।।

दिन डूबा अरु साँझ हुई जब
हमने मन का दीप जलाया
अँधियारे को दूर किया जब
मन में बस तुमको ही पाया।।

फिर जाने क्या बात हुई जो
है मिली मुझे बस रुसवाई
हमने जब जब हँसना चाहा
क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।।

अपनी इच्छाओं को हर पल
तेरी इच्छाओं पर वारे
तुम्हें जीत दिलाने खातिर
कदम कदम पर हम तो हारे।।

जीवन की चौसर पर हमने
जाने कितनी ठोकर खाई
हमने जब जब हँसना चाहा
क्यूँ मुझे मिली बस तन्हाई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अगस्त, 2021

तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं।

तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं।  

कुछ गीत लिखे हैं जीवन के
तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं 
अगले पल की किसे खबर है
कहो अगर दिल बहला लूँ मैं।।

आने वाले पल जीवन के
जाने क्या कुछ ले आयेंगे
जाने वाले पल जीवन के
जाने क्या क्या ले जायेंगे।
इस पल में जो पास यहाँ है
कहो अगर तो अपना लूँ मैं
कुछ गीत लिखे हैं जीवन के
तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं।।

पुष्प खिले जो भी उपवन में
साँझ ढले मुरझा जायेंगे
गर इनको ना मिला सहारा
काँटों में उलझा जायेंगे।
इनके उलझाने से पहले
काँटों को सुलझा लूँ मैं
कुछ गीत लिखे हैं जीवन के
तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं।।

पल पल आशाएँ जीवन की
सुनो जरा क्या कुछ कहती हैं
जाने इस जीवन के कितने
सपने ये बुनती रहती हैं।
सपनों की इन घड़ियों में
अपना संसार बसा लूँ में
कुछ गीत लिखे हैं जीवन के
तुम कहो अगर तो गा लूँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         22अगस्त, 2021

प्रेम समर्पण।

प्रेम समर्पण।  

मेरे मृदु हिय को स्पंदित कर 
तुम इसका जीवन बन जाओ
मैं बन जाऊँ कृष्ण तुम्हारा
तुम मेरि राधिका बन जाओ।।

जो मैं बन जाऊँ त्याग यहाँ
तुम प्रेम समर्पण बन जाओ
जो बन जाऊँ शाख यहाँ मैं
तुम सुंदर कलियाँ बन जाओ।।
मैं बन जाऊँ भ्रमर यहाँ जो
तुम पुष्प वाटिका बन जाओ
मैं बन जाऊँ कृष्ण तुम्हारा
तुम मेरि राधिका बन जाओ।।

हो प्रेम स्फुटित मन उपवन में
पुष्पों से मन आच्छादित हो
रोम रोम मधु भाव जगे अरु
हृदय प्रेम से आह्लादित हो।।
मैं बन जाऊँ स्नेह मनोहर
तुम स्वर्णिम बेला बन जाओ
मैं बन जाऊँ कृष्ण तुम्हारा
तुम मेरि राधिका बन जाओ।।

धीमे धीमे बहता है मन
कुछ सुनो जरा क्या कहता है 
संग संग जीवन के कितने
ये स्वप्न सँजोते रहता है।।
मैं बन जाऊँ शब्द सुनहरा
अरु गीतों में तुम छा जाओ
मैं बन जाऊँ कृष्ण तुम्हारा
तुम मेरि राधिका बन जाओ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अगस्त, 2021






पल पल बढ़ रही है जिंदगी।

पल पल बढ़ रही है जिंदगी।  

आस के आकाश पर यूँ फल रही है जिंदगी
जाने किन किन रास्तों पर चल रही है जिंदगी
कौन जाने दूर और कौन जाने पास है
उम्र के साये में पल पल बढ़ रही है जिंदगी।।

बढ़ रही उम्र देखो रात के जाने के साथ
अरु मिलती है खुशी रात के जाने के बाद
बढ़ रहा है जितना पथिक बढ़ रही है जिंदगी
उम्र के साये में पल पल बढ़ रही है जिंदगी।।

शब्द अधरों पर कभी तुषार हैं अंगार हैं
नीड़ के निर्माण में ये भी सृजन श्रृंगार हैं
शब्द के आकाश पर कुछ गढ़ रही है जिंदगी
उम्र के साये में पल पल बढ़ रही है जिंदगी।।

अहसासों के पुण्य पल छोड़ कर कैसे चलूँ
जग से जो भी मिला वो तोड़ कर कैसे चलूँ
बंधनों की प्रीत सह सह बढ़ रही है जिंदगी
उम्र के साये में पल पल बढ़ रही है जिंदगी।।

स्वप्न पलकों में पले तो रात क्या अरु दिन क्या
उम्र के संग संग चले तो रास्तों की फिक्र क्या
गौर से सुन लो जरा कुछ कह रही है जिंदगी
उम्र के साये में पल पल बढ़ रही है जिंदगी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अगस्त, 2021

पीर लिखी मैंने बिरहन की।

पीर लिखी मैंने बिरहन की।  

जब जब भी सावन आया है, पीर लिखी मैंने बिरहन की।।

मधुमासों के बीच रहे पर
मधुमासों की आस रही
बीच समुंदर खड़े रहे पर
जाने कैसी प्यास रही।।

पल पल प्यासे उस जीवन की, पीर लिखी मैंने नयनन की
जब जब भी सावन आया है, पीर लिखी मैंने बिरहन की।।

बीच लहर तुम छोड़ चले जब
पतवारों की आस नहीं
जब डगमग डगमग नैया डोली
उस क्षण कोई पास नहीं।।

सागर से क्या करूँ याचना, गीत लिखे मैने धड़कन की
जब जब भी सावन आया है, पीर लिखी मैंने बिरहन की।।

शीतल चंदा की किरणों ने
कितनी बार जलाया है
छली गयी हैं यादें पल पल
जब जब याद दिलाया है।।

यादें जब जब तड़पाईं हैं, गीत लिखे मैंने तड़पन की
जब जब भी सावन आया है, पीर लिखी मैंने बिरहन की।।

जीवन के इस मरूभूमि को
आँखें कब तक सींचेंगी
सागर से मिलने की खातिर
नदिया कब तक तरसेंगी।।

इन पलकों में आस लिए फिर, प्रीत लिखी मैंने नयनन की
जब जब भी सावन आया है, पीर लिखी मैंने बिरहन की।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अगस्त, 2021

हौले से मुस्काना।

हौले से मुस्कना।  

अधरों का हौले से कंपन
धीरे से सब कह जाना
याद मुझे अब भी है तेरा
वो हौले से मुस्काना।।

कितनी प्यारी बातें तेरी
अरु दूर क्षितिज तक जाना
अब भी याद मुझे है तेरा
हँसना दिल को बहलाना।।

नैनों से बातें करना अरु
कहे बिना सब कह जाना
याद मुझे अब भी है तेरा
वो हौले से मुस्काना।।

हमने अपनी हर साँसों में
बस तुमको ही पाया है
जब भी तेरा जिक्र हुआ है
तकिया गले लगाया है।।

प्यारी प्यारी बातें तेरी
और तेरा वो शर्माना
याद मुझे अब भी है तेरा
वो हौले से मुस्काना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अगस्त, 2021

अब कैसे मैं तुम्हें पुकारूँ।

अब कैसे मैं तुम्हें पुकारूँ।  

कितने दूर बसे हो जाकर, अब कैसे मैं तुम्हें पुकारुँ 
कदम कदम पर लाखों पहरे, अब कैसे मैं नजर उतारूँ।।

कैसे भूल गए वो वादे
कैसे भूली बतियाँ सारी
कैसे भूले गीत मिलन के
और सुहानी रतियाँ सारी।।

मन की मन में दबी रह गयी, किसके सम्मुख उन्हें निकारूँ
कितने दूर बसे हो जाकर, अब कैसे मैं तुम्हें पुकारुँ।।

टूटे सपनों की ड्योढ़ी पर
अरमानों का भार लिए हूँ
कैसे तुमको आज बताऊँ
मन में क्या उपहार लिए हूँ।।

पलकों में कुछ अश्रू बचे हैं, बोलो कैसे उन्हें निकारूँ
कितने दूर बसे हो जाकर, अब कैसे मैं तुम्हें पुकारुँ।।

जाने कैसी भूल हुई है
जो आज सजा ये पायी है
अब किससे अरदास करूँ मैं
क्यूँ होती ना सुनवाई है।

अधरों पर पीड़ा ठहरी है,  किस विधि बोलो उन्हें निकारूँ
कितने दूर बसे हो जाकर, अब कैसे मैं तुम्हें पुकारूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अगस्त, 2021



गीत सुना दो।

गीत सुना दो।  

शब्दों को परिमार्जित कर के
अधरों पर फिर पुष्प खिला दो
जो अंतर्मन स्पंदित कर दे
कोई ऐसा गीत सुना दो।।

स्वर की गलियों से जब गुजरूँ
कानों में प्रिय रस घुल जाये
पुलकित हों हिय भाव मनहरे
अधरों के बंधन खुल जायें
खुल जाए यादों की गलियाँ
ऐसी कोई रीत चला दो
हर अंतस स्पंदित हो जाये
कोई ऐसा गीत सुना दो।।

सुर की गलियों के तुम प्यारे
शब्दों के हो राजदुलारे
गीत रचो मन को छू जाये
मन उपवन को यूँ महका रे
बंध बंध आह्लादित जिसका
ऐसा सुर संगीत सजा दो
हर अंतस स्पंदित हो जाये
कोई ऐसा गीत सुना दो।।

हिय पुलकित आशाएँ गुंजित
भावों में जो हो प्रतिबिंबित
हृद हृद में मधुमास खिला दे
अहसासों को कर के चुंबित
मिटे तपन शीतल हो जाये
पिय भावों को आज जगा दो
हर अंतस स्पंदित हो जाये
कोई ऐसा गीत सुना दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अगस्त, 2021

ये रास्ते थकते नहीं।

ये रास्ते थकते नहीं।  

ये कौन कहता है हवायें बात अब करती नहीं
मैं तो कहता हूँ दिशाएँ उसकी अब सुनती नहीं।।

एक रेखा सी खिंची है हर आशियाने में यहाँ
और तुम कहते हो यहाँ वो रेख अब दिखती नहीं।।

है कितनी आवाजें लगाई उम्र ने हर मोड़ पर
मैं कैसे अब कह दूँ यहाँ के उम्र कुछ कहती नहीं।।

कितना कुछ झेला है उसने इस जिंदगी के वास्ते
अब कैसे कह दूँ मैं यहाँ ये उम्र कुछ सहती नहीं।।

भीड़ हो तनहाइयाँ हों मंजिलें हों या के सफर
ये रास्ते हैं विश्वास के ये उम्र भर थकते नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        18अगस्त, 2021

कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।

कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।  

जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये
कुछ माला में गूंध गए अरु
कुछ पग पग पर ठोकर खाये।।

पलकों ने कब चाहा उसके
प्रिय अश्रू गिरे अरु मिट जायें
आहों ने कब चाहा दिल के
अरमान गिरे अरु मिट जायें
हंसे कभी कभी रोये अश्रू
और कभी बदली बन छाये
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

अंतर्मन ने कब चाहा है
भाव दबे और कुम्हलायें
मधुमासों ने कब चाहा है
हाय बिरह की वो पीड़ाएँ
आशाओं के महाकुंभ में
हैं अंतर्मन की ज्वालायें
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

पग पग दीप जलाए जितने
आस प्राण में आये उतने
अहसासों की पृष्ठ भूमि पर
स्वप्न सुनहरे आये उतने
पलकों की ड्योढ़ी पर सपने
कभी हँसाये कभी रुलाये
जीवन के इस महासमर में
कुछ पुष्प खिले कुछ मुरझाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अगस्त, 2021


चंद मुक्तक।

चंद मुक्तक।  

अपने गीतों में नहीं कुछ और लिखना चाहता हूँ
चाहता हूँ चंद लम्हे खुद को जीना चाहता हूँ।।
क्या करोगे जानकर के दर्द कितना था बड़ा 
दर्द वो मेरा है उसको मैं ही जीना चाहता हूँ।।

ये जो वीणा बज रही मैं भी उसका तार हूँ
जैसे तुम उपहार हो मैं भी इक उपहार हूँ
भेद बस इतना यहाँ कि तुम हो महलों में पले
और माटी में पला मैं मौन इक आकार हूँ।।

गाँव की वो पगडंडियाँ इतरा उठी तब झूम कर
जब शहर के रास्ते कल उससे मिले थे चूम कर
मौन शब्दों में कहा था चाहे कहीं भी तुम रहो
जब भि गुजरो तुम इधर से देख लेना घूम कर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अगस्त, 2021

सुनने का रिवाज।

सुनने का रिवाज।  

जाने क्यूँ हलकों से अब भी
निकल रही आवाज  नहीं
लगता है यूँ कंठ दबे हैं
आती कुछ आवाज नहीं।
दरद विकल हो मचल रहा
सुनता क्यूँ सरताज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।

भटक रही फिर आज जिंदगी
अपना अस्तित्व बचाने को
चीख रहे हैं आज अश्रू फिर
पलकों से बाहर आने को
आँसू के इस विकल वेदना
को मिलती क्यूँ आवाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।

कहीं द्रौपदी चीख रही है
अट्टाहासों के बीच विकल
कहीं जल रही है सैरंध्री
है सोया क्यूँ ब्रम्हांड सकल
क्या कान्हा तक गूंजती चीख
की जाती अब आवाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।

धनलोलुपता में ही कितने
संस्कारों को कुचल रहे हैं
राष्ट्र धरम और मर्यादा को
देखो कैसे कुचल रहे हैं
चलचित्र में फिर अश्लीलों पर
क्यूँ गिरती कोई गाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।

ऐसे संस्कृति सिसक सिसक कर
मचल मचल कर गिर जाएगी
अवसादों के बीच फँसी तो
तड़प तड़प कर मर जाएगी
चलो बचा लें जीवन अपना
फिर न हो ये मोहताज कहीं
फिर से अब ना कोई कहे कि
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         16अगस्त, 2021

आज लेखनी फिर अकुलाई।

आज लेखनी फिर अकुलाई।  

आज लेखनी फिर अकुलाई
पीड़ा बन भावों में आई।।

मन का पंछी आकाशों में
जब जब रास्ता कोई ढूँढे
व्याकुल सपनों की ड्योढ़ी पर
खुद से खुद का रास्ता पूछे
मन के इस दीवानेपन में
भावों ने ली है अँगड़ाई
आज लेखनी फिर अकुलाई
पीड़ा बन भावों में आई।।

पग पग शब्दों का मेला है
जीवन सुख दुख का खेला है
कहीं घिरे हैं काले बादल
कहीं बारिशों का रेला है
बनते और बिगड़ते पथ में
घावों में उम्मीदें लाई
आज लेखनी फिर अकुलाई
पीड़ा बन भावों में आई।।

जिसने घावों को सहलाया
अवसादों में भी बहलाया
पल पल गीत बुने हैं जिसने
पीड़ा में भी गीत सुनाया
रहा अल्प में जीवन भर जो
उसकी कौन करे सुनवाई
आज लेखनी फिर अकुलाई
पीड़ा बन घावों में आई।।

हर धड़कन महसूस किया है
खुशियों खातिर दरद जिया है
जग को है मधु दिया हमेशा
नीलकंठ बन जहर जिया है
अचल रहा जो पुण्य पंथ पर
उसकी आँखें क्यूँ भर आईं
आज लेखनी फिर अकुलाई
पीड़ा बन घावों में आई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16अगस्त, 2021


थक कर जाने सो जाता है।

थक कर जाने सो जाता है।  

सन्नाटों के बीच कहीं पर
जीवन सिमटा खो जाता है
अस्तांचल तक जाते जाते
थक कर जाने सो जाता है।।

बैठ किनारे नदिया देखो
माँझी कितना स्वप्न सँजोता
आती जाती लहरों में वो
कभी सँभलता कभी भिंगोता।
कभी खोल नौका के बंधन
धारा में गुम हो जाता है
अस्तांचल तक जाते जाते
थक कर जाने सो जाता है।।

ऊँचे ऊँचे परबत सारे
आकाशों को चूम रहे हैं
मन के सारे भाव सुनहरे
पंछी बन कर घूम रहे हैं।
पंखों की होड़ा होड़ी में
डूब कहीं गुम हो जाता है
अस्तांचल तक जाते जाते
थक कर जाने सो जाता है।।

उगी चाँदनी कहीं दे रही
नव जीवन की नई चेतना
सन्नाटों की आवाजों में
सुनो आ रही नई सूचना।
नई चेतना पाने खातिर
अहसासों में खो जाता है
अस्तांचल तक जाते जाते
थक कर जाने सो जाता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15अगस्त, 2021

तुमसे इतना प्यार मिला है।

तुमसे इतना प्यार मिला है।   

पीड़ा का पथ हुआ सुनहरा
तुमसे इतना प्यार मिला है
ऐसा लगता है जीवन में
जीवन पहली बार मिला है।।

भटका भटका जीवन कितना
तुमसे मिलकर मैंने जाना
खुद से दूर हुआ था कितना
तुमको देखा तब पहचाना
दर्पण के चेहरे में मुझको
खुशियों का अंबार मिला है
पीड़ा का पथ हुआ सुनहरा
तुमसे इतना प्यार मिला है।।

गुम था मैं तो वीराने में
सन्नाटे में पड़ा हुआ था
सागर के नजदीक रहा पर
प्यासा ही मैं पड़ा हुआ था।
तेरे चाहत की बारिश से
जीवन में मधुमास खिला है
पीड़ा का पथ हुआ सुनहरा
तुमसे इतना प्यार मिला है।।

तेरी चाहत की छाया में
बिखरा जीवन खिल जाएगा
अँधियारे में जलते जलते
दीपक सूरज बन जायेगा।
नीरसता से भरे गगन को
अब बाहों का हार मिला है
पीड़ा का पथ हुआ सुनहरा
तुमसे इतना प्यार मिला है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         15अगस्त, 2021




दुनिया में तेरा मान रहे।

दुनिया में तेरा मान रहे।  

राष्ट्र मेरे ऐ राष्ट्र मेरे
ऊंचा तेरा सम्मान रहे
जब तक ये सूरज चन्द्र रहे
दुनिया में तेरा मान रहे।।

मेरे जैसे कितने जीवन
तेरी गोदी में पलते हैं
क्या मुरझायेगा पुष्प यहाँ जो
तेरी माटी में खिलते हैं।
तूने सींचा तूने पाला
ऊंचा ये तेरा भाल रहे
जब तक ये सूरज चन्द्र रहे
दुनिया में तेरा मान रहे।।

इस गोदी में गाँधी गौतम
श्री राम कृष्ण बलराम पले
वीर शिवाजी, राणा, लक्ष्मी
अरु कण कण में भगवान पले।
गीता वेद पुराण उपनिषद
रहती दुनिया तक ज्ञान रहे
जब तो ये सूरज चन्द्र रहे
दुनिया में तेरा मान रहे।।

नदियों में तेरी खुशियाँ हैं
खेतों में खिलती कलियाँ हैं
कर रही सुशोभित दुनिया को
ऐसी रोशन ये गलियाँ हैं।
तुझसे दुनिया को ज्ञान मिला है
हर दिल में ये अभिमान रहे
जब तक ये सूरज चन्द्र रहे
दुनिया में तेरा मान रहे।।

बस इतनी सी चाहत मेरी
जनम जनम तुझको ही पाऊँ
जब जब भी कोई गीत रचूं
और नहीं बस तुझको गाऊँ।
तुझसे ही है जीवन मेरा
अरु तुझपर अर्पित जान रहे
जब तक ये सूरज चन्द्र रहे
दुनिया में तेरा मान रहे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अगस्त, 2021

आजादी को पूज रहे हम।

आजादी को पूज रहे हम।  

व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं
जन गण मन के भीतर देखो
इक दूजे को ढूँढ़ रहे हैं।।

आजादी कब सरल रही है
बरसों से सुनते आए हैं
पग पग अगणित कष्ट सहे हैं
तब जाकर ये दिन आये हैं।
इस दिन की गुरुता को देखो
इक दूजे में ढूँढ़ रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

जात पात अरु ऊंच नीच के
भेद हृदय को बींध रहे हैं
राजनीति अब चाल बदल कर
वोटों की मुट्ठी भींच रहे हैं।
अब गिरती शुचिता में क्यूँ सब
निज लाभों को खोज रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

अवसरवादी नारे सारे
भारत का पथ भरमाते हैं
भृष्ट आचरण धन लोलुपता
क्यूँ कुछ लोगों के मनभाते हैं।
राजनीति में शुचिता जैसे
कंकर-चावल खोज रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

खण्डित नारों से जा कह दो
उनका जीवन पूर्ण हो चुका
पग पग पर हैं अटल इरादे
भारत अब संपूर्ण हो चुका।
लेकिन घर के भेदी को फिर
आँगन में क्यूँ पाल रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

चाल चरित्र जाने कब बदला
कैसे बदले पुण्य हमारे
सत्ता तक जाने की खातिर
कब बदले सिद्धांत हमारे।
सिद्धांतो की बलि देकर हैं
सिद्धांतों को ढूँढ़ रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

भारत नव निर्माण चाहता
सपनों का आकार चाहता
निकल व्याधि औ जंजीरों से
नूतन अब आकाश चाहता।
आओ सब मिल पंथ बुहारें
अब भी हम क्या ढूँढ़ रहे हैं
व्याकुलता के शीर्ष पर खड़े
आजादी को पूज रहे हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अगस्त, 2021











मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ।

मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ।   

मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ
है ये इतिहास सुनहरा मेरा
मैं चतुरदिषाएँ जोड़ रहा हूँ।।

मैं आजादी का नायक हूँ
मैं राष्ट्र गीत का गायक हूँ
मैं जन जन की विकल भावना
मैं राष्ट्र प्रेम का वाहक हूँ।।
राष्ट्र भावना जनमानस में
सदियों से मैं घोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

अंग्रेजों ने खींच लकीरें
भारत लहूलुहान किया था
अपने स्वार्थ सिद्धि की खातिर
जन गण का अपमान किया था
अंग्रेजों के दमन चक्र की
उन पन्नों को खोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

लक्ष्मी, तांत्या, मंगल पांडे
नाना कितने वीर चले हैं
लिए मशाल क्रांति की देखो
बन कर के रणवीर चले हैं।।
तन मन धन सब किया समर्पित
उनकी गाथा बोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

मैं मुक्ति युद्ध बन पलता हूँ
मैं अंगारों पर चलता हूँ
भारत की मृदु स्मृति बनकर के
मैं जन गण मन में मिलता हूँ।।
वीरों की उस मधुर कल्पना
जज्बातों को बोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

मैं चाल चरित्र का द्योतक हूँ
मैं राष्ट्र प्रेम का पोषक हूँ
मैं बलिदानों का मूल मंत्र
मैं उम्मीदों का पोषक हूँ।।
राष्ट्र प्रेम की अलख जगा दे
मैं ऐसा रास्ता खोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

अत्याचारों से पीड़ित हो
जनता आवाज उठाई थी
धर्म राष्ट्र का भाव लिए ही
आशा की ज्योति जगाई थी।।
ज्योति जली बरसों पहले जो
मैं उसकी गाथा बोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

धर्म जाती मजहब ना कोई
इक सूत्र सब बंधे हुए थे
आजादी का प्रण लिए सभी
संकल्पों में गुंधे हुए थे।।
संकल्पों के भाव सभी वो
जन गण मन में घोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

आजादी के दीवानों पर
पग पग पर दमन चलाया था
अरु अंग्रेजी आतंकों ने 
भारत का लहू बहाया था।।
लहू बहे आजादी खातिर
मैं गीतों में बोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

एक सूत्र में भारत बांधा
मिलकर कई निशाना साधा
सदियों से खंडित भारत की
आस्थाओं को फिर से बांधा।।
त्याग, समर्पण शौर्य पराक्रम
की गाथा मैं बोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

आजादी का पंथ सुनहरा
अवसादों में ना अब घोलो
अभिव्यक्ति की आजादी है
इसमें कोई विष ना घोलो।।
अभिव्यक्ति की राष्ट्र भावना
राष्ट्रवाद बन घोल रहा हूँ
मैं सन सत्तावन बोल रहा हूँ
आजादी का पथ खोल रहा हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अगस्त, 2021

मैंने रीत लिखे

मैंने रीत लिखे।  

मैंने मर्यादित भावों से शब्द चुने फिर गीत लिखे
शिष्ट सृजन को शब्द चुने तब जाकर के गीत लिखे।।

सूरज से ली तपिश यहाँ पर
चंदा से शीतलता ली है
लिया पवन से मुक्त भाव अरु
तारों से चंचलता ली है।
शब्दों का आलिंगन कर के अपने मन के मीत लिखे
शिष्ट सृजन को शब्द चुने तब जाकर के गीत लिखे।।

लिया पुष्प से खुशबू मैंने
पातों से हरियाली ली है
अवनी से संबल पाया है
अंबर की रखवाली ली है।
पात पात पिय पुष्प चुने तब प्रीत गढ़े नवगीत लिखे
शिष्ट सृजन को शब्द चुने तब जाकर के गीत लिखे।।

लिया प्रखर भावों को जग से
अंतस में प्रिय भाव जगाया
पल पल बीत रहे लम्हों में
जो पाया गीतों में गाया।
जग से लेकर जग को देकर जग की प्रचलित रीत लिखे
शिष्ट सृजन को शब्द चुने तब जाकर के गीत लिखे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदरबाद
        08अगस्त, 2021


संकल्प।

संकल्प।  

भावनाएँ दृढ़ हैं जो फिर, मुश्किलों की क्या फिकर
चल पड़े दो पग जिधर भी, हैं रास्ते खुलते उधर।।
वट वृक्ष की है आस तो संकल्प भावों में जगा
छाँव भी मिल जाएगी तू दो कदम आगे बढ़ा।।

है वही जीता यहाँ जग जिसने खुद को पा लिया
आँधी में तूफानों में खुद को जो अपना लिया
रास्ते खुद चल पड़े देख कर के उसका हौसला
त्याग, तप, संकल्प जिसने हँस के है अपना लिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अगस्त, 2021

खामोशी से कहना है।

खामोशी से कहना है।  

सीने में तूफान हजारों
आँखों में क्यूँ सूनापन है
खामोशी के कोने में भी
कहीं छुपा वो अपनापन है।
माना इक खामोशी पसरी
पर मुश्किल अब चुप रहना है
जो भी भाव हृदय में जागे
हाँ, खामोशी से कहना है।।

मासूम निगाहों ने देखो
पलक झुका कर सब कह डाला
अधरों ने भी कंपन कर के
बिना कहे सब कुछ कह डाला।
नैनों ने जब बातें कह ली
फिर अधरों से क्या कहना है
जो भी भाव हृदय में जागे
हाँ, खामोशी से कहना है।।

साँसों की सरगम गा गाकर
करती कितने मधुर इशारे
स्वप्नों को भी पंख लगे हैं
आशाएँ भी राह निहारे।
आशाओं ने पंथ बुहारा
मौन नहीं अब रहना है
जो भी भाव हृदय में जागे
हाँ,  खामोशी से कहना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अगस्त, 2021

पतझड़ फिर ना आने देना।

पतझड़ फिर ना आने देना।  

ले आये हो मधुवन में तुम
पतझड़ फिर ना आने देना
फिर से आस बँधाई तुमने
उसे नहीं अब मिटने देना।।

मेरी साँसों की वीणा के
ताल तुम्हीं हो राग तुम्हीं
मेरे भावों की थिरकन के
गीत तुम्हीं हो राग तुम्हीं
अपने गीतों के सरगम में
मेरे गीत मिलाने देना
ले आये हो मधुवन में तुम
पतझड़ फिर ना आने देना।।

मेरे जीवन के पृष्ठों पर
अंकित इक इक छंद तुम्हीं
मेरे अंतस के ग्रंथों को
जो भाये हैं वो मंत्र तुम्हीं
पंक्ति पंक्ति हैं शब्द सुनहरे
ये भाव नहीं खोने देना
ले आये हो मधुवन में तुम
पतझड़ फिर ना आने देना।।

कितनी मन्नत बाद मिले हैं
नैनों से बरबस मधु ढलके
आशाओं के पुष्प खिले हैं
हिय मृदु मधुरिम मधुरस छलके।
पलकों में चाहत बन बसना
स्वप्न सुनहरे रचने देना
ले आये हो मधुवन में तुम
पतझड़ फिर ना आने देना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अगस्त, 2021



हृदय की प्यास।

हृदय की प्यास।  

मधु का प्याला पास रहा पर
प्यास हृदय की बुझ ना पायी
कहने को पल पल साथ रहा पर
आस मिलन की मिट ना पायी।।

हम दोनों के बीच न जाने
कैसी ये मजबूरी है
पास पास रहकर भी देखो
जाने कैसी दूरी है।
अहसासों के साथ जिये पर
अहसास कभी कह ना पाए
मधु का प्याला पास रहा पर
प्यास हृदय की बुझ ना पायी।।

चले दूर तक जीवन पथ में
इक दूजे का साथ रहा 
छाँव मिली या धूप मिली हो
पल पल अपना साथ रहा।
साथ रहे हम इक दूजे के
मन की लेकिन कह ना पाये
मधु का प्याला पास रहा पर
प्यास हृदय की बुझ ना पायी।।

लम्हों ने जो रची कहानी
सदियाँ उसको दुहराएँगी
हमने जैसी रीत निभायी
रीत वही गायी जायेंगी।
पल पल हमने पंथ बुहारे
लेकिन खुद ही चल ना पाये
मधु का प्याला पास रहा पर
प्यास हृदय की बुझ ना पायी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2021

हल्ला बोल दिया।

हल्ला बोल दिया।   

थे खुले हृदय के द्वार सभी
कानों में मिसरी घोल दिया
सिंहनाद कर इतिहासों ने
केसर का बंधन खोल दिया।।

सदियों से छाती पर अपने
इक नश्तर सा था चुभा हुआ
इक धारा बन टीस उभरती
दर्द सा दिल में था दबा हुआ
दूर हुआ नश्तर वो दिल का
अंतस में चंदन घोल दिया
सिंहनाद कर इतिहासों ने
केसर का बंधन खोल दिया।।

दशकों से आतंकी कितने
विष भारत में घोल रहे थे
गली मुहल्ले चौराहों पर
खुले आम विष घोल रहे थे
जंग लगे काले ताले को 
अब आगे बढ़कर खोल दिया
सिंहनाद कर इतिहासों ने
केसर का बंधन खोल दिया।।

कदम कदम पर हमने अपने
कितने ही सैनिक खोये हैं
जब जब देखा ध्वज में लिपटे
सब खून के आँसू रोये हैं
बँधे हाथ थे कल तक जो भी
सब इक झटके में खोल दिया
सिंहनाद कर इतिहासों ने
केसर का बंधन खोल दिया।।

अब भारत की धरती पर बस
भारत के नारे गूंजेंगे
पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सब
बस भारत माँ को पूजेंगे
आतंकी मंसूबों पर अब
जन गण ने हल्ला बोल दिया
सिंहनाद कर इतिहासों ने
केसर का बंधन खोल दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अगस्त, 2021




भूले बिसरे दीवाने- आजादी के।

भूले बिसरे दीवाने- आजादी के।  

काल खंड के शिला लेख पर
कितनी ही अमिट कहानी है
कुछ को है आकार मिला अरु
कुछ बाकी अभी सुनानी है।।

आजादी के दीवानों ने 
खुद मिट कर इतिहास बनाया
निज प्राणों की आहुति देकर
जीना क्या हमको सिखलाया।
और सिखाया जीवन पथ पर
चल, कैसे डगर बनानी है
कुछ को है आकार मिला अरु
कुछ बाकी अभी सुनानी है।।

पुण्य पंथ पर शीश नवा कर
अगणित जीवन निखर गये हैं
कुछ ने है इतिहास बनाया
कुछ पन्नों में सिमट गये हैं।
जो सिमटे पन्नों में दबकर
जन जन को आज बतानी है
कुछ को है आकार मिला अरु
कुछ बाकी अभी सुनानी है।।

कितनों ने बलिदान दिए जब
तब ये धरती मुस्काई है
कितनों ने शोणित से सींचा
तब ये फसलें लहराई हैं।
कुछ के त्याग लिखे गीतों में
अरु कुछ की अभी सुनानी है
कुछ को है आकार मिला अरु
कुछ बाकी अभी सुनानी है।।

आजादी की बलि बेदी पर
कितने हँस कर झूल गए
जग को राह दिखाने खातिर
वो अपना रस्ता भूल गए।
बिसर गए जो इतिहासों में
उनकी पहचान बतानी है
कुछ को है आकार मिला अरु
कुछ बाकी अभी सुनानी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04अगस्त, 2021


फिर वही मुलाकातें।

फिर वही मुलाकातें।  

बड़ी मुश्किल से बीते दिन बड़ी मुश्किल हैं ये रातें
चले आओ तुम्हारे बिन कहूँ मैं किससे ये बातें।।

के सारा दिन गुजरता है तुम्हारी याद में खोकर
औ रातों को जगाती हैं तुम्हारे प्यार की बातें।।

था दुआओं में यही माँगा तुम्हारा साथ न छूटे
सुनाऊँ किसको मैं तुम बिन तुम्हारे साथ की बातें।।

तुम्हारे प्यार में डूबे तो जाना जिंदगी क्या है
कहो कैसे मैं भूलूँगा अब पुरानी वो मुलाकातें।।

अधूरे ख्वाब हैं मेरे अधूरी मेरी तमन्नाएं
नहीं भाती तुम्हारे बिन मुझे अब कोई सौगातें।।

कहीं ऐसा न हो के जिंदगी नया कुछ घाव दे जाए
चलो फिर अजनबी बन जायें करें फिर से मुलाकातें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02अगस्त, 2021

आशाओं के पुष्प।

आशाओं के पुष्प।  

आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता छल
कितने पाए कितने बाकी
नए शिखर तू चढ़ता चल।।

नहीं फिकर कर जीवन पथ की
कितने आये बीत गए
माना कुछ में हार मिली है
लेकिन कितने जीत गए।
हारे का अफसोस न कर तू
रीत नई तू गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

तू इस पथ का लेश मात्र है
खुद पर तू अभिमान न कर
कभी झुका जो जीवन पथ में
उसका तू अपमान न कर।
मान अभिमान से ऊपर कर
प्रतिमान नए गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

हार जीत अरु लोभ मोह सब
मिथ्या है आभासी है
जीवन पथ में वही खिला जो
अंतस से सन्यासी है।
किंतु परंतु से ऊपर उठ कर
नए पंथ तू गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जुलाई, 2021


पितामह

            पितामह   

भाग-1

सूर्य भी अस्त हो चला और चाँद भी धुँधला हुआ
वहाँ नीरवता के शिखर पर मौन था ठहरा हुआ।

प्रश्न लाखों मौन आज अंतस में गुंजित हो रहे 
और बनकर शूल कितने घायल हृदय को खल रहे।

थी घड़ी वो कौन सी जब मौन ने निर्णय लिया था
शब्द थे गूँजे हृदय में वक्त ने भी कुछ कहा था।

उस कहे का भान क्यूँकर वक्त ने अनदेखा किया
लम्हों के उस दोष ने सदियों को इक मौका दिया।

काश उस क्षण प्रण मेरा भावों के न आड़े आता
आज इस रणभूमि में मैं स्वयं को न पड़े पाता।

जिस दिन एक मर्यादा लुटी थी मौन उस दरबार में
रक्त पलकों से गिरे थे उस निकृष्टतम वार से।

बस कुल की मर्यादा नहीं वो लाज थी संसार की
जिसके कोमल भावों पर कुदृष्टि पड़ी खूंखार थी।

क्रमश:

पितामह- भाग-2

सूर्य का रथ रुक गया अरु चंद्र भी कुंठित हुआ था
स्वार्थ लोलुप केंद्र में जब सभ्यता कुंठित हुई थी।

लाज और श्रृंगार आखिर विषय बने उपहास की
और सहसा रुक गयी थी वो मौन गति आकाश की।

एक पल का वो वचन अब आज भारी पड़ रहा था
छाँव दिया वट वृक्ष बन जो आज टूटा गिर पड़ा था।

ईश जाने चाहता था ना कभी उपहास उस पल
फिर भी क्यूँ न रोक पाया जब गिरा आकाश उस पल।

क्यूँ कर सभी धमनियों का रक्त पानी हो गया था
देखते देखते इतिहास मनमानी कर गया था।

उस एक पल में लिख गयी थी पटकथा संहार की
कैसे बदली थी व्यथा और वेदना संसार की।

क्रमशः----

पितामह- भाग-3

गूँज रहे थे द्यूत में जो शब्द सभी अपमान थे
नीतियों के पाश में बंधे सत्य सब सुनसान थे।

ये सत्य ही तो था के, अहंकार का विष घुल चुका था
द्यूत की आड़ में नित्याचार में विष घुल चुका था।

विद्रोह भी ना कर सका था कटु सत्य वो स्वीकार था
न चाह कर भी मौन बैठा समय बड़ा लाचार था।

उस कक्ष के वो खेल सत्य के हृदय को खल रहे थे
ज्ञान को सम्मान को संस्कार तक को छल रहे थे।

था नियति का दोष अरु षड्यंत्र थी वो बीमार की
दाँव पर जब जा लगी थी वो लाज इस संसार की।

दर्प के स्वर में छुपे थे व्यंग्य के कितने प्रहार
अब लुट रहे थे भाव सारे अरु मिट चले थे संस्कार।

किंतु अट्टहास के क्षण में इक हृद विकल हो रहा था
मौन कुछ न बोलता अंदर से पर वो रो रहा था।

क्रमशः----

पितामह- भाग-4

बाण की शैया का मुझको अब ना कोई क्लेश है
है मेरे कुछ कर्म ऐसे जिन्हें भोगना शेष है।

थी हलाहल जिंदगी जिसे आज तक पीता रहा हूँ
सत की स्थापना को बन नीलकंठ जीता रहा हूँ।

चाहता कब था यहाँ मैं के युद्ध का निर्माण हो
पर जब भी धरम युद्ध हो बस सत्य ही स्वीकार हो।

है बहुत मुश्किल यहाँ पर देखना सब खोता हुआ
कैसे देखा मैंने सोचो सत्य को रोता हुआ।

थी समय की चाह या फिर दोष था मेरा वहाँ पर
क्यूँ नहीं मैं रोक पाया सत्य जब बिखरा वहाँ पर।

सत्य पर आघात से मेरी शिराएँ रो पड़ी थी
मौन सम्मुख था सभी के आत्माएँ रो पड़ी थी।

क्यूँ बहा ये रक्त सारा दोष किसके सर मढूं मैं
क्या कहूँ अब वक्त से मैं गल्प कैसा अब गढूं मैं।
क्रमशः----

पितामह- भाग-5

इतिहास के अध्याय में ये पृष्ठ कैसा जुड़ गया
जोड़ने को मैं चला था पर वक्त कैसे मुड़ गया।

बन गया ये चित्र कैसे पृष्ठों में अत्याचार का
खींच गयी लकीर कैसे कुटिलता के व्यवहार का।।

अन्याय, अत्याचार का परिणाम अंधे मोह का
विध्वंस ये अपकर्ष ये परिणाम है ये द्रोह का।।

है बहाया रक्त मैंने भगवान अब मैं क्या करूँ
स्वयं का जब दोष हो तो फिर माफ मैं कैसे करूँ।।

शब्दों के इस खेल ने मुझे घाव ये कैसा दिया है
चीर कर मेरे हृदय को रक्त ये मेरा पिया है।।

रक्त से सींची जमीं पर सत्य हो विह्वल पड़ा है
जीत कर के युद्ध को पर मौन हो कर क्यूँ खड़ा है।।

विध्वंस की इस चीख को बोलो यहाँ कैसे सहूँ
जब गिरा अभिमन्यु मेरा कहो दर्द वो कैसे कहूँ।।

वज्र सा टूटा यहाँ तब रक्त जब जब भी गिरा है
मैं मरा हर बार जब भी वीर धरती पर गिरा है।।

सत्य की स्थापना का ये मोल महँगा क्यूँ हुआ
जग से मैं अब क्या कहूँ पितामह विफल कैसे हुआ।।

क्रमशः----

पितामह- भाग-6

है समर ये शेष तब तक साँसों में जब तक साँस है
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब उत्तर ना मेरे पास है।।

सत्य है ये युद्ध में विध्वंस कितना हो चुका है
अब शोक मैं किसका करूँ व्यंग्य कितना हो चुका है।।

आज इस रणभूमि में सब लोग कितने जा चुके हैं
द्वेष, हाहाकार से, अभिमान से उकता चुके हैं।।

मन प्रमुख हो सोचता है स्वार्थ की बातें जहाँ पर
कौन फिर रोक पायेगा महाभारत वहाँ पर।।

एक पक्ष इस पार देखो दूसरा उस पार बोलो
इस हार में और जीत में मैं ही गिरा हर बोलो।।

अब आज इस विध्वंस के पश्चात भी कुछ शेष है
सत्य क्यूँ भटका यहाँ पर मन में यही बस क्लेश है।।

सोचता था के मैं चलूँगा वक्त पीछे छोड़कर
शेष है क्या पास मेरे पश्चाताप को छोड़कर।।

हाय, उस काल में यदि अन्याय को मैं रोक पाता
सत्य की स्थापना का ये मोल फिर ना मैं चुकाता।।


क्रमशः-----

पितामह- भाग-7
वज्र था टूटा वहाँ और भाग्य भी तब गिर पड़ा था
श्वेत धवल अंक में जब ज्ञान हो धूमिल पड़ा था।

आज सारा मौन सम्मुख प्रश्नवाचक बन खड़ा है
हाय, नियति का खेल कैसा सत्य धरा पर पड़ा है।

बाण की शैया मिली है शायद ये मेरा कर्म है
फिर सत्य की स्थापना हो अब बस ये मेरा धर्म है।

जाने में समय शेष है, हे मृत्यु थोड़ा और रुक
संस्कारों का समर है अभी वक्त थोड़ा और रुक।

कैसे चल दूँ छोड़ कर मैं बीच सत्य को राह में
सत्य की स्थापना हो बस जी रहा हूँ इस चाह में।

हाथ जोड़े मृत्यु भी तब मौन जड़वत हो गयी थी
सत के सम्मुख समय की धार मद्धिम हो गयी थी।

पूछता हिय आज खुद से हार ये किसकी हुई है
वक्त से क्या रार ठानी हार ये मेरी हुई है।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         02अगस्त, 2021


सत्य की आह।

सत्य की आह।   

है पूछता ये दर्द मुझसे क्या यही संसार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

घाव पर है घाव मिलते जो चले सतमार्ग पर
शब्दों के क्यूँ वार सहते मौन इस संसार के
कैसी व्यथा और वेदना अंक में ये पल रही
है मिल रहा आघात क्यूँ कर रास्तों में प्यार के।।

फर्ज की ही गोद में सब मोक्ष पलते हैं सुना है
त्याग, तप, बलिदान से हि मोक्ष मिलते हैं सुना है
ज्ञान और संज्ञान के सिर क्यूँ हो रहा वार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

बींधने को हैं खड़े, भर शब्दों को तूणीर में
मोक्ष कैसा मिल रहा कहो दूसरों की पीर में
आज तानों से भरा अरु गूँज रहा संसार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

सत्य की राहों में खड़े जाने अवरोध कितने
लिए आत्मा भी सह रही जाने अब बोझ कितने
आत्मा के बोध को क्यूँ मिलता नहीं आकार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

तानों के विध्वंस से आकाश धूमिल हो रहा
झूठ का आतंक कैसे सत्य को यूँ दंश रहा
सत की राहों में हमेशा क्यूँ बिछा अंगार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

क्यूँ किसी का झूठ संबंधों पे भारी पड़ रहा
क्यूँ कोई कर्तव्य यहाँ अवसाद बनकर खल रहा
कर्तव्यों को धूमिल करे कैसा ये अधिकार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25जुलाई, 2021


जीवन मृत्यू की बाजी।

जीवन-मृत्यू की बाजी।  

पग पग जीवन बीत रहा है
पल पल घट घट रीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

कंकण पत्थर के जंगल मे
मौन अकेला खड़ा हुआ हूँ
जाने कितने बोझ लिए मैं
बीच राह में पड़ा हुआ हूँ
आते जाते इन राहों में
पल पल जीवन बीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

वाणी में इक द्वंद छिड़ा है
कौन उठा है कौन गिरा है
बहती जीवन की धारा में
कभी उठा है कभी गिरा है
गिरते पड़ते इन राहों में
पग पग सपना बीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।। 

हिय में पोषित अभिलाषाएँ
अधरों पर गुंजित गाथाएँ
पलकों पर ले स्वप्न सुनहरे
चल रही यहाँ हैं आशाएँ
आशाओं के आसमान में
झर झर सपना रीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

है पुण्य समिध जीवन अपना
कर रहा हवन पूरा अपना
पुण्य समर्पित भाव लिए ये
बना हृदय भागीरथ अपना
सहज कहाँ गाथाएँ इतनी
अधरों पर ये गीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जुलाई, 2021
 
 

सुंदरता की चाह।

सुंदरता की चाह।  

प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो
शक्ति प्रभावी होती दिल में
अंगारों की दाह जहाँ हो।।

सूना आँगन खिल जाता है
प्रेम जहाँ सुरभित होता है
बिखरा जीवन खिल जाता है
भाव जहाँ पुलकित होता है
गीत गूँजता है उस दिल में
साजों का सम्मान जहाँ हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

है श्वेत धवल सा प्रसार ये
आशाओं का पुण्य हार ये
मृदुल कल्पना का सागर है
अरु भरोसे का विस्तार ये
पग पग पर अभिलाषाओं का
भावों का सम्मान जहाँ हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

बाधा सब निस्तारित होता
वैभव भी विस्तारित होता
भावों की सुंदरता खिलती
अंतरतम आह्लादित होता
अंतस पर सुविचारों का अरु
हिय पर मृद मधु प्रिय अथाह हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2021







अवसर।

अवसर।   

जला ताप में पल पल जिसने
जीवन को अंगार किया
सबको छाँव दिलाने खातिर
पग पग पर अविकार जिया।
जीवन पथ की बाधाएं भी
जिन्हें डिगा न पायी हैं
जिनके तप बल के प्रभाव से
उम्मीदें मुस्काई हैं।
अगणित दीप जलाकर जिसने
रोशन ये संसार किया
जाने कितने बोल सहे हैं
कभी नहीं प्रतिकार किया।
पल पल खुद तो गरल पिया है
औरों को मधु दान किया
निज कष्टों की परवाह नहीं
औरों को वरदान दिया।
चकाचौंध जिसको ना भाया
प्रतिपल कर्तव्य निभाया
काँटों की परवाह नहीं की
पथ पथ पर पुष्प बिछाया।
साँझ ढले जीवन बेला में
उनके काँटे मत बोना
लेना उनका आशीष सदा
पाया अवसर मत खोना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2021

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...