तक्षक- भारत का गौरव।
चीख चीख कर बोल रहा है
कान खोल कर सुन लो प्यारों
बातें सच्ची खोल रहा है।।
भूल ना जाना तक्षक को तुम
प्रतिकार यहाँ सिखलाया था
जो जैसी भाषा में समझे
उसको वैसा समझाया था।।
कासिम के वारों से बीती
यहाँ सदी थी वो चौथाई
टूट चुके थे मंदिर मठ सब
धरती की आँखें भर आयीं।।
अपने अभियानों में उसने
एक युवा ना जीवित छोड़ा
जो भी सम्मुख खड़ा हुआ था
उसका शीश झुका कर छोड़ा।।
आठ बरस का था बालक वो
जिसने देखा मनुज का भक्षक
वही कथा का मुख्य पात्र है
प्यारों उसका नाम है तक्षक।।
सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक
थे पिता वीरगति को पाया
उस अरब सेना ने गाँव में
फिर जमकर उत्पात मचाया।।
खींच खींच कर महिलाओं का
मनमाना अपमान किया था
रोने लगी मनुजता सारी
आतंकी ने काम किया था।।
भयाक्रांत हो सारे जन जन
स्थिति को जैसे भाँप चुके थे
देखा रौद्र रूप मृत्यू का
अंदर तक सब काँप उठे थे।।
क्रमशः--
देख परिस्थिति, युद्ध वहाँ की
उसकी माँ सब समझ चुकी थी
चिपकाया छाती से उसने
एक निर्णय पर पहुँच चुकी थी।।
और क्षत्राणी ने इक पल में
तलवार म्यान से खींच लिया
काटा शीश बेटियों का अरु
छाती में अपने घोंप लिया।।
एकाएक घटित घटना से
बालक ने जैसे सीख लिया
मौन हो गया उस क्षण से यूँ
ज्यूँ जीवन का रण सीख लिया।।
देख भूमि पर मृत अपनों को
धीरे से फिर आँखें पोंछीं
निकल पड़ा फिर वहाँ गाँव से
बात नहीं कुछ रुककर सोची।।
मुख पर कोई भाव नहीं था
आँखें लाल रहा करती थीं
ऐसा लगता मानो उसकी
आँखें कुछ खोजा करती थीं।।
नागभट्ट कन्नौज का शासक
इक महा प्रतापी राजा था
जिसने अपने रण कौशल से
धरती का आँचल साजा था।।
वीर तक्षक के किस्से कितने
जन जन में गाये जाते थे
एक वार में हाथी मारा
सबको बतलाये जाते थे।।
अतुल पराक्रम के किस्से भी
नागभट्ट के मशहूर हुए थे
अरबों के अगणित मंसूबे
रण कौशल से तोड़ चुके थे।।
नियम सनातन का माना था
पीछे से ना वार किया था
उसकी इस एक विनम्रता ने
हरदम कितना वार सहा था।।
क्रमशः--
आज सभा थी लगी वहाँ पर
संकल्प वहाँ कुछ होना था
दुश्मन के हमलों के आगे
वहाँ उत्तर कैसा देना था।।
इतने सारे वाद विवाद में
उत्तर कुछ जब समझ ना आया
अंत में तक्षक खड़ा हुआ फिर
अपनी शैली में समझाया।।
नियमों से यदि युद्ध लड़े तो
फिर जीत नहीं हम पाएंगे
भागेगा वो पीठ दिखाकर
रण से हमको भरमाएँगे।।
मर्यादा जो नहीं जानता
मर्यादा वो क्या समझेगा
जिसकी जैसी शैली है वो
वैसी ही भाषा समझेगा।।
याद करिये देवल मुल्तान
जब दाहिर पराजित हो गए
निरीह प्रजा के साथ न जाने
कैसे कैसे व्यवहार हुए।।
है शत्रू अपना बर्बर इतना
धोखा होगा जो बात करेंगे
जो शत्रु पर विश्वास किया तो
जनता से हम घात करेंगे।।
नैतिकता की बातें सारी
बेमानी तब हो जाती हैं
दुश्मन जब हो सम्मुख अपने
विजय मात्र ही रह जाती है।।
मर्यादा का निर्वाह किया तो
धोखा हम फिर से खायेंगे
दुश्मन को यदि छोड़ दिया तो
फिर से हम सब पछतायेंगे।।
शत्रु का कोई धरम नहीं है
न है उसकी मर्यादा कोई
मूल सनातन को मानेगा
नही उसका इरादा कोई।।
उसका तो बस धरम यही है
के शत्रु का शीश झुकाना है
लूट पाट कर त्रास मचाना
जन जन में भय फैलाना है।।
नैतिकता उनसे करते हैं
मर्यादा को जो समझते हैं
जैसा जो भी व्यूह रचेगा
हम भी वैसा ही रचते है।।
सोचो यदि जो हार मिली तो
परिणाम यहाँ कैसा होगा
औरत अरु बच्चों से सोचो
व्यवहार यहाँ कैसा होगा।।
अच्छा होगा यदि हम सब भी
दुश्मन जैसा ही सोचेंगे
उसके जैसा वार करेंगे
तब ही उसको हम रोकेंगे।।
राजा ने जब नजर उठाई
बस मौन सभा में पसरा था
लगता था जैसे लोगों का
विश्वास वहाँ पर गहरा था।।
उस मौन सभा ने सोच लिया
इतिहास नया रचने वाला
आने वाला वक्त वहाँ पर
नूतन था कुछ करने वाला।।
क्रमशः---
अगले दिन दोनों सेनाएँ
सीमाओं पर पहुँच चुकी थीं
इक दूजे के व्यवहारों को
जैसे वो सब समझ चुकी थीं।।
युद्ध मात्र अब विकल्प था बस
नहीं कहीं अब माफी होगा
आने वाला जो प्रभात था
भीषण रण का साक्षी होगा।।
रात अँधेरी गहराई थी
अरिदल में सारे सोये थे
अपने बल के मद में डूबे
सब सुख सपनों में खोये थे।।
तक्षक के नेतृत्व में सेना
अरिदल पर फिर टूट पड़ी
अरु सोये शत्रु के खेमे में
वो यम की भाँती टूट पड़ी।।
हो सकता है ऐसा हमला
शत्रु ने कभी नहीं सोचा था
रात्रि बनेगी काल वहाँ पर
सपने में भी ना सोचा था।।
बड़ी भयानक निशा वहाँ थी
तक्षक मौत बन टूट पड़ा था
अरिदल के सीने पर जैसे
मौत बना वो झूल पड़ा था।।
उसका तेज जहाँ जहाँ पड़ा
अँधियारा छँटता जाता था
जिस रास्ते से वो गुजरा था
अरिदल से पटता जाता था।।
रात वहाँ थी घोर अँधेरी
नहीं कहीं सुनने वाला था
लगता था ऐसा अरिदल में
भोर नहीं होने वाला था।।
क्रमशः--
हुई भोर जब निज सीमा पर
शत्रू नहीं देखा राजा ने
ऐसा क्या था हुआ रात में
मन ही मन सोचा राजा ने।।
लिए सैनिकों को फिर राजा
अरिदल के खेमे में पहुँचा
देखा जब वो दृश्य वहाँ का
मन ही मन में फिर वो चौंका।।
अरिदल के सारे सैनिक सब
इधर उधर को भाग रहे थे
राजा की सेना के आगे
भीख प्राण की माँग रहे थे।।
तनिक देर ना की राजा ने
अरु अरिदल पर वो टूट पड़े
रौद्र रूप देखा सेना का
अरिदल के बल सब टूट पड़े।।
मिली विजय जब सेना को तब
राजा का मन फिर हरषाया
तक्षक को जब न पाया उसने
सारे सैनिक को बुलवाया।।
इक इक कर सब लगे खोजने
भीड़ में चेहरा चमक रहा था
यम की गोदी में सोया था
मौन पड़ा वो दमक रहा था।।
उस नीरवता के क्षण में भी
मौन तक्षक कुछ बोल रहा था
उसने जो कुछ त्याग किया था
कण कण में रस घोल रहा था।।
वीरता के शिखर पुंज हो तुम
आर्यावर्त अभिमान करेगा
जब वीरों की बात चलेगी
वहाँ तक्षक का नाम रहेगा।।
मातृभूमि के रक्षण हेतु अब
नया पाठ सिखलाया तुमने
प्राण देना ही विकल्प नहीं
लेना भी सिखलाया तुमने।।
उसके एक वार के कारण
वर्षों तक दुश्मन सो ना सके
ऐसा पाठ पढ़ाया उसने
सदियों तक दुश्मन छू न सके।।
धन्य धन्य है मातृभूमि ये
भारत को अगणित वीर दिया
दूर किये जन जन के संकट
अरु दूर सभी के पीर किया।।
अगणित वीरों का रक्त मिला
तब ये धरती मुस्काई है
खून पसीने से सींचा जब
ये फसलें तब लहराई हैं।।
कितने जीवन बलिदान हुए
माँ का आँचल तब लहराया है
आकाशों में दूर दूर तक
ये ध्वज अपना फहराया है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20सितंबर, 2021
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