जीवन-परिचय- महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में सन् 1478 ई. में पं. रामदास घर हुआ था । पं. रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे और माता जी का नाम जमुनादास।
सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है।
भक्त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्थों की संख्या 25 मानी जाती है। - सूरसागर
- सूरसारावली
- साहित्य-लहरी
- नाग लीला
- गोवर्धन लीला
- पद संग्रह
- सूर पच्चीसी
- सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्यक्त सूक्ष्म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्देह करने लगे है।
सूरसागर सूरदास जी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'सूरसागर' में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हज़ार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् 1658 विक्रमी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा, मेवाड़ के 'सरस्वती भण्डार' में सुरक्षित पायी गई हैं। यह इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है। 2. इसका मुख्य उपजीव्य (आधार स्त्रोत) श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कंध का 46 वाँ व 47 वाँ अध्याय माना जाता है। 3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था। 4. भागवत पुराण की तरह इसका विभाजन भी बारह स्कन्धों में किया गया है। 5. इसके दसवें स्कंध में सर्वाधिक पद रचे गये हैं। 6. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा हैं – ’’सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।’’ - इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला' और 'भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता। |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है – “”गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही।
सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।
सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। “सारंग’ शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए – | सारँग नयन, बयन पुनि सारँग, | सारँग तसु समधाने । | सारँग उपर उगल दस सारँग | केलि करथि मधु पाने ।।
सूरसागर' में नन्द यशोदा तथा अन्य वयस्क गोपियों का बालकृष्ण के प्रति प्रेम, आकर्षण, खीझ, व्यंग्य, उपालम्भ आदि सब कुछ वात्सल्य रस की ही सामग्री है।
सूरसागर के वर्ण्य विषय का आधार 'श्रीमद्भागवत' है। भक्ति को भव्य एवं उदात्त रूप में चित्रित करते समय श्रृंगार और माधुर्य का जैसा वर्णन सूर ने अपने सूरसागर में ब्रजभाषा में किया है , वैसा उनसे पूर्व किसी लोकभाषा में नहीं हुआ है।
सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं – | उधो ! तुम अपनी जतन करौ | हित की कहत कुहित की लागै, | किन बेकाज ररौ ? | जाय करौ उपचार आपनो, | हम जो कहति हैं जी की । | कछू कहत कछुवै कहि डारत, | धुन देखियत नहिं नीकी । | इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं – किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं – | निर्गुन कौन देस को बासी ? | मधुकर हँसि समुझाय, | सौह दै बूझति साँच, न हाँसी। | और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है। | सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, | रचि पचि बात बनावत । | सगुन – सुमेरु प्रगट देखियत, | तुम तृन की ओट दुरावत ।। | उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ – | रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत । | अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ? | मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ? | नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ? | तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ? | सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ? | अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है – | ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, | मदिरा मत्त प्रमाद । | सूर श्याम एते अवगुन में | निर्गुन नें अति स्वाद ।।
(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है। (2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है। (3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है। (4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है। (5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है। (6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है। (7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है। (8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।
प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।
इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है। सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं। रंग दो कान्हा मोहे रंग दो कान्हा अपने ही रंग में रंग जाऊं तुझमें आज सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं रम जाऊं तुझमें आज।।
जो रंग रंगी राधा रानी जिसमें झूमी मीराबाई जो रंग में कबीरा नाचा नाचे खुसरो और रसखान। मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।
तुम बिन है अब कौन सहारा तुम ही करो उद्धार कौन है आपन कौन पराया तुम ही सबका आधार। अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो बन जाऊं चैतन्य जैसा आज।।
मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा रंग जाऊं तुझमें आज सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब रम जाऊं तुझमें आज।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय हैदराबाद
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