सुनने का रिवाज।
निकल रही आवाज नहीं
लगता है यूँ कंठ दबे हैं
आती कुछ आवाज नहीं।
दरद विकल हो मचल रहा
सुनता क्यूँ सरताज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।
भटक रही फिर आज जिंदगी
अपना अस्तित्व बचाने को
चीख रहे हैं आज अश्रू फिर
पलकों से बाहर आने को
आँसू के इस विकल वेदना
को मिलती क्यूँ आवाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।
कहीं द्रौपदी चीख रही है
अट्टाहासों के बीच विकल
कहीं जल रही है सैरंध्री
है सोया क्यूँ ब्रम्हांड सकल
क्या कान्हा तक गूंजती चीख
की जाती अब आवाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।
धनलोलुपता में ही कितने
संस्कारों को कुचल रहे हैं
राष्ट्र धरम और मर्यादा को
देखो कैसे कुचल रहे हैं
चलचित्र में फिर अश्लीलों पर
क्यूँ गिरती कोई गाज नहीं
लगता है महलों में अब भी
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।
ऐसे संस्कृति सिसक सिसक कर
मचल मचल कर गिर जाएगी
अवसादों के बीच फँसी तो
तड़प तड़प कर मर जाएगी
चलो बचा लें जीवन अपना
फिर न हो ये मोहताज कहीं
फिर से अब ना कोई कहे कि
कुछ सुनने का रिवाज नहीं।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16अगस्त, 2021
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