पितामह

            पितामह   

भाग-1

सूर्य भी अस्त हो चला और चाँद भी धुँधला हुआ
वहाँ नीरवता के शिखर पर मौन था ठहरा हुआ।

प्रश्न लाखों मौन आज अंतस में गुंजित हो रहे 
और बनकर शूल कितने घायल हृदय को खल रहे।

थी घड़ी वो कौन सी जब मौन ने निर्णय लिया था
शब्द थे गूँजे हृदय में वक्त ने भी कुछ कहा था।

उस कहे का भान क्यूँकर वक्त ने अनदेखा किया
लम्हों के उस दोष ने सदियों को इक मौका दिया।

काश उस क्षण प्रण मेरा भावों के न आड़े आता
आज इस रणभूमि में मैं स्वयं को न पड़े पाता।

जिस दिन एक मर्यादा लुटी थी मौन उस दरबार में
रक्त पलकों से गिरे थे उस निकृष्टतम वार से।

बस कुल की मर्यादा नहीं वो लाज थी संसार की
जिसके कोमल भावों पर कुदृष्टि पड़ी खूंखार थी।

क्रमश:

पितामह- भाग-2

सूर्य का रथ रुक गया अरु चंद्र भी कुंठित हुआ था
स्वार्थ लोलुप केंद्र में जब सभ्यता कुंठित हुई थी।

लाज और श्रृंगार आखिर विषय बने उपहास की
और सहसा रुक गयी थी वो मौन गति आकाश की।

एक पल का वो वचन अब आज भारी पड़ रहा था
छाँव दिया वट वृक्ष बन जो आज टूटा गिर पड़ा था।

ईश जाने चाहता था ना कभी उपहास उस पल
फिर भी क्यूँ न रोक पाया जब गिरा आकाश उस पल।

क्यूँ कर सभी धमनियों का रक्त पानी हो गया था
देखते देखते इतिहास मनमानी कर गया था।

उस एक पल में लिख गयी थी पटकथा संहार की
कैसे बदली थी व्यथा और वेदना संसार की।

क्रमशः----

पितामह- भाग-3

गूँज रहे थे द्यूत में जो शब्द सभी अपमान थे
नीतियों के पाश में बंधे सत्य सब सुनसान थे।

ये सत्य ही तो था के, अहंकार का विष घुल चुका था
द्यूत की आड़ में नित्याचार में विष घुल चुका था।

विद्रोह भी ना कर सका था कटु सत्य वो स्वीकार था
न चाह कर भी मौन बैठा समय बड़ा लाचार था।

उस कक्ष के वो खेल सत्य के हृदय को खल रहे थे
ज्ञान को सम्मान को संस्कार तक को छल रहे थे।

था नियति का दोष अरु षड्यंत्र थी वो बीमार की
दाँव पर जब जा लगी थी वो लाज इस संसार की।

दर्प के स्वर में छुपे थे व्यंग्य के कितने प्रहार
अब लुट रहे थे भाव सारे अरु मिट चले थे संस्कार।

किंतु अट्टहास के क्षण में इक हृद विकल हो रहा था
मौन कुछ न बोलता अंदर से पर वो रो रहा था।

क्रमशः----

पितामह- भाग-4

बाण की शैया का मुझको अब ना कोई क्लेश है
है मेरे कुछ कर्म ऐसे जिन्हें भोगना शेष है।

थी हलाहल जिंदगी जिसे आज तक पीता रहा हूँ
सत की स्थापना को बन नीलकंठ जीता रहा हूँ।

चाहता कब था यहाँ मैं के युद्ध का निर्माण हो
पर जब भी धरम युद्ध हो बस सत्य ही स्वीकार हो।

है बहुत मुश्किल यहाँ पर देखना सब खोता हुआ
कैसे देखा मैंने सोचो सत्य को रोता हुआ।

थी समय की चाह या फिर दोष था मेरा वहाँ पर
क्यूँ नहीं मैं रोक पाया सत्य जब बिखरा वहाँ पर।

सत्य पर आघात से मेरी शिराएँ रो पड़ी थी
मौन सम्मुख था सभी के आत्माएँ रो पड़ी थी।

क्यूँ बहा ये रक्त सारा दोष किसके सर मढूं मैं
क्या कहूँ अब वक्त से मैं गल्प कैसा अब गढूं मैं।
क्रमशः----

पितामह- भाग-5

इतिहास के अध्याय में ये पृष्ठ कैसा जुड़ गया
जोड़ने को मैं चला था पर वक्त कैसे मुड़ गया।

बन गया ये चित्र कैसे पृष्ठों में अत्याचार का
खींच गयी लकीर कैसे कुटिलता के व्यवहार का।।

अन्याय, अत्याचार का परिणाम अंधे मोह का
विध्वंस ये अपकर्ष ये परिणाम है ये द्रोह का।।

है बहाया रक्त मैंने भगवान अब मैं क्या करूँ
स्वयं का जब दोष हो तो फिर माफ मैं कैसे करूँ।।

शब्दों के इस खेल ने मुझे घाव ये कैसा दिया है
चीर कर मेरे हृदय को रक्त ये मेरा पिया है।।

रक्त से सींची जमीं पर सत्य हो विह्वल पड़ा है
जीत कर के युद्ध को पर मौन हो कर क्यूँ खड़ा है।।

विध्वंस की इस चीख को बोलो यहाँ कैसे सहूँ
जब गिरा अभिमन्यु मेरा कहो दर्द वो कैसे कहूँ।।

वज्र सा टूटा यहाँ तब रक्त जब जब भी गिरा है
मैं मरा हर बार जब भी वीर धरती पर गिरा है।।

सत्य की स्थापना का ये मोल महँगा क्यूँ हुआ
जग से मैं अब क्या कहूँ पितामह विफल कैसे हुआ।।

क्रमशः----

पितामह- भाग-6

है समर ये शेष तब तक साँसों में जब तक साँस है
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब उत्तर ना मेरे पास है।।

सत्य है ये युद्ध में विध्वंस कितना हो चुका है
अब शोक मैं किसका करूँ व्यंग्य कितना हो चुका है।।

आज इस रणभूमि में सब लोग कितने जा चुके हैं
द्वेष, हाहाकार से, अभिमान से उकता चुके हैं।।

मन प्रमुख हो सोचता है स्वार्थ की बातें जहाँ पर
कौन फिर रोक पायेगा महाभारत वहाँ पर।।

एक पक्ष इस पार देखो दूसरा उस पार बोलो
इस हार में और जीत में मैं ही गिरा हर बोलो।।

अब आज इस विध्वंस के पश्चात भी कुछ शेष है
सत्य क्यूँ भटका यहाँ पर मन में यही बस क्लेश है।।

सोचता था के मैं चलूँगा वक्त पीछे छोड़कर
शेष है क्या पास मेरे पश्चाताप को छोड़कर।।

हाय, उस काल में यदि अन्याय को मैं रोक पाता
सत्य की स्थापना का ये मोल फिर ना मैं चुकाता।।


क्रमशः-----

पितामह- भाग-7
वज्र था टूटा वहाँ और भाग्य भी तब गिर पड़ा था
श्वेत धवल अंक में जब ज्ञान हो धूमिल पड़ा था।

आज सारा मौन सम्मुख प्रश्नवाचक बन खड़ा है
हाय, नियति का खेल कैसा सत्य धरा पर पड़ा है।

बाण की शैया मिली है शायद ये मेरा कर्म है
फिर सत्य की स्थापना हो अब बस ये मेरा धर्म है।

जाने में समय शेष है, हे मृत्यु थोड़ा और रुक
संस्कारों का समर है अभी वक्त थोड़ा और रुक।

कैसे चल दूँ छोड़ कर मैं बीच सत्य को राह में
सत्य की स्थापना हो बस जी रहा हूँ इस चाह में।

हाथ जोड़े मृत्यु भी तब मौन जड़वत हो गयी थी
सत के सम्मुख समय की धार मद्धिम हो गयी थी।

पूछता हिय आज खुद से हार ये किसकी हुई है
वक्त से क्या रार ठानी हार ये मेरी हुई है।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         02अगस्त, 2021


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