चंद मुक्तक।
चाहता हूँ चंद लम्हे खुद को जीना चाहता हूँ।।
क्या करोगे जानकर के दर्द कितना था बड़ा
दर्द वो मेरा है उसको मैं ही जीना चाहता हूँ।।
ये जो वीणा बज रही मैं भी उसका तार हूँ
जैसे तुम उपहार हो मैं भी इक उपहार हूँ
भेद बस इतना यहाँ कि तुम हो महलों में पले
और माटी में पला मैं मौन इक आकार हूँ।।
गाँव की वो पगडंडियाँ इतरा उठी तब झूम कर
जब शहर के रास्ते कल उससे मिले थे चूम कर
मौन शब्दों में कहा था चाहे कहीं भी तुम रहो
जब भि गुजरो तुम इधर से देख लेना घूम कर।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17अगस्त, 2021
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