गीतों में मैं गाता हूँ।

गीतों में मैं गाता हूँ।

अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ
जग से जो भी भाव मिले
हँस करके दिखलाता हूँ।।

कविता हो या गीत कहीं
सब मेरे मन की बातें हैं
तन मन जिसमें भींग रहा
सब अंतस की बरसातें हैं।

नैनों से जो अश्रु बहे हैं
चुपके से बहलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

स्मृतियों में है शेष वही
जो आरोप लगाया है
तुमने कहा ठगा है मैंने
पर तुमने ठुकराया है।

स्मृतियों से पर प्रेम मुझे
उनसे दिल बहलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

जब छोड़ चले सारे अपने
शिकवा मैं तुमसे क्या करता
एकाकीपन का घाव लिए
मैं जीवन जीता या मरता।

एकाकीपन की पीड़ा को
मैं शब्दों से पिघलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

अब और नहीं कोई चाहत
गीतों का बस संग रहे
नित गीत सुनाऊं मैं सबको
खुद से चाहे जंग रहे।

अपने इन गीतों में ही
अब जीवन सारा पाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
       हैदराबाद 
       13अक्टूबर,2020

कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।  


अभी क्या सुनाऊं कोई गीत तुमको
है सरगम अधूरी, बताऊँ क्या तुमको
ये दुनिया के मेले अधूरे अधूरे
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

सांसें सिसककर कोई गीत गाती
बिखरे पलों की कहानी सुनाती
ये भींगीं पलकें ये अधरों की कंपन 
बीता हुआ कोई मंजर दिखाती।

के वो जो करीबी में दूरी बनी है
कहीं आग मुझमें औ तुममें ठनी है
मिटा के न रख दे कहीं आग हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

कल जो भी सीखा था मैंने जहां से
नहीं काम आया वो मेरे यहाँ पे
अधूरी है महफ़िल अधूरा तराना
अधूरा ही शायद रहे ये फसाना।

हैं संगीत मेरे अधूरे अधूरे
होंगे कहीं क्या कभी ये भी पूरे
जब तक मिलेगी ना राह हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

नहीं नाज हमको अब दुनिया जहां पे
नहीं नाज हमको तेरे गुलसितां पे
है बस नाज हमको अपने गमों पे
वही साथ मेरे चले हैं सफर पे।

जब तक सफर हो न जाये ये पूरा
रहूंगा मैं शायद अधूरा अधूरा
मिलेगी जब तक मंजिल न हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।।
 
जीवन के मुश्किल सफर पर चलूं जो
मेरे साथ क्या दो कदम तुम चलोगे
है मंजूर तुमको ये सोहबत हमारी
यही बात क्या तुम जहां से कहोगे।

तुम्हारे बिना मैं अधूरा अधूरा
तुम्हें पा के हो जाऊंगा पूरा पूरा
इक बार जो अपनी आंखों से कह दो
तो फिर सुनाऊं कोई गीत तुमको।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      12अक्टूबर,2020

दिख रहा प्रभात है।

दिख रहा प्रभात है। 

हो दिवस का भोर चाहे
या रात का अंतिम पहर
ब्रह्म का यदि बोध हो तो
संयत रहे चंचल लहर।

बोध हो या क्षोभ चाहे
भावनाओं का हो असर
चित्त में उन्माद हो तो
व्यर्थ सारे हैं अवसर।

शांत चित्त है हृदय जहां पर
विलग है रहती वेदना
करती प्रभावित रूप को
हर मुक्तिकामी चेतना।

स्वप्न जब तक नेत्र में है
पौरुष ही बस अभिप्राय है
मार्ग कितना भी जटिल हो
पुरुषत्व ही अध्याय है।

कर्मभूमि में खड़े हो अब
ना तुम डरो आघात से
है रात का अंतिम पहर ये
चलो के दिख रहा प्रभात है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       10अक्टूबर,2020

अंबर में अब भी लाली है।

अंबर में अब भी लाली है।

बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है
ये गोधूली बेला है
रात कहां अभि काली है।।

अंबर की ड्योढ़ी पर जब भी
चंदा दस्तक देता है
सूरज की मद्धम किरणों से
शीतल प्रकाश वो लेता है।

दोनों की आंखमिचौली की
दुनिया ये मतवाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

रात दिवस का सफर घना है
हिय संबंधों में यहां सना है
मिल ना पाए भले कहीं पर
गोधूली में प्रेम बना है।

संबंधों की इस बेला में
जब तक फैली लाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

कहीं तड़प बाकी है अब भी
उम्मीदें दीवानी हैं
ठनी प्रतीक्षा मिलने की है
राहें भी दीवानी हैं।

छोड़ प्रतीक्षा कैसे चल दूं
बाकी अभी दिवाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       10अक्टूबर,2020

फिर तुम कैसे पाओगे।

फिर तुम कैसे पाओगे।   

जाते हो जीवन से मेरे
जाओ पर पछताओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।

पाओगे खुशियां सारी
जीवन नूतन पाओगे
संबंधों की ड्योढ़ी पर
रूप नया तुम पाओगे।

पर मेरे संग जो बीते हैं
पल वो कहां भुलाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

यूँ तो तुमने बहुत दिया है
और यहां अब रहने दो
पाया हूँ जितना भी तुमसे
उतना तो अब सहने दो।

मेरे अंतस की पीड़ा को 
समझ नहीं तुम पाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

आने वाली किरणों का
ताप मुबारक हो तुमको
तुमने जो भी दिया मुझे
वो शाप मुबारक हो हमको।

लेन देन के इस भाषा को
समझ कभी क्या पाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

जाते हो जीवन से मेरे
जाओ पर पछताओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08अक्टूबर,2020


राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

मूक भाव से सब बैठे हैं
देखो सारे लोग यहां
बाट जोहते इक दूजे की
कैसे करें विरोध यहां।

कहीं पे लुटती मर्यादा है
और कहीं सम्मान लुटा
बात हलक से निकले कैसे
लगता सब है घुटा घुटा।

गिद्ध दृष्टि डाले बैठे हैं
आस पास की घटनाओं पर
कोण ढूढते जाति धर्म का
घटती सारी घटनाओं पर।

कहीं टीआरपी की झक झक
तो कहीं वोट की चिंता है
जैसे सारी घटनाओं में
बस वोट बैंक ही दिखता है।

जनता पर लाखों पहरे हैं
पर इनको कोई बोले कैसे
ये जो चाहे कुछ भी बोलें
इनको कोई रोके कैसे।

गिरती शुचिता राजनीति की
भारत को तड़पाती है
विश्व गुरु के सपनों को
कुटिल हो मुंह चिढ़ाती है।

साथ, विकास, विश्वास की बातें
सब बेमानी हो जाती हैं
लोकतंत्र के मंदिर में जब
सुविधा हावी हो जाती है।

लोकतंत्र का चौथा खंभा
बिखरा बिखरा लगता है
अपनी रेटिंग की खातिर
भटका भटका लगता है।

चाटुकारिता से कोई जब
सम्मान यहां पर पाता है
तब किसी मेहनतकश के
हिस्से की रोटी खाता है।

भारत भी हलकान हो चला
सुविधाभोगी लोगों से
सरोकार सब दूषित होते
उल्टे सीधे सोचों से।

गांधी जी के तीनों बंदर
क्या लोकतंत्र के प्रहरी हैं
आंख, कान, मुंह बंद किये सब
देखो सारे शहरी हैं।

चंद स्वार्थी लोगों से
जीवन ये हलकान हुआ
शुचिता गिरी राजनीति की
लोकतंत्र बदनाम हुआ।

आज यहां जो मौन रहोगे
लोकतंत्र दुःख पायेगा
दर्पण देखेगा जब भी
खुद पर वो शर्माएगा।

दिनकर जी ने कभी कहा था
लेकर अपनी गहरी श्वास
जो तटस्थ हैं आज यहां पर
समय लिखेगा उनका इतिहास।

इतिहासों से शिक्षा लेकर
वर्तमान का मान करो
राष्ट्रनीति के भाव जगाकर
नूतन भविष्य निर्माण करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08अक्टूबर, 2020


चैन।

                 चैन।          

बादल से बिछड़ी बूंदें पुनः कहां मिल पाती हैं
पवन बहाए जहां कहीं उसी ओर वो जाती हैं।।

जो सागर में गिरती हैं तो पुलकित हो खिल जाती हैं
विशाल हृदय सागर का पाकर उसमें ही मिल जाती हैं।।

जो गिरती हैं धरती पर तो मिट्टी की हो जाती हैं
खो करके अपना जीवन कोंपल नई खिलाती हैं।।

संगत का है असर सभी जो कितना कुछ दे जाते हैं
अच्छा मिले जीवन खिलता, बुरा मिले खो जाते हैं।

जैसा साथ जिसे मिलता है वैसा ही फिर वो चलता है 
जिसको मिलती संगत जैसी उसमें ही वो पलता है।।

अपने धर्म मूल संस्कृति से जो बिछड़े पछताते हैं
गिरते हैं जो स्वार्थ सतह पर टुकड़ों में बंट जाते हैं।।

बिछड़ के अपने मूल से कोई अर्थ नहीं रह जाता है
भटका जीवन विस्मृत रहता चैन नहीं फिर पाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      08अक्टूबर,2020

स्थिर बनकर के रहना है।

स्थिर बनकर के रहना है।

जीवन की कितनी इच्छाएं
मचल मचल फिर आती हैं
चाहे जितना यत्न करें हम
फिर भी सब कह जाती हैं।

विकल भाव हैं दुग्ध की तरह
मिलते ही अकुलाते हैं
जरा पड़ी जो आंच कहीं तो
फेनिल बन बह जाते हैं।

है मृदुल सरल जीवन इनका
सहज भाव कह जाते हैं
नहीं शिकायत करते कुछ भी
चुपचाप मगर बह जाते हैं।

संबंधों की ऊष्मा सारी
जीवन इनको देती है
आंच कभी यदि तेज हुई तो
सब खंडित कर देती है।

अपनेपन की विकल भावना
हँस कर के कह जाते हैं
आंच मगर जो तेज हुई तो 
फेनिल बन बह जाते हैं।

पर पानी की कुछ बूंदों से
शीतल ये हो जाते हैं
फेनिल कितना भी फैला हो
शांत शिथिल हो जाते हैं।

यहां दूध औ पानी हमको
कितना कुछ समझाते हैं
जीवन औ रिश्तों पर कितना 
ज्ञान हमें दे जाते हैं।

जनम मरण का खेल सभी को
हँस हँस कर पूरा करना है
बन जाना है पानी जैसा
स्थिर बनकर के रहना है।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07अक्टूबर,2020



विकल मन।

विकल मन।

मन संतप्त है उर अशांत
जनमन अंतर्मन भयाक्रांत
अवनी अंबर शिथिल हो रही
चिंतन मनन सब हुए क्लांत।

दिनकर अपना तेज खो रहा
गुंफित नभ में कहीं खो रहा
अवसादों की वीराने में
अनजाने ही व्यथित हो रहा।

सरिता का उद्गम हुआ क्लांत
सरिता का तट भी है अशांत
जब सागर है बांह पसारे
लहरें फिर क्यूँ भयाक्रांत।

क्यूँ शब्दों पर पहरा लगता
ग्रीवा में कुछ ठहरा लगता
क्यूँ कर चेतना सुप्त हो रही
जीवन यहां अधूरा लगता।

अदृश्य वेदना तड़पाती है
रह रह उर को भटकाती है
काल चक्र है चला ये कैसा
उँगली अपनी छटकाती है।

मौन विकल है सारा जीवन
उम्मीदों पर आश्रित उपवन
एक नया प्रारंभ जोहता
आज प्रतीक्षारत जीवन।

उद्विग्न काल प्रकृति अशांत
जल, थल, नभ सब हुए क्लांत
विकल आज है जन गण मन
कब होगा पुलकित ये उपवन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06अक्टूबर,2020






चुप को हथियार बना।

चुप को हथियार बना।   

चुप को अब हथियार बना
चुपचाप यहां रहना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

आवाजों का शोर बहुत जब
फैला हो दरबानों में
लगे भटकने मुखर चेतना
सांझ ढले मैखानों में।

तब चुप को हथियार बना
प्रतिकार यहां करना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

संवादों का दौर बहुत है
संवाद नहीं पर दिखता है
संसाधन के आगे क्या
खबरनवीस कहीं झुकता है।

लेकिन जब खबरों की दुनिया
मौलिक राह भटकती है
लिए मशाल हाथ मे तब
उजियार यहां करना होगा।

खबरों की नैतिकता पर जब
शंका के बादल छाते हैं
लोकतंत्र दिग्भ्रमित हुआ तब
कुटिलता प्रश्रय पाते हैं।

खबरों के व्यवहारों पर
विचार पुनः करना होगा
नहीं मिले जब राह कोई
प्रतिकार हमें करना होगा।

लोकतंत्र में चुप्पी भी है
जनता का हथियार बड़ा
इसे बनाकर शस्त्र यहां
कितनों ने है युद्ध लड़ा।

मुश्किल हो जब कहना कुछ भी
मौन भाव से कहना होगा
इसको ही हथियार बनाकर
कुत्सित से फिर लड़ना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अक्टूबर,2020

जागो हे भारत।

  जागो हे भारत।  

तड़प रही है आज लेखनी
फिर आवाज़ उठाने को
मचल रही है आज भावना
फिर से अलख जगाने को।

स्याही में अंगार भरे
भावों को प्रतिपादित कर
तोड़ गुलामी की जंजीरें
अवनी को आह्लादित कर।

नैनों में ज्वाला है तेरे
हाथ में तेरे कलम कटार
कुंद नहीं कहीं पड़ जाए
तेरे जिह्वा की ललकार।

आज दामिनी कुंद पड़ रही
खो रही क्यूँ अपनी धार
रण चण्डी हुंकार भर रही
युद्ध प्रचण्ड है अबकी बार।

भारत माता चली भेदने
अनाचार के सीने को
काली का फिर रूप धरा
रिपु का शोणित पीने को।

जागो हे मतवालों जागो
भारत के दीवानों जागो
जागो धरती चीख रही है
चिर निद्रा से सारे जागो।

जागो दसों दिशाओं जागो
वेदों की सभी ऋचाएं जागो
जागो पांचजन्य माधव का
भीम की बलिष्ठ भुजाएं जागो।

अर्जुन का गांडीव अब जागो
युधिष्ठिर का भाला जागो
सूरज भी अब अस्त हो रहा
अब तो चक्र सुदर्शन जागो।

श्री राम का कोदंड जागे
फिर केशव का शारंग जागे
जागे आज पिनाक यहां
चिर निद्रा से भारत जागे।

विदुर की फिर से नीति जागे
कौटिल्य का क्रोध फिर जागे
गांधी जी का सपना जागे
फिर से भारत अपना जागे।

शंखनाद हो आज यहां
रणभेरी बन जाना है
नैतिकता की मशाल पुनः
दिल में आज जगाना है।

आज कवच बन जाना है
भारत माँ के सीने का
वर्ना कोई अर्थ नहीं है
कायर बन कर जीने का।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01अक्टूबर,2020








मन तो चातक ठहरा।

मन तो चातक ठहरा।

हैं अनिभिज्ञ सभी यहां पर
अगले पल का ज्ञान नहीं
मनवा भी इक पंछी ठहरा
कब उड़ जाए ज्ञात नहीं।

इस डाली से उस डाली तक
उड़ उड़ कर वो बैठ रहा
स्थिर वो कब रहा यहां पर
कितने दर पर बैठ रहा।

कोई कहता मंदिर-मस्जिद
कोई गिरजा औ गुरुद्वारा
कोई कहता ध्यान लगाओ
लोभ मोह से हो छुटकारा।

ज्ञान योग की कितनी बातें
हम सबको बतलाती हैं
स्वर्ग नर्क की परिभाषाएं
नित हमको उलझाती हैं।

मनवा, पर चातक ठहरा
चैन कहां वो पाता है
मिलता उसे सुकून जहां
बस उसका हो जाता है।

इसीलिए सब कहते हैं
खुल कर हर पल जी लेना
जीवन के हर पहलू को
खुल कर के तुम जी लेना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      30सितंबर,2020

इंतजार-आखिर कब तक।

      इंतजार-आखिर कब तक।  

मोमबत्ती हाथ में लेकर चले सब एक दिन
इक दर्द के साथ हम सब चले थे एक दिन
अनगिनत चेहरे दुखे थे,दर्द पारावार था
इक नए प्रारंभ का सब स्वप्न पाले एक दिन।

एक स्वर बस गूंज रहा था इस सकल ब्रम्हांड में
यूँ लगा अब सृष्टि बदलेगी सकल ब्रम्हांड में
आंधियों में जोर था वो लौ भी शायद बुझ गयी
सिसकियां बस रह गयी शायद सकल ब्रम्हांड में।

हैवानियत क्या इस कदर हावी हुए अब जा रही
इंसान की इंसानियत पराजित हुए क्यूँ जा रही
है ये किसका दोष, आरोप अब किस पर मढ़ें
क्यूँ कर ये चेतना अब सुप्त होती जा रही।

स्तब्ध है अवनी यहां, स्तब्ध अंबर आज है
जाने कैसा आज ये फैला अडंबर आज है
बूँद बादल की भी ना जाने कहाँ अब खो गयी
ढूंढता है रास्ता दिनकर भी यहां अब आज है।

शर्म से शायद दिनकर भी यहां क्या छुप गया
क्षोभ से भरकर के शायद स्वयं क्या वो रुक गया
कौन अब उसको बुलाये इस घने अंधकार में
सूर्य का भी तेज शायद शर्म से अब झुक गया।

और कितनी देर है सारा गगन है पूछता
न्याय की आवाज से सारा चमन है गूंजता
न्याय से ही मात्र अब अवसाद शायद न रुके
जाने क्यों इस धरा को ना राह कोई सूझता।

आओ सब मिल यहां अन्याय का प्रतिकार करें
हो सुरक्षित ये धरा प्रण आज ये स्वीकार करें
वर्ना कहीं ना देर हो जाये यही इंतजार में
अब कृष्ण फिर ना आएंगे इस विकल संसार मे।

जगत जननी की रक्षा का प्रण आज करना होगा
सभ्यता औ असभ्यता से एक अब चुनना होगा
वरना विकल हो सृष्टि जब आपे से बाहर जाएगी
ना मिलेगा रास्ता,  शून्य सब हो जाएगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     30सितंबर,2020


धैर्य व संयम।

धैर्य व संयम

धैर्य शीलता औ संयम का
दिखता आज अभाव यहां
हर कोई व्याकुल लगता है 
कैसा आज प्रभाव यहां।

त्वरित चाहते सब निर्णय
अभाव धैर्य का दिख रहा
संबंधों में भी अब शायद
प्रभाव इसी का दिख रहा।

वेब कल्चर नाम पे देखो
बाजार सजाये बैठे हैं
संस्कृति, शिक्षा, सभ्यता को
खुलेआम लुटाए बैठे हैं।

धर्म, नैतिकता का परिहास
उन्हें प्रभावी दिखता है
पैसों की खातिर शायद
क्या चरित्र यहां पर बिकता है।

फिल्में समाज में लोगों को
बेहतर शिक्षा दे सकती हैं
देश, धर्म व मानवता को
पहचान नया दे सकती हैं।

पर भौतिकता की दुनिया में
नैतिकताएं बोल नहीं पाती
धनलोलुपता जब हावी हो 
सभ्यताएं मोल नहीं पाती।

आगे बढ़ने की चाहत में
कितना पीछे छूट रहा
नैतिकता के सारे मानक
इक इक करके टूट रहा।

झुलस रही है आज यामिनी
शीतल पवन झँकोरे से
भटक रही है राह दामिनी
बादल के अंधेरों से।

बेहतर होगा त्याग वर्जना
संयम को मनमीत बना
सत की राहों पर चलकर तू
नूतन अपना गीत बना।

सुनो नाद निर्झरों के सारे
पर प्रवाह चुन तू खुद का
पूण्य पंथ को प्रशस्त करे जो
पंथ बना उसको खुद का।

आलिंगन में भरे मानवता
मनुजता अंगीकार करो
सूखी धरती को जो तारे
ऐसी तुम बौछार करो।

उदघोष करो पांचजन्य का
मन में पर परमार्थ रहे
स्वयं सारथी होंगे केशव
कुरुक्षेत्र का पार्थ बनो।

तेरा ये संयम ही नूतन
यशोगान लिख पायेगा
विश्व शांति का सपना तेरा 
सब नैनों में दिख पायेगा।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद 
         07अक्टूबर,2020

नव निर्माण का स्वप्न।

नव निर्माण का स्वप्न।   

कब तक ऐसे जीना होगा
अनचाहा विष पीना होगा
कब तक अवनी के घावों को 
पैबंद लगा सीना होगा ।

कब तक अवनी की हरियाली
दया दृष्टि को तरसेगी
हलधर की आंखों से खुशियां
ना जाने कब बरसेंगी।

कब जाने उसके उद्द्यम का
मोल समझ सब पाएंगे
कब उसके घर की चिमनी से
खुशियों के बादल आएंगे।

कब दीवारों के सांकल से
नन्हें चेहरे मुस्काएँगे
कब हर घर के आंगन से
गीत सुने फिर जाएंगे।

कब जाने आधी आबादी
खुल कर के जी पाएगी
कब समुचित सम्मान मिलेगा
खुल कर वो मुस्कायेगी।

कब उसका सम्मान यहां पर
समुचित जीवन पायेगा
कब उसके सपनों का उपवन
खुल करके खिल पायेगा।

कब उसके अधिकार यहां पर
नजर सभी को आएंगे
कब उसके प्रति दायित्वों को
समझ यहां सब पाएंगे।

चाहे जितने महल बना लो
काम नहीं कुछ आएगा
दूजे के प्रति प्रेम भाव ही
जीवन सफल बना पायेगा।

महलों के दीपों का तब तक
कोई मोल नहीं होगा
जब तक झोंपड़ियों में उनसे
कोई कलोल नहीं होगा।

अब कितनी घटनाओं का
बोझ हमें सहना होगा
बहुत सह चुके हैं, अब बस
ये सबको कहना होगा।

मानवता की खातिर सबको
अब त्याग यहां करना होगा
उत्तिष्ठ भारत का प्रण सबको
स्वीकार यहां करना होगा।

सुंदर सुगठित व्यवहारों से
जीवन सबका खिल पायेगा
लोकतंत्र मजबूत बनेगा
भारत से भारत मिल पायेगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      29सितंबर,2020







तुझको ही प्यार करूं।

तुझको ही प्यार करूं।

बस तुझको ही अपना जानूं
औ तुझको ही प्यार करूं
जब तक जां में है जां मेरे
बस तुझको ही प्यार करूँ।

तेरा रूप निखारूं हर पल
तेरा ही श्रृंगार करूं
जब तक नैनों में ज्योती है
तेरा ही दीदार करूं।

तेरे सिवा नहीं कुछ मांगूं
ना कोई तकरार करूं
और नहीं कुछ मांगू रब से
बस तुझको ही प्यार करूं।

सुख के पल हों या दुख के
हर पल तेरा साथ रहे
जब तक सांसो में है सांसें
हाथों में तेरा हाथ रहे।

चाहत के नवगीत लिखूँ मैं
गीतों से व्यवहार करूं
जब तक मेरी कलम चलेगी
बस तुझको ही प्यार करूं।।

तुझमें ही पाऊं मैं खुद को
बस तुझको स्वीकार करूं
जब तक जां में है जां मेरे
बस तुझको ही प्यार करूं।।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27सितंबर,2020

सुहाने तराने सुनाओ।


      सुहाने तराने सुनाओ।  

है मेरी तमन्ना के तुम पास आओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

तेरी याद में हो रहा मैं परेशां
तेरी चाह में तड़प रहा मैं परेशां
नहीं और मुझको तुम ऐसे सताओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

मेरी गीतों में रागों में तुम बसे हो
मेरी धड़कनों, साँसों में तुम बसे हो
है मेरी जरूरत ये तुम तो बताओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

कहीं ऐसा हो जिंदगी रूठ जाए
मोहब्बत की किस्मत कहीं रूठ जाए
जिद्द ना करो अब चलो मान जाओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

मैं भी नहीं जी सकूंगी तेरे बिन
मरना भी लगता है मुश्किल तेरे बिन
है मेरी तमन्ना तेरे पास आऊं
मिलन के सुहाने तराने सुनाऊं।।

चलो आज दोनों कदम फिर बढ़ाएं
नहीं एक दूजे को फिर आजमाएं
मिलकरके हमतुम ये जीवन सजाएं
मिलन के सुहाने तराने सुनाएं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      27सितंबर,2020

ओझल यहां उजाले हैं।




ओझल यहां उजाले हैं।

ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं
चेहरों पर कितने चेहरे 
कितने दिल के काले हैं।

विश्वासों की डोरी बांधी
हाथों से कैसे छूट गयी
जन्मों का बंधन था अपना
फिर कैसे वो टूट गयी।

लाख जतन की जाने की, पर
दरवाजों पे ताले हैं।
ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

टूट गए हैं आज सभी भ्रम
अब सच से भय लगता है
बिखर गए सपने कुछ ऐसे
सोने से भय लगता है।

गीत नहीं गा पाता हूँ अब
होठों पर यूँ ताले हैं।
ये दिल चलो दूर कहीं चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

लाखों के मेले में ठहरा
अपना ना कह पाता हूँ
दर्द कराहता रहता प्रतिपल
मुक्त नहीं रह पाता हूँ।

कब तक रखूं धैर्य, तुम बोलो
जब शब्दों के लाले हैं।
ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26सितंबर,2020

तुमसे वादा मेरा।

         तुमसे वादा मेरा।  
जाने क्यूँ आजकल गुनगुनाता हूँ मैं
खुद से कहता भी हूँ, औ छुपाता हूँ मैं
जाने कैसा है मुझ पर असर ये हुआ
खुद लिखता और खुद ही मिटाता हूँ मैं।

जाने कैसा हुआ है असर आजकल
खुद की रहती नहीं है खबर आजकल
डूबा रहता हूँ मैं बस तेरी याद में
सूझती है ना मुझको डगर आजकल।

एक तुझसे मिला, जग को भूला हूँ मैं
अपने दिल का पता आज भूला हूँ मैं
एक तुझसे जुड़ी हाथ की जब लकीरें
तेरी बाहों में खुद को भूला हूँ मैं।

तुम ही मंजिल मेरी तुम मेरा रास्ता
एक तेरे सिवा ना कोई वास्ता
उम्र भर तुमको ऐसे ही चाहूंगा मैं
आज वादा यही तुमसे करता हूँ मैं।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        24सितंबर,2020

मुक्त गगन के पंछी हम।

मुक्त गगन के पंछी हम।

मुक्त गगन है, मुक्त पवन है
हमको इसमें रहने दो
जीवन है सरिता की धारा
हमको इसमें बहने दो।

हम भी उसके अनुगामी हैं
जिसमें जीवन पलते हैं
सहगामी बनकर प्रकृति के
मुक्त भाव से चलते हैं।

मुक्त गगन सा जीवन अपना
पंख प्रसारे फिरते हैं
नहीं सुहाती हमें गुलामी
मुक्तकंठ हम जीते हैं।

अपना है आकाश सुनिश्चित
उन्मुक्त भाव से फिरते हैं
मिला प्रेम से जो भी हमको
हम भी उससे मिलते हैं।

पिंजरों में ना बांधो हमको
बंधे, नहीं फिर जी पाएंगे
छूटा जो इक बार गगन ये
मुक्तकंठ ना गा पाएंगे।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      23सितंबर,2020


दिन बीते जाते हैं।

       दिन बीते जाते हैं।  

पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं
पैबंद लगा कर घावों को
रह रह सीते जाते हैं।

बीच भँवर में तूफानों के
जीवन कितनी बार फँसा
हर बार नए अंकुर फूटे
जीवन ये हर बार हँसा।

तोड़ भँवर की जंजीरों को
जीवन बढ़ते जाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।।

जो भटका राहों से अपनी
उसने सब कुछ खोया है
बिखरा जो इक बार यहां पर
फूट फूट कर रोया है।

दृढ़ता से जो डटा यहां पर
उम्मीदों को पाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।

अपनी हिम्मत औ ताकत से
आगे बढ़ते जाना तुम
अपने किस्मत की रेखों को
खुद से गढ़ते जाना तुम।

तपा आग में जितना जो भी
सूरज को छू पाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22सितंबर,2020

बसा ले मुझको।

बसा ले मुझको।    

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
अपनी पलकों के दरीचों में छुपा ले मुझको।

मैं कोई ख्वाब नहीं जो विखर जाऊंगा
दिल चाहे तेरा जब भी बुला ले मुझको।

तेरे गीतों तेरे नज्मों की गुजारिश हूँ मैं
अपने गजलों के मिसरों में बसा ले मुझको।

तेरी खामोशियाँ भी खिलखिला उठेंगी यहीं
अपने अधरों पे इकबार सजा ले मुझको।

बाद मुद्दत के जिंदगी महकी है "अजय"
अपना हमदम, हमराह बना ले मुझको।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21सितंबर,2020

जाना है कहाँ।


           जाना है कहाँ।                 

मैं सजा दूंगा तेरी राहों को, जहां जाओगे
अब तुम ही कहो कुछ कि जाना है कहाँ।

तुमसे हो करके शुरू तुम पे ही खत्म होती है
मेरी चाहत का कोई और फसाना है कहाँ।

लोग कहते हैं कि अंधा हूँ तेरी चाहत में
ढूंढ के देख लो मुझसा दीवाना है कहाँ।

तू ही मंजिल है मेरी, तू ही जुस्तजू मेरी
तेरी बाहों के सिवा मेरा ठिकाना है कहाँ।

चाहत यही अब बाहों में तेरी फ़ना हो जाऊं
तुझमें खोने का इससे बेहतर बहाना है कहाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      21सितंबर,2020

बाकी है।

बाकी है            

बहुत खामोशियाँ पसरी
अभी क्या बात बाकी है
दिलों के दरमियाँ शायद
कहीं कुछ बात बाकी है।

ये तेरी मौन आवाज़ें
हमेशा बात करती हैं
यूँ लगता है तेरे दिल मे
अभी जज्बात बाकी है।

इन आँखों की जुगलबंदी
इशारे और करते हैं
लगता है के इस दिल में
कोई तूफान बाकी है।

लरजते होठ ये तेरे
कहानी और कहते हैं
अब तुम्ही कहो कुछ कि
अभी तो रात बाकी है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     19सितंबर,2020

संगीत भर दिया।

    संगीत भर दिया।  

एक नुपुर की छम ने देखो
आरंभ जीवन कर दिया
शांत हिय में प्रेम पावन
का भाव प्रस्फुटन कर दिया।

हिय में एक हूक जागी
स्वर रागिनी बजने लगी
मुक्तकंठ ने गीत साजे
नव कोंपलें खिलने लगी।

आज आलिंगन ने तेरे
नवगीत मुझमें भर दिया
थिरकन लगे खुद पाँव मेरे
संगीत मुझमें भर दिया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     19सितंबर,2020

टूटे दिल की पीड़ा।

टूटे दिल की पीड़ा।   


टूटे दिल की सुनो कहानी
तुमको आज सुनाता हूँ
विखर रहे जज्बातों के
गीत यहां मैं गाता हूँ।

दूर देश की सीमाओं में
छोटा सा दिल रहता था
प्रेम-प्यार विश्वासों के
वो सपने देखा करता था।

रिश्तों की गोदी में पलकर
गीत खुशी के गाता रहता
एक रुप सब देखा करता
सबसे प्रीत निभाता रहता।

कितनी ही बातों को उसने
अपने अंदर पाया था
आरोप कभी, कभी शिकायत
के सारे भाव छुपाया था।

जब तक वो चुपचाप रहा
सारे खुश खुश रहते थे
पर उसके मन की पीड़ा को
कितने लोग समझते थे।

उसकी गुपचुप पीड़ा को
मैं आज तुम्हें दिखाता हूँ।
बिखर रहे जज्बातों के
गीत यहां मैं गाता हूँ।।

इक दिन दिल ने पूछा सबसे
हुई कहां है गलती उससे
उसने तो बस प्रेम किया, पर
भाव नहीं छुपाया किसी से।

सबको एक बराबर माना
नहीं किसी को दूजा जाना
हर गलती का प्रतिकार किया
ना अपना, न पराया माना।

घावों को बढ़ने से पहले
उसने उसे मिटाया है
नासूर नहीं बनने पाए
उसने धरम निभाया है।

सच से अगर सजा मिलती है
कौन यहां फिर सच बोलेगा
हर घर मे इक टीस उठेगी
हर घर में फिर दिल टूटेगा।

घायल दिल के घावों का
उपचार कभी क्या हो पायेगा
गर सच से अवरोध हुआ तो
झूठ यहां आश्रय पायेगा।

फिर वो दिन कब आएगा 
दिल का मरम समझ पायेगा
जब सच को सम्मान मिलेगा
टूटेगा, पर मुस्कायेगा।

टूटे दिल की इस इच्छा को
सबको आज सुनाता हूँ।
बिखर चुके जज्बातों के
गीत बनाकर गाता हूँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    18सितंबर,2020

लम्हे कब आएंगे।



लम्हे कब आएंगे।     

लड़कपन के वो बीते दिन
ना जाने फिर कब आएंगे
गुजारे साथ  जो लम्हे
ना जाने कब फिर आएंँगे

अवसादों से घिरा  है गगन 
दर्द में जकड़ा आज चमन 
इससे छुटकारे की खातिर
मलहम कब मिल पाएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे

चिट्ठी, पत्री, खत, किताबत  
में हम कितना कुछ कहते थे
रहते बेशक दूर बहुत
पर साथ दिलों में रहते थे
साथ-साथ चलते हैं अब भी
पास मगर कब आएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे।।

झुलस रहे हैं रिश्ते सारे
स्वार्थ भरे लू की लपटों से
बिखर रहा है जीवन देखो
निज आरोपों औ रपटों से
हृदय द्रवित हो पूछ रहा है
इससे बदतर क्या पाएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे

ऐसे अवसादों से बाहर
निकल कभी क्या पाएंँगे
मिल बैठेंगे साथ कभी क्या
राग मिलन का गा पाएंँगे।
जब फैलेगी मधुर रागिनी
फिर नव गीत सजायेंगे
कभी सुनेंगे गीत तुम्हारे
और कभी हम खुद गाएंँगे
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंगे
संग गुजारेंगे जो लम्हे
ना जाने कब फिर आएंँगे।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर,2020

मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ।

मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ।   

मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ
ध्यान से सुनना बातें मेरी
जिह्वा अपनी खोल रहा हूँ।

सालों से मुंह बंद किये
कितना कुछ मैंने देखा है
कितने ही आघातों को
बरसों से मैंने झेला है।

राजनीति के इस दंगल में
मुझको यूँ लाकर पटका है
सत्ता की खातिर कितनों ने
दिया मुझे भी झटका है।

सदियों से जिसने जब चाहा
तब मुझको पुचकारा है
और कभी दरवाजे पर से
ही मुझको दुत्कारा है।

कभी गुलामी की जंजीरों में
आजादी मैंने खोया है
और कभी आपातकाल में
जेलों में भी रोया है।

कभी थैयानमैन चौक पर मैंने
सरे आम चीत्कार किया
और कभी बर्मा ने मुझको
चौखट से फटकार दिया।

मेरी कीमत वो क्या जानें
जो आत्ममुग्धता में जीते हैं
अपने सपनों की खातिर
औरों के सपने पीते हैं।

मैं हर शोषित पीड़ित की बन
आवाज यहां पर गाता हूँ
नैतिकता के प्रतिमानों की
बदलाव यहां पर लाता हूँ।

दुनिया भर के मजदूरों का
गीत यहां मैं गाता हूँ
सभी किसानों के सुर में
अपनी आवाज़ मिलाता हूँ।

मैं प्रेमचंद के लेखों में बसता
भारतेंदु के नाटक में रचता
लोहिया के सपनों में जिंदा
जयप्रकाश बन हँसता हूँ।

मैं गांधी का रामराज्य हूँ
मैं सुभाष जैसा नायक हूँ
मैं माटी की खुशबू में बस
जन गण मन का गायक हूँ।

दुनिया के देशों में जब भी
घना अँधेरा छायेगा
नहीं कहीं कुछ राह बचेगी
तब जनतंत्र काम आएगा।

मैं अभिव्यक्ति की आजादी हूँ
उसके ही गीत सुनाता हूँ
सामाजिक कल्याण के लिए
बदलाव नया ले आता हूँ।

मैं जनता के द्वारा शासित
जनता का ही शासन हूँ
मैं आत्मा की अभिव्यक्ति हूँ
मैं जीवन का अनुशासन हूँ।

सबके मन के भावों को 
मैं अपने मुख से बोल रहा हूँ
ध्यान से सुनना बातें मेरी
जिह्वा अपनी खोल रहा हूँ।

मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ
मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     15सितंबर,2020

सूरज और जनता।

सूरज और जनता।   


आपन ताप छोड़ि के सूरज
लागत हौ मुरझाइल बा
लोभ, मोह, हित, लाभ म परिकर 
लागत हौ अरुझाइल बा।

भोर से लेइके रात ले देखा
मनवा में एक्कई बात चले
कइसे बनिहे जुगाड़ कतहुँ भी
कइसे अब घर दुआर चले।

बिखरल लागत सबहि भावना
सब इच्छा अनुमान भयल
चिक्कन चुप्पड़ बातन में जइसे
जिनगी भी अनुपात भयल।

देखि देखि के सपना सुघ्घर
आँखिन में अब दर्द भयल
बूँद-बूँद से होइ का जब
ओहमन मोतियाबिंद भयल।

आसमान भी गमछा बान्हे
लागत जइसन चिढावत बा
दिखाई के लालीपाप हाथ मे
लागत जइसे ललचावत बा।

कइसन काल चलल बा एहिजा
जिनगी सब हलकान भयल
शीशा दिखाइब अब सूरज के
सूरज के अपमान भयल।

अपने अधिकारन के खातिर
सब केहू परेशान भयल
जिम्मेदारी के चर्चा ओनसे
ओनकर ही अपमान भयल।

देखि के खबरन में नौटंकी
सब केहू बहलाइल बा
सूरज भी करिया बादर में
लागत हौ अरुझाइल बा।

जनतंत्र में जनता ही सब
बातन के जिम्मेदार हौ
अच्छा बुरा जो भी होई
सबमें वो भी हिस्सेदार हौ।

जनतन भाव बहुत हौ सुंदर
जनता हौ सूरज कै भांति
इनके बिन कबहु भोर न होई
कबहु न फैली जीवन ज्योति।

बनकर के जनतन के सारथी
जीवन के गुणगान करा
उनकर मन के भाव के समझा
ओकर ही सम्मान करा।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      13सितंबर,2020

हिंदी भारत की भाषा।

हिंदी भारत की भाषा।

हिंदी भारत की भाषा है
हिंदी ही हिंदुस्तान है।
हर भाषा से प्रेम सिखाती
सर्वोत्तम इसका स्थान है।

आदिकाल से हिंदी ने
जन जन में प्रेम जगाया है
संपर्क बनी जन मानस की
हर दिल में भाव जगाया है।

तुलसी, सूर, कबीर, रसखान
सबने हिंदी को अपनाया है
अपनी रचनाओं से सारे
जग में प्रकाश फैलाया है।

बिहारी, केशव, मीरा ने भी
हिंदी को अपनाया है
अपने भक्ति के गीतों से
प्रेम भाव समझाया है।

युगों युगों से लड़ती आयी
कितने ही तूफानों से
अटल अकंटक डटी रही
कैसे भी अंजामों से।

सब धर्मों औ ग्रंथों का
हिंदी से भाई चारा है
सबने इसको है अपनाया
औ इसको ही स्वीकारा है।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
सबसे इसका नाता है
इसको सारे ही भाते हैं
सब इसको अपनाते हैं।

आओ इसका सम्मान करें
ये भारत की भाषा है
हिंदी है अभिमान हमारा
ये भारत की अभिलाषा है।


✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       13सितंबर,2020

रात का अंतिम पहर।

रात का अंतिम पहर।

वक्त से कुछ बोलकर
मोह सारे छोड़कर
चल पड़ी है इक डगर
रात का अंतिम सफर।

शून्यता को ताकती
मौन मन को भाँपती
ताकती है इक नजर
रात का अंतिम पहर।

तड़प सारे तोड़कर
भँवर सारे मोड़कर
शांति तलाशती लहर
रात का अंतिम पहर।

द्वार सारे बंद हैं
शोर भी अब मंद हैं
मंद है चलता शहर
रात का अंतिम सफर।

मुक्तिकामी चेतना
मौन मन की वेदना
ढूंढती है इक डगर
रात का अंतिम सफर।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13सितंबर,2020

रोटी की चाहत।

रोटी की चाहत।  

जीवन का मर्म है क्या बस
उसने ही तो जाना है
रोटी की कीमत जिसने
हर पल ही पहचाना है।

भूख, गरीबी और कुपोषण
उसने ही है जान लिया
बचपन में जिसने माँ की
सूखी छाती पहचान लिया।

माथे की गिरती बूंदों ने
दृश्य नया दिखलाया है
जीवन की मौलिक चाहत का
मर्म सभी को समझाया है।

गर्मी, सर्दी, बरसातें हों या
आंधी, तूफानों का मौसम
भूख गरीबी के आगे
नहीं टिका कोई बंधन।

रोटी की कीमत क्या होती
उस जीवन से पूछो तुम
गिरता जिसका खून पसीना
तब चूल्हा जल पाता है।

जिम्मेदारी की गठरी ले
हरपल वो चलता जाता है
रोटी की छांव मिले जब
तब ही जीवन मुस्काता है।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10सितंबर,2020

जनमत के सरोकार।

जनमत के सरोकार। 

आज भूमिका बदल रही है
जन जन के व्यवहारों की
बदल रही है आज व्यवस्था
ताकत औ सरोकारों की।

चमक दमक के पीछे पड़कर
देखो सारे भाग रहे
कितने देखो लोग बचे जो
व्यवहारों में जाग रहे।

लोकतंत्र के मंदिर में भी
ऐसे भी हैं लोग बसे
कुछ बातें करते जनहित की
और कुछ अपनी जिद पे ठसे।

लोकतंत्र का चौथा खंभा 
भी कुछ कुछ बहलाता है
ले जाना होता और कहीं
और कहीं ले जाता है।

मूल भूत सुविधाओं की
बातें जैसे बेमानी हैं
भूख, गरीबी और चिकित्सा
मुद्दों की गुमनामी है।

बेरोजगारी की बातें अब
यहां नहीं कोई करता
फिल्मी संवादों से केवल
जनता का पेट नहीं भरता।

राष्ट्र संपन्न रहता तब ही
जब जनता जिम्मेदार बने
जिम्मेदारी तब आती है
सभी को जब रोजगार रहे।

सुविधाओं के वादे झांसे
बदलाव नहीं ये ला सकते
इनसे जनता स्वार्थी होगी
विश्वास नहीं ये ला सकते।

सत्ता लोलुपता ने जाने 
क्या क्या खेल रचाया है
आज़ादी से अब तक कितनी
उँगली पे रंग लगाया है।

उँगली की स्याही से केवल
जनमत नहीं कभी जागेगा
भूख, अशिक्षा औ गरीबी
मिटने से ही ये जागेगा।

जनतंत्र का विकल्प कभी भी
पूंजीवाद ना हो पायेगा
लोकतंत्र बस धूमिल होगा
हाथ नहीं कुछ भी आएगा।

कहने को तो जातिवाद का
विरोध यहां सभी करते हैं
पर वोटों की खातिर सारे
जाति-धरम लेकर चलते हैं।

मंचों की बातों से केवल
बदलाव नहीं कुछ आएगा
साथ, विकास, विश्वास ही बस
जनमत सुफल बना पायेगा।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09सितंबर,2020

प्रतिवाद जरूरी है।

प्रतिवाद जरूरी है।  

सत्ता की ताकत पर अपने
ना इतना अभिमान करो।
जनता के भावों को समझो
उनका ना अपमान करो।

जनमत की ताकत के आगे
और नहीं कुछ टिकता है
ये वो दौलत है जो बस
भावों पर ही झुकता है।

इनकी भावों का ना तुम
किंचित भी अपमान करो
बुल्डोजर की ताकत पर
ना इतना अभिमान करो।

सत्ता चाहे जैसी भी हो
चिरकाल नहीं वो चलती है
जीवन का पहिया भी सुन लो
उमर के संग ही ढलती है।

आज मिली जो सत्ता तो फिर
सम्मान सदा इसकी करना
ये ऐसा मलहम है जिससे
घाव सदा जनता के भरना।

सब्जबाग दिखला कर के
हरबार भरमा नहीं सकते
चिकनी चुपड़ी बातों से
हरबार बहला नहीं सकते।

सत्ता की बेचैनी देखो
कैसे खेल दिखाती है
सत्यकाम को मौन कराने
कितनी हद तक जाती है।

अपराधी व अपराधों पर
चलना अभियान जरूरी है
जो भी सत्ता आड़े आये
उसका अवसान जरूरी है 

सत्ता का प्रतिवाद कभी भी
राजद्रोह ना हो सकता
ये वो आजादी है जिसको
कोई छीन नहीं सकता।

संविधान की गोदी में ही
अभिव्यक्तियां सब पलते है
इसकी छतरी के नीचे ही
राजसुख सभी मिलते हैं।

राष्ट्र तभी खुशहाल बनेगा
सत्यकाम जब मुस्कायेगा
सत्ता का सूरज जन जन में
प्रेम भाव ला पायेगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      10सितंबर,2020









खुद से प्यार करो।

खुद से प्यार करो।  

ये जीवन कितना सुंदर है
आओ इसका दीदार करें
कुछ भी करने से पहले हम
आओ खुद से भी प्यार करें।

ये जीवन है अनमोल यहां
इसे आशंका में न तोलो
इसके संकेतों को समझो
इसे अवसादों में न घोलो।

जीवन रिश्तों की क्यारी है
ये सुंदर सी फुलवारी है
ना तेरी है ना मेरी है
ये सबकी जिम्मेदारी है।

मां, बाप, बहन, भाई इसके
आवश्यक पोषक तत्व यहां
बेटी, बेटा औ पत्नी सब
जीवन उपयोगी सत्य यहां।

इनके बिना न जीवन चलता
और न कोई सपना पलता
इनसे ही हैं सारी खुशियां
इनसे ही जीवन है मिलता।

संगी, साथी, नाते, रिश्ते
इसकी छाँवों में पलते हैं
जब इसका वरदान मिले है
तब जीवन उपवन खिलते हैं।

इक दूजे के लिये यहां तुम
सम्मान सदा मन में रखना
कैसी भी विपदाएं आएं
विश्वास सदा सब पर रखना।

विश्वास यहां वो डोरी है
जिसपर ये जीवन चलता है
अपनेपन के ही भावों से
सुंदर सा जीवन पलता है।

छोटी छोटी सारी बातों
का मान सदा सबकी रखना
राग, द्वेष औ मिथ्याओं से
बचकर के सब हरदम रहना।

झूठ नहीं रिश्तों में बोलो
हरदम तोल मोल कर बोलो
जब ज्यादा आवश्यक लागे
तब ही अपने मुख को खोलो।

शब्दों की पीड़ाएँ कितने
ही अमिट घाव दे जाते हैं
औ शब्द कभी मलहम बनकर 
नासूर यहां भर जाते हैं।

झूठ बोलकर संबंधों में
तुम दांव नहीं कोई चलना
विश्वास मिटा इक बार कहीं
मुश्किल है फिर जीवन चलना।

वेद, पुराण, औ ऋषि, मनीषी
यही बात कहते हैं सारे
सामंजस्य रिश्तों की कुंजी
इनसे बनते रिश्ते न्यारे।

जीवन को यदि जीना है तो
सब रिश्तों का सम्मान करो
मन के भाव समझना है तो
पहले खुद से ही प्यार करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06सितंबर,2020









साथी की भी सुन लेना।

साथी की भी सुन लेना।  

दुर्गम पथ चुनने से पहले
साथी अपना चुन लेना
मन की कुछ करने से पहले
साथी की भी सुन लेना।

पथ दुर्गम हो चाहे जितना
पूरा सबको करना है
पग की सारी पीड़ाओं को
मिलजुल कर के हरना है।

पंथ भले दुष्कर हो तेरा
औ सीमाएं निश्चित हों
कुशल पथिक की भाँती चलना
सब शंकाएं अनुचित हों।

पग पग पर वादों का अंबर
तुझको पूरा करना है
लोभ, मोह, निज स्वार्थ से ऊपर
राह तुझे ही चुनना है।

राह मगर चुनने से पहले
जन गण मन की सुन लेना
मन की कुछ करने से पहले
साथी की भी सुन लेना।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05सितंबर,2020




प्रतीक्षा।

प्रतीक्षा               

मौन प्रतीक्षारत जीवन
करता है स्वीकार यहां
पंथ चुनौती देता है
कर लो आंगिकार यहां।

इक विश्वास उमड़ता हर पल
पल पल प्रति जीवन पथ पर
और खींचता जाता हमको
मंगलकारी जीवन पथ पर।

जीवन अपना रेल की तरह
साथ-साथ चलते हैं सुख-दुःख
अगणित पड़ाव मिलते पथ में
पर जीवन नहीं बदलता रुख।

ठहरा जो भी पथ में इसके
लोक उसे फिर भुला है
चलना जिसने स्वीकार किया
जग की बाहों में झूला है।

ठहरे पल में रुक जाता है
हो जाता है जीवन वंचित
चलता रहता जो इस पथ में
धैर्य, पुण्य करता वो संचित।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    20अगस्त, 2020

स्वार्थ से लोभ।




स्वार्थ से क्षोभ। 

आत्मा तक बिक रही है, खरीदार चाहिए
चुका सके मूल्य ऐसा, असरदार चाहिए
हैं खड़े बाजार में सब, बाट अपनी जोहते
ज़िंदगी के हर मोड़ पे, धन अपार चाहिए।

है गांव की खबर नहीं, शहर से क्या वास्ता
राह चली जिस भी डगर, है वही अब रास्ता 
है अस्वीकार मुझको, अब कुछ भी राह में
सिर्फ मुझे दृढ़ता भरा, एतबार चाहिए।

थोड़े पैसों के लिए, हैं सभी जोड़-तोड़
स्वप्न आकार ले सकें, हैं सभी तोड़-फोड़
अवरोध व प्रतिरोध से, है नहीं अब वास्ता
करे निज स्वप्न साकार, वही धार चाहिए।

बाजार के अधीन हो, दांव सभी चल रहे
है नहीं खबर अभी तक, खुद को ही छल रहे
इतने गहरे स्वार्थ से, मोह ना लगाइए
ऐसे सभी बर्ताव से, एतराज चाहिए।

मन के अंदर झांक कर, खुद को भी देखना
बेचने से पूर्व मगर, त्याग सभी देखना।
अपने सारे त्याग से, सीख लेना चाहिए
लोभ मोह निज स्वार्थ को, जीत लेना चाहिए।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03सितंबर,2020

प्रत्यंचा।

प्रत्यंचा।   

जीवन की प्रत्यंचा हरदम
कस कर थामे रहना तुम
कितने हों अवरोध, रुकावट
सबको छलनी करना तुम।

पर जीवन का उद्देश्य महज
रण का भाव नहीं होता
इससे पीछे हटना लेकिन
उचित स्वभाव नहीं होता।

एक पराजय से जीवन में
प्रलय नहीं है कोई आती
यदि प्रत्यंचा ढीली ना हो
लक्ष्य संधान सहज बनाती।

इसीलिए इस जीवन रण में
गांडीव सदा थामे रहना
लक्ष्य साधने की खातिर
प्रत्यंचा  साधे रहना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     02सितंबर,2020

मील का पत्थर।

मील का पत्थर।   

थोड़ी थोड़ी दूरी पर ही
मैं निष्कंटक मौन खड़ा हूँ
आते जाते सारे पथ में
अटल अकंटक मौन पड़ा हूँ।

हर आने जाने वाले को
मैंने ही राह दिखाई है
पथ से भटके हर पंथी को
पथ की पहचान बताई है।

अपने इस जीवन में मैंने
जाने कितने मौसम देखे
धूप-छांव की रंगत देखी
कितने ही परिवर्तन देखे।

राहें कितनी भी सुनी हों
मैंने धैर्य नहीं खोया है
खायी ठोकर चाहे जितनी
लेकिन नहीं कभी रोया है।

जीवनपथ में तुम भी अपने
अटल इरादे लेकर चलना
चाहे कितने कंटक आएं
हँस कर के तुम सबसे मिलना।

मंजिल के नजदीक पहुँचकर
नहीं कभी खुद पर इतराना
फिर भी यदि शंका कुछ आए
तुम मुझसे मिलने आ जाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      01सितंबर,2020


मन के पट खोल।

मन के पट खोल। 

मन के पट तू खोल रे
मीठे मीठे बोल रे
कुछ भी कहने से पहले
शब्दों को तू तोल रे।

शब्दों से एहसास जगे हैं
रिश्तों में मिठास जगे हैं
बिगड़ी सब बातें बन जाती
अपनेपन की प्यास जगे हैं।

क्या तेरा है क्या है मेरा
ये दुनिया इक रैनबसेरा
काहे को अभिमान करे
ये जग जोगी वाला फेरा।

इक दिन सबको है जाना
क्या खोना, औ क्या पाना
राहों में जो भी मिल जाये
हँस करके सबको अपनाना।

हाथ तेरे न कुछ आएगा
जो भी पाया रह जायेगा
खुलेगी जब कर्मों की गठरी
सत्कर्म तेरा बस काम आएगा।

ऋषि महात्माओं की है वाणी
जीवन है ये अनमोल रे
नैतिकता की राह चला चल
भक्ति में जीवन घोल रे।

मन के पट तू खोल रे
मीठे मीठे बोल रे
कुछ भी कहने से पहले
शब्दों को तू तोल रे।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01सितंबर,2020

धीरे धीरे पांव बढ़ाये जा।

धीरे धीरे पांव बढ़ाये जा।


जीवन पथ पर धीरे धीरे
मितवा पांव बढ़ाये जा।
राहों की सब बाधाओं को
हँस कर तू अपनाये जा।

राहों के ये कंटक सारे
बिखरा ना तुझको पाएंगे
तेरी उम्मीदों के आगे
स्वतः मार्ग दे जाएंगे।

मन की सारी बेचैनी को
अब तू दूर भगाए जा।
जीवन पथ पर धीरे धीरे
मितवा पांव बढ़ाये जा।।

वादों औ कसमों में पड़कर
खुद को ना उलझाना तुम
जग की बिफरे तानों से
मन को ना तड़पाना तुम।

मन में अपने भाव जगा कर
खुद की राह बनाये जा।
जीवन पथ पर धीरे धीरे
मितवा पांव बढ़ाये जा।।

पंथ अकेला भले हो तेरा
ना आशंकित होना तुम
सत्यकाम बनकर तुम चलना
मत परिवर्तित होना तुम।

सत की ध्वजा लिए हाथों में
हर पल तू मुस्काए जा।
जीवन पथ पर धीरे धीरे
मितवा पांव बढ़ाये जा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर,2020

सूरज भी है ढलता।

सूरज भी ढलता है।

लोकतंत्र ने रूप है बदला
सूरज ने भी धूप है बदला
चांद सितारे वही पुराने
लेकिन सबका नूर है बदला।

जिस सूरज के आने से
जग रोशन हो जाता है
उस सूरज का ताप बढ़े जब
शीतल देह जलाता है।

दूर बैठ कर चंदा लेकिन
देख सभी को बहलाता है
अपने शीतल भावों से
उम्मीद नई जगाता है।

लोकतंत्र में सत्ता भी कुछ
सूरज सा रूप दिखाती है
पूरे करने को वादे सब
वो भी दांव चलाती है।

सब अच्छा रहता है तब तक
जनहित होता रहता जब तक
जब सत्ता में स्वार्थ पनपता
तब मुश्किल में पड़ती जनता।

सत्ता के मंदिर में जब तक
स्वार्थ प्रवृत्ति हावी होगी
लोकतंत्र सब दूषित होगा
पूजा नहीं प्रभावी होगी।

मुफ्तखोरी के वादे सारे
बस मन को बहलाते हैं
क्षण भर का सुख मिलता है
दूषित भविष्य कर जाते हैं।

बहुमत का पर्याय हमेशा
मन की बात नहीं होता है
जन गण मन की गहराई का
भाव समझना भी होता है।

जैसे सूरज की गरमी का
तोड़ घरों में अपनाते हैं
वैसे ही उद्दवेलित हो जन
बदलाव नया ले आते हैं।

सूरज फिर भी ढलता रहता
अपना ताप बदलता रहता
चंदा की छांवों में पलकर
अगले दिन फिर चलता रहता।

वैसे ही ये लोकतंत्र है
मिश्रित भाव जरूरी है
सामाजिक समरसता का भी
होना एहसास जरूरी है।

लोकतंत्र है तब तक हँसता 
जब तक उसमें जीवन पलता
पर अपनी करने से पहले
मत भूलो सूरज भी है ढलता।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      01सितंबर,2020







गांव की खुशबू।

गांव की खुशबू।       

नेनुआ, भिंडी औ तररोई  
क्या कुछ याद दिलाती है
छप्पर पर लटकी वो लौकी
मुँह में स्वाद जगाती है।

आलू के खेतों की क्यारी
हरी मटर की तरकारी
लहसुन,धनिया की वो खुशबू
घर आंगन महकाती है।

पालक,मेथी औ चौराई
बथुआ मन ललचाता है
दूर देश में बसे सभी को
गांवों की याद दिलाता है।

गन्ना के रस भीनी खुशबू
गुड़ की महक, राब की खुशबू
भूनी आलू सोंधी सोंधी
मन में लोभ जगाती है।

भिंडी, पटर, करेला, कटहल
सबके मन को भाती है
इनके बिना न भाए भोजन
पंगत में स्वाद जगाती है।

बाल्टी में आमों की खुशबू
केला औ अमरूद की खुशबू
जामुन, बेल, आंवला कितने
रोगों को दूर भगाती है।

आज शहर की जिंदगी हमको
देख कहां ले आयी है
बंद हुआ डिब्बों में जीवन
घुट घुट कर तड़पाती है।

पैसा चाहे खूब कमा लो
शहरों में महल बना लो
मगर गांव की खुशबू दिल से
निकल नहीं कभी पाएगी।

असली भारत गांव बसे है
सत्य नहीं मिट पायेगा
दूर देश में बसे सभी को
मिट्टी की याद दिलाएगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
       हैदराबाद
       30अगस्त,2020

मुझे याद है जरा जरा।




मुझे याद है जरा जरा।  

वो प्यार की हसीन डगर
चले जो बनके हमसफ़र
वो चाहतों की बारिशें
मुझे याद है जरा जरा।

वो ज़ुल्फ़ की घटा तेरी
कांधों पे बेसबब गिरी
पलकों की वो सिफारिशें
मुझे याद है जरा जरा।

तेरी अदा, वो शोखियों
लवों की वो सरगोशियां
बाहों की वो गुजारिशें
मुझे याद है जरा जरा।

वो वक्त की पाबंदियां
वो चीखती खामोशियाँ
वो दिल की मौन ख्वाहिशें
मुझे याद है जरा जरा।

माना कि हम मिले नहीं
साथ दूर तक चले नहीं
पर प्यार की वो राहतें
मुझे याद है जरा जरा।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       29अगस्त,2020

बिटिया को आशीष।

बिटिया को आशीष।    

ओ मेरी प्यारी बिटिया सुन
जीवन की सारी खुशियां सुन
देख तुझे पुलकित होता मन
हँसती घर की गलियां सुन।।

जिस पल तू घर में आई
जीवन की बगिया मुस्काई
मरुधर से इस जीवन में
बसंत बहार तू ले आई।।

उदास जो तू हो, मुरझाए
घर के सभी खिलौने सुन।
तेरे हँसने से हँसता हैं
घर के कोना कोना सुन।।

है आशीष हमारा तुझको
जग की सारी खुशियां पाए
जीवन का हर पथ सुंदर हो
कदमों में कलियाँ बिछ जाए।।

तेरी खुशियाँ ही मेरे
जीवन का है सपना सुन।
और नहीं कुछ माँगू प्रभु से
पूरा हो तेरा सपना सुन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
 हैदराबाद
 29अगस्त, 2020

तुम्हारी याद।

तुम्हारी याद।             

भींगी भींगी रात सुहानी
याद तुम्हारी ले आई।
कसमें, वादे, प्यार, वफ़ा की
बात पुरानी ले आई।

इक दूजे के पहलू में हम
कितने सपने बुनते थे
ऐसे खोये इक दूजे में
और नहीं कुछ सुनते थे।

मधुर चाँदनी पावस की फिर
आज वहीं फिर ले आई।
भींगी भींगी रात सुहानी
याद तुम्हारी ले आई।।

उन यादों की परछाईं
मीठे सपनों की अँगनाई
पल पल मुझे छकाती औ
नेह जगाती ये पुरवाई।

पुरवाई के पवन झँकोरे
चाह वही फिर ले आई।
भींगी भींगी रात सुहानी
याद तुम्हारी ले आई।।

मुझे सुलाने की खातिर
साथ जगे सब चंदा तारे
नींद ने भी उम्मीद न छोड़ी
पलकों के आगे, पर हारे।

हार-जीत की इस दुविधा में
मिली मुझे बस रुसवाई।
भींगी भींगी रात सुहानी
याद तुम्हारी ले आई।।

छोड़ मुझे जब जाना था
यादें वो सारी ले जाते
साथ गुजारी जो हमने
वो रात सुहानी ले जाते।

तेरे इस आने जाने से
जान पे मेरे है बन आई।
भींगी भींगी रात सुहानी
याद तुम्हारी ले आई।।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
          हैदराबाद
          28अगस्त,2020

उम्र।

              उम्र।         


ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही
लिए चंद ख्वाहिशें, मौन मचलती रही।।

उम्र के हर ठौर पर, मुश्किलों का दौर पर
ख्वाहिशों का बोझ ले, खुद से ही लड़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

शब्दो से ही घाव थे, शब्दों से ही भाव थे
शब्द के वो मायने, उम्र बदलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

दर्द का वो धुंधलका, साफ हो सके कभी
चाहतें लिए यही, आंख छलकती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

लोगों की भीड़ ने, पत्थर दिल कहा जिसे
मौन वो मोम सी, बूँद बूँद पिघलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

हालात की चोट से, जितना रौंदते रहे
उतनी हो मुखर यहां, राह निखरती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

छोटा हो या हो बड़ा, सबका एक रूप है
एक रूप भाव ले, निष्पक्ष बढ़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

वक्त के साथ सब, अपनी राह देख लो
सूर्य की भी रोशनी, हर शाम ढलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

ना कर गुरुर तू, अपनी किसी बात पर
आखिरी सफर में उम्र, खुद से ही बिछड़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही
लिए चंद ख्वाहिशें, मौन मचलती रही।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अगस्त,2020

गीत-प्रेम दीवानी।

गीत- प्रेम दीवानी।  

मैं तो दीवानी हुई
सपनों की रानी हुई
डूबी मैं तुझमें ऐसे
ज्यूँ मीरा दीवानी हुई।।

सुध-बुध भूली ऐसे
अपनी खबर ही नहीं
डूबी मैं तुझमें ऐसे
अपनी कदर ही नहीं।

आन बसे जो दिल में
ये सांसें सुहानी हुई।
डूबी मैं तुझमें ऐसे
ज्यूँ मीरा दीवानी हुई।।

तुझसे शुरू हो करके
तुझपे ही खत्म हूँ मैं
नहीं और चाहत दिल में
बस तेरी चाहत हूँ मैं।

तेरे ही सपने देखूं
रातें सुहानी हुई।
डूबी मैं तुझमें ऐसे
ज्यूँ मीरा दीवानी हुई।।

इतनी है चाहत मेरी
साथ तेरा न छूटे
रूठे भले जग सारा
मुझसे पिया ना रूठे।

पिय की खुशी ही मेरे
होठों की लाली हुई।
डूबी मैं तुझमें ऐसे
ज्यूँ मीरा दीवानी हुई।।

मैं तो दीवानी हुई
सपनों की रानी हुई
डूबी मैं तुझमे ऐसे
ज्यूँ मीरा दीवानी हुई।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26अगस्त,2020




चिट्ठी तेरे नाम की।



चिट्ठी तेरे नाम की।  

चिट्ठी तेरे नाम लिखी जो
उसको बस पढ़ लेना तुम।
मन की सारी बातें उसमें
मौन, मगर सुन लेना तुम।

थोड़ी सी बातें अपनी हैं
थोड़ी जग की रुसवाई है
थोड़े शिकवे अपनेपन के
औ चाहत की गहराई है।

थोड़ी ही बातें हैं उसमें
पूरा मगर समझ लेना तुम।
चिट्ठी तेरे नाम लिखी जो
उसको बस पढ़ लेना तुम।

साथ निभाने का वादा
राह दिखाने का वादा
भूल नहीं जाना प्रियवर
वादा निभाने, का वादा।   

वादों की पीड़ाओं को
मौन मगर सह लेना तुम।
चिट्ठी तेरे नाम लिखी जो
उसको बस पढ़ लेना तुम।

उम्मीदों का आसमान तुम
जीवन में मेरे लाये
अपनेपन की बातों से
कितने ही सपने दिखलाये।

उन सपनों की गठरी को
पलकों से चुन लेना तुम।
चिट्ठी तेरे नाम लिखी जो
उसको बस पढ़ लेना तुम।

जीवन, वो ही जीवन है
जो उम्मीदों पर चलते हैं
इक दूजे का साथी बनकर
सब पीड़ाएँ हरते हैं।

मन की सारी पीड़ाओं को
आज समझ फिर लेना तुम।
चिट्ठी तेरे नाम लिखी जो
उसको बस पढ़ लेना तुम।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अगस्त,2020

प्रतीक्षा।

 



प्रतीक्षा             

मौन प्रतीक्षारत जीवन
करता है स्वीकार यहां
पंथ चुनौती देता है
कर लो अंगीकार यहां।

इक विश्वास उमड़ता हर पल
पल पल प्रति जीवन पथ पर
और खींचता जाता हमको
मंगलकारी जीवन पथ पर।

जीवन अपना रेल की तरह
साथ-साथ चलते हैं सुख-दुःख
अगणित पड़ाव मिलते पथ में
पर जीवन नहीं बदलता रुख।

ठहरा जो भी पथ में इसके
लोक उसे फिर भूला है
चलना जिसने स्वीकार किया
जग की बाहों में झूला है।

ठहरे पल में रुक जाता है
हो जाता है जीवन वंचित
चलता रहता जो इस पथ में
धैर्य, पुण्य करता वो संचित।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    20अगस्त, 2020

सम्मान।

सम्मान         

तेज हवा के झोंकों ने
जीवन पर कितना वार किया
जीवन भी अलबेला ठहरा
हँस कर के स्वीकार किया।

हर भोर नई जिम्मेदारी
ले द्वार पलक का खटकाती
शाम सुहानी फिर आकर
हौले से खुद सहलाती।

शाम सुबह के बीच खड़ी
सपनों की सुंदर डोरी
कभी मिला है साथ सभी का
और कभी खुद नाते जोड़ी।

जिम्मेदारी की गठरी ले
जीवन पथ जो चलते हैं
उनके ही कांधों पर कितने
सुंदर सपने पलते हैं।

इनकी लहरों से भींगे जो
जीवन तर कर जाते हैं
मिलता है सम्मान जगत में
प्रेम सभी से पाते हैं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अगस्त,2020

श्वेत भाव।

   श्वेत भाव             

श्वेत गगन हैं, श्वेत मेघ हैं
श्वेत धवल हैं हिम की बूंदें
श्वेत भाव ले प्रकृति सारी
बरसाती अमृत की बूंदें।

श्वेत रंग जब जलद बरसता
रंग धरा में तब आता है
धरती तब पुलकित होती है
रंग हरा तब मिल पाता है।

हिमगिरि से सागर के तट तक
श्वेत चांदनी फैली है
इतना श्वेत चरित्र है जग का
फिर गंगा क्यों मैली है।

श्वेत वसन पहचान देश की
श्वेत भाव मुस्कान देश की
श्वेत चित्त है शांति प्रदाता
सुख, समृद्धि, सम्मान देश की।

फिर क्यों रंग बदलता है
इंसानों का जीवन इतना
आओ इससे हम सीखें
हर रंगों में खुद ढलना।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        19अगस्त,2020

एक प्रश्न।

एक प्रश्न         

पूछ रहा है देश हमारा
लाल किले की प्राचीरों से
कब तक वादे बहलायेंगे
निर्धनता को तकदीरों से।

पूछ रही है सूखी आंतें
सत्ता की अंगनाई से
भारत कब बाहर आएगा
निर्धनता की गहराई से।

पूछ रहे हैं गांव के रास्ते
शहरों की चिकनी सड़कों से
उनसे मेल कभी क्या होगा
बिन गड्ढ़ों औ बिन झटकों के।

पूछ रही टपकती खपरैल
सत्ता के रणवीरों से
मुक्ति इनको कब मिलेगी
शीत,ग्रीष्म व बरसातों से।

पूछ रही सागर की लहरें
नदियों से औ तटबंधों से
मुक्त धरा कब होगी अपनी
जाति, धर्म वाले फंदों से।

पूछ रहा है खड़ा हिमालय
सत्ता के गलियारों से
कब तक भारत छलनी होगा
गद्दारों के वारों से।

पूछ रही सरहद की आंखें
भारत के जिम्मेदारों से
कब तक शरण मिलेगी भीतर
कुछ जयचंदी व्यवहारों को।

जाने कितने प्रश्न दबे हैं
जन गण मन के सीने में
इन प्रश्नों का हल मिलने तक
मुश्किल होगा फिर जीने में।

भृष्ट आचरण सता लालच
मुद्दों से बस भटकाएगा
विकास सब बाधित होगा
हाथ नहीं कुछ आएगा।

इन मसलों के हल की खातिर
जन गण को ही उठना होगा
अपने अधिकारों की सुरक्षा
अब हमको ही करना होगा।

लोभ मोह लालच से हटकर
जीवन हमको चुनना होगा
नई सदी के नूतन भारत
का सपना हमको बुनना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 17अगस्त,2020

श्री राम महिमा।

🙏🌹श्री राम महिमा 🌹🙏     

🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️
   
 ।।दोहा।।

राम नाम के जाप से, मिलती शक्ति अपार।
जो सुमिरै नित नाम ये, मिले ज्ञान भंडार।।

 ।।चौपाई।। 

राम नाम है जीवन नायक, नित्य जपो है शुभ फल दायक।
इससे ही है जीवन सुरभित, सकल विश्व होता है पुलकित।
इनके जप से कष्ट मिटे हैं, रोग दोष संताप छंटे हैं।
हर घर में खुशहाली आती, प्रेम भावना सबमें लाती।
दुःख दरिद्रता दूर मिटे हैं, जो भी इनकी राह चले हैं।
रिश्तों की महिमा समझाई, तब पुरुषोत्तम नाम कहाई।। 

  ।।दोहा।।

इनसे ही जीवन मिला, मिला सभी को ज्ञान।
नीति प्रज्ञ का मार्ग मिला, मिला धर्म को मान।।

 ।।चौपाई।।

झूठ नहीं जीवन में बोले, हर पल सोच समझ कर बोले।
बात कही सो सीधी वाणी, संग चले इनके कल्याणी।
जिसने अपना जीवन वारा, राम नाम का बना सहारा।
जिनकी किरपा यदि मिल जाये, मानस का जीवन तर जाए।
इनसे जग को ज्ञान मिला है, रिश्तों का सम्मान मिला है।
जीवन क्या हमको समझाया, त्याग समर्पण पाठ पढ़ाया।

   ।।दोहा।।

इनकी किरपा से बने, जीवन ये खुशहाल।
इनके ही आशीष से, मिटे सकल अँधकाल।।

   ।।चौपाई।।

धन्य धन्य है भारत भूमी, जिसने राम कृष्ण को जाया।
गीता का उपदेश दिया है, जीवन सार हमें समझाया।
राम राम है नाम अपारा, सकल जगत ने है स्वीकारा।
जिनकी महिमा कही न जाए, लेखनी शब्द कहां से लाए।
इतनी किरपा सब पर करना, अवसाद सकल जगत का हरना।
जीवन सब सुरभित हो जाए, खुशियों की कलियाँ मुस्काए।

   ।।दोहा।।

किरपा जिसपर राम की, जीवन बने महान।
घर घर बाढ़े प्रेम धन, हो सबका सम्मान।।

   ।।चौपाई।।

नाम अनेकों अकथ कहानी, बहु विधि जाए कथा बखानी।
निर्गुण सगुण बिच नाम सुंदर, जपो इसे हो जीवन सुंदर।
राम नाम जपि जागहिं जो भी, छूटहिं प्रपंच बनते योगी।
ब्रह्म सुखहि सब अनुभव कीन्हा, राम नाम रस जीवन पीन्हा।
सच्चे मन से नाम पुकारे, मिटे कुसंकट होहि सुखारे।
ज्ञान ध्यान सब कुछ मिल जाये, सकल मनोरथ भाव जगाए।

    ।।दोहा।।

राम नाम विश्वास है, राम नाम निष्काम।
राम नाम से जग चले, बनते बिगड़े काम।।
राम नाम है बड़ यहां, देता शक्ति अपार।
इससे ही होता यहां, सकल जगत उद्धार।।
राम नाम से प्रीत कर, राम नाम से रीत।
राम नाम से सब मिले, राम नाम से जीत।।

 🕉️सियावर रामचंद्र की जय🕉️
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      16अगस्त, 2020

भारत महिमा।

भारत महिमा

हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।

भारत की इस माटी पर
क्यों ना हो अभिमान हमें
राह दिखाई जीने की
दिलवाया सम्मान हमें।

है उन्नत इतिहास हमारा
दुनिया ने जिसको स्वीकारा
जिसके हर इक कदमों पर
दुनिया ने तन मन धन वारा।

जिसने सबको राह दिखाया
नैतिकता है क्या समझाया।
ऐसी धरती की माटी पर
हम नित नित शीश झुकाते हैं।

हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।

दुनिया को इसने राम दिए
नानक, बुद्ध महान दिए
दुनिया को गीता समझाया
अच्छे बुरे की राह बताया।

इसने वेद पुराण दिए
जग को चाणक्य महान दिए
हमें विदुर की नीति सिखाई
मानस ग्रंथ महान दिए।

ऐसी पावन माटी को हम
नित नित शीश झुकाते हैं।
हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।

शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता का
नित नूतन प्रतिमान दिए
नालंदा औ तक्षशिला संग
काशी, मथुरा से ज्ञान दिए।

जिसने प्रेम सिखाया जग को
हम जिससे जीवन पाते हैं।
हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।

राणा प्रताप, लक्ष्मीबाई
वीर शिवाजी, नानाजी
तोड़ गुलामी की जंजीरें
अलख जगाई आज़ादी की।

राजगुरु, सुखदेव, भगतसिंह
बिस्मिल, सुभाष, आजाद दिए
लाल, बाल, पाल दिए हैं
जवाहर, गांधी महान दिए।

ऐसी पावन जननी को हम
नित नित शीश झुकाते हैं।
हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।

इस माटी की गौरव गाथा
अनजाना क्या गा पायेगा
इसका इक इक कण पावन है
दुश्मन समझ न पायेगा।

जिनके मंसूबे बेमानी है 
उनको है एलान यहां
वक्त अभी है बदलें खुद को
वरना मुश्किल राह यहां।

भारत ये भूभाग नहीं है
तुम जिसकी चाहत करते हो
वक्त अभी संभालो खुद को
बेमौत यहां क्यूँ मरते हो।

कण कण में है साहस इसके
हर बच्चा बच्चा शोला है
शत्रु के नापाक इरादों को
बस तलवारों से तोला है।

हैं अहिंसा के अनुयायी हम
पहला वार नहीं करते
स्वाभिमान को छेड़े कोई
हम स्वीकार नहीं करते।

ऐसी पावन धरती का
गुणगान यहां हम गाते हैं।
हम भारत के वासी हैं
भारत का गीत सुनाते हैं।।


✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद
     15अगस्त, 2020

अभिनय



अभिनय              

दुनिया ये इक रंगमंच है
नित नूतन दिखता व्यवहार
अभिनय की श्रेणी पर निर्भर
जीवन के सारे व्यापार।।

कोई रोता कोई हंसता
कोई सोता कोई जगता
हर मौके पर सबको अपना
अभिनित अभिनय ही है जँचता।

दूजे का सत भी लागे है
दोयम दर्जे का व्यवहार।
दुनिया ये इक रंगमंच है
नित नूतन दिखता व्यवहार।।

घूमो सारे बाजारों में
चौराहों या चौबारों में
हर चौक पर लाखों चेहरे
चिन्हित इच्छित सबका व्यवहार।

अभिनय सफल वही है समझो
जो ढल जाए मौसम अनुसार।
दुनिया ये इक रंगमंच है
नित नूतन दिखता व्यवहार।।

✍️ ©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद

आज़ादी- इक जिम्मेदारी

आज़ादी- इक जिम्मेदारी


गूंजी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है
जन जन को आह्लादित कर दे
ऐसा भाव जगाना है।।

देशप्रेम का घृत हो जिसमें
भाईचारा बाती हो
जिसकी हर लौ की लहरें
गीत प्रेम का गाती हों।

ऐसे लौ की धारा से
जीवन रोशन कर जाना है।
गूंजी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

आवाज़ उठे आज यहां जो
भारत की पहचान बने
भूले बिसरे इतिहासों का
फिर नूतन सम्मान बने।

अपने उन इतिहासों को
फिर इक बार बताना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

वार करे जो व्यभिचार पर
अनैतिकता पर, भ्रष्टाचार पर
काटे बेड़ी अवसादों की
वार करे जो जातिवाद पर।

एक सूत्र में देश पिरोए
ऐसी ललकार जगाना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

रोटी-कमल प्रतीक बना था
आज़ादी के दीवानों का
जीवन रण संगीत बना था
आज़ादी के परवानों का।

उनके उस दीवानेपन पर
नित नित शीश झुकाना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

भूख, गरीबी, बेकारी पर
जीवन की हर लाचारी पर
मूलभूत सुविधाएं सारी
गिरती शुचिता, बीमारी पर।

कुव्यवस्था जो भी फैली है
उनको दूर भगना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

कदम कदम पर ताक लगाए
कितने हैं शत्रु सूंघ रहे
खंडित भारत की चाहत ले
सालों से हैं ऊंघ रहे।

ऐसे सारे शत्रु को हमको
चिर-परिचित नींद सुलाना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

झूठे वादे तड़पाते हैं
लोभ-प्रलोभन बहलाते हैं
कठपुतली जैसा करके
सबका जीवन दहलाते हैं।

ऐसे झूठे आडंबर का
तोड़ हमें समझाना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है। 

आज़ादी उपहार नहीं है
ये इक जिम्मेदारी है
इसके समुचित संचालन में
सबकी हिस्सेदारी है।

आज़ादी के अहसासों को
सबमें हमें जगाना है।
गूंजी थी जो सन सत्तावन में
फिर आवाज़ उठाना है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 13 अगस्त, 2020

व्यंग्य

व्यंग्य        

चुप चुप से क्यों बैठे हो
क्या कोई बात तो नहीं
पहले भी मिले हैं हम
ये कोई पहली मुलाकात तो नहीं।

ये कोई पहली दफा तो नहीं
पहले भी तो मिले थे ऐसे ही कहीं
पांच साल बाद ही सही, मिले तो हैं
इसमें कोई नई बात तो नहीं।

माना वादे पुराने अभी पूरे नहीं हुए
वादों का क्या, इक बार और सही
ये तो राजनीति का तसव्वुर है
कोई नई बात तो नहीं।

संसद से सड़क तक चर्चा आम है
जाति-धर्म की बात, संविधान का अपमान है
मगर वोट के लिए सब चलता है
जो ये तिकड़म नहीं अपनाता
वो फिर हाथ मलता है।

अब तो वादों व बातों की
आदत सी हो चुकी है
सालों से ढोते ढोते वादों की गठरी
लोकतंत्र की लानत तक हो चुकी है।

अब तो इसमें ही मजा आने लगा है
इसके बिना चुनावी भाषण
मंच से, सजा सा लगने लगा है।

अरे अब हम तो वादों से ही
खुश हो लिया करते हैं
पहले मौन समझने की कोशिश करते थे
अब मन को समझने की कोशिश करते हैं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद

ज़िंदगी-इक सफर

ज़िंदगी-इक सफर


ज़िंदगी है इक सफर, आये फिर चले गए
पास है वो आपका, दूर- कुछ निकल गए।

हर कदम पे प्रश्न है, जवाब सिर्फ आप हैं
लोक के निगाह का, निर्वाह सिर्फ आप हैं।
आप के जवाब से, कितने दिल मचल गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

किसी ने कुछ कहा नहीं, क्या सुना पता नहीं
दोष शून्य का है सब, कुछ हुआ पता नहीं।
ऐसा खेल खेलकर वो मुकर मुकर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

चोट जो लगी कहीं, तो दर्द क्या हुआ कहीं
आंँख के जो अश्रु थे,मचल के क्यों गिरे नहीं।
आंँख के वो अश्रु भी, आंँख से चले गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

पूछते हैं लोग भी, क्या हुआ था उस घड़ी
क्या कहूँ मैं किसे, दिल पे जो मेरे पड़ी
दिल की जो भी दर्द थे ,
मौन हो निकल गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

जिम्मेदारियों का बोझ, कांँधों पे लिये रहे
हँस चले कदम-कदम,
उफ्फ मगर नहीं किये
उफ की आस थी जिन्हें, आस से बिखर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

दूर से ही देखता हूँ, मौन सब मैं सोचता हूँ
हुई प्रथम ख़ता कहाँ, स्वयं से ही पूछता हूँ,
स्वयं के भी प्रश्न सारे, खुद से चुप टले गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये-फिर चले गए।।

 राह बाकी  एक है
 चाह  भी तो एक है
जो फासले हैं दरमियाँ
 निशान उनके अब भी हैं

फासलों के चोट सारे, वक्त संग गुजर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।
 
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     09अगस्त,2020

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...