एक प्रश्न।

एक प्रश्न         

पूछ रहा है देश हमारा
लाल किले की प्राचीरों से
कब तक वादे बहलायेंगे
निर्धनता को तकदीरों से।

पूछ रही है सूखी आंतें
सत्ता की अंगनाई से
भारत कब बाहर आएगा
निर्धनता की गहराई से।

पूछ रहे हैं गांव के रास्ते
शहरों की चिकनी सड़कों से
उनसे मेल कभी क्या होगा
बिन गड्ढ़ों औ बिन झटकों के।

पूछ रही टपकती खपरैल
सत्ता के रणवीरों से
मुक्ति इनको कब मिलेगी
शीत,ग्रीष्म व बरसातों से।

पूछ रही सागर की लहरें
नदियों से औ तटबंधों से
मुक्त धरा कब होगी अपनी
जाति, धर्म वाले फंदों से।

पूछ रहा है खड़ा हिमालय
सत्ता के गलियारों से
कब तक भारत छलनी होगा
गद्दारों के वारों से।

पूछ रही सरहद की आंखें
भारत के जिम्मेदारों से
कब तक शरण मिलेगी भीतर
कुछ जयचंदी व्यवहारों को।

जाने कितने प्रश्न दबे हैं
जन गण मन के सीने में
इन प्रश्नों का हल मिलने तक
मुश्किल होगा फिर जीने में।

भृष्ट आचरण सता लालच
मुद्दों से बस भटकाएगा
विकास सब बाधित होगा
हाथ नहीं कुछ आएगा।

इन मसलों के हल की खातिर
जन गण को ही उठना होगा
अपने अधिकारों की सुरक्षा
अब हमको ही करना होगा।

लोभ मोह लालच से हटकर
जीवन हमको चुनना होगा
नई सदी के नूतन भारत
का सपना हमको बुनना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 17अगस्त,2020

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