उम्र।

              उम्र।         


ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही
लिए चंद ख्वाहिशें, मौन मचलती रही।।

उम्र के हर ठौर पर, मुश्किलों का दौर पर
ख्वाहिशों का बोझ ले, खुद से ही लड़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

शब्दो से ही घाव थे, शब्दों से ही भाव थे
शब्द के वो मायने, उम्र बदलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

दर्द का वो धुंधलका, साफ हो सके कभी
चाहतें लिए यही, आंख छलकती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

लोगों की भीड़ ने, पत्थर दिल कहा जिसे
मौन वो मोम सी, बूँद बूँद पिघलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

हालात की चोट से, जितना रौंदते रहे
उतनी हो मुखर यहां, राह निखरती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

छोटा हो या हो बड़ा, सबका एक रूप है
एक रूप भाव ले, निष्पक्ष बढ़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

वक्त के साथ सब, अपनी राह देख लो
सूर्य की भी रोशनी, हर शाम ढलती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही।।

ना कर गुरुर तू, अपनी किसी बात पर
आखिरी सफर में उम्र, खुद से ही बिछड़ती रही।

ज़िंदगी की रेत पर, उम्र फिसलती रही
लिए चंद ख्वाहिशें, मौन मचलती रही।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अगस्त,2020

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