सूरज भी है ढलता।

सूरज भी ढलता है।

लोकतंत्र ने रूप है बदला
सूरज ने भी धूप है बदला
चांद सितारे वही पुराने
लेकिन सबका नूर है बदला।

जिस सूरज के आने से
जग रोशन हो जाता है
उस सूरज का ताप बढ़े जब
शीतल देह जलाता है।

दूर बैठ कर चंदा लेकिन
देख सभी को बहलाता है
अपने शीतल भावों से
उम्मीद नई जगाता है।

लोकतंत्र में सत्ता भी कुछ
सूरज सा रूप दिखाती है
पूरे करने को वादे सब
वो भी दांव चलाती है।

सब अच्छा रहता है तब तक
जनहित होता रहता जब तक
जब सत्ता में स्वार्थ पनपता
तब मुश्किल में पड़ती जनता।

सत्ता के मंदिर में जब तक
स्वार्थ प्रवृत्ति हावी होगी
लोकतंत्र सब दूषित होगा
पूजा नहीं प्रभावी होगी।

मुफ्तखोरी के वादे सारे
बस मन को बहलाते हैं
क्षण भर का सुख मिलता है
दूषित भविष्य कर जाते हैं।

बहुमत का पर्याय हमेशा
मन की बात नहीं होता है
जन गण मन की गहराई का
भाव समझना भी होता है।

जैसे सूरज की गरमी का
तोड़ घरों में अपनाते हैं
वैसे ही उद्दवेलित हो जन
बदलाव नया ले आते हैं।

सूरज फिर भी ढलता रहता
अपना ताप बदलता रहता
चंदा की छांवों में पलकर
अगले दिन फिर चलता रहता।

वैसे ही ये लोकतंत्र है
मिश्रित भाव जरूरी है
सामाजिक समरसता का भी
होना एहसास जरूरी है।

लोकतंत्र है तब तक हँसता 
जब तक उसमें जीवन पलता
पर अपनी करने से पहले
मत भूलो सूरज भी है ढलता।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      01सितंबर,2020







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