ज़िंदगी-इक सफर

ज़िंदगी-इक सफर


ज़िंदगी है इक सफर, आये फिर चले गए
पास है वो आपका, दूर- कुछ निकल गए।

हर कदम पे प्रश्न है, जवाब सिर्फ आप हैं
लोक के निगाह का, निर्वाह सिर्फ आप हैं।
आप के जवाब से, कितने दिल मचल गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

किसी ने कुछ कहा नहीं, क्या सुना पता नहीं
दोष शून्य का है सब, कुछ हुआ पता नहीं।
ऐसा खेल खेलकर वो मुकर मुकर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

चोट जो लगी कहीं, तो दर्द क्या हुआ कहीं
आंँख के जो अश्रु थे,मचल के क्यों गिरे नहीं।
आंँख के वो अश्रु भी, आंँख से चले गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

पूछते हैं लोग भी, क्या हुआ था उस घड़ी
क्या कहूँ मैं किसे, दिल पे जो मेरे पड़ी
दिल की जो भी दर्द थे ,
मौन हो निकल गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

जिम्मेदारियों का बोझ, कांँधों पे लिये रहे
हँस चले कदम-कदम,
उफ्फ मगर नहीं किये
उफ की आस थी जिन्हें, आस से बिखर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।

दूर से ही देखता हूँ, मौन सब मैं सोचता हूँ
हुई प्रथम ख़ता कहाँ, स्वयं से ही पूछता हूँ,
स्वयं के भी प्रश्न सारे, खुद से चुप टले गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये-फिर चले गए।।

 राह बाकी  एक है
 चाह  भी तो एक है
जो फासले हैं दरमियाँ
 निशान उनके अब भी हैं

फासलों के चोट सारे, वक्त संग गुजर गए
ज़िंदगी है इक सफर, आये- फिर चले गए।।
 
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     09अगस्त,2020

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