व्यंग्य
चुप चुप से क्यों बैठे हो
क्या कोई बात तो नहीं
पहले भी मिले हैं हम
ये कोई पहली मुलाकात तो नहीं।
ये कोई पहली दफा तो नहीं
पहले भी तो मिले थे ऐसे ही कहीं
पांच साल बाद ही सही, मिले तो हैं
इसमें कोई नई बात तो नहीं।
माना वादे पुराने अभी पूरे नहीं हुए
वादों का क्या, इक बार और सही
ये तो राजनीति का तसव्वुर है
कोई नई बात तो नहीं।
संसद से सड़क तक चर्चा आम है
जाति-धर्म की बात, संविधान का अपमान है
मगर वोट के लिए सब चलता है
जो ये तिकड़म नहीं अपनाता
वो फिर हाथ मलता है।
अब तो वादों व बातों की
आदत सी हो चुकी है
सालों से ढोते ढोते वादों की गठरी
लोकतंत्र की लानत तक हो चुकी है।
अब तो इसमें ही मजा आने लगा है
इसके बिना चुनावी भाषण
मंच से, सजा सा लगने लगा है।
अरे अब हम तो वादों से ही
खुश हो लिया करते हैं
पहले मौन समझने की कोशिश करते थे
अब मन को समझने की कोशिश करते हैं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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