कोशिश



कदम-कदम पे मुश्किलें हैं चलना भी सीखिए।
फूल ही नहीं काँटों में गुजरना भी सीखिए।
हर किसी को नहीं मिलता है मुकम्मल आसमां,
जिंदगी को जीना है तो मरना भी सीखिए।

कशिश

कशिश

वक्त की रेत पर ये उम्र लिख रही कथा,
शब्द-शब्द भाव और अर्थ-अर्थ है व्यथा।
एक तीर हम खड़े हैं एक तीर चाहतें,
एक तीर मुश्किलें हैं एक तीर राहतें।
मन में एक द्वंद था मुक्त था कि बंद था,
हम मगर समझ सके न घाव वो प्रचंड था।
चाह थी बहुत मगर, न चीख ही निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

आइना था सामने देख हम सके नहीं,
मन में जमी धूल को साफ कर सके नहीं।
रात के प्रभाव में सांध्य को ही खो दिये,
भूल ही कुछ ऐसी थी न चाह कर रो दिये।
यूँ अश्रु कोर से बहे के स्वप्न सारे गिर गये,
चाँदनी सजी न थी कि धूल में ही मिल गये।
चाह थी बहुत मगर न चाँदनी सँवर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

पाँव जब उठे कभी तो रास्ते बिसर गये,
थाम भी सके न वक्त रेत से फिसल गये।
स्वप्न नैन कोर तक आये पर रुके नहीं,
जाने कैसी जिद थी चाह कर झुके नहीं।
सोचते-सोचते ही साँझ देखा ढल गयी,
जब तलक ये सोचते उम्र ही निकल गयी।
जिंदगी पड़ाव पर न चाह कर ठहर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

चार काँधे देख कर जिंदगी सहज लगी,
मौन जब हुई नजर आँखें भी सुभग लगीं।
कारवाँ को देख कर रास्ते भी चल दिये,
कल तलक जो दूर थे साथ-साथ हो लिये।
कारवाँ था साथ में साँस-साँस थम गई,
देख कर के मौन हर आँख-आँख नम हुई।
उम्र भर कशिश रही न चाह कर निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अक्टूबर, 2024

भूली-बिसरी यादें

भूली-बिसरी यादें

जब यादें पलकों से छनकर बूँदें बन बह जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

मोड़ अधूरा राह अधूरी कुछ भी तो मालूम नहीं,
कौन राह पर चली जिंदगी साँसों को मालूम नहीं।
जब राहें कदमों को छूकर खुद बोझिल हो जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

दूर क्षितिज पर किरण पिघलती मौन सांध्य के आँचल में,
यादें इंद्रधनुष बनती हैं उम्मीदों के बादल में।
दूर किरण संध्या में घुलकर लुकछिप-लुकछिप जाती है,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

बाँह पसारे रात मचलती धीमे-धीमे मदमाती,
कहे अनकहे मधुमासों के गीतों में भींगी जाती।
मदमाते गीतों में बसकर अधरों को छू जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अक्टूबर, 202र

मुक्तक

कितना देखा भाला लेकिन कुछ भी जान नहीं पाये।
थी पहचानी गलियाँ लेकिन कुछ अनुमान नहीं पाये।
पल-पल भेष बदलते देखा क्या जाने क्या अनजाने,
अपनी ही परछाईं को भी हम पहचान नहीं पाये।
*******************************

रात-रात भर जागीं पलकें क्या जाने कब सोई हैं।
दिन को क्या मालूम यहाँ पर रातें कितना रोई हैं।
अपनी ही परछाईं पर जब अपना कोई जोर नहीं,
नहीं किसी से शिकवा हमको नहीं शिकायत कोई है।
*******************************

क्या बतलायें तुमको हमने क्या खोया क्या पाया है।
दर्द मिले या आँसू हमने हँसकर सब अपनाया है।
लेकिन इस किस्मत में शायद जलना कुछ तो बाकी था,
जब भी हँसना चाहा हमको खुशियों ने ठुकराया है।

*******************************

इक पलड़े पर रिश्ते ठहरे इक पलड़े पर सपने थे।
इक पलड़े पर खुद की खुशियाँ इक पलड़े पर अपने थे।
ऐसा द्वंद हुआ पलड़ों में सपने सारे टूट गये,
क्या बतलाऊँ पलड़ों को जो सपने टूटे अपने थे।
*******************************

बदला-बदला दौर यहाँ है पहले से हालात नहीं।
बाद तिरे कितने आये पर पहले से जज्बात नहीं।
देखी हमने दुनिया सारी देखे कितने सावन भी,
लेकिन तुम बिन इस मौसम में पहले वाली बात नहीं।
*******************************

माना कदम थके हैं लेकिन जल्दी कदम बढ़ाऊँगा।
क्षण भर को फिसला हूँ लेकिन जल्द खड़ा हो जाऊंगा।
मेरे गिरने से मत सोचो हमने सब कुछ हार दिया,
खुद से अपना वादा है मैं जल्दी मंजिल पाऊँगा।
*******************************

कहा किसी ने सुना किसी ने सच तो कोसों दूर रहा।
जिनको केवल सत्य पसंद था क्यूँ झूठ उन्हें मंजूर रहा।
जो कहते थे साथ चलेंगे चाहे कितनी बाधा हो,
चार कदम भी चल न पाये रिश्ता क्यूँ मजबूर रहा।
*******************************
बातों-बातों में समझाना अच्छा लगता है।
हँसकर बालों को सुलझाना अच्छा लगता है।
अकसर खो जाता हूँ गहरी नीली आँखों में,
तेरा आँखों में उलझाना अच्छा लगता है।



ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

चंद ख्वाहिशों का बोझ लिए रोज निकलता हूँ मैं।
ठोकरें खाता हूँ गिरता हूँ फिर सँभलता हूँ मैं।
इन अंधेरों का मुझको है अब नहीं खौफ कोई,
रोशनी के लिए हर रोज थोड़ा पिघलता हूँ मैं।

मुस्कुराहट

मुस्कुराहट

गम जमाने के अब रास आने लगे हैं
मुश्किलों में सही पास आने लगे हैं
जरूरत नहीं महफिलों की मुझे है
तेरी खुशियों में ही मुस्कुराने लगे हैं


अफसोस नहीं

अफसोस नहीं

टूटा जितनी बार हृदय ये उतनी बार सँभाला इसको,
एक बार जो टूटा फिर तो कोई भी अफसोस नहीं है।

दो बूँद पलक पर आकर ठहरे, हमने उसको समझा गहना,
अपनों से या मिले पराये, हमने हर आहों को पहना।
साँसों की बस डोर सँभाली, नहीं किसी पर जोर कभी था,
दूर क्षितिज पर जो सपने थे, देखा उनका छोर नहीं था।

पलकों के सूने आँगन में, कितनी बार पुकारा इसको, 
टूटा जो फिर आज सपन ये, पलकों का कुछ दोष नहीं है,

मोहपाश कुछ काम न आया, कितनी बार शब्द से सींचा,
रेशे-रेशे बिखर न जायें, हृदय लगाकर इनको भींचा।
लेकिन चंचल हृदय अधिक था, बाहों को अधिकार नहीं था,
जिसको दिल ने अपना समझा, रिश्तों का आधार नहीं था।

मोहपाश से निकल न पाया, कितनी बार निकाला इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

निष्ठुर है चंचल छाया है, परिचय आकर्षण की सीमा,
स्नेह समर्पण मुद्राएं सब, क्या जाने किसका पथ धीमा।
जीवन लोहे की पटरी है, हर राहों को नापा इसने,
धूप ताप बारिश झेली है, तब जाकर पथ बाँधा इसने।

खुद ही अनुबन्धन में उलझे कितना ही सुलझाया इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अक्टूबर, 2024

कविता

कविता

वक्त के हर दौर का आधार बनी है कविता।
कभी शोला तो कभी अंगार बनी है कविता।
कितने गाये हैं और कितने लिखे गीतों में,
पृष्ठों पर शब्दों का आकार बनी है कविता।

कभी रिश्ते तो कभी परिवार बनी है कविता।
रूठे रिश्तों की भी मनुहार बनी है कविता।
उम्र के हर दौर का व्यवहार जहाँ मिल जाये,
यहाँ पे हर दौर का व्यवहार बनी है कविता।

कहीं शिक्षा, तो कहीं व्यापार बनी है कविता।
वेदों की ग्रंथों का भंडार बनी है कविता।
हर भाव में जिसके सभी रूप सिमट जाते हैं,
ऐसे हर भावों का विस्तार बनी है कविता।

रूप दुल्हन का बनी श्रृंगार बनी है कविता।
प्रेम के हर रूप का उपहार बनी है कविता।
जिसके आने से मौसम में भी रंगत छाये,
वो पावन दीपों का त्यौहार बनी है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13अक्टूबर, 2024

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

बिस्तर सूना-सूना सोफा खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

सिलवटें बदलती करवट अब जाने क्या-क्या कहती हैं,
तकिए के लिहाफ से आँखें खोई-खोई रहती हैं।
चद्दर की तह भी अब तो मुश्किल से ही खुल पाती है,
गद्दे और चद्दर की बाहें मुश्किल से मिल पाती है।

चौकी का हर कोना अब तो खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

कुछ बातों पर गुस्सा करना कुछ पर मन की कह लेना,
सुनने से पहले कितनी बातों का निर्णय कर लेना।
नाराज हुए तो भी आशीषों से झोली भर देना,
पलक कोर से तकना फिर उम्मीदों को जीवन देना।

पलकों के कोरों में अब कुछ खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तकती हैं चौखट को आँखें हर आहट पर उठती हैं,
आते जाते हर कदमों पे बरबस जाकर रुकती हैं।
और प्रतीक्षा है सपनों की पलकों के निज आँगन में,
आशीर्वादी पुष्प मिलेंगे फिर से मुझको दामन में।

आ जाओ अब आँगन मुझको अपना खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 अक्टूबर, 2024

मेहमान

मेहमान

क्या जाने क्या खता थी बदनाम हो गया हूँ।
ऐसा जला हूँ खुद से इल्जाम हो गया हूँ।
न रास अब तो आती है राहतें कोई भी,
घर में अपने अब तो मेहमान हो गया हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        

है विनती रघुराई

है विनती रघुराई

यह विनती तुमसे रघुराई। हरहु क्लेश विषाद मन माहीं।।
भरहु आस विश्वास भरोसा। मिटइ सबहिं के मन के दोषा।।
धरम भाव सब के मन लावा। उपजहिं सबहि हृदय समभावा।।
सुमति भाव जिनके मन छाई। अनुदिन बढ़े प्रेम अधिकाई।।

कुटिल भाव सब नष्ट हो, अंतस हो शुभ धाम।
शुद्ध चित्त सुमिरन करें, ले कर प्रभु का नाम।। 

सदाचार सुंदर पथ जग में। कटे कष्ट सबही यहि डग में।।
पग-पग कंटक कितनो भारी। राम नाम सब कंटक टारी।।
कलयुग में प्रभु नाम अधारा। छूटहिं क्लेश प्रेम विस्तारा।।
जिनके हिरदय प्रेम बसे है। उनके हिरदय राम बसे हैं।।

भक्ति भाव जा मन बसे, हृदय बसे अनुराग।
ज्ञान ध्यान संपति बढ़े, होत हृदय बड़भाग।।

जपहुँ राम सुंदर मन होई। मिटे कष्ट सुंदर तन होई।।
जपहुँ प्रभु नाम हैं बहुतेरे। ये विपत काल कबहुँ न घेरे।।
श्रद्धा सबुरी त्याग समर्पण। चित्त शुद्ध मन होवे दर्पण।।
निर्मल मन हो सत्य सनातन। जीवन का कण-कण हो पावन।।

जीवन का आधार है, प्रभु का सुंदर नाम।
यहिं जीवन के मूल हैं, कृष्ण कहो या राम।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08अक्टूबर, 2024




स्वप्न

स्वप्न

दुनिया के बाजार में जीवन और नहीं खिलौना है।
किसी मोड़ पर कुछ पाना है किसी मोड़ कुछ खोना है।
दर्द खुशी सपने आँसू कब यहाँ हमेशा टिकते हैं,
एक पलक खुशियों के आँसू दूजे सपन सलोना है।

पलकों ने सपने छाँटे हैं

पलकों ने सपने छाँटे हैं

बाँट दिए हैं पुष्प सभी अब,
आँचल में बाकी काँटे हैं,
पलकों ने सपने छाँटे हैं।

निकल पड़ी दो बूँद ठहर जब,
पलकों को अहसास हुआ है।
सूनापन पसरा नयनों में,
आहों का उपवास हुआ है।

निज पलकों में अश्रु निवेदन,
साँसों में बस सन्नाटे हैं।

व्यापारी हो गयी व्यवस्था,
जाने कैसी लाचारी है।
गीत पुराने अधरों के सब,
स्वर में कैसी नाकारी है।

सरोकार सब नये हो गये,
हिस्सों ने अपने बाँटे हैं।

नहीं चेतना आवाहन में,
स्वर व्यंजन अब नहीं रागते।
वेद ग्रंथ गीता रामायण,
चौराहे अब नहीं बाँचते।

आयातित साँसों में घुलकर,
अपनों ने ही पथ काटे हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 अक्टूबर, 2024

भजन



सखि मन अनुबंध कियो जबसे, मन में प्रभु प्रीत समाय गयी,
सुध बुध बिसराय गयी सबहीं, बस तुमसे प्रीत लगाय गयी।
जागत सोअत बस नाम रटे, कछु और नहीं मन भावत है,
सब चैन गँवाय गयी मन से, बस चैन तुमहि में पावत है।
जस मीरा को स्वीकार किये, प्रभु हमको भी आ स्वीकारो,
बस तुमसे ही सब आस बँधी, आकर हमरो भी उद्धारो।
जग लोभ मोह से पीड़ित है, मन प्रतिपल है अवसाद ग्रसित,
प्रभु पुनि उपदेश सुना जाओ, मन क्षोभ-क्रोध से होत त्रसित।
जस द्रौपदि की प्रभु लाज रखो, सुख चैन छोड़ के बाँह धरो,
हमरी भी विनती स्वीकारो, सर पर हमरे भी छाँह करो।
जस अर्जुन को उपदेश दियो, मन से अज्ञान प्रभु सबहि हरो,
अँधियारे में मन भटकत है, अवसाद सबहि प्रभु आय हरो।
अब और नहीँ पथ सूझत है, आकर अब राह दिखा जाओ,
सब किंतु-परन्तु हटे मन के, आकर प्रभु आस बँधा जाओ।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         24 सितंबर, 2024

श्री राम स्तुति

श्री राम स्तुति

श्री राम राष्ट्र नायकम, पुण्य भाव दायकम,
समस्त पाप नाशकम, पुण्यता प्रदायकम।

समस्त भाव भंगिनम,  सदैव प्रेम संगिनम,
नमामि प्रेम सागरम, नमामि मोक्ष नागरम।

समस्त पुण्य रक्षनम, सदैव पाप भंजनम
कोदण्ड हस्त धारिकम, भुवो पाप तारकम।

ललाट शोभि चंदनम, स्वभाव श्रेष्ठ वन्दनम,
सदैव धर्म धारणम, नमामि राम ईश्वरम।

समस्त लोक नंदनम, दृगान्त नेह भंगिनम,
गुणाधिपति सुखाकरम, सदैव जन कृपाकरम।

प्रचंड जलधि सायकम, जटायु मुक्ति दायकम,
स्वभाव स्नेह दुर्लभम, नमामि राम वल्लभम।

दसशीष दंभ भंजनम, कृतज्ञ भव देवतम,
सत्य धर्म स्थापनम, नमामि राम ईश्वरम।

जयति-जयति रघुनंदनम, कोटि-कोटि वंदनम,
समस्त विश्व पूजितम, नमामि राम ईश्वरम।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 सितंबर, 2024

मुक्त रचना- जीवन का ग्रंथ

जीवन का ग्रंथ

चलते-चलते राहों में जब पैर थक गये,
दो घड़ी सुस्ताने को फिर वहीं रुक गये।
वीथी पर जब नजर गयी तो याद आया,
इतनी दूर आने में पीछे क्या छोड़ आया।
कुछ सपनों को पाने को 
कुछ सपनों को तोड़ा है,
ये पाने की खातिर अब तक
पीछे क्या-क्या छोड़ा है।
कितनी दूर चले आये हैं
कितनी दूर अभी है जाना,
कितनी बाकी संध्या पथ की
अब तक मन इससे अनजाना।
किसी मोड़ पर मन ठहरेगा
शायद पथ का अंत वही हो,
बिखरे पृष्ठ जहाँ सज जायें
इस जीवन का ग्रंथ वहीं हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 सितंबर, 2024


पालकी गीतों की

पालकी गीतों की

सौंप सकूँ कुछ शब्द पुष्प मैं भावों के मृदु आँगन में,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

भाग दौड़ में इस जीवन के दृष्टि सभी की शिखरों पर,
स्पर्धा में एक दूजे से भाव सभी के चेहरों पर।
पर्वत जैसे शिखरों की उम्मीदें सबने पाली हैं।
शिखर पहुँच कर भी लगता है जैसे झोली खाली है।

कुछ खुशियाँ बस सौंप सकूँ मैं उम्मीदों के आँगन में,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

रुका यहाँ कब पथ जीवन का बाधाओं के आने से,
रुका कहो कब पथ सूरज का धुंध घनेरी छाने से।
अवरोधों से लड़कर के भी गीत हवाएँ गाती हैं।
अँधियारे को चीर यहाँ पर भोर किरण मुस्काती है।

मुक्त हो सके मन आहों से अनुरोधों से बंधन से,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

जीवन की हर बाजी खेली कुछ जीती कुछ हार गया,
कभी रहा इस पार तीर के और कभी उस पार गया।
बरसों बीत गए जीवन के मन में अब भी सिहरन है,
भीड़ भरे गलियारों में कुछ यादें अब भी बिरहन हैं।

विरह वेदना मिट जाये इन गीतों के अनुरंजन से,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 सितंबर, 2024


अय्यारी, अंदाजा

अय्यारी

अपने मन को बहुत सँभाला हमने दुनियादारी में।
पलकों को अपने पुचकारा सपनों की तैयारी में।
लेकिन बदले हालातों का तब जाकर मन को बोध हुआ,
पग-पग पर जब ठोकर खायी अपनों की अय्यारी में।

दिल में मिरे क्या था कभी हम बता नहीं पाये।
पलकों से भी कभी भाव हम जता नहीं पाये।
जो कहते हैं हमने कभी समझा नहीं उनको,
अंदाजा मेरे दिल का खुद लगा नहीं पाये।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद

संशय के पल

संशय के पल

रात ढलती नहीं बात बनती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
एक उम्मीद का थाम दामन मगर,
नेह का भाव मन में कहीं पल रहा।

नैन दो तीर पर व्यग्र होते हुए,
स्वयं से उम्र पल-पल उलझती रही।
जाने क्या भूल थी जो सजा ये मिली,
टीस पल-पल कलेजा मसलती रही।

टीस मिटती नहीं धुंध छँटती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

यदि क्षमाशील होना गलत बात है,
तो अपराध मेरा है अक्षम्य यहाँ।
व्यर्थ अनुरोध के पुष्प यदि हो गये,
पथ व्यवहार का होगा दुर्गम यहाँ।

व्यर्थ अहसास के पुष्प होते नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

भूल खुद से हुई तो सजा खुद चुनूँ,
क्या कहूँ स्वयं से शब्द मिलते नहीं।
सूझता ही नहीं राह क्या अब चुनूँ,
अब अकेले यहाँ पाँव चलते नहीं।

लंबी संशय की रात ढलती नहीं,
आस का दीप मन में मगर जल रहा।

रात कितनी घनेरी हुई हो यहाँ,
अंधेरों के रोके सुबह कब रुकी,
लड़खड़ाई भले नाव मँझधार में,
थपेड़ों के आगे कब नौका झुकी।

अँधियाँ तेज कितनी भले चल रहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

कब चाहा हृदय युद्ध की बात हो,
दो कदम हम चलें दो कदम तुम चलो।
कब ये चाहा हृदय धुंध की रात हो,
एक लौ हम बनें एक लौ तुम बनो।

रात कितनी घनी धुंध ही धुंध हो,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 सितंबर, 2024
       


मुझे पाओगे

मुझे पाओगे

जब किसी मोड़ पर मन मचलने लगे
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

गीत अब भी हृदय में मचलते तो होंगे,
आईना देख अब भी सँवरते तो होंगे।
दो घड़ी रास्तों पे ठहरते तो होंगे,
यादों के बादलों से गुजरते तो होंगे।

बदली यादों की जब भी उमड़ने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

वो क्षितिज पर कहीं गीत की वादियाँ,
खोजती होंगी अधरों की परछाइयाँ।
वो गीत की पालकी को उठाये हुए,
साँझ अब भी खड़ी पथ सजाए हुए।

जब पंक्तियाँ आधरों से उलझने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

उम्र का क्या पता साथ कब छोड़ दे,
दो कदम साथ चलकर कहीं छोड़ दे।
आज जो भाव हैं भाव कल हो न हो,
पास जो आज है पास कल हो न हो।

राह में जब कभी मन भटकने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 सितंबर, 2024


प्रीत का नया राग

प्रीत का नया राग

गीत का पंथ यूँ ही जगमगाता रहे,
हम चलो गीत को इक नया राग दें।

गीत बचपन का हो या जवानी का हो,
हर घड़ी गीत दिल गुनगुनाता रहे।
नेह का भाव हो या प्रेम की चाह हो,
हर घड़ी भाव मन ये सजाता रहे।
गीत से अंक यूँ ही मुस्कुराता रहे,
हम चलो गीत को इक नया राग दें।

फिर सजायें चलो हम छंद की वाटिका,
भाव के पुष्प से जो महकती रहे।
फिर चलो हम लिखें नव प्रीत की पुस्तिका,
हर घड़ी जो हृदय में चहकती रहे।
भाव का पंथ यूँ ही खिलखिलाता रहे
हम चलो भाव को इक नया राग दें।

जब सांध्य को ओढ़ कर रात सजने लगी,
प्रीत की मुद्रिका फिर चमकने लगी।
जब ओस की बूँद अधरों पे सजने लगी,
प्रीत बन दीपिका फिर दमकने लगी।
प्रीत बन दीपिका यूँ झिलमिलाती रहे,
हम चलो प्रीत को इक नया राग दें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 सितंबर, 2024

गजल- लम्हे का दर्द

लम्हे का दर्द

जिस घड़ी आँख मेरी ये नम हो गयी
पीर इस दिल की थोड़ी सी कम हो गयी

बात यूँ ही जो निकली थी लब से मेरे
बात वो ही मेरी अब कसम हो गयी

तुझसे मिलने की ख्वाहिश अधूरी रही
शुरू हो न पाई कहानी खतम हो गयी

मुझसे लमहा सँभाला गया न वहाँ
मेरी वो ही खता अब सितम हो गयी

देखता हूँ क्षितिज को बड़े गौर से
उम्र की एक और शाम कम हो गयी

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद

अहसास

अहसास

इक बार कभी जो वक्त मिले,
बीती पर नजर फिरा लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

हैं कहीं सुलगते भाव कभी,
हैं कहीं धड़कती आशाएँ ।
कहीं सुनहरे ख्वाब सुहाने,
कहीं प्रेम की परिभाषाएं।

भावों के सागर में खुद को,
बरबस यूँ ही नहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

सुख भरे सुनहरे हैं बादल,
विश्वास प्रेम जीवन साथी।
आशाएँ अवलोकन करती,
इच्छाएं सारी मदमाती।

इन इच्छाओं के आँचल में,
मन को यूँ ही बहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

सृजन युक्त जीवन की राहें,
मंजिल को तकती हैं बाहें।
दूर गगन में ढलता सूरज,
हैं मलय महकती आशाएँ।

आशाओं की बाती लेकर,
फिर से नवदीप जला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

ग़ज़ल- तेरे करीब आने से

तेरे करीब आने से

एक तेरे करीब आने से
मैं हुआ दूर इस जमाने से

लगता खुद से ही न उलझ जाऊँ
एक तुझसे ही दिल लगाने से

अब तो हर राह प्रश्न करती है
तेरी राहों में आने जाने से

अब तो साकी भी गैर लगता है
खाली लौटा हूँ मैं मैखाने से

भूल जाता हूँ सारे जख्मों को
एक बस तेरे मुस्कुराने से

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10 सितंबर, 2024

गजल- दिल के पास

गजल- दिल के पास

तेरी आँखों मे जो मेरे लिए अहसास है
मेरे लिए बस इतनी ही वजह खास है

छिपा सकोगी न मुझसे अपने दिल की धड़कन
तेरी हर धड़कन मेरी आँखों मे बे लिबास है

दूर हुई हैं जबसे ये राहतें दिल की
फकत मैं ही नहीं तू भी तो उदास है

अब तो जो भी हो अंजाम परवाह किसे
एक तेरे सिवा न कोई और यहाँ खास है

आ चुका दूर बहुत दुनिया के वीराने से
तेरे सिवा आरजू कोई दिल को कहाँ रास है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

गजल-मुझसे कहते यहाँ

🌷ग़ज़ल- मुझसे कहते यहाँ

गर शिकायत थी तो मुझसे कहते यहाँ
न यूँ दूर तो मुझसे रहते यहाँ

बात ऐसी न थी जिसका हल ही न हो
बात दिल में जो थी दिल से सहते यहाँ

पास जो था हमारे तुम्हें भी दिया
क्या तुम्हें चाह थी मुझसे कहते यहाँ

दोष किस्मत का हरदम तो होता नहीं
जो मिला उसमें ही सुख से ही रहते यहाँ

 
तोड़ देना ही हरदम मुनासिब नहीं
दिल से दिल जोड़ कर फिर से रहते यहाँ

✍️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     25 अगस्त, 2024


क्यूँ जान न पाया कोई

क्यूँ जान न पाया कोई

हर बार बिखरते शब्दों को हर बार बटोरा है सबने,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

सपनों की हर फुलवारी से पलकों का संबन्ध पुराना,
भावों के आलोड़न से ही बनता है अनुबंध सुहाना।
साथ-साथ मन की बगिया में ये पुष्प पात सब खिलते हैं,
इक आँचल ही के छाँव तले हर पुण्य पाप सब पलते हैं।

पाप-पुण्य की परिभाषा को शायद जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कितने टूटे शब्द व्याकरण पर मुश्किल जोड़ हुआ पाना,
हर बार छंद जब बखरे हैं मुश्किल होता है अपनाना।
जब शब्द पिरोए मोती में तब जाकर माला पूर्ण हुई,
क्यारी गीतों की लहराई जब वर्णों की आशा पूर्ण हुई।

गीतों का मन्तव्य अधर पर क्यूँ है जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

हँसकर कहने भर से केवल अपवाद बना लेते हैं क्यूँ,
मुस्काकर यदि देख लिया तो अफवाह बना लेते हैं क्यूँ।
दो बातें कर लेने भर से अधिकार नहीं बन जाता है,
दो चार बार मिल लेने से स्वीकार नहीं हो जाता है।

हाँ और न का भेद जगत में क्यूँ कर जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

खाल भेड़िए की ओढ़े हैं कितने ठहरे चौराहे पर,
संस्कारों के मूल तत्व सब औंधे क्यूँ हैं दोराहे पर।
लोकतंत्र का कैसा साया जब संस्कारों की बली चढ़े,
चौराहे पर शुचिता दूषित जन गण मन क्या तब कहो करे।

घुटी हुई चीखों की पीड़ा अब तक जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कुछ वहशी लोगों ने मिलकर संस्कारों का लहू पिया है,
भूल गये क्या इस धरती ने दुःशासन का हश्र किया है।
आखिर कब तक भारत माता अत्याचारों को झेलेगी,
राजनीति दूषित शैया पर यूँ बोलो कब तक लेटेगी।

शुचिता छलनी हुई सभा में क्यूँ मन जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 अगस्त, 2024

हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक



 हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक

सदियों की सिलवट माथे पे चेहरे पर इक आस लिए,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

केतनी कथा कहावत केतनी केतनो बात पुरानी हो,
केतनो यादें भूल जायें सब एक्को कहाँ भुलानी वो।
घर के कौनो बात चले बुआ के बिना अधूरी हौ,
चौखट पर सावन के बारिश उनके बिना न पूरी हौ।

बिना बात के बात निकाले नवके का अहसास लिए,
कनबतिया दुहरा जाती है दालानों की पौड़ी तक, 
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

माई-बाबू, भइया-भाभी से बात-बात पे रिसियईहैं,
उनके केउ अगर सुने ना तो देखत-देखत खिसियइहैं।
दुइ चार बूँद आँखिन में भरि के केतनी बात सुना देइहैं,
फिर अगले ही मौके पे दुसरे पे दोष लगा देइहैं।

एक जबानी गारी देइहैं दूसरे जबान मिठास लिए,
उनकी मुस्कानों से निकली जाती है जो त्यौरी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आँखन में मोतिया पसरी हौ मुँह में दाँत नहीं एक्को,
घुटने भले बतास लगल हौ मुश्किल कदम चलल एक्को।
भले कमर केतनो झुक जाए भले सहारा लाठी हो,
धन दौलत अउर हीसा कूरा उनके बदे सब माटी हौ।

यहिं माटी में ऊ भी जन्मी बस इतना अधिकार लिए,
मन के कितनै रंग रंगाये दंतकथा की खौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

घर के कौनो मौका हो या भले तीज त्योहारी हो,
बुआ के काँधे पे लागत सगरो जिम्मेदारी हौ।
भतीज-भतीजिन के शादी में ऊ सबसे ज्यादा नाची है,
झोली में आशीष हौ जितना उनके खातिर बाँची है।

खोंईछा के चाउर में भरिकर जग के प्यार दुलार लिए,
हाथों की मेंहदी से लइ के मखमल की वर जौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

गुस्सा के मूरत हौ बुआ कब जाने भृकुटी तन जाए,
जइसे गोदी में ले लो तो पल भर में ही मन जाये।
घर के भीतर से बाहर तक उनकर ही अधिकार रहे,
अंतिम बात ओहि के माना भले नहीं स्वीकार रहे।

नइहर के हर बेचैनी में खुशियन के उपहार लिये,
धेला पैसा और जुगाड़े  सवा लाख की कौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आपन सब कुछ छोड़ चली है प्रेम भाव बस मुट्ठी ले,
उम्र के अंतिम साँझ भले हौ लेकिन नाहीं छुट्टी ले।
अपने आँचल में लम्हों की यादें हर पल पाली हौ,
बुआ के आशीष प्रेम सब जात कबहुँ न खाली हौ।

साँझ ढले से पहले तन के दो बूँद प्रेम की प्यास लिये,
तारों का किमखाब दुपट्टा गोटा जारी चौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 अगस्त, 2024





मैंने रीत लिखे

मैंने रीत लिखे 


मैंने मर्यादित भावों से शब्द चुने फिर गीत लिखे
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।।

सूरज से ली तपिश यहाँ पर चंदा से शीतलता ली।
लिया पवन से मुक्त भाव अरु तारों से चंचलता ली।
शब्दों का आलिंगन कर के अपने मन के मीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया पुष्प से खुशबू मैंने पातों से हरियाली ली।
अवनी से संबल पाया है अंबर की रखवाली ली।
पात-पात पिय पुष्प चुने तब प्रीत गढ़े नवगीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया प्रखर भावों को जग से अंतस में प्रिय भाव जगाया।
पल-पल बीते लम्हों से जो पाया गीतों में गाया।
जग से लेकर जग को देकर जग की प्रचलित रीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय

मुक्तक, शायरी

मुक्तक

मेरे जीवन के साँसों की तू डोर है।
मैं हूँ राही तो मंजिल का तू छोर है।
कब अकेला रहा मैं इस दिल के सफर में,
जो मैं हूँ पतंग तू ही मेरी डोर है।
****************************

तकदीर का रुख इस कदर मोड़ लूँ
तू मुझे ओढ़ ले मैं तुझे ओढ़ लूँ
****************************

बिन तेरे रास्ते अजनबी है सभी।
रिश्ते नाते यहाँ अजनबी हैं सभी।
एक तुझसे जुड़ी सारी साँसें मेरी,
बिन तेरे साँसें भी अजनबी हैं सभी।
****************************

बिन तेरे खुद से ही खुद को खोया हूँ मैं
देख न ले कोई आँसू मेरे इसलिए बरसात में रोया हूँ मैं

भींग जाता हूँ यादों की बारिश में जब
तेरी यादों को संग-संग भिंगोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ के सपना कोई देखा नहीं
तेरे सपनों को अब तक सँजोया हूँ मैं

दूर जा कर भी देखा मैं यादों से तेरी
दूर रह कर भी यादों में खोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ मैं रोया नहीं आज तक
फिर उसी मोड़ पर जा के रोया हूँ मैं
**************************
कुछ भाव हृदय के बाहर हैं कुछ भाव हृदय के भीतर।
कुछ आह दूर से दिख जाती कुछ आह हृदय के भीतर।
बाँध सका कब बंध जलधि को कितने जतन उपाय किये,
एक जलधि बाहर लहराया और एक हृदय के भीतर।
****************************

भोर की उर्मियों में नया गीत है।
साँस की नर्मियों में नई प्रीत है।
राह जो बंद थी अब सभी खुल रही,
रश्मियाँ लिख रहीं नया संगीत है।
******************************

छुपाओगे कहो कब तक दर्द, ये आँखे बोल ही देंगी।
तुम्हारे दिल में है जो बात, ये बातें बोल ही देंगी।
कोई होगा जो समझेगा के दिलों में दर्द है कितना,
अब छुपाओ लाख दर्द कितना ये आँखें बोल ही देंगी।
*****************************
छुपाना भी तुम्हीं से है दिखाना भी तुम्हीं को है।
हटाना भी तुम्हीं से है जताना भी तुम्हीं को है।
रहेंगे दूर कब तक हम जो रस्ता एक है अपना,
निभाना भी तुम्हीं से है बताना भी तुम्हीं को है।
*****************************

हाँ कभी यूँ ही तुम पास आकर के देखो।
बात दिल में जो है वो बताकर के देखो।
यूँ बेसहारा रहेंगे मिरे गीत कब तक,
साथ मेरे इन्हें गुनगुनाकर के देखो।
*****************************

जाने कितनी हसरत लिए जीया करता हूँ।
खुद से वादा मैं हर रोज कीया करता हूँ।
जख्म कितने भी मिले मुझे जमाने में यहाँ,
सारे जख्मों को हर रोज सीया करता हूँ।
*****************************

एक तन्हा नहीं मैं अकेला सफर में,
और भी मेंरे जैसे मुसाफिर यहाँ हैं।
आ चलें साथ में दो कदम उस गली तक,
कहने वाले यहाँ अब मुसाफिर कहाँ है।
*****************************

मौन नयनों की चितवन से कहने लगे।
अश्रु पलकों की चिलमन से बहने लगे।
चाहा जो दर्द अधरों पे आया नहीं,
इन पंक्तियों में वही गीत रचने लगे।
*****************************

जिस घड़ी आँख मेरी ये नम हो गयी
पीर इस दिल की थोड़ी सी कम हो गयी

बात यूँ ही जो निकली थी लब से मेरे
बात वो ही मेरी अब कसम हो गयी

तुझसे मिलने की ख्वाहिश अधूरी रही
शुरू हो न पाई कहानी खतम हो गयी

मुझसे लमहा सँभाला गया न वहाँ
मेरी वो ही खता अब सितम हो गयी

अब देखता हूँ क्षितिज को बड़े गौर से
उम्र की एक और शाम कम हो गयी

*****************************






खुशियों का प्याला

 खुशियों का प्याला

चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो,
मेरे देश तू हँसते रहना खुशियों का प्याला कम न हों।

गाँवों-गाँवों बस्ती-बस्ती सपनों की अँगड़ाई हो,
पलकों के हर कोरों में खुशियों की परछाईं हो।
हर सपनों को पृष्ठ मिले अक्षर की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

हर घर के आँगन में पल-पल किलकारी की गूँज उठे,
सबके अधरों पर गीतों के रागों की अनुगूँज उठे।
गीतों के हर शब्दों में वर्णों की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण भारत का गुणगान रहे,
इस दुनिया से उस दुनिया तक केवल भारत नाम रहे।
हर भूखे का पेट भरे और कभी निवाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

मुक्त धरा हो अवसादों से कहीं कभी उन्माद न हो,
अधिकारों-कर्तव्यों के मध्य कोई वाद-विवाद न हो।
संबंधों की ड्योढ़ी पर कभी प्रेम पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

राष्ट्र प्रथम के भावों से गुंजित ये आकाश रहे,
भारत माता के चेहरे पर खुशियों का अनुप्रास रहे।
हर नयनों में स्वप्न सजे सपनों का पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 अगस्त, 2024

समर्पण-गीत की पँक्तियाँ

समर्पण- गीत की पँक्तियाँ

तुम ना मिलती तो भी मैं उस द्वार तक आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

थे अधूरे गीत जो भी पूर्ण सब तुमसे हुए हैं,
गीत के हर शब्द सारे पांखुरी बन मन छुए हैं।
एक पुष्पित भाव का अनुरोध मन पल-पल पनपता,
नैन में पल-पल सनेही भाव का सागर छलकता।

गीत रचने तक प्रतीक्षा मैं द्वार पर करता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

भोर की पहली किरण से सांध्य की अंतिम किरण तक,
नेह का अनुरोध पलता आत्म के अंतिम मिलन तक।
पुण्यता के दीप में अनुरोध की बाती जलाता,
हों घनेरे धुंध गहरे दीप बनकर झिलमिलाता।

सांध्य की अंतिम किरण तक मैं साथ में आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

है नहीं संभव हृदय की भावना से पार पाना,
चाहे रहे कितना जटिल नेह का बंधन निभाना।
जोड़ता हर तार मन से स्वयं को आहूत करता,
पंथ के हर कंटकों को नेह से ही दूर करता।

जब तक न मिटती दूरियाँ हर बार मैं आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 अगस्त, 2024

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

एक अधूरी आशा लेकर एक अधूरापन जीना,
पलकों द्वारा आँसू अपने घूँट-घूँट कर के पीना।
सूने तन की दीवारों पर अंकित है कहीं निशानी,
कुछ यादों तक सीमित है तेरी मेरी सभी कहानी।

जब रही अधूरी सभी कहानी वादा कोई क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

बिखरे ख्वाब अधूरी रातें पुष्प सभी मुरझाए थे,
खंडित चंदा की चौखट पर तारे शीश झुकाए थे।
मौन सफर पर चली अकेली कब तक रात ठहर पाती,
रहे अधूरे गीत अधर पे रात उसे कैसे गाती।

रात अधूरी गीत अधूरे गाकर के मन क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

अनकहे विदाई गीतों में गीत हमारा शामिल है,
बलखाती लहरों को अब भी तकता कोई साहिल है।
गीतों के उस मुक्त छंद में कोई गीत अधूरा है,
गीत अधर पर जो खिल जाए वही गीत अब पूरा है।

रह गए अधूरे गीतों से कोई कब तक मन भरता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024

देश मेरे

देश मेरे

मेरी साँसों की आहट में बस नाम बसा है तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

मुकुट हिमालय माथ सजा है चरणों में सागर तेरे,
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण सपनों के लाखों घेरे।
तेरी मुस्कानों से होता सारे जग में उजियारा,
साँसों का हर कतरा-कतरा हमने तुझ पर है वारा।

तेरे चरणों में अर्पित है हर कतरा-कतरा मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

गंग यमुन की धार हृदय को सिंचित कर करती पावन,
दक्षिण गंगा कावेरी से होता भारत मन भावन।
विंध्य सतपुड़ा अंग सजाते जीवन की अँगनाई में,
कितने भाव मनोहर पनपे बहती इस पुरवाई में।

साँसों का हर तार समर्पित हर सपना-सपना तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

शस्य श्यामला धरती माता औ हरियाली है गहना,
माटी-माटी सोना उगले हर पलकों में है सपना।
प्रेम समर्पण सार ग्रन्थ के इस जीवन की परिभाषा,
सत्य शिवम सुंदर भावों से है गुंजित नभ की भाषा।

ज्ञान ध्यान का तुंग शिखर तू जो करे दूर अंधेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

तेरी माटी में मिल जाऊँ बस इतना सा है सपना,
सारे जगत में कोई नहीं है तुझसा मेरा अपना।
करूँ गीत सब तुझे समर्पित बस तुझको ही मैं गाऊँ,
जब भी मैं मानव तन पाऊँ तेरी ही गोदी पाऊँ।

साँस-साँस मेरे जीवन की सब कतरा-कतरा तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

देश मिरे तेरे कदमों में साँस समर्पित मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024


ऐसा अपना प्रेम नहीं

ऐसा अपना प्रेम नहीं

होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ शब्दों के अनुबन्धन में,
पर शब्दों में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

प्रेम हमारा पूर्ण गीत है सारे छंद समर्पित हैं,
शब्द व्याकरण के बौने इसके सम्मुख अर्पित हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम मात्राओं के अनुबन्धन में,
पर मात्रा में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

कुछ यादें हैं कुछ वादें हैं कुछ में स्नेहिल बातें हैं,
कुछ में भाव प्रतीक्षा के हैं कुछ में नेहिल रातें हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ यादों के अवगुंठन में,
पर यादों तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

उत्सुकता में प्रेम मिलन की पल-पल रातें जागी हैं,
पलक पाँवड़े द्वार बिछाये उम्मीदें भी माँगी हैं।
होगी आश्रित कहीं रात बस प्रेम मिलन के बंधन में,
प्रेम मिलन तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

पथ में काँटे कहीं मिलें अवरोध कहीं पर पर्वत से,
कहीं विपत का गहरा सागर कहीं पंथ के कंटक से।
कितने कंटक भले पंथ में अपने इस जीवन वन में,
अवरोधों से डर जाए ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       04 अगस्त, 2024

गीतों में कहानी

गीतों में कहानी

साथी गीतों के मधुवन में हमने भी बोये गीत नए,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

दो चार कहानी नयनों की दो चार कहानी सपनों की,
दो चार कहानी जख़्मों की दो चार कहानी अपनों की।
साथी गीतों के मधुवन में कुछ यादें नई पुरानी हैं,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

किसी गीत में त्याग समर्पण औ किसी गीत में अभिलाषा,
किसी गीत में नेह लिखा है प्रिय कहीं लिखी मन की भाषा।
साथी गीतों के मधुवन में मन की अपनी रजधानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

कुछ शब्द मुखर हो गिरे कहीं कुछ रिश्तों में ही उलझ गए,
कुछ शब्द हृदय में चुभे कहीं कुछ पलकों में ही झुलस गए।
साथी गीतों के मधुवन में ये कैसी आना कानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

कितने साथी पथ में आये औ कितने साथी छूट गए,
कितने रिश्ते गीत बनाये औ कितने रिश्ते टूट गए।
साथी गीतों के मधुवन में रिश्तों की अलग निशानी है,
कुछ गीतों में विरह वेदना औ कुछ में लिखी कहानी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       03 अगस्त, 2024

बात अधूरी है

बात अधूरी है

कुछ और ठहर जाओ, कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

दिन वादों में बीता यादों में रात गयी,
पलकों के कोरों की सपनों में बात हुई।
सपनों ही में आ जाओ कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

जो छूट गए लम्हे कल और न आयेंगे,
मैं आज सुनाता हूँ कल और सुनायेंगे।
इन लम्हों को जी लें कैसी मज़बूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

कल की बातें झूठी कल किसने देखा है,
आ आज यहाँ जी लें जो सपना देखा है।
क्यूँ मौन प्रहर अब भी कैसी मजबूरी है,
कहनी है जो तुमसे, वो बात अधूरी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03 अगस्त, 2024

रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात

रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात


दिन बैरागी हुए हमारे बैरन हो गयी रात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

थका हुआ मन लेकर लौटे दिन के मौन उजाले में,
सपनों का घट खाली-खाली नयनों के दो प्याले में।
पलकों की चौखट पर ठहरी यादों की बारात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

बात अधूरी रहे अगर तो यादों का कुछ मोल नहीं,
पूरे जो ना हो पायें तो वादों का कुछ मोल नहीं।
यादों के सूने में खोये सब वादों के अनुपात,
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात।

उम्र सिसकती रही रात भर दिन सारे बंजारे,
दूर-दूर तक मरुथल फैला किसको हृदय पुकारे।
सारी रात छुपाते बीती ऐसी थी बरसात
रीत गया शब्दों का घट पर हो न पाई बात

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      02 अगस्त, 2024

फिर खेल खेला जाएगा

फिर खेल खेला जाएगा

नेह का सपना दिखाकर स्वयं को अपना बताकर,
मान्यताओं को छुपाकर नीतियों को भी भुलाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सभ्यता रह-रह गिरेगी आतमा रह-रह मरेगी,
सत्य का अनुरोध धूमिल शून्यता रह-रह बढ़ेगी।
वासना का जाल फैला प्रेम अरु विश्वास मैला,
मुद्रिका के प्रेम के हर अंश का अनुप्रास मैला।

समर्पण के, आभार के, नींव को झूठा बताकर,
हर समर्पित मुद्रिका के अंश को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

धर्म को अवरोध कहकर भावनाओं को गिराना,
भागवत के उपदेश के अर्थ को झूठा बताना।
वेदों के हर अंश से और नीतियों से दूर जाना,
गंग के तप-त्याग को बस स्वार्थ औ झूठा बताना।

व्यस्तताओं के बहाने संबंध का मन गिराकर, 
दूध के हर बूँद की आतमा को पल-पल गिराकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

हर सृजन की भावना में स्वार्थ का ही मूल होगा,
लाभ में वो ही रहेगा वक्त के अनुकूल होगा।
लाभ से सिंचित रहेगी वक्त की हर एक शिक्षा,
फिर भगीरथ क्यूँ करेगा गंग की वैसी प्रतीक्षा।

अब साधना के मूल्य को हर घड़ी हर पल गिराकर,
हर सृजन की आतमा पे झूठ का लेपन लगाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सत्य की होगी परीक्षा हर कदम पर व्यूह होगा,
झूठ आश्वासन से घिरा तर्क हर अभ्यूह होगा।
गांडीव होगा हाथ में नैन में प्रतिशोध होगा,
व्यर्थ सम्मुख पार्थ के हर कर्ण का अनुरोध होगा।

व्यूह लेकिन वो रचेंगे नीति को झूठा बताकर,
अभिमन्यु का फिर वध करेंगे व्यूह में झूठा फँसाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

अब आत्मबल का शौर्य का स्वयं ही पहचान करना,
मत्स्य की उस आँख का अब स्वयं ही अनुमान करना।
कब तक करेगा ये जगत अब परशु की फिर प्रतीक्षा,
ये सदी खुद ही करेगी उपलब्धियों की समीक्षा।

फिर धर्म की स्थापना के मार्ग से मन को हटाकर,
छेड़कर इतिहास को कौटिल्य को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 जुलाई, 2024

खेल अभी भी जारी है

खेल अभी भी जारी है

जिसने सबका मन भरमाया कुछ और न दुनियादारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

दो रंगे पासे हाथों में ले अब भी शकुनी घूम रहा,
स्वार्थ प्रमुखता ले भावों में हर द्वार-द्वार को चूम रहा।
कुटिल भावना अंतस में भर हाथों में लिए कटारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

गली मोड़ हर चौराहे पर कटुता बैठी फ़न फैलाये,
पल-पल सोच रही पांचाली कैसे पथ पर आये जाये।
केशव के साये में क्यूँ कर छुपना उसकी लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

सत्ता लोलुप दरबारों में सबके अपने स्वार्थ पल रहे,
भीष्म पितामह वाली चुप्पी देख यहाँ पर हृदय छल रहे।
सत्ता के चौखट पर कैसी लोकतंत्र की लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 जुलाई, 2024

सारे व्याकरण में है नहीं

सारे व्याकरण में है नहीं

कैसे लिख दूँ गीतों में मैं प्यार के अहसास को
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यादें जब भी आँसू बनकर नैन से बहने लगे,
ये मान लेना गीतिका का बंध पूरा हो गया।
आहों की बदली में जब-जब ये हृदय घिरने लगे,
ये मान लेना आतमा का द्वंद पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत में आँसू के अहसास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

जब भी मचलकर मन कभी ये प्रश्न खुद करने लगे,
ये मान लेना आतमा का कार्य पूरा हो गया।
जब कभी मन की गली के हर रासते मिलने लगें,
ये मान लेना रासतों का कार्य पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत मैं मन के हर विन्यास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यूँ ही कभी जब भींग जाये मन भाव के अहसास में,
मान लेना प्रीत का का अनुबंध पूरा हो गया।
जब बूँद पलकों से उतरकर स्वयं ही हँसने लगे,
ये मान लेना अश्रुओं का पंथ पूरा हो गया।

अब जो अलौकिक बात है इस अश्रु के अहसास में,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जुलाई, 2024

दीपक एक जला लेना

दीपक एक जला लेना

दुनिया के हर अँधियारे को साथी दूर भगा देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

गीत न केवल लिखना साथी लहरों के आलिंगन के,
लिखो दर्द तटबंधों के प्रिय मिटते हर अनुबंधन के।
बलखाती लहरों में घुलकर तट को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

कदम-कदम लाखों पहरे लाखों राह दिखाने वाले,
संबंधों की चौखट पर रिश्तों को समझाने वाले।
इस दुनियादारी में फँसकर तुम खुद को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

पलकों के सपनों को यूँ ही व्यर्थ नहीं ढहने देना,
यादों के शीश महल में प्रिय कुछ सपने रहने देना।
सपनों को पाने की हठ में अपने नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

साँसों से अनुबंध हुए जो कभी नहीं वो कम करना,
औरों के आँसू से अपनी आँखों को भी नम करना।
हार गए जिन संबंधों को उनको नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 जुलाई, 2024

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है

इंद्रधनुषी आसमां का हर रंग सारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

जूझती है जिंदगी अहसास के विस्मृत पलों में,
छल रही है बंदगी भी जो कभी थी हर दिलों में।
हर आस के अहसास का पुष्पित इशारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

थी कभी मधुमित नशीली ये रात जो बरसात में,
आधरों से थी टपकती मधु हर घड़ी हर बात में।
सूखे मधु के हैं प्याले या कुछ नया अनुबंध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

अब न वो सुरताल सारे और न वही संगीत है,
बस झूठ के पैबंद से मन सिल रहा हर प्रीत है।
अब प्रीत का अनुराग का जो था सहारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

मेरी पेशानी के बल से हँस रहे जिनके महल,
द्वार पर उनके नहीं है मेरी पेशानी का हल।
बूँद की अंतिम सियाही तक ही यहाँ संबन्ध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26 जुलाई, 2024

मुक्ति गीत

मुक्ति गीत

जाओ है विदा तुमको हमारे गीत अब न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

था आचमन तुमको हमेशा और अर्पित मन सुमन सब,
था मंत्र के उच्चारणों में पुण्यता का आगमन सब।
अब जो न होगी पुण्यता तो ये गीत हम न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

अब क्यूँ करे ये दिल प्रतीक्षा क्यूँ द्वार पर दीपक धरे,
क्यूँ कर सहे हर लांछनों को क्यूँ याचना अब मन करे।
जब प्रतीक्षा ही न होगी नहीं मीत हम कहलायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

जब टूटना ही रेख में हो तो वृथा है भार ढोना,
क्यूँ व्यर्थ के अनुबन्धनों में स्वयं कालाहार होना।
जब तोड़ सारे बंधनों को मुक्त हृदय हो जायेंगे
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

मन चल पड़े जब मुक्त होकर सब व्यर्थ है फिर सोचना,
शीतल करे जो दो दृगों को क्यूँ अश्रुओं को पोछना।
आँसू में अनुभूतियों के अहसास जब बह जायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 जुलाई, 2024

जीवन का आशय

जीवन का आशय

बिना लड़े कब मिल पाया है जीवन का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

लहरों की धारा संग चलकर गहराई का ज्ञान हुआ,
आत्म विभूषित हुआ जहाँ राहों का अनुमान हुआ।
अनुमानों के बिना मिला कब संकल्पों को आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

अरुणोदय का बोध नहीं तो चन्द्र रश्मियाँ व्यर्थ रहीं,
जब तक ताप नहीं मिलता है शीतलता का अर्थ नहीं।
धूप-ताप जो सहा नहीं है छाँवों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

उच्च कभी तो निम्न कभी है अपने जीवन की रेखा,
पौरुष का सम्मान किया जो उसने मरु में जल देखा।
अनुदानों में मिलने वाले सपनों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19 जुलाई, 2024

शहर विकास तो गाँव है गहना।

शहर विकास तो गाँव है गहना

पगडंडी से सड़क का रास्ता,
इक दूजे के मन में बसता।
गली-गली से होती बातें,
तारों के संग कटती रातें।
पुरवइया का घर-घर बहना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

राहों में कदमों की करवट,
नयनों में सपनों की सिलवट।
एक चली तो दूजी चली है,
फूल है एक तो दूजी कली है।
हँसकर इक दूजे से मिलना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

इक सपनों की भूल-भुलैया,
दुजे में पीपल की छइयाँ।
भाग-दौड़ है एक में पल-पल,
दूजे में सपनों की हलचल।
सपनों का शहरों में बसना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

ऐसी जुड़ी राहें जीवन की,
गाँव सुने है शहर के मन की।
तब टूट सकेगी कैसे डोरी,
शहर चले जब गाँव की ओरी।
शहरों के संग गाँव का रहना
शहर विकास तो गाँव है गहना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18 जुलाई, 2024




मेरे स्वर

मेरे स्वर

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

उम्मीदों का दामन थामे, प्रति दिन पथ पर चलता हूँ,
शूल चुभे कितने ही पग में, हँस कर खुद से मिलता हूँ।
कंटक पथ भी फूल बनेंगे, इक दिन वो भी आयेगा,
आज चला हूँ भले अकेले, इक दिन जग भी आयेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

जीवन पथ मुश्किल है माना, नामुमकिन कुछ रहा कहाँ,
इस जीवन में संघर्ष न हो, ऐसा पथ कब रहा यहाँ।
उद्द्यम के बल पर सपनों की, गाथा मन लिख पायेगा,
आज उगाता जिसे अकेले, जग उसको उपजायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

कदम ताल औरों के नापूं, मुझको ये अधिकार नहीं,
औरों की शर्तों पर गाऊँ, मुझको ये स्वीकार नहीं।
अपने हिस्से के मधुवन में, सावन इक दिन आयेगा,
उम्मीदों की इस लतिका पे, फूल कभी मुस्कायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जुलाई, 2014

अधूरे स्वर

अधूरे स्वर

कितने मंजर नयनों में आकर पलकों को छल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

है जितना मुश्किल अनुमानों की राहों में खुलकर जाना,
है उतना मुश्किल दुविधाओं से जीवन का बाहर आना।
अनुमानों दुविधाओं के पल जब सपनों में मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जितना मुश्किल इस जीवन में है वादा कर हँसते रहना,
उतना ही मुश्किल है पलकों के आँसू का कहते रहना।
हँसते आँसू जब अधरों के कंपन में घुल-मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

मन को माटी जैसा रखकर इस जीवन में रहना होगा,
जीना है यदि इस जीवन को सब धूप-छाँव सहना होगा।
जीवन तब इस धूप-छाँव में हँसते-हँसते पल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जो जीवन भर बाधित स्वर ले निज आहों में जीता होगा,
हृद घट खंडित भावों से छल पल-पल कितना रीता होगा।
रीते अंक लिए आँसू फिर घावों को ना सिल पायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2024

अपनी नाव उतारी है

अपनी नाँव उतारी है

कितनी कश्ती आशाओं की, लहरों में उलझी जाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

हार-जीत के अनुमानों से, आशंकित मन की राहें,
लेकिन आलिंगन में लेने, को आतुर मन की बाहें।
हार-जीत के सम्मोहन में, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, सपनों के सब अनुयायी,
कुछ सपने जीवंत हुए हैं, कुछ पानी की परछाईं।
लेकिन सपनों के चौसर पर, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

लिखा रेख में जो जीवन के, चाहा टाल नहीं पाया,
पग-पग कितने जतन किये पर, मन का हाल नहीं पाया।
पग तल जितने राह चले हैं, मंजिल दूर हुई जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

नीलकंठ बनना चाहा पर, अंतस शुद्ध न हो पाया,
जीत गया जीवन कलिंग पर, मन ये बुद्ध न हो पाया।
इच्छाओं के महा जलधि में, चाहे कितनी बलखाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2024

किधर जाऊँगा

किधर जाऊँगा

जिंदगी तू साथ देगी तो निखर जाऊँगा
हाथ छूटा जो तेरा तो मैं बिखर जाऊँगा

यूँ तो वादे हैं हज़ारों यहाँ इन राहों में
मुझसे वादा जो कर तो सफर पाऊँगा

वैसे बन-बन के भी बिगड़ा हूँ बहुत
तू जो हँस देगी तो सुधर जाऊँगा

तेरी कश्ती का मैं मुसाफिर हूँ यहाँ
छूटी जो कश्ती तो किधर जाऊँगा

"देव" चलता है सफर जब तलक साँसें हैं
है ये लम्हों का सफर हँस के गुजर जाऊँगा

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जुलाई, 2024


बूँदों का मधुमास

बूँदों का मधुमास।   

सावन की मधु बूंदें गिरकर, यूँ अन्तस् में अधिवास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।

हरित हुआ धरती का आँचल,
काली मेघ घटायें छाईं।
बारिश की बूँदेँ जीवन में,
बनकर के सौगातें आयीं।
तन मन ऐसे भींगा जैसे, मृदु भावों ने अनुप्रास किया।
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

देख धरा का खिलता आँचल,
मेघों का भी मन डोला है।
दूर क्षितिज पर मिलन देख कर, 
पपिहे का भी मन डोला है।
पपिहे ने भी गीत सुना कर, फिर प्रियतम को है याद किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

सावन ऋतु की देख उमंगें,
हिय प्रेम राग भर जाता है।
दूर देश बैठे पियतम की, 
यूँ बरबस याद दिलाता है
प्रेम फुहारों से भींगा मन, अब मधुर मिलन की आस किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

नयनों के आलोड़न से

नयनों के आलोड़न से

बन जाये इतिहास यहाँ पर, तेरी मेरी मधुर कहानी,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

विरह वेदना साथी मेरे, अश्रु मेरे काव्य की भाषा,
बन जाऊँ ना कहीं यहाँ मैं, दुनिया में बस खेल तमाशा।
इस विरह लेखनी को मेरे, बस स्नेहिल आभास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

पग तल नाप रहे हैं रस्ते, निशा कहाँ है भोर कहाँ है,
एक जलन है नयन कोर में, क्या जाने मन ठौर कहाँ है।
इन नयनों के कोरों में बस, सपनों को मधुमास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

दर्द प्रेम है अश्रु स्नेह है, बैरन लगती यहाँ श्वास है,
बाती जैसा जल जाऊँगा, क्या मेरा यही इतिहास है।
मधुर प्रेम की एक फूँक से, सपनों का विन्यास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 जून, 2024

छाँव

छाँव

ढूँढ़ते हो क्यूँ सुखन बस उम्र के ही गाँव में
आओ मिल बैठो घड़ी भर जिंदगी की छाँव में

जो वहाँ पर दर्द है तो खुशियों का भी राज है
कट रही है जिंदगी इन बादलों की छाँव में

जब से छूटी है जमीं छूटी गलियाँ गाँव की
दर्द गाँवों का बढ़ा है देख छाले पाँव में

जिनके कदमों की धमक से डोलते थे रास्ते
ढूँढ़ते हैं अब सफर वो इस नए बदलाव में

भूख का मतलब यहाँ बतलायेगी वो जिंदगी
जिसने खुद को है तपाया धूप के इस गाँव में

उम्र का वो मोड़ अब भी है वहीं पहले जहाँ था
जिसने कभी चलना सिखाया आँचलों की छाँव में

फिर चलो बैठे वहाँ और खुद से ही बातें करें
राह भी शायद मिले उन्हीं बरगदों की छाँव में

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया
तुझसे सजा अँगना रे।
तेरी ही कुह-कुह से
तेरे ही कलरव से
सोना और जगना रे।

हो कितना अँधेरा, जग में कहीं भी,
काँटे हों कितने भी, पग में कहीं भी,
तुझसे ही रस्ता दिखा।
गीत अधूरे हों, आहों के घेरे हों,
मन की गली में, कैसे अँधेरे हों,
नयनों में सपना लिखा।

सूने नयन का तू सपना सलोना,
पलकों का पलना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

अंबर से चुन-चुन के, तारे ले आऊँ,
सतरंगी चूनर में, उनको जड़ाऊँ,
बाहों के पलने में झूला झुलाऊँ।
नयनों में तेरे, काजल लगाऊँ,
तेरे आँचल में मैं, चाँद तारे सजाऊँ,
परियों की तुझको कहानी सुनाऊँ।

तुझ पर लिखूँ, गीत प्यारे सुहाने,
तुझ संग सँवरना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         22 जून, 2024

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

क्रोंच पक्षी के रुदन को काव्य का इक रूप देकर,
मौन आँसू जो गिरे थे भाव को इक रूप देकर।
कुछ पंक्तियों में सिमटकर दर्द ने नव गान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

दर्द भावों में उभरकर नव गीत बनकर छा गये,
गीत अधरों से उतरकर नव काव्य बनकर छा गये।
पंक्ति का आकार पाकर सब भावनायें खिल गईं ,
जो रचे उसे रोज हिय ने दर्द बनकर छा गईं।

शब्द का श्रृंगार पाकर दर्द को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

जो थी घुटन मन में कहीं वो भाव पन्नों पर लिखे,
अरु शब्द के हर उस चुभन के घाव पन्नों पर दिखे।
लिख दिये प्रतिरोज जाने पीर जीवन के पलों की,
पास फिर भी रह गयी आह बिछड़े उन पलों की।

भाव को विस्तार देकर गीत को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

गीत में जीवन सुरों के वो राग सारे लिख दिये,
नेह के सुंदर पलों के पिय राग सारे लिख दिये।
लिख दिये नव गीत कितने मन लुभाती कामना के,
राग को सम्मान देती प्रीत की नव भावना के।

साज का नव सुर सजाकर गीत ने सोपान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

एक बेरि आ जाइता गाँव

एक बेरि आ जाइता गाँव

बरिस-बरिस बीतल, अँखिया झुराइल, अउर छूटल ई पिपरा के छाँव हो।
हे विदेसिया, एक बेरि आ जाइता गाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव।

संगी छूटल, साथी छूटल, छूटल खेल-खिलौना, 
गली, मुहल्ला, आँगन छूटल, छूटल खाट-बिछौना।
छूट गयल माथे पे थपकी, जबसे, छूटल अँचरा के छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

हर आहट पे मनवा भागे, पुरवइया तड़पाये, 
ई चंदा के शीतल किरणें तन में आग लगाये।
पहर-पहर मुश्किल हौ बीतल, अब तारन की छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

ताल-तलैया पगडंडी सब, हर पल राह निहारे,
घर के सूनी-सूनी चौखट, घुट-घुट तोहें पुकारे।
बिन तोहरे ई जीवन लागे, लहर में भटकत नांव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

केतनी बीत गइल ई जिनगी, बाकी जितनी बाटे,
पल-पल बरस-बरस लागत हौ, कइसे इहके काटे।
साँझ ढले से पहिले आ के, खतम करा अलगाव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जून, 2024

कैसे अलविदा कह दूँ

कैसे अलविदा कह दूँ

जाने किस मोड़ पे, मुलाकात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बस अभी-अभी ही तो, शुरू हुआ है सफर,
कैसे कह दूँ मैं कि, बड़ी लंबी है डगर।
जाने किस मोड़ पे, सवालात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

कितने सपने हैं सजाए, इन पलकों में,
कितने वादे हैं छुपाए, इन अलकों में।
क्या पता किस मोड़ पे, वो साथ हो जायें,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बीत चुकी कितनी, कितनी कहानी बाकी,
अब भी अधरों पे, उनकी निशानी बाकी।
क्या पता फिर से वही, बरसात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       16 जून, 2024

जाने कैसा है मिलन

जाने कैसा है मिलन

धुँधलके में साँझ के आस मद्धम पल रही है,
मौन हैं हम तुम मगर आँख कुछ-कुछ कह रही है।
इन मचलती कामनाओं में छुपी कुछ तो चुभन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

मौन हम दोनों यहाँ, पर साँस कुछ तो कह रही,
छू के आँचल को तेरे पौन मद्धिम बह रही।
जब पवन का गीत मद्धम डर रहा क्यूँ आज मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

चाँद के अपने सफर पर रात का क्या जोर है,
जल रही जब दीपिका फिर क्यूँ हृदय में शोर है।
जब खिला उपवन हृदय का मौन फिर क्यूँ मन सुमन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।
 
कहीं ऐसा न हो गीत अधूरे फिर रह जाएं,
ठहरो न जरा सा आज कि दूरी कम हो जाएं।
है अधरों को स्वीकार काँपता पर अंतर्मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जून, 2024

मुक्तक

वो मौसिकी ही क्या जिसमें जिंदगी न हो।
वो शायरी ही क्या जिसमें बन्दगी न हो।
यूँ तो आशिकी के लाखों तलबगार हैं,
वो आशिकी ही क्या जिसमें तिश्नगी न हो।

घटेगी कब तलक साँसें कहीं कुछ जोड़ तो होगा।
हमारी मुश्किलों का भी कहीं कुछ तोड़ तो होगा।
भटकेगी इन राहों में अकेली जिंदगी कब तक,
कहीं तो इस कहानी का सुहाना मोड़ तो होगा।


यमुक्त गीत- यादें

यादें

मेरी यादें जब तुम्हारे दिल को छूकर जाएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

क्या हुआ जो उस घड़ी में गीत पूरे हो सके न,
और रहकर पास भी हम पास इतने हो सके न।
दूरियाँ जब-जब भी अपने रास्ते में आएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी ।

एक लम्हा था जिसे हमसे सँभाला न गया,
एक लम्हा उम्र का हमसे निकाला न गया।
जब भी लम्हे दर्द बनकर उम्र को तड़पायेंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

अनलिखी रह जाये न अपनी कहानी प्यार की,
हार कर भी जीत की और जीत में भी हार की।
हार ये मेरी तुम्हारे दिल को जब तड़पायेगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जून, 2024

गजल- निभाया न गया

निभाया न गया

दिल पे लगी उसको छुपाया न गया
मुझसे रिश्ता कोई निभाया न गया

उम्र भर दर्द के साये में जीता कैसे
चाह कर दर्द दिल में दबाया न गया

कहने को ही रिश्ता उनसे था अपना
ये भरम भी दिल में बनाया न गया

कैसे दे दूँ मैं दोष लकीरों को यहाँ
आशियाना मुझसे ही बसाया न गया

उनकी नजरों में गिर न जाऊँ फिर से
चाह कर उनको फिर से बुलाया न गया

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 जून, 2024

चीख

चीख दब कर रह गयी क्या बेबसी की मार से,
या बँधी है जोर से या जुल्म से तलवार से।
वेदना का ये समर अब सहा जाता नहीं है,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

साँझ का वो धुँधलका और पुरवा थी सुहानी,
चल रही चाँदनी और खिल रही थी रातरानी।
एक मद्धम सी लहर हौले-हौले छू रही थी,
खेलती मस्त होकर मन का अंचल छू रही थी।

था अभी पूरा प्रहर ये तो बस शुरुआत थी,
लेख में विधना के पर वो तो अंतिम रात थी।
रौंद डाले स्वप्न सारे तेज इक रफ्तार ने,
कर दिए सब मौन सपने क्रूर के उस वार ने।

चीख दब कर रह गयी क्या जाने कैसे शोर में,
वक्त अब शायद नहीं है क्या कलम के जोर में।
बंद होकर रह न जाये पृष्ठ में बनकर कहानी,
लेखनी कुछ धार दे दो कह सके सच को जुबानी।

यूँ लिखो इस दर्द को कि बेध दे सबका हृदय,
मुक्त कर दो सत्य को या झूठ में कर दो विलय।
है विवश क्यूँ सत्य इतना अब सहा जाता नहीं,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 जून, 2024

मुक्त गीत- गीत न लिख पाऊँगा

गीत न लिख पाऊँगा

तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा,
फिर कभी इस दिल में अपने प्रीत न लिख पाऊँगा।

है तुम्हीं से आस सारी और तुमसे ही शिकायत,
है तुम्हीं से दोस्ती और तुमसे ही अदावत।
बिन तुम्हारे जिंदगी में जीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

साँस तुम धड़कन तुम्हीं हो जिंदगी भी तुम हो मेरी,
भोर की पहली किरण हो बन्दगी भी तुम हो मेरी।
बिन तुम्हारे जिंदगी की रीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

ये जहाँ या वो जहाँ हो तुम पे ही दिल आसना,
इक सिवा तेरे हृदय को और न कुछ कामना।
तुम बिना इस जिंदगी को मीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        28 मई, 2024

रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा

रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा

चल रही धरती गगन अरु चल रही पुरवा सुहानी,
चल रहे हैं चांद तारे खिल रही है रात रानी।
जब प्रकृति गीत सुंदर मन में हो फिर क्षोभ कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

है वही जीवन समर्पित स्वयं की जो भूल समझे,
पंथ के हर कंटकों को पंथ का ही फूल समझे।
जो विकल हो कंटकों से पंथ पर फिर क्रोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

दे रहे यदि पुष्प जग को स्वयं फिर अधिकार कैसा,
स्वार्थ पोषित पंक्तियों में सत्य का प्रतिकार कैसा।
जो मिथक है ये जगत तो सत्य पर अवरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

हैं सभी की भावनाएं और सबकी जिंदगानी,
लिख रहे हैं पंक्तियों में पृष्ठ पर अपनी कहानी।
यदि कथानक क्षुब्ध है तो अन्य से अनुरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

प्रात किरणें नित हृदय में चेतना संचार करतीं,
पल्लवित नव आस देतीं क्षोभ का निस्तार करतीं।
भोर है जब हर निशा का रात्रि फिर गतिरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 मई, 2024

कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है

है भ्रमित मन प्राण क्यूँ कर, साथ दे पाती न काया,
क्या पथिक भटका हुआ है, या समझ आयी न माया।
मन बदलती भावनाओं मध्य क्यूँ उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

मन वचन अरु कर्म सारे बिंदु पर सिमटे हुए हैं,
ज्वाल बनकर याचनाएं गात से लिपटे हुए हैं।
मिट रही है चाह प्रति पल क्यूँ संग की व्यवहार की,
मर रही है आस पल-पल क्यूँ मौन मन मनुहार की।

मन नित नए जंजाल के मध्य में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

बोध क्या मन को नहीं है नृत-अनृत का क्लिष्ट अंतर,
या कहीं उलझा हुआ है शून्यता में आत्म अंतर।
हो रही जब से घनेरी स्वार्थ में अंधी ये रात,
है यही भय आत्मा पर जाने कैसा हो आघात।

नृत-अनृत के मध्य में जब क्लान्त मन उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

इस नियति से पूछ सकते काश मन के प्रश्न सारे,
दूर शायद हो सकें तब इस हृदय के कष्ट सारे।
जब करेगी लेखनी ये सत्य का सम्मान पथ पर,
तब गढेगी ज़िंदगी ये नित नया प्रतिमान पथ पर।

लेखनी का शब्द जब तक लोभ में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26 मई, 2024

भोर की आस में रात सो ना सकी

भोर की आस में रात सो ना सकी

चाँदनी सिलवटों में सिमटती रही,
भोर की आस में रात सो ना सकी।
बात कुछ अनकही कुछ अधूरी रही,
बात हो ना सकी रात सो ना सकी।

नैन के ख्वाब सारे पिघलते रहे,
रात भर नींद द्वारे सिसकती रही।
इक तमन्ना दिलों में मचलती रही,
इक तमन्ना कलेजा मसलती रही।

याद नश्तर बनी रात चुभती रही,
चाह कर बात कितनी सँजो ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में----

सुबह की आस में रात चलती रही,
हर जगह राह में बस अँधेरा मिला।
जब दिखी रोशनी की झलक सी कहीं,
एक बिखरा हुआ सा सवेरा मिला।

आँधियाँ तेज थीं राह में इस तरह,
दीपिका रात भर टिमटिमा ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में ------

कुछ यादों की परछाइयों के सिवा,
और कुछ पास बाकी बचा क्या यहाँ।
इन लम्हों की तन्हाइयों के सिवा,
अब कहने को बाकी नहीं कुछ यहाँ।

आधरों पे सजे गीत सब खो गए,
चाह कर गीतिका गुनगुना ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में-------

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 मई, 2024

तुम आये जीवन आया है

तुम आये जीवन आया है

पलकों के विचलित भावों में,
सपनों की स्नेहिल सी हलचल।
नयनों के भींगे कोरों में,
आये खुशियों के पावन पल।

तप्त हृदय जलती साँसों ने,
पतझड़ में मधुवन पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

आहों ने था किया बसेरा,
सब खुशियों से अनजाने थे।
तन्हाई थी यहाँ भीड़ में,
हम अपनों में बेगाने थे।

क्लान्त हृदय ने सूनेपन में,
जीवन का आशय पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

मधुर यामिनी ने आँगन में,
अंतस के प्रतिपल ताप भरा।
चन्द्र रश्मियों की हलचल ने,
प्रतिपल बस घाव किया गहरा।

बदला पल घड़ियाँ बदली हैं,
घावों ने मलहम पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

मरुधर की तपती राहों को,
शीतल कोई छाया दे दे।
मुरझाई लतिका को जैसे,
कोई नूतन काया दे दे।

मधु मिश्रित सब गीत हृदय के,
संग-संग जो भी गाया है,
तुम आये जीवन आया है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 मई, 2024


आपन माटी

आपन माटी

भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा,
गर्व करा अपनी भाषा पे अउरन के स्वीकार करे।

बिन भाषा के जिनगी दूभर,
कइसे मन के बात कही।
मिली न जब तक मन से मनवा,
आपन माटी दूर रही।
लाज शरम सब छोड़ इहाँ पे माटी से तू प्यार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

जब से छूटल माटी आपन,
डगर नेह के दूर भइल।
हँसी ठिठोली दूर भइल सब,
जिनगी आपन झूर भइल।
नजर फेरि के कब तक रहबा, महिमा तू स्वीकार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

इ बाल्मीकि गौतम के माटी,
तुलसी कबीर की घाटी।
विश्वनाथ अउ सारनाथ के,
हौ कुम्भ जनम के साथी।
पाप नाशिनी गंगा माई, महिमा के गुणगान करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

नालंदा अरु काशी यहिं पर,
शिक्षा के जीवन दिहनी।
रामायण अरु रामचरित से,
जन गण के अवगुण हरनी।
धर्म परायण भूमि इहाँ के अइसन ही व्यवहार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

इ कबीर दास के बोली हौ,
इहमन ही रसखान मिलल
हुंकार बहादुर कुँवर सिंह,
मंगल सा अभिमान मिलल।
आजाद मिलल यहिं माटी से जिनपर तू अभिमान करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

दिनकर, मुंशी प्रेमचंद अरु,
हरिश्चंद्र परिपाटी हैं।
काव्य जगत के क्षेत्र में इहाँ,
घर-घर सोंधी माटी है।
वेद पुराण ग्रन्थ से अपने मन के सबहि विकार हरा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

कहिया तक शर्माइल रहबा,
अपने तन के माटी से।
कहिया तक भकुआइल रहबा,
देखि नई परिपाटी से।
नवका के अपनावा लेकिन मौलिकता से प्यार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2024


दोहा

दोहा

श्रद्धा जाके मन बसे, हृदय बसे हनुमान।
निश्चय विजय प्रतीत हो, बढ़े बुद्धि अरु ज्ञान।

जोरि-जोरि धन मन मुआ, मिला न मन को चैन।
चिंता मन को सालती, कैसे बीते रैन।।

मन में है संतोष यदि, और प्रेम का भाव।
जीवन ये फूले-फले, मिलती प्रभु की छाँव।।

मुक्तक- नई प्रीत मैं लिख दूँ

मुक्तक- नई प्रीत मैं लिख दूँ

कहो तो चाहतों का फिर नया कुछ गीत मैं लिख दूँ।
लिखूँ कुछ ख्वाहिशों को फिर नई सी रीत मैं लिख दूँ।
जो हो मुझको इजाजत यदि तुम्हारे पास आने की,
बनूँ फिर गीत अधरों का नई सी प्रीत मैं लिख दूँ।

खिलेंगे फूल राहों में तुम्हारा साथ मिल जाये।
कटेगी राह ये सारी तुम्हारा साथ मिल जाये।
नहीं होंगे नजारे दूर कभी अपनी निगाहों से,
चलेंगे साथ सब अपने तुम्हारा साथ मिल जाये।

मैं अपने भाव गीतों में यहाँ तुमको सुनाता हूँ।
मिले दो पल सुकूँ मुझको तुम्हारे पास आता हूँ।
जमाने में कई होंगे मोहब्बत के तराने यूँ,
मगर दिल के तरानों को मैं गीतों में सजाता हूँ।

बड़ी तनहाइयाँ पसरी मगर ये काम तू कर दे।
नहीं कुछ और है यदि तो सभी गम नाम तू कर दे।
जो संभव हो सके न यदि हमारे पास आने की,
ज़माने में मुझे कुछ और फिर बदनाम तू कर दे।

बड़ी कमबख्त यादें हैं मुझे सोने नहीं देतीं।
मिले जो जख्म जीवन में कभी खोने नहीं देतीं।
जाने दुश्मनी है क्या मिरी पलकों की आँसू से,
कि चाहूँ लाख मैं लेकिन मुझे रोने नहीं देतीं।

अपने जज्बातों को अकसर मैं छुपा लेता हूँ।
मिले हर दर्द से यूँ रिश्ता मैं निभा लेता हूँ।
जमाना देख न ले मेरी पलकों के आँसू को,
भींग कर बरसात में मैं आँसू बहा लेता हूँ।



विदेसिया

विदेसिया

दूर भयल देसवा के माटी दूर भयल खरिहानी सब,
दूर भयल सब ताल तलैया राह भयल अनजानी सब।
बाग बगइचा छाँह छूटि गा बचपन वाली राह छूटि गा,
खेल खिलौना छूट गयल सब झूला वाली बाँह छूटि गा।

परदेसी हो गइल जिंदगी परदेसी अब छाँव हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

अबहुँ खरिहाने में खटिया रखि के बाबू बैठत होइहैं,
होरहा भूनि-भूनि के माई ओनकर रहिया जोहत होइहैं।
अबहुँ दरवाजे पे कोल्हू ऊखी से रस पेरत होइहैं,
चक्का पे गुड़ नवका देखी लइके अबहुँ खेलत होइहैं।

भूनि-भूनि आलू के भरता और बटुली वाली दाल हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

लिट्टी-चोखा सतुआ के सब महक अबहु भी बाकी बा,
पिज़्ज़ा बर्गर नूडल, यहिके आगे सगरो बासी बा।
लाई गट्टा बिना बताशा सब चना चबैना फीका बा,
चौराहे के चाहि बिना ई साँझ यहाँ के फीका बा।

घुघरी अउर जलेबी गुड़ के बाकी बचल अब नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

गाँव चलल ब शहर के ओरी राह बहुत अरुझाइल बा,
पगडंडी के पेड़ रुख सब लागत हौ मुरझाइल बा।
नवा दौर में नवा रूप में जिनगी सबक लिपटत बा,
पाथर के जंगल के आगे पेड़ रुख सब सिमटत बा।

जो छूटल पहचान गाँव के रह जाई इहाँ बस नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08 मई, 2024

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...