जाने कैसा राग दे रहा।

जाने कैसा राग दे रहा।  

दूर देश में बैठा कोई बेमतलब आवाज दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

भारत को जो समझ न पाए आज गवाही देने आए
जिसने इसको कभी न समझा दुनिया को समझाने आये
घिसे पिटे कुछ तर्कों से वो बेमतलब संवाद दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

सोच किसी की गंदी हो जब राष्ट्र भला क्या कर सकता है
ज्ञान किसी का किंचित हो जब मान भला क्या मिल सकता है
नैतिकता का बोध नहीं पर नैतिकता की बात कह रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

मूल भाव को समझ न पाये दूजे पर क्यूँ दोष मढ़े वो
संस्कृति को जब समझ न पाये उस पर कैसा रोष करे वो
संस्कृतियों का मर्म ना समझा जाने कैसा ज्ञान दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

अभिव्यक्ति पर रोक लगी है दूर कहीं पर खड़ा रो रहा
यही बात बतलाने को वो अभिव्यक्ति का नाम दे रहा
लगता बुझती राखों पर चिंगारी रख आग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

राष्ट्र का मतलब वो जानता जिसने जीवन जाना है
जीवन वो ही धन्य हुआ है जिसने भारत पहचाना है
वो क्या जाने भारत को जो दूर खड़ा हो दाग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

भाव जब समझा न पायें शब्द की संवेदना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

कंठ से निकले कभी जो शब्द मन की कह सके ना
वेदना के भाव के अहसास को भी सह सके ना
और सम्मुख हो खड़ा जग मौन पत्थर की तरह जब
आह के किंचित स्वरों के मर्म भी जब सुन सके ना
वेदना समझा न पाओ आह की अवहेलना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

चोट जो दिल पर लगी हो जब उसे दिखला न पाओ
बात जो तेरे हृदय में जब उसे समझा न पाओ
शब्द के वो मर्म सारे मौन कुंठित हो रहें जब
और उस पत्थर हृदय को बात जब बतला न पाओ
शब्द भी समझा न पाये सत्य की अवहेलना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

व्याकरण के शब्द भी जब गीत पूरा लिख सके ना
पंक्तियों में भावना को व्यक्त भी जब कर सके ना
छंद के निर्माण में अरु शब्द में विचलन उठे जब
लेखनी भी जब जहाँ पर मुक्त हो कर चल सके ना
व्याकरण समझा न पाये शब्द की अनुवेदना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

हूँ व्यथित मैं आज फिर से थाम स्मृतियों के सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

भावनाओं के समर में बस डूबता गिरता रहा
ले के जाने ख्वाब कितने मन ही मन कुढ़ता रहा
खींचता खुद को कहाँ से स्वयँ जब मंझधार चाहा
और डूबा जब वहाँ मैं सारा जग हंसता रहा।।

मौन मेरी वेदना पथ जोहती कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

बादलों को ओढ़कर सोचा सहारा मिल गया
उफान थी लहरों में पर सोचा किनारा मिल गया
थी वो शायद मरीचिका जिस पर भरोसा था किया
मेरे उस एहसास को अपराध का फल मिल गया।।

अपराध था मेरा वहाँ फिर चाहता कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काल के व्यवहार में सोचा यहाँ कुछ बदलाव कर दूँ
तोड़ कर अपवाद सारे मैं नया इतिहास रच दूँ
भूल बैठा मैं यहाँ पर वक्त में ठहराव कब है
स्वार्थ की आँधियों में संभव यहाँ बदलाव कब है।।

था असंभव जो यहाँ पर माँग बैठा वो सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

है यही अफसोस मुझको सत्य को बतला न पाया
झूठ के आडंबरों को मैं यहाँ झुठला न पाया
भूल थी अपनी हि कोई झूठ कोई कह गया
देखते ही देखते मेरा सत्य सारा बह गया।।

यज्ञ की आहुति कब पूरी हुई बिना मंत्र सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2021

मन गीत नहीं वो गा पाया।

मन गीत नहीं वो गा पाया।  

जाने कितने गीत कंठ में व्याकुल अधरों पर आने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

खामोश निगाहों ने ढूँढा प्रतिपल प्रतिक्षण इक अपनापन
उम्मीदों की सेज सजाया और बुहारा मन का आँगन
पल पल कितने जतन किये हैं इस जीवन का सुख पाने को
जाने क्यूँकर सज ना पाया वो निज नयनों का सूनापन।।

नयनों का वो निज सूनापन लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

निज बाहों में प्रतिपल सबने खिलता अंबर भरना चाहा
अंबर के सूने भावों को गीतों में यूँ कहना चाहा
मिलन यामिनी के पल में भी जितने स्वप्न बुने जीवन ने
जीवन के सारे भावों को मन ने कहना सुनना चाहा।।

मन का वृंदावन मधुमासित उल्लासित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

गोधूली बेला में जीवन सूरज के ढलने से पहले
संध्या प्राची की दुल्हन सी आयी मन भावों को हरने
इच्छाओं ने पंख पसारे आशाओं ने भोजपत्र लिखे
नयनों की भाषा पढ़कर के गीत मधुर अधरों ने पहने।।

अधरों पर जो भी गीत सजे लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2021


धूल बन कर रह गए।

धूल बन कर रह गए।   

जाने किस व्यवहार की हम भूल बनकर रह गये
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

ताप की उम्मीद में दीपक जला बैठे थे हम
सूर्य के उस तेज को दीपक दिखा बैठे थे हम
आज उसकी लौ से ही झुलसी हमारी उँगलियाँ
सूर्य को होते हुए भी छा गयी हैं बदलियाँ।।

बदलियों के झुण्ड में हम राह भूलकर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

जिस राह में सोचा बिछाऊँ पुष्प की पंखुड़ियाँ
उस राह में क्यूँ बिछ गये आज जंगल कटीले
जिस पुष्प में सोचा मिलेंगी सतरंगी तितलियाँ
उस पुष्प से क्यूँ कर मिले दंश विधना के नुकीले।।

उस दंश के एहसास में हम झूल कर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

व्याकरण सब चुक गया नहीं कुछ कोष संचित रहा
जाने किन किन पंक्तियों में भाव भी वंचित रहा
सींचने जिस वृक्ष को थे कितने जतन हमने किये
हर जतन हर यत्न मेरा हर बार ही किंचित रहा।।

हर यत्न में संभावनाएँ बिखेर कर हम रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2021

यादें।

यादें।   

कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं
सच तो है के तू जहन से जाती नहीं।।

देखा जब जब आईने में मैंने खुद को
तेरी ही सूरत आयी है नजर मुझको
बिन तेरे कोई महफ़िल सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

बारहा दिल को समझाया बहाने ने
हाल इस दिल का कब पूछा जमाने ने
बहाना, दिलासा कोई दिलाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

टूटा जब दिल आवाज नही होती है
कैसे कह दूँ बरसात नहीं होती है
अब तो आँसू से भी प्यास जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचता था बिन तेरे सँभल जाऊँगा
याद के साये से भी निकल जाऊँगा
ऐसा उलझा यहाँ राह सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचा था जी लूँगा तेरे बिन मैं तो
जख्मों को सी लूँगा तेरे बिन मैं तो
पर दर्द जाने वो मगर क्यूँ जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

अब तो मैं हूँ औ मेरी तन्हाई है
उमर जाने किस मोड़ पे ले आयी है
बिन तेरे जिंदगी गीत अब गाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2021



गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।

गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।  

तुम कहो तो गीत लिख दूँ मैं हृदय की भावना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

लेखनी में प्रीत भरकर मृदु मधुर संगीत भरकर
पंक्ति में उन्माद भर कर मौन में संवाद भर कर
तुम कहो तो प्रीत लिख दूँ मैं हृदय की कामना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

गीत के हर शब्द में है प्रिय चाहतों की कल्पना
मेरे मन के भावों में है प्रिय मधुर इक़ अल्पना
तुम कहो तो रंग भर दूँ कल्पनाओं में यहाँ मैँ
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

साँस में चंदन लिखूँ मैं या गीत वृंदावन लिखूँ
प्रेम का आँगन लिखूँ मैं या गोपियों का मन लिखूँ
तुम कहो तो मीत लिख दूँ कामनाओं को यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

जो कहो प्रारंभ लिख कर मैं बाँध लूँ मधुपाश में
अंक में भरकर लिखूँ फिर नव रीत मैं मधुमास के
आस का अनुप्रास लिख दूँ भावनाओं में यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12नवंबर, 2021

तुम इनको परिभाषित कर दो।

तुम इनको परिभाषित कर दो।  

अपने अधरों की पंखुड़ियों से छू कर मेरे भावों को
अपने मृदु आलिंगन में भरकर देकर अपनी छाहों को
प्राण वायु भर कर गीतों को तुम इनको स्पंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

भोर रश्मि की किरणों से ले है लिखी तरंगें जीवन की
आशा के अनुप्रासों से ले है लिखी उमंगें उपवन की
चंदा सी शीतलता भर दो तुम इनको अनुमोदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

कुछ स्वप्न सँवारे कोमल से आशाओं के नील गगन में
कुछ भाव उकेरे हैं हमने मृदु अपने हिय के मधुवन में
मधुवन में मधुमास खिलाकर तुम इनको संभाषित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

छंद छंद में भाव हृदय के पंक्ति पंक्ति में है अपनापन
पृष्ठ पृष्ठ पे चित्र तुम्हारा हरता मन का ये सूनापन
सूनेपन में गीत सजाकर जीवन को आनंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर, 2021

भावनाओं को शब्द का आकार दिया।

भावनाओं को शब्द का आकार दिया। 

मौन मचल संवेदनायें वर्जनायें छोड़कर
सोचा के कुछ आज लिख दूँ सीमायें तोड़कर
लेखनी से आग्रह अरु शब्दों से अनुरोध कर के
आज जीवन के पलों का हँसकर आभार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।
 
क्या लिखूँ क्या ना लिखूँ प्रश्न थे मन में हजारों
भाव के संवेदना के गीत में भरकर सितारे
और आँखों में भरी थी वो विरह की वेदनायें
वेदनाओं के सफर को मैंने नव अंदाज दिया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

है विदित मुझको बहुत हैं इस राह में दुश्वारियाँ
मौन अधरों पर रुकी हैं बीती विगत लाचारियाँ
आगत विगत के फेर में आकाश जाने कब गिरा
जो भी गिरा जैसे गिरा मैंने सब स्वीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

हर दिवस के बाद रातें भोर का प्रारंभ माना
शून्य को हमने यहाँ पर इक मधुर आरंभ माना
बाँधने भुजपाश में पल उम्मीद का आश्रय लिया
और सभी परिवर्तनों को मैंने अंगीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर ,2021






बाल श्रम।

बाल श्रम।   

काँधों पर प्रतिपल बोझ लिए
जीवन को आकार दिया
नन्हें नन्हें सपनो को भी
मैंने कब इनकार किया।
माना कुछ मजबूरी अपनी
फिर भी हँसता रहता हूँ
देख भाल कर जग के रौनक
मन ही मन खुश रहता हूँ।
चाहत है कुछ नया करूँ मैं
आशा के नव स्वप्न बुनूँ
पढूँ, लिखूँ नव राह चुनूँ मैं
जीवन का आधार बुनूँ।
पर मंजिल पाने की खातिर
पग पग चलना पड़ता है
इस दुनिया में जीना है तो
पग पग मरना पड़ता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2021

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।  

इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

आस के आकाश पर कुछ मौन चित्र जीवन ने चुने
मोतियों का ले सहारा कुछ हार जीवन ने बुने
ख्वाहिशों के मोतियों को बिखराया बोलो क्या पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

याद बनकर रह गये वरदान जो थे तुमको मिले
स्वप्न सारे ढह गये अनुभूतियों में जो थे पले
ढह रही अनुभूतियों में स्वप्न फिर से खिल न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

वो थी कसौटी प्रेम की अहसास की विश्वास की
थी शब्द के संचार की अरु इक मधुर आभास की
विश्वास जो टूटा यहाँ विश्वास फिर जुड़ न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

मृदु शब्दों के हर अर्थ की व्याख्यान थी वो वंदना
थी मगर उलझी न जाने बन मौन क्यूँ संवेदना
इस कदर उलझे यहाँ सब चाह कर सुलझा न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09नवंबर, 2021

स्याही ने इंकार कर दिया।

स्याही ने इंकार कर दिया।  

पलकों के कोरों पे आँसू
ठहरे कभी, कभी हैं ढलके
सूखे कभी ताप में जलकर
कभी नरम होकर के छलके
जब भी इनको लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

यादों की वीथी पर कितने
धुँधले चित्र अभी तक ठहरे
अंतस के भावों पर जाने
कैसे कैसे हैं ये पहरे
पहरों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

विरह वेदना के क्षण में भी
आँसू का सम्मान किया है
घोर निराशा के क्षण में भी
मैंने मधु का दान किया है
मधु की पीड़ा लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सन्नाटे के विरह में घुली
अब खामोशी किससे दर्द कहे
पग पग कितनी पीड़ा झेली
और जाने कितने दर्द सहे
पीड़ा को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

आह, सुलगती आशाओं ने
कुछ कहा कभी कुछ सुना कभी 
पग में कितने भी छाले हों
क्या दिनकर का रथ रुका कभी
छालों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सुधियों के चौराहे पर अब
चुपचाप मुसाफिर मौन खड़ा
यादों के बीते साये में
ले चुभते कितने प्रश्न खड़ा
प्रश्नों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2021

नाम दोषियों में मैंने पाया।

नाम दोषियों में मैंने पाया।  

है मुझे अफसोस अब तक राह तेरी चल न पाया
बात दिल में जो छिपी थी बात दिल की कह न पाया
यूँ है विदित मुझको हमारी वो सभी नाक़ामियाँ
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

भाव थे जो भी हृदय के दिल चाहता था बोल दूँ
राह में जंजीर थी जो जंजीर सारे तोड़ दूँ
और लिख दूँ गीत जो गूँजे हृदय की वादियों में
रीत में नवरीत लिख कर वो रीत सारे जोड़ दूँ।।

अफसोस मन की भावना को व्यक्त मैं कर न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

धड़कनों ने गीत गाकर मौन को आवाज दी है
साँस की सरगम सुरीली जिंदगी को साज दी है
त्याग कर प्रतिबंध सारे था लिखा इक गीत मैंने
और अधरों को लुभाये वो सुरीली राग दी है।।

आह अधरों पर सुरीली रागिनी सजा ना पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

है सभी स्वीकार मुझको जो मुझे शायद मिला है
है नहीं अफसोस कोई और ना कोई गिला है
वक्त का ये दोष है या फिर है मिरी नाक़ामियाँ
ये दर्द का अहसास सारा दर्द पाकर ही खिला है।।

कंठ तक आकर रुके पर गीत खुलकर गा न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07नवंबर, 2021


हिय हृदय से मिल गया।

हिय हृदय से मिल गया।   

आपका प्रिय साथ पाकर मौन भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

प्राची के राजमार्ग पर किरणों की रंगोली
सज धज जीवन की ऐसी ज्यूँ कहार की डोली
मिल रहे धरती गगन यूँ प्राण का संचार ले
गूँजती हिय में मधुर शब्दों की मीठी बोली।।

शब्द का मृदु साथ पाकर गीत भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

वीथि पर ये सितारे कह रहे कितनी कहानी
कर रहे इस रात को भोर से ज्यादा सुहानी
घिर रही ज्योत्सनाओं की यहाँ मृदुल फुलवारी
गा रही नव गीत ये जिंदगी होकर दीवानी।।

नव गीत का संस्कार पा साज भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

चलो कुछ ऐसा रचें जो गीत को आकार दे
शब्द को आश्रय मिले भाव को संस्कार दे
भोर सी दस्तक मिले अरु पंथ सारे पुण्य हों
कामनाओं को हृदय में पुण्यता विस्तार दे।।

पुण्य का आधार पाकर भाव भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर, 2021


विस्तार मैं देने लगा हूँ।

विस्तार मैं देने लगा हूँ।  

शब्द मिरी भावना के तेरे अधरों से झरे यूँ
कामनाओं को यहाँ विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

कुछ सुनहरे शब्द लाये गीत की माला बनाकर
इस रात की चाँदनी से ओस की बूँदें चुराकर
है यही करता हृदय अब चाहतों में डूब जाऊँ
और फिर तुमको रिझाऊँ गीत कोई गुनगुनाकर।।

गीत कुछ ऐसा सजा दूँ मीत बन कर वो सजे यूँ
भावनाओं को यहाँ आकार मैं देने लगा हूँ।।

रूप कुछ ऐसा सजे जो नैन में बस मुस्कुराए
प्रीत की पेंगें हृदय में कामनाओं को जगायें
बात जो निकले हृदय से बात वो पहुँचे हृदय तक
और पलकों में सजे जो स्वप्न सारे झिलमिलायें।।

स्वप्न कुछ ऐसा बुनूँ जो दे मौन को संचार यूँ
स्वप्न को आधार को व्यवहार मैं देने लगा हूँ।।

पुण्य पावन प्रीत गायें आरती मन में बसाकर
शब्द को श्रृंगार देकर भावनाओं में सजाकर
आस का आकाश लेकर पंथ नूतन कुछ सजाऊँ
और फिर तुमसे मिलूँ मैँ प्रीत की कलियाँ खिलाकर।।

आस को स्वीकार कर ले दे प्रीत को अधिकार यूँ
आस के संसार को विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05नवम्बर, 2021

कितने आँसू बह ना पाये।

कितने आँसू बह ना पाये।  

जाने कितने मेघ गगन के
आँसू बने पलक पर ठहरे
जाने कितने शूल ह्रदय में
चुभे यहाँ पर आकर गहरे
घाव मिले पर कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पग पग संशय के बादल थे
हम भी पर कितने पागल थे
चले कदम दर सपने लेकर
भावों में कुछ अपने लेकर
चाहा लेकिन कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

घिरा रहा प्रश्नों में जीवन
मरुथल में महकाया उपवन
सहमे उत्तर विश्राम नहीं था
घट घट रीता हृद का मधुवन
रीते हृदय सँभल ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पलकों ने कुछ कहा नहीं पर
आहों में प्रतिकार किया है
मन के टूटे सब भावों को
आँसू का आकार दिया है
सुनी मगर कुछ कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

यादों के ताखों में कितने
प्रश्न उलझते चले गए हैं
मुड़े तुड़े पन्नों के भीतर
भाव सिमटते चले गए हैं
इतने सिमटे सह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30अक्टूबर, 2021

चलो आज नवदीप जलायें।

चलो आज नवदीप जलायें।  

जीवन की उलझन से खुलकर
चलो आज हम खुद से मिलकर
नव प्रभात की अगवानी में
आशा का संदेश जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

माना तिमिर घना हो कितना
पग पग रोध बड़ा हो कितना
अवरोधों के पार चलें हम
उम्मीदों की किरण जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

नवल आस हो नव प्रभास हो
जीवन का पल पल उजास हो
पुष्पित हों सब भाव हृदय के
ऐसा नव संकल्प जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

दुविधाओं के समर में घिरा
रुका यहाँ तो नाकामी है
जीवन बहती इक धारा है
बढ़ा वही, जो अनुगामी है

आगत विगत द्वार पर मिलकर
आशाओं के संधिपत्र पर
हर्षित पुलकित भाव हृदय भर
मिलें सभी को मीत बनायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अक्टूबर, 2021

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन।

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन

नमन करूँ मैं कण कण तेरा
और करूँ मैं तेरा वंदन
हे जननी है भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

भारत बस भूभाग नहीं है
ये दुनिया का मुखरित स्वर है
अभिव्यक्ति के भाव प्रस्फुटित
ऐसा जन गण मन का स्वर है।।

अखंड एकता बल है जिसका
अरु प्रेम समर्पण मर्यादा है
जहाँ भाव सब सम्मानित हैं
आशाओं का बल ज्यादा है।।

यहाँ सभ्यता घट घट बसती
हिय संस्कृति भाव समाहित है
निर्मल पावन चंचल धारा
गंगा की धार प्रवाहित है।।

राम कृष्ण अरु गौतम नानक
मनुज प्रेम का पोषण करते
वेद पुराण उपनिषद गीता
मन का घना अँधेरा हरते।।

मंगल ध्वनि है धर्म परायण
सब देवों में है नारायण
प्रचुर भाव भाषा विस्तारित
विस्तृत निखिल विश्व वातायन।।

शांति घोष का वाहक भारत
सत्य प्रखर आवाहन भारत
न्याय धर्म का पोषक भारत
ज्ञान दीप का द्योतक भारत।।

पग सागर है शीश हिमालय
कण कण जिसका है देवालय
जिसने जग को प्रीत सिखाया
है तन पावन मन पदमालय।।

वाणी वाणी वेद मुखर है
जन जन का आह्लादित स्वर है
नभ आच्छादित ज्ञान दीप से
धर्म दीप प्रज्ज्वलित शिखर है।।

प्रकृति जिसका रूप सँवारे
पुलकित सुष्मित सुरभित चंदन
हे जननी हे भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2021



सत्य संवाद।



सत्य संवाद।   

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु मान कर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

सत्य संवाद।

कर के नमन माँ शारदे 
कुछ भाव अपने रख रहा
शब्दों का ले आसरा 
 मैं पंक्तियां कुछ गढ़ रहा।।1।।

है प्रचुर इतिहास अपना
प्रभु नीति से व्यवहार से
और रचते हैं धरा पर
प्रेम का संसार ये।।2।।

ज्ञान का भंडार मिलता ,
धर्म का आधार है
कण कण में माँ भारती से
पाया अतुल उपहार है।।3।।

इतिहास के उस पृष्ठ से
कुछ भाव सुरभित कर रहा
भावनाओं के सहारे
पुष्प अर्पित कर रहा।।4।।

है जिंदगी का सार ये
है मोक्ष का व्यवहार ये
भक्ति का अधिकार ले मैं
 भाव अपने रख रहा।।5।।

मध्य द्वापर काल के जब
सत्य हो धूमिल पड़ा था
कामनाओं से विवश हो
द्वार पर वंचित खड़ा था।।6।।

द्यूत का परिणाम था या
फिर समय का  फेर वो
कब किया अपराध कोई 
न्याय में फिर देर क्यों।।7।।

कब कहा था सत्य बोलो
 राज्य उसको चाहिए
जिंदगी सामान्य हो
अधिकार इतना चाहिए।।8।।

झूठ का आतंक था या
थी परीक्षा सत्य की वो
स्वार्थ में मद लोभ के वश
जो चल रहा कुकृत्य वो।।9।।

मौन कैसे सह रहे थे
शब्द के कटु वाण सारे
थी शरण किसकी मिली जो
कूदता जिसके सहारे।।10।।

शब्द धूमिल हो चुके थे
संबंध बस अब नाम का
धूर्तता के आगे वहाँ
बस युद्ध ही परिणाम था।।11।।

क्रमशः--

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु बनाकर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

 *गतांक से आगे--* 

रथ ले चलो माधव वहाँ
अब मध्य में रण क्षेत्र के
इक बार मैं देखूँ यहाँ
जो हैं खड़े कुरुक्षेत्र में।।12।।

देख कर अपने सगों को
 आज इस रण भूमि में
व्यग्र इतना हो गया 
छूटा धनुष रण भूमि में।।13।।

सोच कर परिणाम रण का
दिल दहलने जो लगा
स्वयं से कैसे लड़ूँ ?
मन में बिखरने वो लगा।।14।।

हैं खड़े सम्मुख पितामह
गुरु द्रोण भी हैं सामने
हैं खड़े प्रियजन सभी वो
जो कभी संग संग पढ़े।।15।।

क्या करूँ कैसे लड़ूँ 
अब सामना कैसे करूँ
शत्रु नहीं हैं ये हमारे
गांडीव क्या धारण करूँ।।16।।

हाथ,  जिसने है दुलारा
औ खिलाया गोद में
कैसे  कहो मैं अब लड़ूँगा
पड़ गया इस सोच में।।17।।

क्या फायदा ऐसी विजय का
जो  मिले प्रतिकार से
क्या करूँ उस राज्य का
जो ना मिले व्यवहार से।।18।।

है कुटिल व्यवहार माना
भाई है पर वो मेरा 
घात कैसे मैं करूँ 
इस सोच में मन है घिरा।।19।।

ना मिला उत्तर कोई जब,
जब पार्थ कुंठित हो चला 
ब्रह्म के अवतार का फिर
मृदु आसरा उसको मिला।।20।।

 क्रमशः-- 

 
कर जोड़ कर पार्थ बोले
पाप ये कैसा हुआ है
क्या करूँ माधव कहो किस
अपराध का फल मिला है।।21।।

कैसे अपने शस्त्रों से 
शीश इनका भेद पाऊँ
कुछ कहो मुझको बताओ
रक्त मैं कैसे बहाऊँ।।22।।

आज इस रणभूमि में यदि
रक्त इनका जो बहेगा
सोचता हूँ जग हमें क्या
कुलनाशक नहीं कहेगा।।23।।

पार्थ को विचलित देखकर
यूँ मोह उसका देखकर
श्री कृष्ण ने विचार किया
और रूप विकराल किया।।24।।

पार्थ से श्री कृष्ण बोले
देख मैं संसार में हूँ
मैं सभी दिक्काल में हूँ
मोक्ष के व्यवहार में हूँ।।25।।

तुम में हूँ मैं उसमें हूँ
जग के मैं कण कण में हूँ
मैं अवनी अंबर में हूँ
प्रलय में हूँ पवन में हूँ।।26।।

जीव में निर्जीव में हूँ
और इस गांडीव में हूँ
आकाश में पाताल में
मैं सृष्टि के हर काल में हूँ।।27।।

जगत का पालनहार हूँ
मैं यहाँ हर बाण में हूँ
निर्माण हूँ संहार हूँ
इस सृष्टि का आकार हूँ।।28।।

प्रेम हूँ आभार हूँ मैं
मोक्ष का आधार हूँ मैं
भावनाओं के सफर का
सार हूँ विस्तार हूँ मैं।।29।।

वाद हूँ विवाद में हूँ
हर किसी संवाद में हूँ
शब्द की इस जटिलता के
हर सरल अनुवाद में हूँ।।30।।

क्रोध भी मैं लोभ भी मैं
प्रेम का अनुरोध भी मैं
जो कहीं अन्याय है तो
न्याय का अनुरोध भी मैं।।31।।

मान में अपमान में हूँ
जो मिला सम्मान में हूँ
है मन में जो तुम्हारे
उस सभी अनुमान में हूँ।।32।।

इस जगत का ब्रह्म हूँ मैं
आदि हूँ मैं अंत हूँ मैं
है क्या शुरू अरु क्या खतम
प्रसार हूँ अनंत हूँ मैं।।33।।

है पार्थ तुम मुझको सुनो
जिस राह बोलूँ तुम चलो
तुम सभी में प्रिय मुझे हो
जो सत्य है उसको चुनो।।34।।

सत्य का संज्ञान हूँ मैं
अरु क्षमा का दान हूँ मैं
भय अभय का भाव भी मैं
मुक्ति वाला ज्ञान हूँ मैं।।35।।

वेदों में सामवेद हूँ
भावों की अभिव्यक्ति हूँ
चेतना का मूल भी मैं
अरु प्राणियों की शक्ति हूँ।।36।।

मैं महर्षियों में भृगु हूँ 
मैं अक्षर ही ओंकार हूँ
सब यज्ञ का जपयज्ञ भी मैं
अचल हिमालय पहाड़ हूँ।।37।।

शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ
गायों में कामधेनु हूँ
शास्त्रोक्त से उत्पत्ति हो
मैं ही वो कामदेव हूँ।।38।।

हार में हूँ जीत में हूँ
मैं जगत की रीत में हूँ
हृदय की भावनाओं के
मैं मचलते गीत में हूँ।।39।।

हैं प्रिय माना तुम्हारे
इनका अधर्म आधार है
जो है किया इनको मलिन 
इनका ही अहंकार है।।40।।

सत्य इनके द्वार सोचो
जब हाथ जोड़े खड़ा था
इनके कुटिल व्यवहार से
धर्म संकट में पड़ा था।।41।।

यही सत्य यही धर्म है
नारी की रक्षा कर्म है
द्यूत क्रीड़ा में घटा जो
मात्र दंड ही अब धर्म है।।42।।

सब मोह माया त्यागकर
तू कर्म यहाँ निष्काम कर
असत्य जब सम्मुख खड़ा
तू न सोच बस प्रहार कर।।43।।

अब आर कर या पार कर
तू आस का उद्धार कर
कर्तव्य पथ पर हो खड़े
मन भाव पर अधिकार कर।।44।।

है खड़ा रण में यहाँ तू
कुछ सोच मत हुंकार भर
धर्म संस्थापना के लिए
तू अधर्म पर प्रहार कर।।45।।

ये हैं अधर्मी मान ले
अब सत्य को पहचान ले
ग्लानि मन से त्याग कर के
तू लक्ष्य का संधान ले।।46।।

कटु सत्य को स्वीकार लो
अपराध मन से त्याग दो
है नियति का खेल सारा
अब ऋण समस्त उतार दो।।47।।

आज जो विचलित हुआ तो
धर्म का अपमान होगा
झूठ को प्रश्रय मिलेगा
सत्य केवल नाम होगा।।48।।

हे पार्थ इस व्यवहार को
क्या नहीं कायर कहेंगे
द्वार पर जो नव सदी है
सोचो क्या गल्प गढ़ेंगे।।49।।

कहते कहते माधव फिर
मौन सोच में डूब गए
विचलित हुआ मन पार्थ का
और पसीने छूट गए।।50।।

हाथ जोड़ कहा पार्थ ने
है माधव मन तृप्त हुआ
जो थी ग्लानि भरी मन में
उससे मन ये मुक्त हुआ।।51।।

लोभ मोह अरु माया से
मन जातक बन जाता है
बुद्धि विकल हो जाती है
मन चातक हो जाता है।।52।।

मिला ज्ञान अब मुझे यहाँ
मन का संशय दूर हुआ
अँधियारा जो घना यहाँ
मन से मेरे दूर हुआ।।53।।

शस्त्र उठाऊँगा मैं अब
ये विश्वास दिलाता हूँ
न्यायोचित जो मार्ग यहाँ
वही मार्ग अपनाता हूँ।।54।।

सौगंध मुझे माटी की
धर्म पुनः स्थापित होगा
झूठ यहाँ जितना चाहे
सच नहीं पराजित होगा।।55।।

फल की चिंता नहीं मुझे
निष्काम कर्म ही मेरा है
छोड़ दिया परिणाम सभी
सत्य धर्म अब मेरा है।।56।।

धर्म विमुख जो हुए यहाँ
उन्हें मार्ग दिखलाना है
सत्य अहिंसा और धर्म का
उनको पाठ पढ़ाना है।।57।।

धर गांडीव धनंजय ने
कहा नहीं विलंब करो
रथ लेकर चलो वहाँ पर
युद्ध यहाँ अविलंब करो।।58।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26अक्टूबर, 2021




लौट आओ तुम प्रिये।

लौट आओ तुम प्रिये।  

शब्द के अनुरोध पर नवगीत अब रचने लगे हैं
पंक्ति का आकार पाकर गीत मृदु सजने लगे हैं
गीत को आधार मिलता और प्रेम को आकार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

तुम गए जबसे यहाँ से जिंदगी ही खो गयी है
मौन हैं अब भाव सारे बंदगी भी खो गयी है
आस को आकार मिलता अरु शब्द को व्यवहार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

बिन चाँदनी तुम ही कहो इस रात का क्या मोल है
जब पलकों से ही गिर गए फिर अश्रु का क्या मोल है
भाव को संचार मिलता अरु आँसुओं को प्यार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

मौन जब लहरें हुईं तो क्या करे बोलो किनारा
टूटते तटबंध हों जब कौन देगा फिर सहारा
तुम बनो अधिकार मेरा अरु ले चलो उस पार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

सुन पलक में नीर भरकर क्या कह रही हैं सिसकियाँ
हैं घिरे बादल हृदय में अरु गिर रही हैं बिजलियाँ
क्या कहो अपराध मेरा बस बोल दो इक बार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2021

कैसे बदलेंगी दशायें।

कैसे बदलेंगी दशायें।   

मन में कितने घाव गहरे और कितनी हैं व्यथायें
दिल ने जो भी दर्द सहे हैं तुम कहो किससे बतायें।।

थे तुम्हारे हम कभी और तुम हमारे थे यहाँ
बात बस इतनी है यहाँ तुम कहो कैसे बतायें।।

है ये कर्म कैसा बोलो और है कैसा धरम ये
दर्द है आकाश तक जब बदली नहीं क्यूँ प्रथायें।।

सब दिशायें कह रही हैं दर्द की कितनी कहानी
जाने क्यूँ मचली नहीं हैं अब तक संवेदनाएं।।

क्या हुआ हासिल यहाँ पर क्या हुआ बदलाव बोलो
मौन तोड़ो आवाज दो के क्यूँ नहीं बदली प्रथायें।।

ऐसे तो मुश्किल "अजय" है शब्दों का फिर अर्थ पाना
जब तलक आगाज ना हो कैसे बदलेंगी दशायें।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अक्टूबर, 2021


जीवन में नूतन प्रयोग।

जीवन में नूतन प्रयोग।  

साथी सत्य की राहों में हैं कदम कदम कितने संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

जीवन मृत्यु के मध्य ये कैसा 
पग पग पर संवाद छिड़ा है
सत असत्य के खेमों में भी 
हार जीत का वाद छिड़ा है
वाद विवाद भरी जगती में 
पग पग पर अगणित अभियोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

कभी सजाकर थाल तिलक का 
करता जीवन का अभिनंदन
कभी विदाई के क्षण में ये 
लगता करता मौन नियंत्रण
मिलन विदाई के जीवन में 
पग पग पर बनते संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

वांछित फल की चाहत में ये 
जीवन प्रतिपल विकल रहा है
लिए स्वप्न पलकों में नूतन 
कदम कदम ये मचल रहा है
आशाओं अभिलाषाओं में 
नित खोजा करते सहयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

मिल जाएगा पुण्य यहाँ पर 
यदि मन से मन का गर वंदन
भावों को आकाश मिले अरु 
इच्छाओं को अभिनंदन
सबके मन में आस पले अरु 
नित्य बने मधुरिम संयोग
साथी लगता जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
     20अक्टूबर, 2021

केवल दिल का हाल न पूछो।

केवल दिल का हाल न पूछो

कैसे कैसे मंजर देखे इन आँखों ने साँझ सवेरे
हँसते रोते जीवन देखे इन गलियों में बहुतेरे
क्या खोया क्या मिला यहाँ पर पास कभी तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कैसे बीते दिवस हमारे कैसे बीती रातें सारी
पग पग कितने कष्ट सहे हैं संघर्ष अभी तक है जारी
संघर्ष भरे इस जीवन के छालों को तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

मन के सूने पनघट पर अब नहीं खनकती कोई पायल
नर्तन करते भाव अकेले बरसे ना सुधियों के बादल
मेरे मन को पुनः समझने सुधियों में ही आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

हर रोज सिमटते देखा है टुकड़ा टुकड़ा धूप यहाँ पर
हर रोज बरसते देखा है टुकड़ों में बादल को आकर
टुकड़ों वाली बारिश इस में कभी मचल कर तुम भी देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कभी यहाँ पर तुम भी आओ बैठो कुछ पल साथ हमारे
सुनो हमारे मन की पीड़ा समझो क्या हैं भाव हमारे
मन के सूने गलियारे में चार कदम तुम चलकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।


©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2021

गीत लिखे जो कदमताल से।

गीत लिखे जो कदमताल से।  

चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

लिए तूलिका हाथों में कोशिश करता हूँ बार बार
पंखुड़ी पंखुड़ी रंग भरा पर आया ना फिर भी उभार
लगता ढीली ना हो जाये पकड़ तूलिका पर हाथों की
कहीं धुंध में खो ना जाये धुंधला पड़ जाए आकार
रह ना जाये विम्ब अधूरे रचे कभी जो विषयकाल में
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

नित किरणों ने जीवन देकर साँसों की इक डोर सजायी
रूप निखारा पल पल छिन छिन आशा अरु संचार जगायी
रुका नहीं राहों में पल पल साथ चला है साथ उठा है
मन के सूनेपन में जिसने पूजा वाली थाल सजायी
कहीं अधूरी रह ना जाये मन की वीणा मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सुधियों की डोरी से जकड़े रहता मन का एकाकीपन
स्मृतियाँ मन के द्वार खड़ी हो मौन बढ़ाती हैं तड़पन
मृदुल भाव ले पाँव पखारे पलक सजाए स्वप्न सुनहरे
नित नूतन मृदु भाव सजाता रहता मन का सूना आँगन
मन के इस सूने आँगन को चलो सजायें मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सूरज का रथ चला क्षितिज को गीत चलो नूतन रच डालें
टूटे मन के तारों को फिर जोड़ें हम नव साज सजा लें
खाली अंजुलि लेकर बोलो कैसे होगा संध्या वंदन
मन के सूने अँधियारे में चलो चलें नव दीप जला लें
अँधियारा ये मिट जायेगा ज्ञान दीप के मृदुल ज्वाल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अक्टूबर, 2021

सुहानी वो मुलाकातें।

सुहानी वो मुलाकातें।  

मिले उस रोज जब हम तुम मिली जीवन को सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

हवाओं के मृदुल झोंके तुम्हारे केश लहराए
वो कुंतल के खनक से यूँ लगा नव गीत थे गाये
तुम्हारे माथ की सिलवट पे लिखी मृदु कहानी थी
हृदय के भाव वो सारे इन अधरों पर उतर आये।।

बड़ी मदहोशियों में थी तुमसे वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

सिमट आये था आँचल में गिरे जो पुष्प तारों से
खिला फिर मधुमास का जीवन उन रिमझिम फुहारों से
हुए सभी दूर एकाकी खिले नव पुष्प उपवन में
हुआ अनमोल ये जीवन तुम्हारे मृदु इशारों से।।

स्मृतियों में बसी अब भी तुम्हारी दी वो सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

नजारों ने बहारों संग लिखी नूतन कहानी फिर
अदाओं ने फिजाओं में रची नूतन कहानी फिर
वो घूँघट में सिमट कर जब भिंगोयी प्रीत की बारिश
सजायी गीतों से हमने हृदय की रात रानी फिर।।

बसी हैं आज तक अब भी पलकों में वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अक्टूबर, 2021

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।   

तुम कहो तो आज कह दूँ भावनाओं में भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

तुम कहो मैं भावनाओं को यहाँ कब तक समेटूँ
और जो दिल में छुपा है दर्द वो कब तक सहेजूँ
काल के निश्शेष क्षण में क्या रहा बाकी यहाँ पर
तुम कहो उस काल क्षण को अंक में कब तक सहेजूँ।।

हैं प्रहर छोटे यहाँ पर अरु शब्द हैं कितने बड़े
और पग पग देखता हूँ ये प्रश्न कितने हैं खड़े
तुम कहो वो प्रश्न कह दूँ मौन में मेरे भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

प्यार के अहसास को उस प्रतिपल हृदय में देखता 
और भरकर पीर कितने बस मौन खुद को खोजता
नैन की उठती तरंगें भावनाओं को पुकारें
शब्द की बेचैनियों को है पंक्तियों में खोजता।।

पंक्तियों में भाव जितने वो गीत में सारे जड़े
फिर भाव के आकाश में वो प्रश्न बनकर क्यूँ खड़े
तुम कहो तो आज कह दूँ प्रश्न मन में है भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

शेष न रह जाये सारे भाव इस व्याकुल हृदय में
और कुछ भी कह न पायें बीतते इस पल समय में
सोचता इस काल में अब रंग ये कैसा भरा है
डूब ना जाये कहीं वो भाव प्रश्नों के प्रलय में।।

काल फिर छल कर न जाये सब भाव रह जायें पड़े
मौन अधरों पर मचलते कुछ शब्द पीड़ा से जड़े
दे रहा हूँ आज मैं सब अंक से तेरे गिरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2021


सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।

सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।  

शब्दों में आकाश उतारा, अंजुलि भर कर पुष्प चढ़ाया
अर्ध्य चढ़ाया मंत्र उचारा, पग पग है आभार जताया
कर जोड़े हर बार खड़ा वो, बोलो कब उसकी सुध आई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

पलकों में ले स्वप्न सुनहरे, बस आश्वासन में जिया किया
घनी रात हो या उजियारा, बस अनुशासन में जिया किया
मिला दिलासा पग पग उसको, वादों का आशीष मिला है
निज पलकों में सपने लेकर, बस सबके मन की सुना किया। 

अपने भावों को पुचकारा, सपनों में उम्मीद जताई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


कितने जीवन बीत गए हैं, राह जोहते उजियारों की
रात रात भर जाग जाग कर, बातें करती मृदु तारों की
आशाओं अरु अभिलाषा को, पर मिला यहाँ अवकाश कहाँ
वीथी पर लिख डाले कितने, बीती बातें व्यवहारों की।

वीथी पर कुछ प्रश्न सिमटते, नजरें जिन पर जा ना पाईं
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


बोलो क्या अपराध किया है, दिनकर जो नाराज हुआ है
सूरज, चंदा, तारों ने क्यूँ, उनसे क्या अवकाश लिया है
चलो खिलायें नव पुष्प वहाँ, नव वितान का सूरज लायें
कुटिया के कोनों में झाँकें, खुशियों के नव दीप जलायें।

नव गीत लिखें उन विषयों पर, जिनकी अब तक याद न आई
अपनायें उस जीवन को हम, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अक्टूबर, 2021



शायद कुछ मिल ही जाए, चलो चलें उस ताल किनारे।

शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।  

बैठे बैठे मन में मेरे, इक भाव अचानक जाग उठा
सूने मन के गलियारे में, फिर से इक अनुराग उठा
कितनी सदियाँ बीत गयीं हैं, उन गलियों को छोड़े हमको
कितने जीवन बीत गए हैं, खुद से ही मुँह मोड़े हमको
दूर हुए पदचिन्ह सभी जो, पैरों से दबकर कभी बने
भरी दुपहरी या बरसातें, मिट्टी से हरदम रहे सने
पग पग पर खिलती थी दुनिया, कदम कदम पर स्वप्न बुहारे
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

मैदानों में बैठ वहाँ पर, हँसी ठिठोली करते सारे
जाने कितनी बातें करते, हँसते गाते मिलते सारे
कंचे, गिल्ली, डंडे हंसते, गली गली हर मोड़ मोड़ पर
कभी पतंगें उड़ती जातीं, आकाशों के छोर छोर पर
मंदिर की घण्टी से हरपल, भाव भक्ति के पलते रहते
अँधियारे को दूर हटाने, दीप हमेशा जलते रहते
मंदिर की मधुर घण्टियाँ, लगता अब भी राह निहारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

वो बरगद का पेड़ पुराना, बैठ जहाँ हँसते गाते थे
छावों में जिसकी लेट सभी, हम पंछी से बतियाते थे
जहाँ मुँडेरों पर मृदु किरणें, हौले से सहला जाती थीं
जहाँ मचलती पवन सुहानी, जीवन का राग सुनाती थी
जहाँ अभी भी खुशियों वाले, कुछ पुष्प हमें मिल जायेंगे
जहाँ अभी भी जीवन वाले, कुछ मरम हमें मिल जायेंगे
चलो चलें इक बार वहाँ फिर, हम स्मृतियों को पुनः दुलारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2021

तू पूजता किसको बता।

तू पूजता किसको बता।  

धूप चंदन हाथ लेकर तू खोजता किसको बता
मारीचिका मन प्राण ले तू सोचता किसको बता
कौन है इस पंथ में जो मोह से वंचित रहा हो
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

कौन है जो इस जगत में भावनाओं से न हारा
और जीवन के सफर में वर्जनाओं का ना मारा
मुक्त कर आकाश अपना जाना कहाँ तुझको पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

लिए असथाओं का कलश पंथ कितने हैं बुहारे
और चुनकर कंकरों को पंथ कितने हैं निखारे
जो था करम तुमने किया है क्या धरम तुझको पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

आसनों पर बैठकर के ना सोचना खुद को बड़ा
है कौन वो जिसका यहाँ ना वक्त से पाला पड़ा
वक्त के इस खेल में जब तू ढूँढता अपना पता
फिर भाव का आकाश ले तू पूजता किसको बता।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2021

मिलन।

मिलन।   

मुदित मन प्रीत भरकर आई जब जब द्वार तिहारे
प्रेम की बाँछे खिली हैं भाव भर संध्या सकारे
साँस में सरगम सजी है अरु प्रीत हिय में है भरी
मुग्ध मन ये गा उठा पा कामनाओं के सहारे।।

जो नहीं मिलता सहारा गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

स्नेह का अनुप्रास पाकर अधरों ने नर्तन किया है
भाव का अहसास पाकर शब्द ने चुंबन किया है
सब गीत नूतन सज गये अरु रागिनी बजने लगी
मृद मधुर मधुमास पाकर प्रेम आलिंगन किया है।।

जो न मिलते स्वर हमारे गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

प्रीत का आकाश लेकर दो कदम हम भी चले तब
मौन पलकों ने इशारों में बात दिल की कहे जब
भाव कितने हैं खिले अरु प्रीत का आँगन खिला फिर
मुग्ध मन झूम गाया गीत अधरों पर सजे तब।।

जो न मिलते भाव को अर्थ गीत पूरे हो न पाते
बात रह जाती अधूरी और हम फिर मिल न पाते।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अक्टूबर, 2021


वो तेरे खत।

वो तेरे खत।   

तू नहीं तो तेरी यादों से ही गुजर कर लूँगा
कतरा कतरा ही सही मैं जिंदगी बसर कर लूँगा
कैसे कह दूँ के बेख़याली में जी रहा हूँ मैं
साँसों में बसे तेरे खत से मैं खबर कर लूँगा।।

वो जो तेरे खत हैं उन्हें सीने से लगा रखा है
उनकी खुशबू को अब भी साँसों में बसा रखा हूँ
यूँ तो इल्जाम सहे हमने जाने कितने लेकिन
तेरी यादों को अब भी सीने में सजा रखा है।।

कैसे कहोगी अब मुझसे कोई वास्ता ही नहीं
कैसे कहोगी मेरी जानिब अब रास्ता ही नहीं
कैसे झुठलाओगी चाहतें जो दबी हैं दिल में
दिल पे रख के हाथ जरा कह दो कि राब्ता ही नहीं।।

है ये मालूम मुझे के तुझको जरूरत है मेरी
दिल के किसी कोने में बसी अब भी चाहत मेरी
ये नजरें उठा के जरा इक बार कहो तो मुझसे
चला जाऊँगा जो कह दो नहीं है आदत मेरी।।

है मुझको मालूम के भरोसा अब भी बाकी है
चाहत की खुशबू और वो नशा अब भी बाकी है
तेरे खत से आ रही खुशबू बता रही है यही
कि तिरे दिल में मिरे दिल का पता अब भी बाकी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       09अक्टूबर, 2021










गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।

गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।  

तुम जो चाहो अगर फिर बुलाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही
कि राह तेरी क्षितिज तक देखूँगा मैं
जब भी चाहो मुझे आजमाना वहीं।।

मैं चलूँगा तुम्हारे कदम दर कदम
दूर करूँगा मैं सब तुम्हारे भरम
बात दिल में जो तेरे सुनाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

रात की चाँदनी का मैं इक गीत हूँ
तुम ये मानो मुझे मैं वही मीत हूँ
जिस पे तुमने हमेशा भरोसा किया
जो भरोसे से उपजा वही प्रीत हूँ।।

प्रीत की राह की एक नई रीत हूँ
दिल को भाये यहाँ जो वही जीत हूँ
जीत की राहें तुम भूल जाना नहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

शब्दों का हार हूँ एक व्यवहार हूँ
प्रीत के गीत का मैं भी श्रृंगार हूँ
जिस विधाता ने तुमको गढ़ा प्यार से
उसी के हाथ का मैं भी आकार हूँ।।

मौसमों का मधुर मैं भी संगीत हूँ
मन भींगोये यहाँ बूँद की रीत हूँ
कितने सपने बुने भूल जाना नहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

छोटा जीवन बड़ी है कहानी यहाँ
हँस के बीते वही जिंदगानी यहाँ
कुछ कहो प्यार से और सुनो प्यार से
पास सबके हैं कितनी कहानी यहाँ।।

आसमानों से बादल हट जाएंगे
धुंध छाये हैं जो भी छँट जाएंगे
हँस के फिर तुम जरा बुलाना वहीं
गीत गाया जो कल गुनगुनाना वही।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अक्टूबर, 2021

मैंने इक गीत लिखा।

मैंने इक गीत लिखा।   

चाँद की आगोश में प्रीत की हल्की छुअन
कल्पनाओं के गगन में भर हृदय का सुमन
भाव को विस्तार दे शब्द में संचार भर
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

भोर के आकाश ने जिंदगी को साज दी
पंछियों की गूंज ने मौन को आवाज दी
नींद से जागी कली जब शाख मुस्कान लगी
रात का घूँघट हटा रश्मियाँ गाने लगीं
गीत को विस्तार दे भाव को श्रृंगार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

चूड़ियों की खनक में राग नव रचने लगे
पायलों की छमक से पंथ सब सजने लगे
बिंदियों के तेज से रोशनी आने लगी
शब्द अधरों पर सजे गीतिका गाने लगी
रूप को संस्कार दे भक्ति को आकार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

फूल की पाँखुरी से अंजुली भरने लगी
मंत्र का संचार पा जिंदगी खिलने लगी
कुनकुनी धूप में फिर वादियाँ गाने लगीं
राहों के संग संग जिंदगी चलने लगी
जिंदगी को प्यार दे शब्द को व्यवहार दे
मैंने इक गीत लिखा, जीवन का संगीत लिखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अक्टूबर, 2021

प्रीत बनकर छा गए।

प्रीत बनकर छा गए।    

शब्द जो निकले हृदय से, गीत बनकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

भाव दुल्हन से सजे हैं, चाँदनी इस रात में
गीत अधरों ने बुने हैं, प्यार की बारात में
रात की पावन छँटा में, प्रीत पुलकित हो रहे
श्रृंगार में डूबे सभी, गीत मुखरित हो रहे।

प्यार के उद्गार सारे, रीत बनकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

स्वप्न पलकों पर सजे हैं, कामनाओं की तरह
और हिय में जा बसे हैं, भावनाओं की तरह
रूप की मंदाकिनी में, वेदनाएं घुल गयीं
ये जिस्म तो थे दो मगर, आतमायें मिल गयीं।

आतमाओं के मिलन के, गीत नभपर छा गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

रागिनी का हाथ थामे, गीत नव रचते रहे
पंथ के कंटक सभी बन, जीत पथ सजते रहे
स्वप्न जब आकार पाया, अंक अपना भर लिया
अरु प्रीत के मृदु पंख से, रंग मन में भर लिया।

प्रीत का चुंबन मिला जब, रंग खुलकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27सितंबर, 2021

सुधियों के बादल बरस गए।

सुधियों के बादल बरस गए। 

नभ के सूने गलियारे में
कितने ही मौसम तरस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

भावों ने इक राह चुनी थी
चले मगर ना जा पाए
मन ने कुछ नवगीत बुने थे
मिले मगर ना गा पाये
बिछड़े मन की पीर लिये हम
मिलने तक को तरस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गये।।

ये जाने कैसी हवा चली
संशय के बादल गहराये
थमे पाँव कुछ दूर तलक जा
बदरंग कुहासे भरमाये
असमंजस के श्यामपट्ट पर
जो शब्द लिखे सब झुलस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गये।।

रहे सँजोते बीते पल के
भूली बिसरी यादों को
पलकों बीच हम रहे छुपाए
कितनी ही बरसातों को
बरसातों में बूँद गिरी पर
भींगा मन ले तरस गए
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

अब कहें भाव क्या इस दिल के
बस मौन छुपाए बैठे हैं
कैसे कह दें अपने दिल में 
क्या-क्या दर्द छुपाए बैठे हैं
लिए दर्द हम सन्नाटों का
आवाजों को तरस गए
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25सितंबर, 2021

दिल का दर्द।

दिल का दर्द।  

कहा दिल ने मुझे बस आज इतना तू बता देना
रहते हो कहाँ मुझको फकत अपना पता देना
नहीं आऊँगा मैं मिलने जब तक तुम न चाहोगे
मगर पूछे कभी तो बस मुझे अपना बता देना।।

लगी जो चोट इस दिल पर छुपाना भी बहुत मुश्किल
दिए जो घाव तानों ने बताना भी बहुत मुश्किल
के फिर भी जी रहे थे हम भुला कर दर्द वो सारे
मिला जो भी जमाने से जताना है बहुत मुश्किल।।

चला जाऊँगा मैं तुमसे नहीं मिलने फिर आऊँगा
गाये गीत जो संग संग नहीं फिर मैं गाऊँगा
तुम्हे अफसोस न होगा कभी मेरी वफ़ा पर दिल
लगी क्या चोट इस दिल पर नहीं तुमको दिखाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24सितंबर, 2021

मुक्तक।

मुक्तक-

अंजन-

लगाकर आँख में अंजन इशारों से बुलाती हो
लरजते होठों की थिरकन से दिल को लुभाती हो
तुम्हारे रूप के सौंदर्य में यूँ डूब जाता हूँ
उतर कर आँख से मेरे हृदय को बींध जाती हो।।

अनुबंध-

प्रीत के एहसास पर संबंधों के हैं नींव सारे
और करते हैं हृदय में मृदुल भाव के प्रबंध सारे
हों नयन में स्वप्न या के साँसों में सरगम कोई
नेहों की निधियों में संचित प्रेम के अनुबंध सारे।।

अंकित-

मेरे गीतों में अंकित हर शब्दों का विस्तार तुम्हीं हो
मेरी साँसों में सुरभित नव यौवन का संचार तुम्हीं हो
तुमसे जीवन की आशा और तुमसे ही अभिलाषा सारी
मेरी पलकों में संचित नव सपनों का संसार तुम्हीं हो।।


©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24सितंबर, 2021


मैं गीत नया कोई गाउँगा।

मैं गीत नया कोई गाउँगा।   

जब यादों की बदली छाएगी
जब बूँदें पलकें भर जायेंगीं
हर आहट तुमको तड़पायेगी
जब नजरें खुद ही झुक जायेंगी 
जब हिचकी तुमको आएगी
जब खुद से प्रीत छुपाओगी
तब यादों में तेरी आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब भौंरे गुन गुन गुन गायेंगे
जब जीवन के राग सुनायेंगे
दूर कली कोई मुस्कायेगी
छुई मुई कोई शरमायेगी
जब गालों पर लाली छाएगी
जब खुद ही खुद से शरमाओगी
मैं तब तुम्हें बुलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब सूरज दिन चढ़ जाएगा
जब वक्त नहीं मिल पायेगा
जब स्वेद बूँद माथे से गिरकर
नख से शिख तक नहलायेगा
उँगली में लपेट आँचल अपना
जब कहीं कभी तुम घबराओगी
तब तुमको फुसलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब साँझ ढले तुम थक जाओगी
जब चलते चलते रुक जाओगी
जब कभी अकेले में बैठोगी
जब यादों में तुम खो जाओगी
ये सूनापन जब तड़पायेगा
अरु पास नहीं कोई आयेगा
तब तुमको बहलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2021




तब तुम आना पास प्रिये।

तब तुम आना पास प्रिये।   

जब मन में सुंदर भाव बनें
पुष्प सुगंधित खिल जाएंँ
जब दिल के उस सूनेपन में
निष्कपट ज्योति सी बल जाये
जब प्रेम मधुर हो गीत बने
साजों में रागिनी घुल जाये
जब गीत कभी गाना चाहो
खुद से जब मिलना चाहो
जब भी चाहो मधुमास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

जब याद पुरानी तड़पाये
सिहरन कोई मन छू जाये
जब चले वहाँ पिय पुरवाई
आँचल फिर से ढलका जाये
जब तारों की बारात सजे
मन चाहे गाये गीत नये
जब स्वप्न नया बुनना चाहो
रीत नई  गढ़ना चाहो
अरु चाहो जब आकाश प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

जब ठंड दुपहरी तक जाये
धूप सुनहरी खिल जाये
जब बारिश का भीगा मौसम
मन भावों को ललचा जाये
जब ऋतुओं के भँवर जाल में फँस
डूब डूब मन उलझाए
जब उलझन से बचना चाहो
खुलकर तुम हँसना चाहो तब
अरु चाहो जब विश्वास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

स्मृतियों का पावन गंगाजल
आँचल अपने भर लेना
एकाकी में घिरो कभी तो
याद मुझे तुम कर लेना
स्मृतियों के उस पुण्य भाव को
पलकों बीच सजा लेना
स्मृतियों से जब मिलना चाहो
खुद से कुछ कहना चाहो
अरु जब चाहो अहसास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22सितंबर, 2021

इस पर चलूँ उस पर चलूँ।

इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

हैं सभी अपने यहाँ पर
तुम ही कहो किससे टलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

है नहीं दुविधा मुझे तब
तुम साथ मेरे जब प्रिये
क्यूँ रुकूँ मैं राह में तब
हम साथ में हों जब प्रिये।।

फिर राह के कंटकों से
बोलो भला कैसे टलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

जब रात का आँचल मधुर
वियोग की सोचूँ मैं क्यूँ
जिस घड़ी जीवन पले
बिछोह की सोचूँ मैं क्यूँ।।

पलकों में हो प्रभात जब
मैं स्वयं को फिर क्यूँ छलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

जो है दुखों की भीड़ तो
सुखों का मेला यहाँ पर
है कौन सा जीव जिसने
कष्ट ना झेला यहाँ पर।।

मौन के उस पार सुख जब
संताप में फिर क्यूँ पलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22सितंबर, 2021






तक्षक- भारत का गौरव।

तक्षक- भारत का गौरव।  

भारत की माटी का गौरव
चीख चीख कर बोल रहा है
कान खोल कर सुन लो प्यारों
बातें सच्ची खोल रहा है।।

भूल ना जाना तक्षक को तुम
प्रतिकार यहाँ सिखलाया था
जो जैसी भाषा में समझे
उसको वैसा समझाया था।।

कासिम के वारों से बीती
यहाँ सदी थी वो चौथाई
टूट चुके थे मंदिर मठ सब
धरती की आँखें भर आयीं।।

अपने अभियानों में उसने
एक युवा ना जीवित छोड़ा
जो भी सम्मुख खड़ा हुआ था
उसका शीश झुका कर छोड़ा।।

आठ बरस का था बालक वो
जिसने देखा मनुज का भक्षक
वही कथा का मुख्य पात्र है
प्यारों उसका नाम है तक्षक।।

सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक
थे पिता वीरगति को पाया
उस अरब सेना ने गाँव में
फिर जमकर उत्पात मचाया।।

खींच खींच कर महिलाओं का
मनमाना अपमान किया था
रोने लगी मनुजता सारी
आतंकी ने काम किया था।।

भयाक्रांत हो सारे जन जन
स्थिति को जैसे भाँप चुके थे
देखा रौद्र रूप मृत्यू का
अंदर तक सब काँप उठे थे।।

क्रमशः--

देख परिस्थिति, युद्ध वहाँ की
उसकी माँ सब समझ चुकी थी
चिपकाया छाती से उसने
एक निर्णय पर पहुँच चुकी थी।।

और क्षत्राणी ने इक पल में
तलवार म्यान से खींच लिया
काटा शीश बेटियों का अरु
छाती में अपने घोंप लिया।।

एकाएक घटित घटना से
बालक ने जैसे सीख लिया
मौन हो गया उस क्षण से यूँ
ज्यूँ जीवन का रण सीख लिया।।

देख भूमि पर मृत अपनों को
धीरे से फिर आँखें पोंछीं
निकल पड़ा फिर वहाँ गाँव से
बात नहीं कुछ रुककर सोची।।

मुख पर कोई भाव नहीं था
आँखें लाल रहा करती थीं
ऐसा लगता मानो उसकी
आँखें कुछ खोजा करती थीं।।

नागभट्ट कन्नौज का शासक
इक महा प्रतापी राजा था
जिसने अपने रण कौशल से
धरती का आँचल साजा था।।

वीर तक्षक के किस्से कितने
जन जन में गाये जाते थे
एक वार में हाथी मारा
सबको बतलाये जाते थे।।

अतुल पराक्रम के किस्से भी
नागभट्ट के मशहूर हुए थे
अरबों के अगणित मंसूबे
रण कौशल से तोड़ चुके थे।।

नियम सनातन का माना था
पीछे से ना वार किया था
उसकी इस एक विनम्रता ने
हरदम कितना वार सहा था।।

क्रमशः--

आज सभा थी लगी वहाँ पर
संकल्प वहाँ कुछ होना था
दुश्मन के हमलों के आगे
वहाँ उत्तर कैसा देना था।।

इतने सारे वाद विवाद में
उत्तर कुछ जब समझ ना आया
अंत में तक्षक खड़ा हुआ फिर
अपनी शैली में समझाया।।

नियमों से यदि युद्ध लड़े तो
फिर जीत नहीं हम पाएंगे 
भागेगा वो पीठ दिखाकर
रण से हमको भरमाएँगे।।

मर्यादा जो नहीं जानता
मर्यादा वो क्या समझेगा
जिसकी जैसी शैली है वो
वैसी ही भाषा समझेगा।।

याद करिये देवल मुल्तान
जब दाहिर पराजित हो गए 
निरीह प्रजा के साथ न जाने
कैसे कैसे व्यवहार हुए।।

है शत्रू अपना बर्बर इतना
धोखा होगा जो बात करेंगे
जो शत्रु पर विश्वास किया तो
जनता से हम घात करेंगे।।

नैतिकता की बातें सारी
बेमानी तब हो जाती हैं
दुश्मन जब हो सम्मुख अपने
विजय मात्र ही रह जाती है।।

मर्यादा का निर्वाह किया तो
धोखा हम फिर से खायेंगे
दुश्मन को यदि छोड़ दिया तो
फिर से हम सब पछतायेंगे।।

शत्रु का कोई धरम नहीं है
न है उसकी मर्यादा कोई
मूल सनातन को मानेगा
नही उसका इरादा कोई।।

उसका तो बस धरम यही है
के शत्रु का शीश झुकाना है
लूट पाट कर त्रास मचाना
जन जन में भय फैलाना है।।

नैतिकता उनसे करते हैं
मर्यादा को जो समझते हैं
जैसा जो भी व्यूह रचेगा
हम भी वैसा ही रचते है।।

सोचो यदि जो हार मिली तो
परिणाम यहाँ कैसा होगा
औरत अरु बच्चों से सोचो
व्यवहार यहाँ कैसा होगा।।

अच्छा होगा यदि हम सब भी
दुश्मन जैसा ही सोचेंगे
उसके जैसा वार करेंगे
तब ही उसको हम रोकेंगे।।

राजा ने जब नजर उठाई
बस मौन सभा में पसरा था
लगता था जैसे लोगों का
विश्वास वहाँ पर गहरा था।।

उस मौन सभा ने सोच लिया
इतिहास नया रचने वाला
आने वाला वक्त वहाँ पर
नूतन था कुछ करने वाला।।

क्रमशः---

अगले दिन दोनों सेनाएँ
सीमाओं पर पहुँच चुकी थीं
इक दूजे के व्यवहारों को
जैसे वो सब समझ चुकी थीं।।

युद्ध मात्र अब विकल्प था बस
नहीं कहीं अब माफी होगा
आने वाला जो प्रभात था
भीषण रण का साक्षी होगा।।

रात अँधेरी गहराई थी
अरिदल में सारे सोये थे
अपने बल के मद में डूबे
सब सुख सपनों में खोये थे।।

तक्षक के नेतृत्व में सेना
अरिदल पर फिर टूट पड़ी
अरु सोये शत्रु के खेमे में
वो यम की भाँती टूट पड़ी।।

हो सकता है ऐसा हमला
शत्रु ने कभी नहीं सोचा था
रात्रि बनेगी काल वहाँ पर
सपने में भी ना सोचा था।।

बड़ी भयानक निशा वहाँ थी
तक्षक मौत बन टूट पड़ा था
अरिदल के सीने पर जैसे
मौत बना वो झूल पड़ा था।।

उसका तेज जहाँ जहाँ पड़ा
अँधियारा छँटता जाता था
जिस रास्ते से वो गुजरा था
अरिदल से पटता जाता था।।

रात वहाँ थी घोर अँधेरी
नहीं कहीं सुनने वाला था
लगता था ऐसा अरिदल में
भोर नहीं होने वाला था।।

क्रमशः--

हुई भोर जब निज सीमा पर
शत्रू नहीं देखा राजा ने
ऐसा क्या था हुआ रात में
मन ही मन सोचा राजा ने।।

लिए सैनिकों को फिर राजा
अरिदल के खेमे में पहुँचा
देखा जब वो दृश्य वहाँ का
मन ही मन में फिर वो चौंका।।

अरिदल के सारे सैनिक सब
इधर उधर को भाग रहे थे
राजा की सेना के आगे
भीख प्राण की माँग रहे थे।।

तनिक देर ना की राजा ने
अरु अरिदल पर वो टूट पड़े
रौद्र रूप देखा सेना का
अरिदल के बल सब टूट पड़े।।

मिली विजय जब सेना को तब
राजा का मन फिर हरषाया 
तक्षक को जब न पाया उसने
सारे सैनिक को बुलवाया।।

इक इक कर सब लगे खोजने
भीड़ में चेहरा चमक रहा था
यम की गोदी में सोया था
मौन पड़ा वो दमक रहा था।।

उस नीरवता के क्षण में भी
मौन तक्षक कुछ बोल रहा था
उसने जो कुछ त्याग किया था
कण कण में रस घोल रहा था।।

वीरता के शिखर पुंज हो तुम
आर्यावर्त अभिमान करेगा
जब वीरों की बात चलेगी
वहाँ तक्षक का नाम रहेगा।।

मातृभूमि के रक्षण हेतु अब
नया पाठ सिखलाया तुमने
प्राण देना ही विकल्प नहीं
लेना भी सिखलाया तुमने।।

उसके एक वार के कारण
वर्षों तक दुश्मन सो ना सके
ऐसा पाठ पढ़ाया उसने
सदियों तक दुश्मन छू न सके।।

धन्य धन्य है मातृभूमि ये
भारत को अगणित वीर दिया
दूर किये जन जन के संकट
अरु दूर सभी के पीर किया।।

अगणित वीरों का रक्त मिला
तब ये धरती मुस्काई है
खून पसीने से सींचा जब
ये फसलें तब लहराई हैं।।

कितने जीवन बलिदान हुए
माँ का आँचल तब लहराया है
आकाशों में दूर दूर तक
ये ध्वज अपना फहराया है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20सितंबर, 2021


जीवन की मधुमय प्याली।

जीवन की मधुमय प्याली।  

बढ़ती उम्र के साथ ढल रही मेरे यौवन की लाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जैसे जैसे कदम बढ़ रहे आशाएँ सब मचल रहीं
पर दायित्वों के बोझ तले लगता है कुछ कुचल रहीं
मचले मन के भाव सँभालूँ जैसे उपवन का माली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

गया बालपन यौवन आया कितने सावन बीत गए
कुछ समझा कुछ समझ न पाया पल भर में सब रीत गए
आज उमर के मोड़ पर खड़ा देखूँ बस रस्ता खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

कितना कुछ सुलझाया लेकिन खुद में इतना उलझ गया
रिश्तों के इस भँवर जाल में जीवन जैसे उलझ गया
उलझन सुलझन भरी राह में हाथ रह गए हैं खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जीवन की वीथी ने कितने गीत सुनहरे रच डाले
भावों का ले मधुर सहारा प्रीत मनहरे लिख डाले
लिखे गीत जीवन के पथ के फिर भी है वीथी खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

बीती रातों के कितने ही याद सँभाले बैठा हूँ
और लरजते अधरों की फरियाद सँभाले बैठा हूँ
रुँधे गले, पर बोल रहा हूँ पलकों की भर कर प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

आ जाओ मिल जाओ जैसे रात दिवस में घुल जाती
रश्मि भोर की किरणों से ज्यूँ अगणित कलियाँ खिल जाती
खुल जाता आकाश हृदय का भरती जीवन की प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19सितंबर, 2021

चिंतन हर बार किया।

चिंतन हर बार किया।   

जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया
अरु कितना कुछ अपनाने को
हमने जीवन हर बार जिया।।

क्या कभी मिलेगा उचित सहारा
नहीं कभी भी देखा हमने
देगा कोई साथ हमारा
नहीं कभी भी सोचा हमने।।

फिर भी जग को अपनाने को
कुछ समझौता हर बार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

कदम कदम पर घातें गहरी
घनी अँधेरी रातें पसरी
दूर भले था सूरज लेकिन
अपनी नजरें जाकर ठहरीं।।

नए उजाले खातिर हमने
रातों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

आशाओं के बाग सजाओ
जीवन उपवन बन जाएगा
सपनों को साकार बनाओ
हिय मृदु मधुवन बन जायेगा।।

मधु का रस चखने की खातिर
काँटों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18सितंबर, 2021



कोटि कोटि सुख पावत।

कोटि कोटि सुख पावत।  

कमल नयन पद पंकज उपमा
छवि अतुलित मन भावत
शोभा अति विशाल मन मोहत
साची कह गुन गावत
अंग अंग पिय प्रेम सजत हौ
देखी जबहि लुभावत
कहे अजय छवि देख प्रभू की
कोटि कोटि सुख पावत।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16सितंबर, 2021

सूरदास: काव्य रस एवं समीक्षा।

जीवन-परिचय- महाकवि सूरदास का जन्‍म 'रुनकता' नामक ग्राम में सन् 1478 ई. में पं. रामदास घर हुआ था । पं. रामदास सारस्‍वत ब्राह्मण थे और माता जी का नाम जमुनादास।

सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है।

भक्‍त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज तथा पुस्‍तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्‍थों की संख्‍या 25 मानी जाती है।
  • सूरसागर 
  • सूरसारावली 
  • साहित्‍य-लहरी 
  • नाग लीला
  • गोवर्धन लीला
  • पद संग्रह
  • सूर पच्‍चीसी
  • सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्‍ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्‍यक्‍त सूक्ष्‍म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्‍देह करने लगे है।


सूरसागर सूरदास जी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'सूरसागर' में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हज़ार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् 1658 विक्रमी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा, मेवाड़ के 'सरस्वती भण्डार' में सुरक्षित पायी गई हैं।

यह इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।

2. इसका मुख्य उपजीव्य (आधार स्त्रोत) श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कंध का 46 वाँ व 47 वाँ अध्याय माना जाता है।

3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था।

4. भागवत पुराण की तरह इसका विभाजन भी बारह स्कन्धों में किया गया है।

5. इसके दसवें स्कंध में सर्वाधिक पद रचे गये हैं।

6. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा हैं – ’’सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।’’

  • इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला' और 'भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता।
सूर ने कृष्ण की बाललीला का जो चित्रण किया है, वह अद्वितीय व अनुपम है। 
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है – “”गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही।

सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।

सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। “सारंग’ शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए –
सारँग नयन, बयन पुनि सारँग,
सारँग तसु समधाने ।
सारँग उपर उगल दस सारँग
केलि करथि मधु पाने ।।

सूरसागर' में नन्द यशोदा तथा अन्य वयस्क गोपियों का बालकृष्ण के प्रति प्रेम, आकर्षण, खीझ, व्यंग्य, उपालम्भ आदि सब कुछ वात्सल्य रस की ही सामग्री है।

सूरसागर के वर्ण्य विषय का आधार 'श्रीमद्भागवत' है। भक्ति को भव्य एवं उदात्त रूप में चित्रित करते समय श्रृंगार और माधुर्य का जैसा वर्णन सूर ने अपने सूरसागर में ब्रजभाषा में किया है , वैसा उनसे पूर्व किसी लोकभाषा में नहीं हुआ है।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं –
उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,
किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की ।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी ।
इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं – किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं –
निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर हँसि समुझाय,
सौह दै बूझति साँच, न हाँसी।
और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की,
रचि पचि बात बनावत ।
सगुन – सुमेरु प्रगट देखियत,
तुम तृन की ओट दुरावत ।।
उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ –
रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत ।
अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?
नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ?
सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ?
अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है –
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि,
मदिरा मत्त प्रमाद ।
सूर श्याम एते अवगुन में
निर्गुन नें अति स्वाद ।।

(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है।
(2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
(3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है।
(4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है।
(6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है।
(7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है।
(8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।

इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है।

सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं।

रंग दो कान्हा                                                    

मोहे रंग दो कान्हा
अपने ही रंग में
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं
रम जाऊं तुझमें आज।।

जो रंग रंगी राधा रानी
जिसमें झूमी मीराबाई
जो रंग में कबीरा नाचा
नाचे खुसरो और रसखान।
मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया
डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।

तुम बिन है अब कौन सहारा
तुम ही करो उद्धार
कौन है आपन कौन पराया
तुम ही सबका आधार।
अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो
बन  जाऊं चैतन्य जैसा आज।।

मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब
रम जाऊं तुझमें आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


कितने रावण यहाँ जलाओगे।

कितने रावण यहाँ जलाओगे।  

सोचो कैसे दशहरा मनाओगे
बुराई से कैसे पार पाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

माना सीता का हरण किया मैंने
और प्रभू को लाख दुख दिया मैंने
मैं तो रावण था दुष्ट पापी था
आज किस किस से तुम बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

भारत माता भी आज रोती है
उसकी आवाज ना सुनाई देती है
कहीं आतंक और कहीं बुराई है
कैसे इससे इसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

क्यूँ सुनसान यहाँ की सड़कें है
आधी आबादी यहाँ पे डरते हैं
लाखों रावण छिपे हैं खालों में
उसके डर से कैसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

कहीं पे चोरी है कहीं घोटाला है
जैसे लोकशाही पे डाका डाला है
वोट के लिए धर्म को भूले हैं
कैसे सबको यहाँ जगाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहॉं जलाओगे।।

सोचो इक दिन मुझे जलाने से
क्या मिलेगा खुशी मनाने से
कदम कदम पे कितने रावण हैं
इतने तुम राम कहाँ से लाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15सितंबर, 2021





तेरी मेरी कहानी।

तेरी मेरी कहानी।   

चलेंगे हम साथ जब मिलकर हवायें गुनगुनाएँगी
ये अंबर झूम कर गाएगा धरती मुस्कुराएगी
कभी काँटे मिलेंगे और कभी फूलों की बरसातें
हों चाहे जैसा भी मौसम फिजायें गीत गाएंगी।।

बनूँ मैं गीत जीवन का तुम्हारे दिल में बस जाऊँ
के जो भी गीत तुम गाओ बस वो ही गीत मैं गाऊँ
नहीं मुझको तमन्ना चाँद की तारों की बरातों की
तुम्हारा साथ जो पाऊँ मैं नूतन प्रीत लिख जाऊँ।।

मैं अपने गीत गजलों में तुम्हारा नाम लिखता हूँ
हो भले कितनी तपिश मैं तो सुहानी शाम लिखता हूँ
मचलती हैं हवाएँ जब भी छूकर मेरे भावों को
तुम्हें राधा मैं लिखता हूँ और खुद श्याम लिखता हूँ।।

के जितने गीत हैं लिखे सभी में तेरी कहानी है
बना जो मैं दीवाना तो बनी तू भी दीवानी है
तुम्हारे प्रीत में बसकर यही बस मैंने है जाना
मैं कान्हा तुम्हारा हूँ तू मेरी राधा रानी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14सितंबर, 2021

नव प्रभात।

नव प्रभात।   

घोर निराशा के क्षण में भी
जीवन का प्रकाश देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

जीवन के झंझावत में मैं
जाने कितनी बार घिरा हूँ
कदम कदम चलने की खातिर
पथ में कितनी बार गिरा हूँ
जग के सारे झंझावत में
आशा अरु हुलास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

सकुचित भावों से निकले जब
आशा को विस्तार मिला है
अरु जीवन में नव प्रभात के
भावों को संसार मिला है
पग पग जीवन में कितने ही
उल्लास मचलते देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है

पग पग पथ भटकाने खातिर
घृणा द्वार पर आन खड़ी थी
अंतस को बहकाने खातिर
दुविधाएँ हर बार खड़ी थीं
दुविधाओं के पार निकल कर
हमने नव प्रभास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13सितंबर, 2021

मेरे मनमीत।

मेरे मनमीत।  

पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेंरे मनमीत तुम्हीं हो।।

निज पलकों के स्वप्न सुनहरे
मैं जिसे समर्पित करता हूँ
मृदु हिय के सब भाव मनहरे
मैं जिस पर अर्पित करता हूँ
हृदय हुआ सम्मोहित जिससे
भावों की वो प्रीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

मृदुल कल्पना के पाँखों पर
दोनों दूर तलक जाएँगे
इक दूजे को पाने खातिर
परबत से भी टकराएंगे
जिसने मन में प्रीत जगाया
भावों का वो गीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

गंगा की पावन धारा सा
निरमल निश्छल जीवन अपना
कलियों सा सम्मोहन जिसमें
पुष्पित पुलकित उपवन अपना
जिसने मन उपवन महकाया
कलियों का वो रूप तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

रचें चलो हम गीत सुनहरा
जो नीरवता में भरे प्राण
सारा जग गुंजित हो जिससे
दे प्राणों को जो अकुल तान
भावों को जो मुखरित कर दे
जीवन का संगीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12सितंबर, 2021

राम नाम महिमा।

राम नाम महिमा।  

राम नाम अति सुंदर एका देखहिं भालहिं रूप अनेका
एकहि नाम जगत के तारा जिन पर है विश्वास हमारा
प्रभु राम कृपा जिनपर होई सकल काज संपूरण होई
देखि विचारि सोचि जब कहहू राम कृपा 
तब मिलही सबहू
दया धरम नृप धर्म है एका करहु काज विचारी विवेका
हानि लाभ मद मोह अनेका जे जपै नाम छूटहि सोका
कहत अजय मन सुंदर राखा मिलहि भक्ति फल सुंदर चाखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11सितंबर, 2021


खुद का खुद से मेल।

खुद का खुद से मेल।  

मन का सूना अंधकार ले
कैसे तुम मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

कदम कदम पर चोटें कितनी
जाने कितनी आघातें 
कहीं घनेरे दुख के बादल
कहीं खुशी की बारातें
उलझे मन के फेर में कहीं
खुद से क्या मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो 
कैसे फिर चल पाओगे।।

हानि लाभ जीवन के पहलू
इक आता इक जाता है
पथ भूला जो इसमें पड़कर
चैन कहाँ फिर पाता है
हर्ष विषाद में पड़े कहीं तो
पथ में क्या चल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

पल पल बीत रहा है जीवन
कितने ही आकाश लिए
घट घट रीत रहा ये क्षण क्षण
मन में अगणित आस लिए
क्षण भंगुर इस जीवन में
रोक भला क्या पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

क्षण भर को बादल ढँकने से
सूरज क्या छिप जाता है
मन के दरपन में देखा जो
खुद से वो मिल पाता है
खुद को यदि पहचान लिए तो
जग से फिर मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10सितंबर, 2021




मैंने बस प्यार किया।

मैंने बस प्यार किया।   

जो कुछ भी तुमने दिया मुझे
सब मैंने स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैने तो बस प्यार किया।।

मत पूछो के मौन रुदन के
पल हिस्से में क्यूँ आये
कुछ तो ऐसे कल्मष होंगे
जिसने पथ से भटकाये
अपने उस कल्मष की खातिर
मैंने पश्चाताप किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मेरे दीवानेपन को भी
तुमने पागलपन माना
जग ने तो था किया पराया
तुमने बेगाना जाना
तेरे बेगानेपन को भी
हँसकर के स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मैंने जग के तानों को भी
समझ पिया जैसे हाला
ये अश्रू बने मेरी मदिरा
अरु पलक बनी मधुशाला
पर जो अश्रू गिरे पलकों से
उनका भी सत्कार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

हिय बंधन में बँध कर सोचा
दो पल खुद को भी जी लूँ
पा लूँ मैं भी सुख जीवन का
हिय मृदु मधुरस मैं भी पी लूँ
जीवन ज्वाला में जिया किया
उर में पर मधुमास जिया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2021





प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...