शायद कुछ मिल ही जाए, चलो चलें उस ताल किनारे।

शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।  

बैठे बैठे मन में मेरे, इक भाव अचानक जाग उठा
सूने मन के गलियारे में, फिर से इक अनुराग उठा
कितनी सदियाँ बीत गयीं हैं, उन गलियों को छोड़े हमको
कितने जीवन बीत गए हैं, खुद से ही मुँह मोड़े हमको
दूर हुए पदचिन्ह सभी जो, पैरों से दबकर कभी बने
भरी दुपहरी या बरसातें, मिट्टी से हरदम रहे सने
पग पग पर खिलती थी दुनिया, कदम कदम पर स्वप्न बुहारे
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

मैदानों में बैठ वहाँ पर, हँसी ठिठोली करते सारे
जाने कितनी बातें करते, हँसते गाते मिलते सारे
कंचे, गिल्ली, डंडे हंसते, गली गली हर मोड़ मोड़ पर
कभी पतंगें उड़ती जातीं, आकाशों के छोर छोर पर
मंदिर की घण्टी से हरपल, भाव भक्ति के पलते रहते
अँधियारे को दूर हटाने, दीप हमेशा जलते रहते
मंदिर की मधुर घण्टियाँ, लगता अब भी राह निहारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

वो बरगद का पेड़ पुराना, बैठ जहाँ हँसते गाते थे
छावों में जिसकी लेट सभी, हम पंछी से बतियाते थे
जहाँ मुँडेरों पर मृदु किरणें, हौले से सहला जाती थीं
जहाँ मचलती पवन सुहानी, जीवन का राग सुनाती थी
जहाँ अभी भी खुशियों वाले, कुछ पुष्प हमें मिल जायेंगे
जहाँ अभी भी जीवन वाले, कुछ मरम हमें मिल जायेंगे
चलो चलें इक बार वहाँ फिर, हम स्मृतियों को पुनः दुलारें
शायद कुछ मिल ही जाये, चलो चलें उस ताल किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2021

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