द्रौपदी
था सजा दरबार सारा और कोलाहल वहाँ,
था दिवस कुछ खास जैसे वक्त भी व्याकुल वहाँ।
वहाँ बिछी बिसात थी औ सत्ता का संघर्ष था
या फिर किसी में द्वेष वश भावों का अपकर्ष था।
वहाँ ज्ञान के प्रवेश को द्वार सारा बंद था,
सत्य और अज्ञानता के मध्य कोई द्वंद था।
थी चाह सत्ता की प्रबल नीतियों में दोष था,
सूर्य धरती औ गगन के भाव सब खामोश था।
मुक्त हो बहती पवन की धार मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने चीर की आहट सुनी।
मौन थी सत्ता वहाँ औ मौन सारे लोग थे,
मौन सब जीवन वहाँ था न कोई अनुरोध थे।
शूरवीरों की सभा का अब न कोई मान था,
एक नारी का सभा में क्या यही सम्मान था।
जो थी सभा में खड़ी वो भी किसी की लाज थी,
नेह के आँचल पली वो इक मधुर आवाज थी।
चीर जिसका ले दुशासन कर रहा अट्टहास था,
भरतवंशी अस्मिता का हो रहा उपहास था।
नीति के सब मार्ग जैसे आज सारे बंद थे,
द्वेष के आगे सभी सद्भाव सारे मंद थे।
वंश की सारी अस्मिता आज तार-तार हुई,
कौरवों की वाणी भी आज शुचिता पार हुई।
देखती जिस भी तरफ उस ओर अंधकार था,
कौरवों की उस सभा का गिर चुका व्यवहार था।
कर्ण ने बोला सभी वस्त्र आज इसके तुम हरो,
हैं सभी ये दास अपने इनसे मन मुदित करो।
कर्ण के शब्द चुभ रहे थे चेतना को चीर कर,
कर रहे थे चोट पल-पल अस्मिता पर पीर पर।
बँट चुकी हो पाँच में अब सोचना बेकार है,
दासी हो कुरुवंश की सौ का भी अधिकार है।
अभिमान था जिस बात पर वो ही बनी लाचारी है,
थी हँसी उस रोज मुझपर आज मेरी बारी है।
जिस पाँच पर अभिमान तुझको आज मेरे दास हैं,
साँस की हर डोर उनकी आज मेरे पास है।
याचना की दृष्टि ले वो तक रही थी वीर को,
सोचती थी क्या करे कि तोड़े सबके धीर को।
हार कर के द्यूत में थे दास सारे बन चुके,
सूर्य से भी तेज जो निस्तेज हो कर गिर चुके।
शब्द ही जब न रहा तो बोलते क्या वो यहाँ,
और कहते क्या किसी से दास थे सारे वहाँ।
शोक था पसरा सभा में चाह कर कुछ कर सका न,
कृष्णा के क्रंदन वहाँ आज कोई सुन सका न।
बीच खड़ी दरबार के वो माँगती आज भिक्षा,
खत्म सब संस्कार थे नही बची थी आज शिक्षा।
नारी वस्तु नहीं कोई तुम जिसका मोल लगा बैठे,
क्या अधिकार कहो तुमको जो मुझको दाँव लगा बैठे।
है पितामह मौन क्यूँ जब मर्यादा भंग हुई,
लगता है जैसे धरती वीरों से तंग हुई।
दुर्योधन के छुद्र इशारे स्वाभिमान तड़पाते थे,
मर्यादा भी लज्जा से वहाँ गड़े जाते थे।
भूल चुकी राज सुख सभी भूल चुकी सब जन को,
भूल चुकी आज स्वयं भूल चुकी अपने तन को।
चीखते लम्हें रहे पर मौन सदियाँ हो गईं,
धूर्त औ दंभी गगन की छाँव पा कर सो गईं।
क्या कहे उस एक पल ने दर्द थे क्या-क्या सहे,
लम्हों के उस घाव में सदियाँ ने क्या-क्या सहे।
दस दिशाएं चीखती थीं चीखते धरती गगन,
चीख उठे पंछी सारे चीख उठी पगली पवन।
मौन सब साम्राज्य था औ मौन थे सारे प्रहर,
दोष किस-किस पर मढ़ें जब मौन चेतन और जड़।
बाजुओं में भीम के सौ हाथियों का बल कहाँ,
पार्थ भी गाण्डीव जाने छोड़ आये थे कहाँ।
धर्म के मार्ग में जाने कैसी थी बाधा खड़ी,
सत्य के दरबार मे अब सत्य की किसको पड़ी।
कुरुवंश के आकाश का सूर्य क्या अस्त हो गया,
बाजुओं का जोर सारा क्या आज पस्त हो गया।
धर्मराज तुमने किया है धर्म का क्या काज बोलो,
सिर झुका कर मौन हो निर्बुद्धि हो क्या आज बोलो।
शकुनि के कुचालों को जान तुम क्यूँ न पाए,
चेतना क्या सुप्त थी जो यहाँ तुम दौड़ आए।
ब्याह कर लाये ही क्यूँ जब दाँव था मुझको लगाना,
उस सप्तपद का मोल क्या भूल गए जिसको निभाना।
किसने दिया अधिकार तुमको दासी हूँ मैं क्या तुम्हारी,
धर्म से क्या वासता क्या बुद्धि दूषित है तुम्हारी।
दाँव पर कैसे लगाया तुमने मुझको ये बताओ,
सिर झुकाए मौन हो क्यूँ धर्म हो तो मुख दिखाओ।
धर्म का पर्याय कैसे मान लूँ इस बुद्धि को,
धिक्कारती हूँ मैं तुम्हारे मौन को, निर्बुद्धि को।
दस दिशायें गूँजती हैं न्यायप्रियता से तुम्हारे,
याचना किससे करूँ न्याय ही जब स्वयं हारे।
सहदेव पूछो ज्येष्ठ से ऐसे क्यूँ कर मौन हो,
दाँव मुझको जब लगाया पूछते के कौन हो।
प्रिय नकुल तुम तो यहाँ सब भाइयों में हो दुलारे,
ज्येष्ठ की इस बात को तुम सिर झुकाये क्यूँ स्वीकारे।
सच कहा है ग्रंथों ने नेह बस उससे लगाना,
आता हो जिसको यहाँ पर प्राण देकर प्रण निभाना।
धिक्कार है मुझको कि मेरे पाँच ऐसे हैं पिया,
जिनके रहते घूँट ये अपमान का मैंने पिया।
कहो श्रेष्ठ वीरों की सभा क्या नारी एक संपत्ति है,
बोलो पितामह मौन क्यूँ हो किस मन की ये उतपत्ति है।
पूछती हूँ आज सबसे क्या कुरुवंश का ये मान है,
क्या निर्वस्त्र करना नारी को नहीं वंश का अपमान है।
हार कर अपने को भी जो स्वयं का ही ना रहा,
उसका ये अधिकार मुझपर अब कहो कैसा रहा।
क्यूँ पति के हार का मोल पत्नी भी चुकाए,
नीति के मर्मज्ञ बोलें दाँव मुझे कैसे लगाए।
क्या करोगे राज्य लेकर चल सकोगे कैसे तन के,
बिन सकोगे क्या यहाँ पर मेरी लज्जा के ये मनके।
बैठे हैं दरबार में सब श्रेष्ठ कुल के और ज्ञानी,
कह सकेंगे श्रेष्ठ क्या दृष्टांत को अपनी जुबानी।
नग्न कर मुझको यहाँ पर बोलो तुम क्या पाओगे,
अपनी-अपनी मात को तुम कैसे मुख दिझलाओगे।
हाय क्यूँ अब इस घड़ी में कोई नीति कुछ न बोलती है,
देख कर अनीति ऐसी क्यों न शिराएं खौलती हैं।
उच्च कुल यदि है सभी का श्रेष्ठता दिखलाइये,
जिस कोख ने तुमको जना है उसको न लजाइये।
भीरू बन कर बैठे हैं सब वीर किसके पास जाऊँ,
कैसी विपदा है अभागन मैं कहो किसको सुनाऊँ।
बोलें कुल के श्रेष्ठ अब तो राष्ट्र के वो हैं प्रमुख,
गिर गयी जो लाज यदि तो कैसे आऊँगी मैं सम्मुख।
हे पितामह पूछती हूँ आप कुल के श्रेष्ठ ज्ञानी,
कैसे फिर कुरुवंश के ये पूत बन बैठे हैं कामी।
धिक्कार है इस वंश को जो इस कृत्य पर भी मौन है,
पूछती है ये सृष्टि सारी ये सत्य क्यूँकर मौन है।
थे डोलते जिसके कदम से ये धरा और आसमान,
कायरों की भाँति बैठे क्या यही उनका है मान।
ये इतिहास पूछेगा जगत से सत्य क्यूँकर मौन है,
इस भ्रष्ट सत्ता के समक्ष ये शीश झुकाये कौन है।
अब तक मुझे था गर्व कितना के पार्थ हैं मेरे पिया,
ये भूल थी मेरी यहाँ क्यूँ विश्वास ये मैंने जिया।
मैंने सुना सौ हाथियों का बल भुजाओं में तुम्हारे,
क्यूँ सिर झुका कर मौन हो क्यूँ बैठे हो ऐसे बिचारे।
धिक्कार है ऐसी भुजा जो थाम न मुझको सकी,
क्या करूँ उस वीरता का न काम मेरे आ सकी।
सत्य की हे मूर्ति तुमको और मैं अब क्या कहूँ,
किस भँवर मुझको फँसाया कुछ कहो अब क्या करूँ।
तोड़ दो गांडीव अपना कुछ कहो किस काम का,
है मुझे अफसोस इतना पार्थ तुम वीर हो बस नाम का।
धिक्कारती हूँ कोख को जिस कोख ने तुमको जना है,
द्यूत की आड़ लेकर जो जाल तुम सबने बुना है।
किससे भावों को कहे किससे फिर अनुरोध हो,
लाज ही जब गिर पड़े तो क्यूँ किसी से मोह हो।
है कौन सा अपराध जो मौन हैं सारे यहाँ पर,
जो हैं सक्षम इस जगत में मौन क्यूँ बैठे यहाँ पर।
सिंहनी सी चाल जिसकी आज याचना कर रही,
लाज की खातिर सभी से प्रार्थना थी कर रही।
सुन रहे थे मौन हो सब उस रुदन चीत्कार को,
छोड़ शायद जा चुकी थी चेतना संसार को।
क्यूँ दिया आशीष मुझको भाग्य का सौभाग्य का,
मौन सहभागी बने जब स्वयं ही दुर्भाग्य का।
क्या करूँ बोलो पितामह क्यूँ झुकाया शीश है,
क्यूँ नहीं कहते कि मेरे शीश पर आशीष है।
मौन रह कर के यहाँ कहो सत्य क्या जी पाओगे,
कहो पितामह अश्रुओं की पीर क्या पी पाओगे।
आज आपके मौन से जो लाज मेरी हारेगी,
यहाँ आपकी भूमिका को हर सदी धिक्कारेगी।
आपके जिस नेत्र से धरती गगन सब काँपते हैं,
मौन होकर नेत्र बोलो क्यूँ बगल को झाँकते हैं।
जब गिरेगी लाज कुल की सह सकोगे क्या यहाँ,
और लज्जा बोझ से क्या जी सकोगे फिर यहाँ।
सत्य की प्रतिमूर्ति हो तुम तो धर्म का पर्याय हो,
मौन हो क्यूँ कर पितामह देख इस अन्याय को।
क्यूँ झुकाये शीश बैठे क्यूँ दृष्टि ये उठती नहीं,
नारी के अपमान पर भी छाती क्यूँ फटती नहीं।
कह सकोगे मात से क्या इस दृश्य को अपनी जुबानी,
हो रही दूषित पितामह गंगा माता का भी पानी।
डूब जाएगी धरा सारी आँसुओं की धार से,
जब गिरूँगी काल बनकर कुरुवंश के संसार पे।
शीर्ष मूँदे आँख जब-जब और भुजाएं क्षीण हों,
गात कैसे सह सकेगी खुद ही कहें इस पीर को।
कुछ नहीं उत्तर मिला जब तात के सम्मुख हुई,
हाथ दोनों जोड़ कर थी पैर पर वो गिर गई।
अश्रु पलकों से उतरकर पैरों पर गिरते रहे,
याचना के पुष्प सारे अंक से झरते रहे।
कुछ कहो हे तात ऐसी धृष्टता को रोक दो,
बढ़ रहा जो हाथ मुझपर तात उसको रोक लो।
श्रेष्ठ सबमें हो यहाँ पर आप ही सत्ता प्रमुख,
हो रहा अपमान अब तो कुछ कहा हे तात सम्मुख।
कैसे जियूँगी मैं यहाँ पर झेल कर इस दंश को,
इतिहास सोचो क्या कहेगा कौरवों के वंश को।
पुत्रवधु हूँ आपकी मैं कुरुवंश की ही लाज हूँ,
रोकिए कुकृत्य को करती प्रार्थना मैं आज हूँ।
यदि मौन स्वीकृति आपकी आज इस विध्वंस को,
कल रोक पाओगे नहीं फिर काल के विध्वंस को।
जब न पाया हाथ अपने माथ पर आशीष का,
तब सुनाई द्रौपदी ने द्रोण के सम्मुख व्यथा।
मित्र हो मेरे पिता के मैं तुम्हारी नंदिनी,
याचना कर रही है तुमसे द्रुपद नन्दिनी।
जो हो पिता के मित्र यदि मेरे भी तो तात हो,
कुछ कहो चुप न रहो क्या तुम भी सबके साथ हो।
जो गिरेगी लाज खुद को माफ क्या कर पाओगे,
पाप के इस दाग को क्या साफ फिर कर पाओगे।
वीरता का पाठ तुमने क्या यही इनको पढ़ाया,
लाज से खिलवाड़ करना बोलो इनको कैसे आया।
साथ में शस्त्र शिक्षा के पाठ क्या ये भी पढ़ाया,
नारि का सम्मान करना क्यूँ नहीं इनको सिखाया।
समाज शिक्षक को सदैव श्रेष्ठ कह कर पूजता है,
फिर शिष्य के कुकृत्य पर क्यूँ कुछ नहीं सूझता है।
आज आपके मौन से मान शिक्षक का गिरेगा,
आपकी इस भूमिका को माफ ना कोई करेगा।
प्रतिबद्धता मात्र सत्ता से धर्म का अपमान है,
तुम ही कहो कुकृत्य क्या ये शीर्ष का सम्मान है।
विद्या विनय का स्रोत है क्या कह सकोगे फिर कभी,
ज्ञान दूषित गुरु द्रोण का क्या सुन सकोगे तुम कभी।
पुण्य है यदि शिष्य तो फिर मान शिक्षक का बढ़ा है,
पर पाप से हर शिष्य के मान शिक्षक का गिरा है।
इस एक पल की धृष्टता का पाप सबके सिर लगेगा,
हँस रहे मेरी व्यथा पर रक्त उनका भी बहेगा।
और किसके पास जाऊँ प्रार्थना किससे करूँ,
आप ही कुछ तो कहो मैं याचना किससे करूँ।
क्यूँ समय की चाल मद्धम आज क्यूँ रुकती नहीं,
मैं समा जाऊँ धरा में क्यूँ ये धरा फटती नहीं।
सहसा फिर गरजा सुयोधन है अब प्रतीक्षा और क्या,
सोचते क्या हो दुःशासन मन में तुम्हारे कुछ और क्या।
दासी ये कुरुवंश की अधिकार इस पर है हमारा,
आज छलनी हो रहेगा इसके मन का दर्प सारा।
पांच पतियों में बँटी हो हमसे है फिर कैसा लजाना,
अंक में बैठो हमारे हो दासी हमसे क्या छुपाना।
है शपथ मुझको सुयोधन तुझको न मैं छोड़ूंगा,
जिस अंग को तुमने दिखाया उसे युद्ध में मैं तोडूंगा।
है शपथ मुझको दुःशासन देव दानव सुन लें सभी,
तेरी छाती का पी लूँ लहू मैं चैन पाऊँगा तभी।
जिस भुजा से है छुआ द्रौपदी के केश को,
उखाड़ फेंकूँगा उसे खत्म कर दूँगा हर रेख को।
है शपथ मुझको यहाँ सुन लें सभा के श्रेष्ठ जन,
मारूँगा सौ भाइयों को क्या सुयोधन क्या दुःशासन।
द्रौपदी का यूँ रुदन यौद्धेय जब न देख पाया,
भाइयों के कृत्य पर प्रश्न फिर उसने उठाया।
अपमान करना नारी कुरुवंश का अपमान है,
सोचिए है ज्येष्ठ भ्राता ये कलुष है अज्ञान है।
सोचिए कुरवंशजों में क्या हमारी योग्यता है,
अपमान नारी शक्ति का न श्रेष्ठ है ये नीचता है।
जोड़ कर आज सम्मुख प्रार्थना मैं कर रहा,
कृत्य से कहो प्रिय मान कुल का कब रहा।
ये लाज अपने वंश की है न यूँ इसे गिराइए,
द्वेष की इस आग में न प्रतीति को जलाइये।
खेल था ये द्यूत का बस खेल तक ही श्रेष्ठ है,
कृत्य ऐसा शास्त्र में प्रिय खुद कहें क्या श्रेष्ठ है।
मैं अनुज प्रिय आपका कर रहा हूँ प्रार्थना,
त्यागिये मद, क्रोध सारा मेरी प्रिय से याचना।
ये मात्र नारी ही नहीं हैं ये मात हैं सम्मान हैं,
ज्येष्ठ कलुषित कृत्य ये कुरुवंश का अपमान है।
नारी के हर रूप का सम्मान शास्त्रों ने किया है,
मत भूलिये के जन्म हमको एक नारी ने दिया है।
नारी के अपमान का क्या बोझ प्रिय ढो पायेंगे,
लाख गंगा में नहायें प्रिय पाप न धो पायेंगे।
पत्नि हैं ये ज्येष्ठ की पूज्य हम सबके लिये हैं,
मात के समकक्ष हैं ये श्रेष्ठ हम सबके लिए हैं।
यौधेय के सुन कर वचन क्रोध में जलने लगा,
यौधेय दुर्योधन को वहाँ नेत्र में खलने लगा।
यूँ लग रहा भ्राता नहीं तू शत्रु का ही मीत है,
ये भूल है मेरी जो तुझको मान बैठा मीत मैं।
जो रक्त है कुरुवंश का तो शत्रु से व्यवहार क्यूँ,
यदि मानता है श्रेष्ठ मुझको तो शत्रु से है प्यार क्यूँ।
है तुझे यदि भीति कोई मूँद ले अपने नयन,
या कहीं तू बैठ जा छोड़ कर के ये भवन।
देर करते क्यूँ दुःशासन अब रहा जाता नहीं,
रूप के इस तेज को अब सहा जाता नहीं।
देख अत्याचार इतना मौन फिर ना रह सके,
क्रोध में हुंकार कर विदुर उद्वेलित हो उठे।
कर जोड़ बोले तात से ये कैसा अनाचार है,
हो रहा जो कुछ यहाँ क्या यही संस्कार है।
याचना है आपसे के आज इसको रोक दो,
पुत्रमोह छोड़ कर अन्याय को अब टोक दो।
आज यदि सब चुप रहे कुछ पास न रह जायेगा,
कटघरे में वक्त के इतिहास खुद को पाएगा।
हे पितामह क्यूँ मौन बैठे क्यूँ नहीं कुछ बोलते,
ऐसी है कैसी विवशता क्यूँ नहीं अब रोकते।
अब प्रार्थना मेरी सुनो हे पुत्र ये अन्याय है,
कर रहे जो कुछ यहाँ उसका न अभिप्राय है।
इस एक पल के दर्द से सभ्यता मिट जाएगी,
यूँ नारी के अपमान से ये सदी पछताएगी।
आदेश देता हूँ तुम्हें मैं पुत्र हर अधिकार से,
मत करो यूँ हीन कुल को अपने इस व्यवहार से।
छोड़ दो अपना सभी हठ रोक दो कुकृत्य को,
गर्व से क्या कह सकोगे तुम कहो इस कृत्य को।
द्वेष के इस आग में सम्मान मत जलाइये,
नारी के सम्मान को मत भीति में मिलाइये।
जो शत्रुता है भाइयों से उनसे ही निभाइये,
कुरुवंश के सम्मान को यूँ माटी न मिलाइये।
हो दास पुत्र मात्र तुम अब और कुछ भी मत कहो,
कह चुके हो तुम बहुत अब श्रेष्ठ होगा चुप रहो।
आदेश है मेरा तुम्हें अब और कुछ मत बोलना,
ऐसा न हो तुमसे मुझे भी रिश्ता पड़े सब तोड़ना।
धिक्कार है कुरुवंश को जो श्रेष्ठ सारे मौन हैं,
मैं पूछता हूँ ज्येष्ठ से के इसके पीछे कौन है।
कुरुवंश की इस सभा में न धर्म का अब स्थान है,
जो रहा मैं इस सभा में तो धर्म का अपमान है।
याद रखना शब्द मेरे काल विकट अब आयेगा,
धर्म के इस युद्ध में कुरुवंश ये चुक जाएगा।
देखते ही देखते संस्कार सारे गिर गए,
क्षोभ वश छोड़ वहाँ से दरबार फिर विदुर गये।
सूझता कुछ भी नहीं मुझको यहाँ अब आज तो,
क्या करूँ मैं अब जतन कैसे बचाऊँ लाज को।
कैसे दिखलाऊँगी अब मैं मुख यहाँ समाज को,
श्राप देती हूँ यहाँ मैं ऐसे भूपति राज को।
बैठे हैं निर्लज्ज सारे न लाज इनको आयेगी,
कौरवों की इस सभा में क्या लाज उसकी जायेगी।
मौन जो बैठे सभा में प्रश्न उनपर भी उठेगा,
प्रतिशोध के इस ज्वाल में मान उनका भी जलेगा।
वक्त जब जब भी लिखेगा द्यूत के इतिहास को,
काले अक्षर में लिखेगा वंश के इतिहास को।
नपुंसकों की सभा को आज मैं धिक्कारती हूँ,
जो पुरुष हैं इस सभा में उनको मैं ललकारती हूँ।
क्रोध से कभी काँपती कभी याचना करती वहाँ,
बस देखती कातर नयन से प्रार्थना करती वहाँ।
था दर्प में डूबा दुःशासन हाथ थामे चीर को,
जब कुटिलता मदमस्त होती वो सुने कब पीर को।
हो शीश पर जब तक नशा सत्ता और अभिमान का,
वो सोचता है कब किसी के मान का अपमान का।
सूझता कुछ भी नहीं ये कैसी विपदा आयी है,
जाने कैसे मोड़ पर विधना मुझे ले आयी है।
क्यूँ टूटता अंबर नहीं क्यूँ ये धरा फटती नहीं,
है किस जनम का पाप ये क्यूँ धुंध ये छँटती नहीं।
आंधियों में बल नहीं अब न जलधि में ज्वार है,
सब टूटती है आस सारी सब टूटता मनुहार है।
कौरवों की इस सभा में झुका सभी का शीश है,
हाय अबला की विपत में आस बस जगदीश है।
उँगली उठाया कर्ण ने जब देख उसकी ओर पे,
तब याद आये द्रौपदी को श्याम अंतिम छोर पे।
जब नहीं उत्तर मिला औ याचनाएं मौन हुई,
जब आँचल से निकलकर प्रार्थनाएं मौन हुईं।
और जब सूझा नहीं कुछ मार्ग इस संसार में
ध्यान फिर उसने लगाया स्वयं तारण हार में।
इस जगत का ज्ञान तुम हो और घट-घट के निवासी,
सत्य सनातन हो तुम्हीं और तुम ही मात्र साथी।
देर तुमसे हो न जाये आ बाँह मेरी थाम लो,
टूट कर मैं गिर न जाऊँ आकर मुझे अब थाम लो।
चक्र से जब अंगुली में चीर केशव के लगी थी,
रक्त रंजित अंगुली को देख पीड़ा मन में जगी थी।
चीर आँचल कोर उसने जो सूत्र में बाँधा वहाँ,
द्रौपदी के प्रेम ने था श्री कृष्ण को साधा वहाँ।
जिसको बाँधा चीर उस पल उसका ही अब आसरा,
उसके रहते हानि क्या कर सकेगा कोई मेरा।
मेरी करुण याचना वहाँ द्वार तक जब जायेगी,
कैसी निद्रा में रहें वो खींच उनको लायेगी।
जानती हूँ छोड़ मुझको कभी नहीं रह पायेंगे,
जानेंगे जब हाल मिरा दौड़े-दौड़े आयेंगे।
बीच अपनों के खड़ी पर जाने क्या लाचारी थी,
श्रेष्ठ वीरों की सभा में आज बनी बेचारी थी।
कहते रचियता सृष्टि के और जगत के दाता हो,
कैसे मानूँ मैं तुम्हें के तुम जगत विधाता हो।
पालते हो तुम जगत को तुम ही जग के त्राता हो,
इस जगत में द्रौपदी के तुम ही केवल भ्राता हो।
रहते भ्राता आपके यदि लाज ये लुट जायेगी,
सत्य कहती हूँ तुम्हारी सृष्टि भी चुक जायेगी।
क्या झूठ हैं रिश्ते सभी क्या झूठा ये समाज है,
सुनते नहीं हो भ्राता क्यूँ क्या मेरा अपराध है।
वीर बैठे मौन सारे जाने क्या लाचारी है,
आज कृष्णा पर तिहारे आयी विपदा भारी है।
आज विपदा कालिमा बन कर के नभ में छाई है,
क्यूँ तुम्हारे आने में क्या कोई कठिनाई है।
तुम कहा करते थे हरदम श्रेष्ठ तेरा भाई है,
हो कोई विपदा इस जगत तुमसे न छुप पाई है।
आज विपदा की घटायें काली मुझ पर छाई है,
देखते तुम क्यों नहीं हो कैसी ये कठिनाई है।
सूत के बदले कहा था न भूल इसको पाऊँगा,
जब पुकारोगी मुझे, मैं दौड़ा-दौड़ा आऊँगा।
भीर गज पर जब पड़ी तब तुमने मिटाई पीर सारा,
दौड़ आते क्यों नहीं तुम दोष क्या बोलो हमारा।
यदि आपके होते हुए भी पाप ये हो जाएगा,
सूत्र बंधन से जगत का विश्वास ये उठ जायेगा।
नीचता कैसे सुनाऊँ कितना सहूँ अपमान को,
आकर तोड़ते क्यूँ नहीं इस दुष्ट के अभिमान को।
कक्ष के लोगों सुनो ये अंत तुम सबके लिए है,
मेरे वीर के चक्र में दंड तुम सबके लिए है।
हे पितामह द्रोण कुलगुरु और ये कुरुवंश सुन ले,
काल तुम सबका निकट है स्वयं अपना मार्ग चुन लें।
निज पुत्र वधु के हाल पर जो आज बैठे मौन हैं,
वज्र जब उनपर गिरेगा न देखेगा के कौन हैं।
धिक्कार है कुरुसभा को करुणा जिनके हृदय नहीं,
मृत्यु हैं वो शून्य हैं सब हिय में जिनके विनय नहीं।
है मुझे विश्वास इतना भाई मेरा आएगा,
शीश पर तुम दुष्ट जनों के काल बनकर छाएगा।
जो अभी तक समझ ही न पाया स्नेह को ममत्व को,
कब हृदय वो जान पायेगा नारी के महत्व को।
क्या नहीं बचाओगे तुम आ यहाँ मेरे सत्व को,
कहीं निगल जाये ना ऐसे दुष्टता मनुजत्व को।
जो हुआ अपमान मेरा मुख क्या दिखला पाओगे,
यदि तुम नहीं आये यहाँ मुझे न जीवित पाओगे।
जो भी हो जिस हाल में जैसे भी हो पास आओ,
इस नराधम नीच पापी से मुझे आकर बचाओ।
अब छोड़िए मुरली मुकुट बस चक्र लेकर आइये,
इन पापियों को रौद्र अपना आ यहाँ दिखलाइये।
जब बहिन विपदा में हो भाई का सामर्थ्य कैसा,
इस घड़ी यदि तुम न आये संबन्ध का अर्थ कैसा।
छोड़ कर मथुरा बसे हो ये है मुझे सब कुछ पता,
हो रहा क्या साथ मेरे क्या है नहीं तुमको पता।
विश्वास तुम पर जो मेरा आज न वो टूट जाये,
ऐसा न हो प्रतीक्षा में साँस मेरी छूट जाये।
कोर के हर अश्रुओं का मोल तुमको है चुकाना,
हो रहे अपमान का प्रतिशोध तुमको है चुकाना।
ये न समझो पापियों कि भाई तुमको छोड़ देगा,
जिस दर्प में डूबे हुए हो दर्प सारा तोड़ देगा।
अश्रु ये जो झर रहे हैं हो व्यर्थ न जायें कहीं,
होते हुए भी तुम्हारे मान न गिर जाये कहीं।
अब आस बस तुमसे बँधी है इसको न अब तोड़िये,
विपत की इस घड़ी में मुझे न यूँ अकेला छोड़िए।
जब आपदा गहराएगी याद अपने आयेंगे,
बंधन जिनसे हो हृदय का तोड़ कैसे पायेंगे।
हो दया का स्रोत तुम ही श्रेष्ठ हो तुम और दानी,
इस जगत में कौन तुमसे श्रेष्ठ बोलो और ज्ञानी।
शून्य हैं सबके हृदय अब मैं व्यथा किसको सुनाऊँ,
तुम नहीं आये अगर तो लाज मैं कैसे बचाऊँ।
टूटता है धैर्य मेरा विश्वास भी अब थक रहा,
क्षीण होती शक्ति सारी अब आत्मबल भी थक रहा।
है कलुष आकाश सारा कलुषित यहाँ परिवेश है,
पुकारते तुमको केशव मेरे खुले ये केश हैं।
छोड़िए सब रास केशव इस क्षण कहीं मत जाइये,
अपने सखी की लाज खातिर दौड़ कर आ जाइये।
छोड़िये अपना मुकुट अब छोड़िये श्रृंगार सारा,
आपदा जब द्वार पर हो देखता है कौन सारा।
देह पर जो भी वसन है केशव उसी में आइये,
अपने बहन की लाज को आ शीघ्र अब बचाइये।
इन आँसुओं को आज यदि देख नहीं तुम पाओगे,
सच कहती भाई सारी उमर यहाँ पछताओगे।
विध्वंस की घड़ी है नाथ आज यूँ न मुख छुपाइये,
मेरे अश्रुओं को देखिये न देर अब लगाइये।
आज आप जो न आ सके कुछ शेष न रह जायेगा,
तो प्राण ये तजूंगी मैं अवशेष न रह जायेगा।
इन अश्रुओं की धार का अब मोल क्या कुछ भी नहीं,
नारी के सम्मान का
अश्रुओं की धार ही क्या
खींचना वो चीर तब सारी क्षमता पार हुआ
वस्त्र के रूप में जब माधव का अवतार हुआ
थी लिखी उस दिन कथा तब क्षोभ औ अपमान की
और टूटे थे मिथक सब सत्य के अवदान की।।27।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19सितंबर, 2022
अवदान- पराक्रम