द्रौपदी

द्रौपदी 

                        

था सजा दरबार सारा और कोलाहल वहाँ,
था दिवस कुछ खास जैसे वक्त भी व्याकुल वहाँ।

वहाँ बिछी बिसात थी औ सत्ता का संघर्ष था
या फिर किसी में द्वेष वश भावों का अपकर्ष था।

वहाँ ज्ञान के प्रवेश को द्वार सारा बंद था,
सत्य और अज्ञानता के मध्य कोई द्वंद था।

थी चाह सत्ता की प्रबल नीतियों में दोष था,
सूर्य धरती औ गगन के भाव सब खामोश था।

मुक्त हो बहती पवन की धार मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने चीर की आहट सुनी।

मौन थी सत्ता वहाँ औ मौन सारे लोग थे,
मौन सब जीवन वहाँ था न कोई अनुरोध थे।

शूरवीरों की सभा का अब न कोई मान था,
एक नारी का सभा में क्या यही सम्मान था।

जो थी सभा में खड़ी वो भी किसी की लाज थी,
नेह के आँचल पली वो इक मधुर आवाज थी।                     

चीर जिसका ले दुशासन कर रहा अट्टहास था,
भरतवंशी अस्मिता का हो रहा उपहास था।

नीति के सब मार्ग जैसे आज सारे बंद थे,
द्वेष के आगे सभी सद्भाव सारे मंद थे।

वंश की सारी अस्मिता आज तार-तार हुई,
कौरवों की वाणी भी आज शुचिता पार हुई।

देखती जिस भी तरफ उस ओर अंधकार था,
कौरवों की उस सभा का गिर चुका व्यवहार था।
                   
कर्ण ने बोला सभी वस्त्र आज इसके तुम हरो,
हैं सभी ये दास अपने इनसे मन मुदित करो।

कर्ण के शब्द चुभ रहे थे चेतना को चीर कर,
कर रहे थे चोट पल-पल अस्मिता पर पीर पर।

बँट चुकी हो पाँच में अब सोचना बेकार है,
दासी हो कुरुवंश की सौ का भी अधिकार है।

अभिमान था जिस बात पर वो ही बनी लाचारी है,
थी हँसी उस रोज मुझपर आज मेरी बारी है।

जिस पाँच पर अभिमान तुझको आज मेरे दास हैं,
साँस की हर डोर उनकी आज मेरे पास है।

याचना की दृष्टि ले वो तक रही थी वीर को,
सोचती थी क्या करे कि तोड़े सबके धीर को।

हार कर के द्यूत में थे दास सारे बन चुके,
सूर्य से भी तेज जो निस्तेज हो कर गिर चुके।

शब्द ही जब न रहा तो बोलते क्या वो यहाँ,
और कहते क्या किसी से दास थे सारे वहाँ।

शोक था पसरा सभा में चाह कर कुछ कर सका न,
कृष्णा के क्रंदन वहाँ आज कोई सुन सका न।

बीच खड़ी दरबार के वो माँगती आज भिक्षा,
खत्म सब संस्कार थे नही बची थी आज शिक्षा।

नारी वस्तु नहीं कोई तुम जिसका मोल लगा बैठे,
क्या अधिकार कहो तुमको जो मुझको दाँव लगा बैठे।

है पितामह मौन क्यूँ जब मर्यादा भंग हुई,
लगता है जैसे धरती वीरों से तंग हुई।

दुर्योधन के छुद्र इशारे स्वाभिमान तड़पाते थे,
मर्यादा भी लज्जा से वहाँ गड़े जाते थे।

भूल चुकी राज सुख सभी भूल चुकी सब जन को,
भूल चुकी आज स्वयं भूल चुकी अपने तन को।

चीखते लम्हें रहे पर मौन सदियाँ हो गईं,
धूर्त औ दंभी गगन की छाँव पा कर सो गईं।

क्या कहे उस एक पल ने दर्द थे क्या-क्या सहे, 
लम्हों के उस घाव में सदियाँ ने क्या-क्या सहे।

दस दिशाएं चीखती थीं चीखते धरती गगन,
चीख उठे पंछी सारे चीख उठी पगली पवन।

मौन सब साम्राज्य था औ मौन थे सारे प्रहर,
दोष किस-किस पर मढ़ें जब मौन चेतन और जड़।

बाजुओं में भीम के सौ हाथियों का बल कहाँ,
पार्थ भी गाण्डीव जाने छोड़ आये थे कहाँ।

धर्म के मार्ग में जाने कैसी थी बाधा खड़ी,
सत्य के दरबार मे अब सत्य की किसको पड़ी।                      

कुरुवंश के आकाश का सूर्य क्या अस्त हो गया,
बाजुओं का जोर सारा क्या आज पस्त हो गया।

धर्मराज तुमने किया है धर्म का क्या काज बोलो,
सिर झुका कर मौन हो निर्बुद्धि हो क्या आज बोलो।

शकुनि के कुचालों को जान तुम क्यूँ न पाए,
चेतना क्या सुप्त थी जो यहाँ तुम दौड़ आए।

ब्याह कर लाये ही क्यूँ जब दाँव था मुझको लगाना,
उस सप्तपद का मोल क्या भूल गए जिसको निभाना।

किसने दिया अधिकार तुमको दासी हूँ मैं क्या तुम्हारी,
धर्म से क्या वासता क्या बुद्धि दूषित है तुम्हारी।

दाँव पर कैसे लगाया तुमने मुझको ये बताओ,
सिर झुकाए मौन हो क्यूँ धर्म हो तो मुख दिखाओ। 

धर्म का पर्याय कैसे मान लूँ इस बुद्धि को,
धिक्कारती हूँ मैं तुम्हारे मौन को, निर्बुद्धि को।

दस दिशायें गूँजती हैं न्यायप्रियता से तुम्हारे,
याचना किससे करूँ न्याय ही जब स्वयं हारे।

सहदेव पूछो ज्येष्ठ से ऐसे क्यूँ कर मौन हो,
दाँव मुझको जब लगाया पूछते के कौन हो।

प्रिय नकुल तुम तो यहाँ सब भाइयों में हो दुलारे,
ज्येष्ठ की इस बात को तुम सिर झुकाये क्यूँ स्वीकारे।

सच कहा है ग्रंथों ने नेह बस उससे लगाना,
आता हो जिसको यहाँ पर प्राण देकर प्रण निभाना।

धिक्कार है मुझको कि मेरे पाँच ऐसे हैं पिया,
जिनके रहते घूँट ये अपमान का मैंने पिया।

कहो श्रेष्ठ वीरों की सभा क्या नारी एक संपत्ति है,
बोलो पितामह मौन क्यूँ हो किस मन की ये उतपत्ति है।

पूछती हूँ आज सबसे क्या कुरुवंश का ये मान है,
क्या निर्वस्त्र करना नारी को नहीं वंश का अपमान है।

हार कर अपने को भी जो स्वयं का ही ना रहा,
उसका ये अधिकार मुझपर अब कहो कैसा रहा।

क्यूँ पति के हार का मोल पत्नी भी चुकाए,
नीति के मर्मज्ञ बोलें दाँव मुझे कैसे लगाए।

क्या करोगे राज्य लेकर चल सकोगे कैसे तन के,
बिन सकोगे क्या यहाँ पर मेरी लज्जा के ये मनके।

बैठे हैं दरबार में सब श्रेष्ठ कुल के और ज्ञानी,
कह सकेंगे श्रेष्ठ क्या दृष्टांत को अपनी जुबानी।

नग्न कर मुझको यहाँ पर बोलो तुम क्या पाओगे,
अपनी-अपनी मात को तुम कैसे मुख दिझलाओगे।

हाय क्यूँ अब इस घड़ी में कोई नीति कुछ न बोलती है,
देख कर अनीति ऐसी क्यों न शिराएं खौलती हैं।

उच्च कुल यदि है सभी का श्रेष्ठता दिखलाइये,
जिस कोख ने तुमको जना है उसको न लजाइये।

भीरू बन कर बैठे हैं सब वीर किसके पास जाऊँ,
कैसी विपदा है अभागन मैं कहो किसको सुनाऊँ।

बोलें कुल के श्रेष्ठ अब तो राष्ट्र के वो हैं प्रमुख,
गिर गयी जो लाज यदि तो कैसे आऊँगी मैं सम्मुख।

हे पितामह पूछती हूँ आप कुल के श्रेष्ठ ज्ञानी,
कैसे फिर कुरुवंश के ये पूत बन बैठे हैं कामी।

धिक्कार है इस वंश को जो इस कृत्य पर भी मौन है,
पूछती है ये सृष्टि सारी ये सत्य क्यूँकर मौन है।

थे डोलते जिसके कदम से ये धरा और आसमान,
कायरों की भाँति बैठे क्या यही उनका है मान। 

ये इतिहास पूछेगा जगत से सत्य क्यूँकर मौन है,
इस भ्रष्ट सत्ता के समक्ष ये शीश झुकाये कौन है।

अब तक मुझे था गर्व कितना के पार्थ हैं मेरे पिया,
ये भूल थी मेरी यहाँ क्यूँ विश्वास ये मैंने जिया।

मैंने सुना सौ हाथियों का बल भुजाओं में तुम्हारे,
क्यूँ सिर झुका कर मौन हो क्यूँ बैठे हो ऐसे बिचारे।

धिक्कार है ऐसी भुजा जो थाम न मुझको सकी,
क्या करूँ उस वीरता का न काम मेरे आ सकी।

सत्य की हे मूर्ति तुमको और मैं अब क्या कहूँ,
किस भँवर मुझको फँसाया कुछ कहो अब क्या करूँ।

तोड़ दो गांडीव अपना कुछ कहो किस काम का,
है मुझे अफसोस इतना पार्थ तुम वीर हो बस नाम का।

धिक्कारती हूँ कोख को जिस कोख ने तुमको जना है,
द्यूत की आड़ लेकर जो जाल तुम सबने बुना है।

किससे भावों को कहे किससे फिर अनुरोध हो,
लाज ही जब गिर पड़े तो क्यूँ किसी से मोह हो।

है कौन सा अपराध जो मौन हैं सारे यहाँ पर,
जो हैं सक्षम इस जगत में मौन क्यूँ बैठे यहाँ पर।

सिंहनी सी चाल जिसकी आज याचना कर रही,
लाज की खातिर सभी से प्रार्थना थी कर रही।

सुन रहे थे मौन हो सब उस रुदन चीत्कार को,
छोड़ शायद जा चुकी थी चेतना संसार को।

क्यूँ दिया आशीष मुझको भाग्य का सौभाग्य का,
मौन सहभागी बने जब स्वयं ही दुर्भाग्य का।

क्या करूँ बोलो पितामह क्यूँ झुकाया शीश है,
क्यूँ नहीं कहते कि मेरे शीश पर आशीष है।

मौन रह कर के यहाँ कहो सत्य क्या जी पाओगे,
कहो पितामह अश्रुओं की पीर क्या पी पाओगे।

आज आपके मौन से जो लाज मेरी हारेगी,
यहाँ आपकी भूमिका को हर सदी धिक्कारेगी।

आपके जिस नेत्र से धरती गगन सब काँपते हैं,
मौन होकर नेत्र बोलो क्यूँ बगल को झाँकते हैं।

जब गिरेगी लाज कुल की सह सकोगे क्या यहाँ,
और लज्जा बोझ से क्या जी सकोगे फिर यहाँ।

सत्य की प्रतिमूर्ति हो तुम तो धर्म का पर्याय हो,
मौन हो क्यूँ कर पितामह देख इस अन्याय को।

क्यूँ झुकाये शीश बैठे क्यूँ दृष्टि ये उठती नहीं,
नारी के अपमान पर भी छाती क्यूँ फटती नहीं।

कह सकोगे मात से क्या इस दृश्य को अपनी जुबानी,
हो रही दूषित पितामह गंगा माता का भी पानी।

डूब जाएगी धरा सारी आँसुओं की धार से,
जब गिरूँगी काल बनकर कुरुवंश के संसार पे।

शीर्ष मूँदे आँख जब-जब और भुजाएं क्षीण हों,
गात कैसे सह सकेगी खुद ही कहें इस पीर को।
                       
कुछ नहीं उत्तर मिला जब तात के सम्मुख हुई,
हाथ दोनों जोड़ कर थी पैर पर वो गिर गई।

अश्रु पलकों से उतरकर पैरों पर गिरते रहे,
याचना के पुष्प सारे अंक से झरते रहे।

कुछ कहो हे तात ऐसी धृष्टता को रोक दो,
बढ़ रहा जो हाथ मुझपर तात उसको रोक लो।

श्रेष्ठ सबमें हो यहाँ पर आप ही सत्ता प्रमुख,
हो रहा अपमान अब तो कुछ कहा हे तात सम्मुख।

कैसे जियूँगी मैं यहाँ पर झेल कर इस दंश को,
इतिहास सोचो क्या कहेगा कौरवों के वंश को।

पुत्रवधु हूँ आपकी मैं कुरुवंश की ही लाज हूँ,
रोकिए कुकृत्य को करती प्रार्थना मैं आज हूँ।

यदि मौन स्वीकृति आपकी आज इस विध्वंस को,
कल रोक पाओगे नहीं फिर काल के विध्वंस को।

जब न पाया हाथ अपने माथ पर आशीष का,
तब सुनाई द्रौपदी ने द्रोण के सम्मुख व्यथा।

मित्र हो मेरे पिता के मैं तुम्हारी नंदिनी,
याचना कर रही है तुमसे द्रुपद नन्दिनी।

जो हो पिता के मित्र यदि मेरे भी तो तात हो,
कुछ कहो चुप न रहो क्या तुम भी सबके साथ हो।

जो गिरेगी लाज खुद को माफ क्या कर पाओगे,
पाप के इस दाग को क्या साफ फिर कर पाओगे।

वीरता का पाठ तुमने क्या यही इनको पढ़ाया,
लाज से खिलवाड़ करना बोलो इनको कैसे आया।

साथ में शस्त्र शिक्षा के पाठ क्या ये भी पढ़ाया,
नारि का सम्मान करना क्यूँ नहीं इनको सिखाया।

समाज शिक्षक को सदैव श्रेष्ठ कह कर पूजता है,
फिर शिष्य के कुकृत्य पर क्यूँ कुछ नहीं सूझता है।

आज आपके मौन से मान शिक्षक का गिरेगा,
आपकी इस भूमिका को माफ ना कोई करेगा।

प्रतिबद्धता मात्र सत्ता से धर्म का अपमान है,
तुम ही कहो कुकृत्य क्या ये शीर्ष का सम्मान है।

विद्या विनय का स्रोत है क्या कह सकोगे फिर कभी,
ज्ञान दूषित गुरु द्रोण का क्या सुन सकोगे तुम कभी।

पुण्य है यदि शिष्य तो फिर मान शिक्षक का बढ़ा है,
पर पाप से हर शिष्य के मान शिक्षक का गिरा है।

इस एक पल की धृष्टता का पाप सबके सिर लगेगा,
हँस रहे मेरी व्यथा पर रक्त उनका भी बहेगा।

और किसके पास जाऊँ प्रार्थना किससे करूँ,
आप ही कुछ तो कहो मैं याचना किससे करूँ।

क्यूँ समय की चाल मद्धम आज क्यूँ रुकती नहीं,
मैं समा जाऊँ धरा में क्यूँ ये धरा फटती नहीं।

सहसा फिर गरजा सुयोधन है अब प्रतीक्षा और क्या,
सोचते क्या हो दुःशासन मन में तुम्हारे कुछ और क्या।

दासी ये कुरुवंश की अधिकार इस पर है हमारा,
आज छलनी हो रहेगा इसके मन का दर्प सारा।

पांच पतियों में बँटी हो हमसे है फिर कैसा लजाना,
अंक में बैठो हमारे हो दासी हमसे क्या छुपाना।

है शपथ मुझको सुयोधन तुझको न मैं छोड़ूंगा,
जिस अंग को तुमने दिखाया उसे युद्ध में मैं तोडूंगा।

है शपथ मुझको दुःशासन देव दानव सुन लें सभी,
तेरी छाती का पी लूँ लहू मैं चैन पाऊँगा तभी।

जिस भुजा से है छुआ द्रौपदी के केश को,
उखाड़ फेंकूँगा उसे खत्म कर दूँगा हर रेख को।

है शपथ मुझको यहाँ सुन लें सभा के श्रेष्ठ जन,
मारूँगा सौ भाइयों को क्या सुयोधन क्या दुःशासन।

द्रौपदी का यूँ रुदन यौद्धेय जब न देख पाया,
भाइयों के कृत्य पर प्रश्न फिर उसने उठाया।

अपमान करना नारी कुरुवंश का अपमान है,
सोचिए है ज्येष्ठ भ्राता ये कलुष है अज्ञान है।

सोचिए कुरवंशजों में क्या हमारी योग्यता है,
अपमान नारी शक्ति का न श्रेष्ठ है ये नीचता है।

जोड़ कर आज सम्मुख प्रार्थना मैं कर रहा,
कृत्य से कहो प्रिय मान कुल का कब रहा।

ये लाज अपने वंश की है न यूँ इसे गिराइए,
द्वेष की इस आग में न प्रतीति को जलाइये।

खेल था ये द्यूत का बस खेल तक ही श्रेष्ठ है,
कृत्य ऐसा शास्त्र में प्रिय खुद कहें क्या श्रेष्ठ है।

मैं अनुज प्रिय आपका कर रहा हूँ प्रार्थना,
त्यागिये मद, क्रोध सारा मेरी प्रिय से याचना।

ये मात्र नारी ही नहीं हैं ये मात हैं सम्मान हैं,
ज्येष्ठ कलुषित कृत्य ये कुरुवंश का अपमान है।

नारी के हर रूप का सम्मान शास्त्रों ने किया है,
मत भूलिये के जन्म हमको एक नारी ने दिया है।

नारी के अपमान का क्या बोझ प्रिय ढो पायेंगे,
लाख गंगा में नहायें प्रिय पाप न धो पायेंगे।

पत्नि हैं ये ज्येष्ठ की पूज्य हम सबके लिये हैं,
मात के समकक्ष हैं ये श्रेष्ठ हम सबके लिए हैं।

यौधेय के सुन कर वचन क्रोध में जलने लगा,
यौधेय दुर्योधन को वहाँ नेत्र में खलने लगा।

यूँ लग रहा भ्राता नहीं तू शत्रु का ही मीत है,
ये भूल है मेरी जो तुझको मान बैठा मीत मैं।

जो रक्त है कुरुवंश का तो शत्रु से व्यवहार क्यूँ,
यदि मानता है श्रेष्ठ मुझको तो शत्रु से है प्यार क्यूँ।

है तुझे यदि भीति कोई मूँद ले अपने नयन,
या कहीं तू बैठ जा छोड़ कर के ये भवन।

देर करते क्यूँ दुःशासन अब रहा जाता नहीं,
रूप के इस तेज को अब सहा जाता नहीं।

देख अत्याचार इतना मौन फिर ना रह सके,
क्रोध में हुंकार कर विदुर उद्वेलित हो उठे।

कर जोड़ बोले तात से ये कैसा अनाचार है,
हो रहा जो कुछ यहाँ क्या यही संस्कार है।

याचना है आपसे के आज इसको रोक दो,
पुत्रमोह छोड़ कर अन्याय को अब टोक दो।

आज यदि सब चुप रहे कुछ पास न रह जायेगा,
कटघरे में वक्त के इतिहास खुद को पाएगा।

हे पितामह क्यूँ मौन बैठे क्यूँ नहीं कुछ बोलते,
ऐसी है कैसी विवशता क्यूँ नहीं अब रोकते।

अब प्रार्थना मेरी सुनो हे पुत्र ये अन्याय है,
कर रहे जो कुछ यहाँ उसका न अभिप्राय है।

इस एक पल के दर्द से सभ्यता मिट जाएगी,
यूँ नारी के अपमान से ये सदी पछताएगी।

आदेश देता हूँ तुम्हें मैं पुत्र हर अधिकार से,
मत करो यूँ हीन कुल को अपने इस व्यवहार से।

छोड़ दो अपना सभी हठ रोक दो कुकृत्य को,
गर्व से क्या कह सकोगे तुम कहो इस कृत्य को।

द्वेष के इस आग में सम्मान मत जलाइये,
नारी के सम्मान को मत भीति में मिलाइये।

जो शत्रुता है भाइयों से उनसे ही निभाइये,
कुरुवंश के सम्मान को यूँ माटी न मिलाइये।


हो दास पुत्र मात्र तुम अब और कुछ भी मत कहो,
कह चुके हो तुम बहुत अब श्रेष्ठ होगा चुप रहो।

आदेश है मेरा तुम्हें अब और कुछ मत बोलना,
ऐसा न हो तुमसे मुझे भी रिश्ता पड़े सब तोड़ना।

धिक्कार है कुरुवंश को जो श्रेष्ठ सारे मौन हैं,
मैं पूछता हूँ ज्येष्ठ से के इसके पीछे कौन है।

कुरुवंश की इस सभा में न धर्म का अब स्थान है,
जो रहा मैं इस सभा में तो धर्म का अपमान है।

याद रखना शब्द मेरे काल विकट अब आयेगा,
धर्म के इस युद्ध में कुरुवंश ये चुक जाएगा।

देखते ही देखते संस्कार सारे गिर गए,
क्षोभ वश छोड़ वहाँ से दरबार फिर विदुर गये।

सूझता कुछ भी नहीं मुझको यहाँ अब आज तो,
क्या करूँ मैं अब जतन कैसे बचाऊँ लाज को।

कैसे दिखलाऊँगी अब मैं मुख यहाँ समाज को,
श्राप देती हूँ यहाँ मैं ऐसे भूपति राज को।

बैठे हैं निर्लज्ज सारे न लाज इनको आयेगी,
कौरवों की इस सभा में क्या लाज उसकी जायेगी।

मौन जो बैठे सभा में प्रश्न उनपर भी उठेगा,
प्रतिशोध के इस ज्वाल में मान उनका भी जलेगा।

वक्त जब जब भी लिखेगा द्यूत के इतिहास को,
काले अक्षर में लिखेगा वंश के इतिहास को।

नपुंसकों की सभा को आज मैं धिक्कारती हूँ,
जो पुरुष हैं इस सभा में उनको मैं ललकारती हूँ।

क्रोध से कभी काँपती कभी याचना करती वहाँ,
बस देखती कातर नयन से प्रार्थना करती वहाँ।

था दर्प में डूबा दुःशासन हाथ थामे चीर को,
जब कुटिलता मदमस्त होती वो सुने कब पीर को।

हो शीश पर जब तक नशा सत्ता और अभिमान का,
वो सोचता है कब किसी के मान का अपमान का।

सूझता कुछ भी नहीं ये कैसी विपदा आयी है,
जाने कैसे मोड़ पर विधना मुझे ले आयी है।

क्यूँ टूटता अंबर नहीं क्यूँ ये धरा फटती नहीं,
है किस जनम का पाप ये क्यूँ धुंध ये छँटती नहीं।

आंधियों में बल नहीं अब न जलधि में ज्वार है,
सब टूटती है आस सारी सब टूटता मनुहार है।

कौरवों की इस सभा में झुका सभी का शीश है,
हाय अबला की विपत में आस बस जगदीश है।

उँगली उठाया कर्ण ने जब देख उसकी ओर पे,
तब याद आये द्रौपदी को श्याम अंतिम छोर पे।

जब नहीं उत्तर मिला औ याचनाएं मौन हुई,
जब आँचल से निकलकर प्रार्थनाएं मौन हुईं।

और जब सूझा नहीं कुछ मार्ग इस संसार में
ध्यान फिर उसने लगाया स्वयं तारण हार में।
                 
इस जगत का ज्ञान तुम हो और घट-घट के निवासी,
सत्य सनातन हो तुम्हीं और तुम ही मात्र साथी।

देर तुमसे हो न जाये आ बाँह मेरी थाम लो,
टूट कर मैं गिर न जाऊँ आकर मुझे अब थाम लो।

चक्र से जब अंगुली में चीर केशव के लगी थी,
रक्त रंजित अंगुली को देख पीड़ा मन में जगी थी।

चीर आँचल कोर उसने जो सूत्र में बाँधा वहाँ,
द्रौपदी के प्रेम ने था श्री कृष्ण को साधा वहाँ।

जिसको बाँधा चीर उस पल उसका ही अब आसरा,
उसके रहते हानि क्या कर सकेगा कोई मेरा।

मेरी करुण याचना वहाँ द्वार तक जब जायेगी,
कैसी निद्रा में रहें वो खींच उनको लायेगी।

जानती हूँ छोड़ मुझको कभी नहीं रह पायेंगे,
जानेंगे जब हाल मिरा दौड़े-दौड़े आयेंगे।

बीच अपनों के खड़ी पर जाने क्या लाचारी थी,
श्रेष्ठ वीरों की सभा में आज बनी बेचारी थी।

कहते रचियता सृष्टि के और जगत के दाता हो,
कैसे मानूँ मैं तुम्हें के तुम जगत विधाता हो।

पालते हो तुम जगत को तुम ही जग के त्राता हो,
इस जगत में द्रौपदी के तुम ही केवल भ्राता हो।

रहते भ्राता आपके यदि लाज ये लुट जायेगी,
सत्य कहती हूँ तुम्हारी सृष्टि भी चुक जायेगी।

क्या झूठ हैं रिश्ते सभी क्या झूठा ये समाज है,
सुनते नहीं हो भ्राता क्यूँ क्या मेरा अपराध है।

वीर बैठे मौन सारे जाने क्या लाचारी है,
आज कृष्णा पर तिहारे आयी विपदा भारी है।

आज विपदा कालिमा बन कर के नभ में छाई है,
क्यूँ तुम्हारे आने में क्या कोई कठिनाई है।

तुम कहा करते थे हरदम श्रेष्ठ तेरा भाई है,
हो कोई विपदा इस जगत तुमसे न छुप पाई है।

आज विपदा की घटायें काली मुझ पर छाई है,
देखते तुम क्यों नहीं हो कैसी ये कठिनाई है।

सूत के बदले कहा था न भूल इसको पाऊँगा,
जब पुकारोगी मुझे, मैं दौड़ा-दौड़ा आऊँगा।

भीर गज पर जब पड़ी तब तुमने मिटाई पीर सारा,
दौड़ आते क्यों नहीं तुम दोष क्या बोलो हमारा।

यदि आपके होते हुए भी पाप ये हो जाएगा,
सूत्र बंधन से जगत का विश्वास ये उठ जायेगा।

नीचता कैसे सुनाऊँ कितना सहूँ अपमान को,
आकर तोड़ते क्यूँ नहीं इस दुष्ट के अभिमान को।

कक्ष के लोगों सुनो ये अंत तुम सबके लिए है,
मेरे वीर के चक्र में दंड तुम सबके लिए है।

हे पितामह द्रोण कुलगुरु और ये कुरुवंश सुन ले,
काल तुम सबका निकट है स्वयं अपना मार्ग चुन लें।

निज पुत्र वधु के हाल पर जो आज बैठे मौन हैं,
वज्र जब उनपर गिरेगा न देखेगा के कौन हैं।

धिक्कार है कुरुसभा को करुणा जिनके हृदय नहीं,
मृत्यु हैं वो शून्य हैं सब हिय में जिनके विनय नहीं।



है मुझे विश्वास इतना भाई मेरा आएगा,
शीश पर तुम दुष्ट जनों के काल बनकर छाएगा।

जो अभी तक समझ ही न पाया स्नेह को ममत्व को,
कब हृदय वो जान पायेगा नारी के महत्व को।

क्या नहीं बचाओगे तुम आ यहाँ मेरे सत्व को,
कहीं निगल जाये ना ऐसे दुष्टता मनुजत्व को।

जो हुआ अपमान मेरा मुख क्या दिखला पाओगे,
यदि तुम नहीं आये यहाँ मुझे न जीवित पाओगे।

जो भी हो जिस हाल में जैसे भी हो पास आओ,
इस नराधम नीच पापी से मुझे आकर बचाओ।

अब छोड़िए मुरली मुकुट बस चक्र लेकर आइये,
इन पापियों को रौद्र अपना आ यहाँ दिखलाइये।

जब बहिन विपदा में हो भाई का सामर्थ्य कैसा,
इस घड़ी यदि तुम न आये संबन्ध का अर्थ कैसा।

छोड़ कर मथुरा बसे हो ये है मुझे सब कुछ पता,
हो रहा क्या साथ मेरे क्या है नहीं तुमको पता।

विश्वास तुम पर जो मेरा आज न वो टूट जाये,
ऐसा न हो प्रतीक्षा में साँस मेरी छूट जाये।

कोर के हर अश्रुओं का मोल तुमको है चुकाना,
हो रहे अपमान का प्रतिशोध तुमको है चुकाना।

ये न समझो पापियों कि भाई तुमको छोड़ देगा,
जिस दर्प में डूबे हुए हो दर्प सारा तोड़ देगा।

अश्रु ये जो झर रहे हैं हो व्यर्थ न जायें कहीं,
होते हुए भी तुम्हारे मान न गिर जाये कहीं।

अब आस बस तुमसे बँधी है इसको न अब तोड़िये,
विपत की इस घड़ी में मुझे न यूँ अकेला छोड़िए।

जब आपदा गहराएगी याद अपने आयेंगे,
बंधन जिनसे हो हृदय का तोड़ कैसे पायेंगे।

हो दया का स्रोत तुम ही श्रेष्ठ हो तुम और दानी,
इस जगत में कौन तुमसे श्रेष्ठ बोलो और ज्ञानी।

शून्य हैं सबके हृदय अब मैं व्यथा किसको सुनाऊँ,
तुम नहीं आये अगर तो लाज मैं कैसे बचाऊँ।

टूटता है धैर्य मेरा विश्वास भी अब थक रहा,
क्षीण होती शक्ति सारी अब आत्मबल भी थक रहा।

है कलुष आकाश सारा कलुषित यहाँ परिवेश है,
पुकारते तुमको केशव मेरे खुले ये केश हैं।

छोड़िए सब रास केशव इस क्षण कहीं मत जाइये,
अपने सखी की लाज खातिर दौड़ कर आ जाइये।

छोड़िये अपना मुकुट अब छोड़िये श्रृंगार सारा,
आपदा जब द्वार पर हो देखता है कौन सारा।

देह पर जो भी वसन है केशव उसी में आइये,
अपने बहन की लाज को आ शीघ्र अब बचाइये।

इन आँसुओं को आज यदि देख नहीं तुम पाओगे,
सच कहती भाई सारी उमर यहाँ पछताओगे।

विध्वंस की घड़ी है नाथ आज यूँ न मुख छुपाइये,
मेरे अश्रुओं को देखिये न देर अब लगाइये।

आज आप जो न आ सके कुछ शेष न रह जायेगा,
तो प्राण ये तजूंगी मैं अवशेष न रह जायेगा।











इन अश्रुओं की धार का अब मोल क्या कुछ भी नहीं,
नारी के सम्मान का
अश्रुओं की धार ही क्या 






खींचना वो चीर तब सारी क्षमता पार हुआ
वस्त्र के रूप में जब माधव का अवतार हुआ
थी लिखी उस दिन कथा तब क्षोभ औ अपमान की
और टूटे थे मिथक सब सत्य के अवदान की।।27।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19सितंबर, 2022




अवदान- पराक्रम




बूँदों को वनवास मिला।

बूँदों को वनवास मिला।  

मन ने भित्ति चित्र पर कितने उम्मीदों ने चित्र बनाये
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

जाने कैसी रही भूमिका पलकों से जो स्वप्न गिरे
जाने कैसे गिरी बिजलियाँ जीवन के सब रंग झरे
रीता मन का आँचल कैसे, कैसे खुशियाँ मुरझाईं
कैसे मन का दर्पण टूटा, छूटी कैसे परछाईं
दर्पण ने जब कहना चाहा पलकों का अहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

इस अस्थि पंजर से लिपट कर क्यूँ मौन मन व्याकुल रहा
क्यूँ दूर तक जीवन सफर ने कब क्या कहे आकुल रहा
फिर क्यूँ तड़पती आह मन की साँस में आकर समाई
औ क्यूँ विकल होकर हृदय से, आँख फिर से डबडबाई
जब-जब नैन से नीर निकले मोक्ष का एहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

अब क्या कहूँ क्यूँ कर जलाती व्यर्थ में मन को तपन ये
अब क्या कहूँ क्यूँ कर रुलाती व्यर्थ आहों की अगन ये
किये लम्हों ने कुछ फासले औ दूर सदियाँ हो गईं
इक भोर को तकती निगाहें उस रात में ही खो गयीं
ऐसा ही होना था शायद नेह को अवकाश मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर, 2022

तेरे गीत सजा रखा है।

 गीत सजा रखा है।  

तेरी यादों के चिरागों को जला रक्खा है 
दिल का दरवाजा मैंने अब तक खुला रखा है।।

अब कहने को तो है रात ये घनेरी माना
पर उम्मीद का एक दीपक जला रखा है।।

मेरी तनहाइयाँ भी कहीं छोड़ न दें मुझको
मैंने रुसवाइयों को गले से लगा रखा है।।

शाम होते ही ये सड़कें भी चली जाती हैं
लगता है कहीं दूर नया गाँव बसा रखा है।।

अब तो चाहत है यही "देव" के लिखता जाऊँ
तूने जो गीत दिये अधरों पे सजा रखा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        16सितंबर, 2022

नेह का निमंत्रण।

नेह का निमंत्रण। 

है दिवस अवसान को औ रोशनी मद्धम हुई है
दूर पीछे बादलों के साँझ की शबनम गिरी है
शब्द साँसों में मचलकर कर रहे देखो समर्पण
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

हूँ खड़ा कब से यहाँ मैं देख लो सागर किनारे
शून्य को तकती निगाहें, साँस तुमको ही पुकारे
बस गए हो नैन में तुम बन के मेरा आत्म दर्पण
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

उम्मीद की सब रश्मियाँ सांध्य में ही खो न जायें
स्वप्न जो तुमसे जुड़े हैं शून्य में ही खो न जाये
खो न जाये आस मन के नयन में भर दो किरण धन
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

लौट कर जो आ गया तो स्वयं को न पा सकूँगा
कल्पनाओं के सफर में मैं न फिर से जा सकूँगा
हो रहा उद्विग्न मन ये तुम दिखाओ राह नूतन
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15सितंबर, 2022

यादें।

यादें।   

तेरी यादों के चिरागों को जलाया मैंने
खुद को खुद से ही आज फिर से मिलाया मैंने।।

बाद बरसों के इन हवाओं ने दस्तक दी है
आरजुओं को फिर हवाओं से मिलाया मैंने।।

बात कुछ ऐसी थी के चाह कर भी कह न सके
बारहा दिल के जज्बातों को भुलाया मैंने।।

अब तो यादों के सिवा कुछ भी नहीं है अपना
"देव" यादों में ही यादों को मिलाया मैंने

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14सितंबर, 2022


मुक्तक।

मुक्तक।   

चंदा से सितारों से तुम्हारी बात करता हूँ
अपने गीत गजलों में तुम्हें ही याद करता हूँ
कहे कुछ भी यहाँ कोई मगर सच है यही सुन लो
तुम्हारे जीत की हरपल मैं फरियाद करता हूँ।।

**************

तुम्हारी याद अधरों पर तुम्हारे गीत अधरों पर
तुम्हारी हार अधरों पर तुम्हारी जीत अधरों पर
हैं नयनों ने बसा रखे सुहानी वो मुलाकातें
लिखे जो मौन ने उस पल सुहानी प्रीत अधरों पर।।

*************

कहना क्या किसी से अब औ सुनना क्या किसी से है
मिलना क्या किसी से और बिछड़ना क्या किसी से है
कब ठहरा समय बोलो महज यादें ही रहती हैं
इन यादों के साये में लिपटना क्या किसी से है।।

***********

मैं अपनी नींद पलकों की तुम्हारी नींद पर वारूँ
मैं अपने स्वप्न सारे अब तुम्हारे स्वप्न पर वारूँ
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर दोनों को है मालूम
तुम्हारी जीत की खातिर मैं अपनी जीत सब वारूँ।।

*************

तुम्हारे शब्द गीतों में मैं लिखता हूँ सुनाता हूँ
कभी गाये जो संग-संग में अब भी गुनगुनाता हूँ
भरी महफ़िल में अब भी जब तुम्हारी बात चलती है
मैं खुद से बात करता हूँ मैं खुद ही मुस्कुराता हूँ।।

*************

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13सितंबर, 2022

मुक्तक।

मुक्तक।   

चंदा से सितारों से तुम्हारी बात करता हूँ
अपने गीत गजलों में तुम्हें ही याद करता हूँ
कहे कुछ भी यहाँ कोई मगर सच है यही सुन लो
तुम्हारे जीत की हरपल मैं फरियाद करता हूँ।।

**************

तुम्हारी याद अधरों पर तुम्हारे गीत अधरों पर
तुम्हारी हार अधरों पर तुम्हारी जीत अधरों पर
हैं नयनों ने बसा रखे सुहानी वो मुलाकातें
लिखे जो मौन ने उस पल सुहानी प्रीत अधरों पर।।

*************

कहना क्या किसी से अब औ सुनना क्या किसी से है
मिलना क्या किसी से और बिछड़ना क्या किसी से है
कब ठहरा समय बोलो महज यादें ही रहती हैं
इन यादों के साये में लिपटना क्या किसी से है।।

***********

मैं अपनी नींद पलकों की तुम्हारी नींद पर वारूँ
मैं अपने स्वप्न सारे अब तुम्हारे स्वप्न पर वारूँ
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर दोनों को है मालूम
तुम्हारी जीत की खातिर मैं अपनी जीत सब वारूँ।।

*************

तुम्हारे शब्द गीतों में मैं लिखता हूँ सुनाता हूँ
कभी गाये जो संग-संग में अब भी गुनगुनाता हूँ
भरी महफ़िल में अब भी जब तुम्हारी बात चलती है
मैं खुद से बात करता हूँ मैं खुद ही मुस्कुराता हूँ।।

*************

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13सितंबर, 2022

वरदान है हिंदी।

वरदान है हिंदी।  

मेरे अंतस के भावों की मधुर पहचान है हिंदी
हमारी आन हमारा मान हमारी शान है हिंदी
कई भाषा कई बोली कई लिपियों की जननी है
जो सबको सूत्र में बाँधे वो हिंदुस्तान है हिंदी।।

दिलों को जोड़ती है ये मनुज को पास लाती है
अँधेरा हो घना कितना ज्ञान की लौ जलाती है
चाहे पूरब हो पश्चिम हो या उत्तर हो दक्षिण हो
जो सभी के भाव हर्षाये नवल निर्माण है हिंदी।।

दिलों में प्रीत का पोषक सुखद आधार है हिंदी
शिक्षा, संस्कृति, ज्ञान, आचरण औ व्यवहार है हिंदी
जलाये प्रेम का दीपक औ मिटाये द्वेष जो मन से
दिलाये जो मनुजता को उचित अधिकार है हिंदी।।

कभी मीरा, कभी तुलसी, कभी रसखान है हिंदी
हृदय के भाव जो समझे वही अभियान है हिंदी
बढ़ाएं मान हम इसका मिटा कर द्वंद भाषा के
लिखे जो गीत उन्नति के वही वरदान है हिंदी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12सितंबर, 2022

आँसू।

आँसू।  

दिल की तनहाई के जज्बात हमारे आँसू
अनकहे भाव के सौगात ये प्यारे  आँसू।।

लाख चाहा मगर पलकों से  सँभाला न गया 
टूट कर गिर गये बन करके सितारे आँसू।।

अजब ही दौर है दुनिया के चलन का यारो
हैं ये बिगड़े हुए हालात के हैं मारे आँसू।।

आ के रुक जाते हैं पलकों के किनारे अकसर
चाह कर कह न सके कुछ भी बिचारे आँसू।।

किससे शिकवा करें ऐ "देव" शिकायत किससे
बन के मुजरिम खड़े हैं आज हमारे आँसू।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
      10सितंबर, 2022


तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

गुपचुप-गुमसुम मौसम है जाने ये कैसी रूत आई है
जब तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

वो चाँद सितारों वाली रातें खत्म न होने वाली बातें
कितना कुछ था कहना तुमको फिर कैसी चुप सी छाई है।।

ऐसी ही थी साँझ सुहानी जब हम पहली बार मिले थे
आज वही मौसम है देखो औ फिर से वो पुरवाई है।।

कितने सपने कभी सजाये नयनों ने एकाकी पन में
आज मिले हैं जब हम औ तुम फिर पलकें क्यूँ शरमाई हैं।।

कितने लम्हे बीत गए हैं खुद को जी भर कर ना देखा
तेरी आँखों में देखा जब ये किस्मत भी इतराई है।।

चलो जलायें दीप खुशी के अंतस के सूने आँगन में
चलो सजा लें अपने मन को फिर "देव" दिवाली आई है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        10सितंबर, 2022

जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

मौन शब्द की पीड़ाओं को कैसे जग तक पहुँचाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितनी तड़पन कितनी आहें कितनी मन की आशाएँ
पल-पल उमड़ रहीं अंतस में जाने कितनी धाराएँ
धारा को आश्वासन का देता कैसे कहो दिलासा
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

जब अधरों के कंपन से कुछ शब्द भटकने लगते हैं
जब पलकों के कोरों से सब भाव टपकने लगते हैं
तब भावों के महासमर से कैसे मन बाहर आता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितने सपने कितनी यादें पग-पग कितनी गाथाएँ
छोटे से जीवन में कितनी लिख डाली हैं कवितायें
जो कलम सहारा ना होता कवि को कौन समझ पाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितनी रातें रोशन कर दीं उसका भाव नहीं देखा
जलता दीपक सबने देखा उसका घाव नहीं देखा
जलते दीपक के भावों को कैसे कोई पढ़ पाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

है कोई अफसोस नहीं अब जग से मैंने क्या पाया
जो माथे की रेख छपा था वो मेरे आँचल आया
किस्मत से अब बैर नहीं है भावों से गहरा नाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2022

पैसे का प्रभाव या अभाव।

पैसे का प्रभाव या अभाव।  

पैसा ऐसी चीज है जिसने सबको नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

सब भावों पर इसका पहरा दुनिया पर ये भारी है 
इसकी एक झलक पाने को दुनिया सब कुछ हारी है
अब तो ऐसा लगता जैसे नैतिकता है बस बातें
इसके आगे नतमस्तक हैं क्या रिश्ते औ क्या नाते
इसकी खन-खन ने दुनिया को पल-पल नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसके ही आगे देखा है ये सारी दुनिया झुकती है
बस जिस्म नहीं इसके आगे सभी शराफत बिकती है
सिंहासन तक झुक जाते हैं सरकार खरीदे जाते हैं
इंसानों की क्या बता यहाँ भगवान खरीदे जाते हैं
गीता वेद पुराण ऋषि मुनि का ज्ञान सभी ने भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसकी ताकत के आगे दुनिया के टुकड़े देखा है
भूख, गरीबी, लाचारी का गर्दन जकड़े देखा है
इसके आगे सपने क्या ईमान धरम बंट जाते हैं
जिस आँचल ने पाला, हूँ हैरान कफ़न बंट जाते हैं
इसकी छन-छन के आगे आँचल का मान भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

पैसों की ताकत से दुनिया मे इंसान खरीदे जाते हैं
लाज शरम बाजारों में है ईमान खरीदे जाते हैं
पैसों के दम पर दुनिया के टुकड़े-टुकड़े कर बैठे
धरती माता के आँचल के टुकड़े-टुकड़े कर बैठे
खुद को जीने की खातिर माँ ने आँचल फिर फैलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022




©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022


पैसे का प्रभाव या अभाव।

पैसे का प्रभाव या अभाव।  

पैसा ऐसी चीज है जिसने सबको नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

सब भावों पर इसका पहरा दुनिया पर ये भारी है 
इसकी एक झलक पाने को दुनिया सब कुछ हारी है
अब तो ऐसा लगता जैसे नैतिकता है बस बातें
इसके आगे नतमस्तक हैं क्या रिश्ते औ क्या नाते
इसकी खन-खन ने दुनिया को पल-पल नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसके ही आगे देखा है ये सारी दुनिया झुकती है
बस जिस्म नहीं इसके आगे सभी शराफत बिकती है
सिंहासन तक झुक जाते हैं सरकार खरीदे जाते हैं
इंसानों की क्या बता यहाँ भगवान खरीदे जाते हैं
गीता वेद पुराण ऋषि मुनि का ज्ञान सभी ने भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसकी ताकत के आगे दुनिया के टुकड़े देखा है
भूख, गरीबी, लाचारी का गर्दन जकड़े देखा है
इसके आगे सपने क्या ईमान धरम बंट जाते हैं
जिस आँचल ने पाला, हूँ हैरान कफ़न बंट जाते हैं
इसकी छन-छन के आगे आँचल का मान भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022


दूर कहीं तेरा साहिल।

दूर कहीं तेरा साहिल।  

यादों की भूल भुलैया में
उलझ-उलझ कर भटका मन
बीते मंजर उमड़ रहे हैं
पलकों में आँसू बन-बन
बोझ अश्रु का कौन सँभाले
नयनों में आते पल-पल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

पीछे मुड़ कर देख रहा क्या
तुझको कौन पुकारेगा
राहों में जो ठोकर खायी
आकर कौन सँभालेगा
छोटे से इस जीवन मे है
कितनी बड़ी-बड़ी हलचल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

तुझ पर जो आरोप लगे हैं
उसी आग में जलता जा
अपनी लाश उठा काँधे पे
यहाँ अकेला चलता जा
आहों के उस पार निकल जा
यहाँ नहीं तेरी मंजिल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05सितंबर, 2022


पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

यादों के मानसरोवर में श्वेत हंस की टोली
मन के नील गगन को शोभित करती ज्यूँ रंगोली
सुरभित भाव हुए अंतस के छवि देखी तब न्यारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

कुसमित हैं सब अंग-अंग अधरों ने बंधन खोला
पुण्य प्रेम की पावनता से पपिहे का मन डोला
सुधियों के पथ चलकर आयी साँसों में फुलवारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

अंतस में भावों की हलचल आशाएँ पुलकित पल-पल
सुधियों को राह सुझाती मिलन विकल मन की हलचल
साँसों में मुखरित हो जैसे गीतायन की क्यारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04सितंबर, 2022

स्वर ने सीवन खोले।।

स्वर ने सीवन खोले।  

सुधियों ने पैबंद हटाये मन ने सीलन खोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

वादों में अनुवादों में कुछ भावों की अमराई
जब-जब साँसें मुखर हुईं पावस ने ली अँगड़ाई
यादों के अनुबंध खुले पलकों ने मृदु जल घोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

मधुमय करता जीवन सारा मीठी-मीठी बातें
उलझन मन की खुल जाती हैं खुल जाती हैं गाँठें
मिल जाते जब भाव हृदय के मन का भँवरा डोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

धूप-छाँव जीवन के पहलू पग-पग राह दिखाते
ऊँच-नीच जीवन के प्रतिपल हमको ये समझाते
अंतर्मन में निहित अँधेरे ज्ञान ज्योति जब खोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03सितंबर, 2022

इस सफर को चलो हम नया नाम दें।

इस सफर को चलो हम नया नाम दें।

भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें
मन की पीड़ाओं को करें हम परे
इक दूजे को न कोई इल्जाम दें।।

तुम मुझे थाम लो मैं तुम्हें थाम लूँ
मैं तुम्हें हाथ दूँ तुम मुझे हाथ दो
तुम्हारी धरा को मैं अपना कहूँ
तुम भी मुझसे मेरा आकाश लो।।

स्वप्न में भी कभी आस टूटे नहीं
रिश्तों को इक नया फिर आयाम दें
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।

सिर्फ यादों में ही रह न जाये कहीं
छूट जाये न मुट्ठी से लम्हे कहीं
जिक्र साँसों में जब भी कहीं भी चले
मेरी हर साँस में बस तेरा नाम हो।।

जीतने की खुशी में यूँ बहके नहीं
एक दूजे को हम इतना सम्मान दें
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।

हर कदम जिंदगी की कहानी नई
साथ हम तुम लिखें जिंदगानी नई
मैं तुम्हें प्यार दूँ तुम मुझे प्यार दो
मेरे गीतों को साँसों से आकार दो।।

पृष्ठ पर लेखनी अब लिखे इस कदर
छंद-छंद गीत का प्रेम का भान दे
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।




©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02सितंबर, 2022

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ
कैसे बीत रहे हैं पल छिन कैसे मैं बतलाऊँ।।

आभासी हो गये सभी पल पास नहीं कुछ अपने
भोर नहीं होने पाए थे टूटे सारे सपने
पलकों ने था लाख सँभाला रोक नहीं पर पाये
आँसू बन सब शब्द गिरे अधरों को नहलाये
अधरों के उस कंपन को अब कैसे मैं समझाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

कितना कुछ था कहने को पर तुमसे कह ना पाये
भावों का आँगन सूना था तुम बिन रह ना पाये
जाने थे वो कैसे बंधन जिसने मन उलझाया
जाने मन उन दहलीजों को लाँघ नहीं क्यूँ पाया
घुटी-घुटी थी चीख कंठ में कैसे कहो सुनाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

कर लेता स्वीकार सभी आरोप लगे जो मुझपर
सह लेता मैं दंड सभी वो, जो तुम देती हँसकर
होती नहीं शिकायत जग से शिकवा क्यूँ कर करता
जो तुम मुझसे कह देती सब बात हृदय की खुलकर
कितने मन के दर्पण टूटे कैसे मैं दिखलाऊँ 
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

अपने मन की आहों को अब कैसे तुम सहती हो
बस इतना बतला दो कैसे मेरे बिन रहती हो
क्या अब भी बागों में कोयल कुहुक-कुहुक गाती है
क्या अब भी तेरी साँसों से मेरी खुशबू आती है
तुम बिन जीवन के प्रश्नों का उत्तर कैसे पाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2022

गणपति जी पर दोहे।

गणपति जी पर दोहे।  

कलुष निकंदन पूज्य प्रभु, तुम हो देव महान
संकट सारे दूर हों, दो ऐसा वरदान।।

रिद्धि सिद्धि के देवता, पूर्ण करो सब काज
मंगलकारी देवता, रखो हमारी लाज।।

जग की सब बाधा हरो, गौरी तनय गणेश
जीवन हो सुखमय सभी, रहे न कहीं कलेश।।

ऐसा दो आशीष प्रभु, रहे न मन में दोष
सबके कारज पूर्ण हों, मन में हो संतोष।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31अगस्त, 2022

तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

हँसकर अपनी आहों को आ गीतों में यूँ ढालें हम
तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

मैं तेरी पीड़ाएँ चुन लूँ तुम भी मेरी पीर चुनो
मैं तेरी आहों को सुन लूँ तुम भी मेरी आह सुनो
इक दूजे के सपनों में हम निज सपनों को ढूँढें
मैं राहों के कंटक बिन लूँ तुम भी मेरी राह बुनो।।

तुम औ मैं के मौन सफर में मिलें एक हो जायें हम
तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

तुम मेरे सपनों को जी लो मैं भी तेरे स्वप्न जियूँ
तुम मेरे घावों को सी दो मैं भी तेरे घाव सियूँ
इक दूजे की आहों में बस इक दूजे को अपनाएं
तुम मेरे आँसू पी जाओ मैं भी तेरे अश्रु पियूँ।।

अधरों पर ऐसे बस जायें बनें गीत की हम सरगम
तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

आ नींद ओढ़ लो तुम मेरे, तेरे सपनों में आऊँ
तुमने जो भी गीत लिखे हैं जीवन भर उसको गाऊँ
होंगे अपने दिवस सुनहरे रातें अपनी बनें दिवाली
दूर क्षितिज तक आशाओं का आँचल कभी न ही खाली।।

ताप धूप की सर्द रात का मिलकर सितम सहेंगे हम
तुम बन जाओ छंद गीत का जिसको मिलकर गायें हम।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31अगस्त, 2022

अब वो बात नहीं होती।

अब वो बात नहीं होती।  

जाने क्या बात है के बात नहीं होती है
नम तो होती हैं मगर आँख नहीं रोती है।।

हिचकियाँ आती रही रात भर जाने यूँ ही
होंठों ने चाहा मगर नाम नहीं लेती हैं।।

सुबह से नजरें लगा रखी हैं दरवाजे पे
जाने क्या बात है जो साँझ नहीं होती है।।

निकलता है सूरज भी चंदा भी रोज मगर
पर वो पहली सी सुबह, रात नहीं होती है।।

उन सपनों को छिपा रखे हैं पलकों में कहीं
रात तो होती है पर आँख नहीं सोती है।।

तेरी यादों को कांधों पे लिए चलते हैं
सीधे चलते हैं अब अगलात नहीं होती है।।

ये आँसू भी अब बादल बन गये हैं सारे
नम करते हैं मगर बरसात नहीं होती है।।

लिखने को लिखते हैं बहुत 'देव" मगर फिर भी
गीत गजलों में अब वो बात नहीं होती है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अगस्त, 2022



तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

मन के भीतर कितनी यादें
हैं शोर कहीं पर, सन्नाटे
यादों के कुछ उजले पन्ने
स्याह अँधेरी कुछ थी रातें
मन में कितने पल पलते हैं
तेरे खत को जग पढ़ते हैं।।

दूर क्षितिज तक आना जाना
सपनों का ले ताना बाना
पदचिन्हों की कई निशानी
कुछ अनजानी कुछ पहचानी
कितना कुछ मन में गढ़ते है 
तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

नयनों में गीतों का दर्पण
कुछ पाया कुछ किया समर्पण
कुछ ने अंतस को बहलाया
मन के घावों को सहलाया
कुछ में कितना कुछ कहते हैं
तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

बरगद की वो छाँव पुरानी
पुरवा वाली रात सुहानी
पावस की वो शीतल रातें
नयनों से नयनों की बातें
तारों से बातें करते हैं
तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

उम्र से लंबी होती रातें
रातों से भी लंबी बातें
वीथी पे फिर नई कहानी
भाव मनहरे पंक्ति पुरानी
पलकों को फिर नम करते हैं
तेरे खत को जब पढ़ते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अगस्त, 2022

पलकों में आँसू बोया था।

पलकों में आँसू बोया था।

तब मन मेरा था अकुलाया
जब मुझको संदेशा आया
खुद को मोड़ लिया तब मैंने
तुमसे जोड़ लिया तब मैंने
जागा था तब भाव समंदर
मेरे भी अंतस के अंदर
लगा समय खुद से मिलने का
मुरझाकर फिर से खिलने का
तुमको पाकर भी खोया था
पलकों में आँसू बोया था।।

मन में कितनी बातें आईं
यादों की सौगातें लाईं
कुछ ने हृदय को किया अधीर
कुछ पुनः जगाई मन की पीर
कुछ ने भावों को सहलाया
कुछ ने पलकों को बहलाया
कुछ ने मन को दिया सहारा
कुछ ने मन से किया किनारा
कुछ पाकर मन कुछ खोया था
पलकों में आँसू बोया था।।

सांध्य किरण द्वारे जब आयी
भावों ने तब ली अँगड़ाई
पंछी ने था गीत सुनाया
पलकों ने भी था कुछ गाया
अधरों ने तब कही कहानी
नयनों से जब बरसा पानी
तब आहों ने भाव सँभाला
गीतों में सब कुछ कह डाला
खुलकर उस दिन तब रोया था
पलकों में आँसू बोया था।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24अगस्त, 2022



तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक।।

तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक


माना तेज बहुत है धारा लेकिन फिर भी चल सकता हूँ
होंगे साथ तुम्हारे लाखों किंतु अकेला चल सकता हूँ
तुमसे दूर रहा हूँ अब तक क्या बतलाऊँ क्या मजबूरी
बिन तेरे इस जीवन में मैं भी हँसकर पल सकता हूँ
विरह-मिलन के मौन पलों में पाया जो व्यवहार मुबारक
तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक।।

तुमने जाने जीवन पथ पर मेरे सपने क्यूँ ठुकराए
तुमको भान नहीं था लेकिन मेरे पग को डिगा न पाये
होंगे तुमने लिखे बहुत से निज जीवन की मधुर कहानी
लेकिन अब भी गूंज रहे हैं गीतों में मेरी गाथाएँ
जिन अधरों ने गीत भुलाये उनका भी आभार मुबारक
तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक।।

अपने भावों को गीतों में रच कर हमने महल बनाया
साँसों की सरगम डाली जब तब जाकर जीवन को पाया
अपने गीतों से जगती के मन को नित बहलाने वाले
दुनिया ने कुछ भी गाया पर ढाई आखर गाने वाले
मेरे गीतों ने तुमसे जो पाया वो आभार मुबारक
तुम्हें मुबारक हार पुष्प के मुझको अश्रु धार मुबारक।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अगस्त, 2022

चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

चाँदनी पथ है सँवारे भोर देखो द्वार पर
चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

है लहर में शोर माना और तूफ़ाँ तेज है
जिंदगी यदि फूल है तो काँटों की भी सेज है
सबके अपने भाव हैं सबकी अपनी कहानी
छप गये राह पर पदचिन्ह कितने बन निशानी।।

इस राह के प्रभाव को हँस के तू स्वीकार कर
चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

ध्यान से सुन तो तनिक राह क्या कुछ बोलती हैं
राह के संघर्ष के भेद सारे खोलती है
अनगिनत राही गये हैं एक बस तू ही नहीं
गूँजते हैं गीत जिनके राह में सुन तो यहीं।।

रच यहाँ नव गीत तू भी  स्वप्न को साकार कर
चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

मंजिलों ने कब यहाँ मोह राहों से जताया
स्वयं राहें जब चलीं मंजिलों को पास पाया
है यहाँ किसको पता राह में क्या-क्या मिलेंगे
वन मिलेंगे पुष्प या कंटकों के शर मिलेंगे।।

पुष्प या शर कंटकों के मौन सब स्वीकार कर
चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

क्या भला है क्या बुरा व्यर्थ है अब बात करना
रास्ते में चल पड़े मुश्किलों से क्या फिर डरना
है सफल पंथी वही जिसने पथ का मान किया
जीत पाया वो जगत जो चित्त का अवधान किया।।

कंटकों से सीख ले इस सत्य को स्वीकार कर
चल बटोही चल चलें आ इस भँवर को पार कर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       21अगस्त, 2022

फिर आज सहलाने चली हैं।

फिर आज सहलाने चली हैं।   

आह के किंचित पलों में गीत की कुछ पंक्तियाँ
दर्द के प्रभाव को फिर आज सहलाने चली हैं।।

पाप हो के पुण्य हो जो भी किया सबने किया
जो है गरल पिया कभी तो स्वयं अमृत भी पिया
क्यूँ यहाँ अफसोस करना राह की उलझनों से
लौट आते निज स्वरों के साथ जब जीवन जिया।।

प्रतिनाद के निस पलों में आह की कुछ सिसकियाँ
दर्द के प्रभाव को फिर आज सहलाने चली हैं।।

भाव हैं क्या खास पल में सब समझना चाहते 
खास की क्या खासियत है सब समझना चाहते
कौन है संपूर्ण औ कौन है आधे हृदय से
कौन के उस प्रश्न से क्यूँ सब उलझना चाहते।।

प्रश्न के आकाश पर कुछ उत्तरों की तितलियाँ
दर्द के प्रभाव को फिर आज सहलाने चली हैं।।

छप गये कुछ शब्द क्यूँ इस हृदय के श्याम पट पर
लौट आती हैं लहर सब झूमती देख तट पर
चल पड़ो संघर्ष में फिर झूमते गीत गाते
आह को स्वीकार कर लो राह में मुस्कुराते।।

साँस के अनुरोध पर फिर मौन पल में सिसकियाँ
दर्द के प्रभाव को फिर आज सहलाने चली हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18अगस्त, 2022

आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

माना पथ में रात अँधेरी नित जोह रही हो सूरज को
अनुमानों में घिरी प्रतिज्ञा कहीं खो न दे अब धीरज को
माना कि चंहुओर तिमिर है आ करें प्रकाशित अंतःपुर
आ भरें शून्य में अपनापन के हो उल्लासित अपना उर।।

दीप जलायें ज्ञान ज्योति का अंतस का तम दूर भगायें
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

लोभ-मोह माया का जीवन सब जगती का है सम्मोहन
निज आहों में, मधुमाया में उलझा रहता क्यूँ अपना मन
भावों में शीतलता भर लें आ मृदु गीतों से मन उपवन
पंथ पथिक का तब सम्मानित मन में जब जागे नव चेतन।।

क्षण भर का उल्लास यहाँ मन के सब अवसाद भगायें
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

मौन सफर हो अंधकार में मत पूछो के कैसी छाया
कुटिल नियति जब हावी हो तो क्या मतलब किसने क्या पाया
जगती के सब अनुमानों में कहीं सुहाना मौसम होगा
कहीं मिलेगी परछाईं जो दूर क्षितिज अनुबंधन होगा।।

मिलता जो कुछ मनोयोग से उससे ही जीवन महकाएँ
आओ जग के अँधियारे में हम इक दीपक रोज जलाएं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अगस्त, 2022

साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

अधरों पर जो शब्द रुके पलकों ने उनको बोल दिया
पाकर सांसों का स्पंदन ऋतुओं ने मधुघट खोल दिया
पा छंदों का आलिंगन नवगीत मधुर फिर नाच उठे
भँवरों का मृदु गुंजन सुन कलियों ने घूंघट खोल दिया।।

पलकों पर जो भाव सजे वो भाव-भाव सब अभिवंदन
साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

रूप सजा कर पुष्पों ने मन का उपवन महकाया है
दीप जला कर यादों के एकाकी दूर भगाया है
चाँद-सितारों ने नभ से भेजी हैं कुछ नेह रश्मियाँ
जिनका अभिवादन करने ऋतुराज धरा पर आया है।।

पुष्पों से जो पंथ सजे उन पंथ-पंथ का अभिनंदन
साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

अवनी के कानों में कुछ अंबर ने हँसकर बोला है
अवनी ने शरमाकर के फिर घूँघट का पट खोला है
मिले गीत से गीत यहाँ अधरों ने सबकुछ बोल दिया
ऐसा पावन मिलन देख मरुथल का भी मन डोल गया।।

मौन प्रेम के पावन पल के सब भाव-भाव का अभिनंदन
साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

द्वार हृदय के खुले सभी आलिंगन ने यूँ मोह लिया
सदियों ने जो बात छुपाई लम्हों ने सब बोल दिया
अधरों की पाँखुरियों पर नवगीत मनहरे नाच उठे
शरमाई कलियों ने अपने सारे बंधन खोल दिया।।

छलका मधुघट अधरों पर है रोम-रोम सब अनुरंजन
साँसों ने जो गीत लिखे वो शब्द-शब्द सारे चंदन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16अगस्त, 2022

जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

उसपार हिमालय की घाटी के फिर शत्रु ने ललकारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

केसर का दम भरती क्यारी
औ पग-पग सुंदर फुलवारी
सींचा जिसको युगों-युगों से
है घायल वो धरा हमारी
शत्रु के नापाक इरादों ने फिर से हमको ललकारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

राम, कृष्ण, गौतम की धरती
गीता, वेद, पुराण, उपनिषद
अस्त्र-शस्त्र औ शास्त्र की शिक्षा
का अपना संसार है वृहद
ऐसी शिक्षाओं के प्रण को दूर कोई ललकारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

जाति धरम का बंधन तोड़ो
भारत को भारत से जोड़ो
गूंजे धरती और गगन ये
मन के सारे आलस छोड़ो
करो दमन सब मंसूबों को दुश्मन ने घात लगाया है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

गंगा की लहरें हैं गाती
यमुना जीवन राग सुनाती
सुबह सवेरे दिनकर जिसके
चौखट वंदनवार सजाती
देवों की इस मातृभूमि को अरि ने फिर ललकारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

दुश्मन बाहर दुश्मन भीतर
इक-इक से हमको लड़ना है
भाषा-भाषी क्षेत्रवाद से
ऊपर हम सबको उठना है
उठ जाओ के भीतर कितने साँपों ने फन फुँफकारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

लक्ष्मीबाई तात्या टोपे
वीर शिवाजी, मंगल पांडे
भगत, राजगुरु, सुखदेव, तिलक
गाँधी ने इसे सँवारा है
वीर शहीदों के बलिदानों से गूंज रहा नभ सारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

ये इतना आसान नहीं है
के अरि इसको छू भी पाये
गलत दृष्टि जो भी डालेगा
मुश्किल है वो फिर जी पाये
भारत के कण-कण में सुन लो, बसता मन प्राण हमारा है
जागो भारत पुत्रों जागो फिर माँ ने तुम्हें पुकारा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14अगस्त, 2022

जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

नहीं रोशनी मिलती जग को
अँधियारे में जीवन रहता
बात अधर तक पहुँच न पाती
मौन भला फिर कैसे कहता
पीड़ा जब मन को दहलाती तब दर्द हृदय कहाँ सह पाता
जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

स्वप्न सजाता पल-पल जीवन
चलता रहता नहीं ठहरता
कब ठहरा है किसी ठौर पर
कैसे कह दूँ नहीं अखरता
ठहरे जीवन की पीड़ा का फिर मर्म हृदय कहाँ सह पाता
जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

अंतर्मन की कितनी बातों
से है जीवन अनजाना सा
सारे यहाँ मुसाफिर हैं जब
फिर क्यूँ जग है मनमाना सा
मनमाने जग की पीड़ा का कितना भार नयन सह पाता
जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

जीवन के इस रंगमंच की
साँसें ठहरी कठपुतली हैं
कहीं मुखौटे रंग बिरंगे
कहीं काले कहीं उजली हैं
जो ये भान नहीं होता तो चेहरा क्या यहाँ पढ़ पाता
जो अश्रु सहारा न होता तो निज मन बात कहाँ कह पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12अगस्त, 2022

अंतस की व्यथा।

अंतस की व्यथा।  

सरयू की पावन रेती पर सूर्य पल-पल ढल रहा
है मौन अंतस में सँभाले मन अकेला चल रहा
मन जीत कर हारा जगत से अंक का भाव रीता
निःशब्द अवनी निःशब्द अंबर क्या कहे कौन जीता।।

अब क्या करूँ इस जिंदगी का साथ तेरा जब रहा न
दो कदम भी चल सका न मन साथ तेरे रह सका न
किसलिये ये तन रहे औ क्यूँ रहे मन प्राण इसमें
नयन छलकी प्रार्थना के भावों को मन सुन सका न।।

अंक के सब भाव बिखरे प्रीत का आधार रीता
निःशब्द अवनी निःशब्द अंबर क्या कहे कौन जीता।।

क्या करूँ वैभव लिए मैं क्या करूँ संसार सारा
भावनाओं की डगर में मन मिरा हर बार हारा
अश्रु पलकों में जो आये रुक गए सब द्वार आकर
सुन सके ना याचना को नैन ने कितना पुकारा।।

नैन से यूँ धार बरसी बादलों का कुंभ रीता
निःशब्द अवनी निःशब्द अंबर क्या कहे कौन जीता।।

हो गए कुंठित प्रणयबंध अवगुंठन कैसे खोलूँ
मौन अधरों पर ठहरे बंधनों को कैसे बोलूँ
कैसे दिखलाऊँ तुम्हें जो घाव दिल पर हैं लगे
मौन बिखरे उन पलों के ठौर कैसे आज जोड़ूँ।।

कैसे बतलाऊँ तुम बिन दर्द का सागर हूँ पीता
निःशब्द अवनी निःशब्द अंबर क्या कहे कौन जीता।।

जला ताप से जग देखा शीतलता से कौन जला
पानी भीतर अंगारों पर कभी सुना कौन चला
तिल-तिल कर बीत रहे हैं मेरे अब तो मौन प्रहर
जिसने मेरा सबकुछ छीना जाने थी वो कौन लहर। 

किसे बताऊँ कैसे मेरे मन का मधुघट रीता
निःशब्द अवनी निःशब्द अंबर क्या कहे कौन जीता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12अगस्त, 2022

फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

कुछ सपने पलकों पर ठहरे
क्या-क्या भाव रचाते हैं
सतरंगी बादल से मिलते
पल-पल स्वप्न सजाते हैं।।

इन सपनों में ही दिखता है
जीवन का आधार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

पल-पल रंग बदलता जीवन
आहों में खिलता उपवन
आती जाती इन लहरों से
भींग उठा सारा तन मन।।

जब लहरों की चंचलता में
दिखी नयन की धार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

अंतस में लिए अंतर्द्वंद्व
बाँट रहे नयन मकरंद
निज सपनों का मोह त्याग कर
बाँधा सबसे मृदु निबंध।।

मृदु बंधन की शीतलता में
दिखा मृदुल श्रृंगार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

नवगीत सजा कर अधरों पर
हरण किया जगत की पीर
मुक्त कंठ हो गाया तुमने
रोक न पाया जग अधीर।।

तेरे हर भावों में प्रतिपल
दिखती है मनुहार मुझे
फिर क्यूँ ना हो स्वीकार मुझे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11अगस्त, 2022



भोर सुंदर मुस्कुराये।

भोर सुंदर मुस्कुराये।  

शब्द को पहचान मिलती भावना को अर्थ बोलो
चाहतों को राह मिलती कामना को अर्थ बोलो
आ मिलो इक बार देखो है राह क्यूँ सूनी पड़ी
जो छुपे हैं भाव दिल में आज उनका अर्थ बोलो।।

है रोशनी वो ही भली दूर तक रोशन करे जो
चाहतें वो ही भली हैं अंक को उपवन करे जो
औ कब मिली है दूर रहकर प्रीत को मंजिल यहाँ
प्रीत है वो ही भली मन भाव को मधुवन करे जो।।

है अँधेरों की धमक या के उजाले मंद बोलो
रोकते हैं जो राह को कौन सा प्रतिबंध बोलो
ये है समय की मांग या फिर स्वार्थ की सबको पड़ी
हैं बदलते आज पल पल क्यूँ यहॉं कटिबंध बोलो।।

है नहीं इतनी अँधेरी रात तारे डूब जायें
है नहीं इतनी घनेरी रात के पथ लड़खड़ायें
तुम ही कहो के भोर का पथ रुक सका है कब यहाँ
रात के उस पार देखो भोर सुंदर मुस्कुराये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        10अगस्त, 2022

पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

भाव पलकों में जो आये शब्द अकुलाए
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

शब्द की ओढ़नी में छंद का श्रृंगार कर 
जो ले गयी सभी मेरे हृदय के भाव हर 
वो भाव निज हृदय की पंक्तियों में समाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

लिखी बात मन की शब्द का लेकर सहारा
आस का आकाश पृष्ठ पर हमने उतारा
चित्र गढ़े तूलिका ने वो मन को बहलाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

क्या करूँ अर्पित कहो अब तुम्हें मैं निशानी
जो बताये तुमको दर्द की सारी कहानी
आहें वो मेरे हृदय की मेघ बन छाये
और पलकों से जो बरसे गीत कहलाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अगस्त, 2022



कहीं तो रास्ता होगा।

गजल-कहीं तो रास्ता होगा।  

बंद से लगती इन गलियों में कहीं तो रास्ता होगा
कहीं तो होगा कोई ऐसा कि जिससे वास्ता होगा।।

आवाजें दूर से टकराकर फिर से लौट आती हैं
कहीं कुछ तो है यहाँ ऐसा के जिससे राब्ता होगा।।

सुना सच बोलने से दुश्मनी बढ़ जाती है शहर में
कोई तो है यहाँ ऐसा जो सच को भाँपता होगा।।

खड़ी न कर दीवारें दरमियाँ अपनी औ जमाने के
के अँधेरा है बहुत गहरा कोई तो रास्ता होगा।।

सिखाया है यही हमको यहाँ जमाने की अदावत ने
चलो जिस राह पर खुलकर देव वही तो रास्ता होगा।।

इस शहर में हर किसी ने अपनी महफ़िल सजा रखी है
लगता है तन्हाइयों से सभी का कुछ वास्ता होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08अगस्त, 2022

आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।


दुनिया के इस छोर से हमने
दुनिया के उस छोर को देखा
कितनी ही सूनी आँखों में
देखी है बेबस सी रेखा
कहीं बेबसी के मेले में खो मत जाना यूँ घिरकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

जाना जिनको चले गये हैं
जो तेरे, संग रह गये हैं
मिलना जुलना खेल जगत का
साथ चले, कुछ छूट गये हैं
छोड़ चले जो बीच सफर में व्यर्थ बहाना आँसू उनपर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

बात बदल जाती है अकसर
उन पर यदि संज्ञान नहीं लो
ऐसी कोई गली बता दो
राह कभी सुनसान नहीं हो
कभी अकेले हुए यहाँ तो स्वयं परखना खुद को खुलकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

साथ चले तो बात बनेगी
दूर रहे तो रार ठनेगी
बहती आँधी से क्या डरना
कहाँ रुकी जो यहाँ रुकेगी
आँधी औ तूफानों में अब कश्ती पार करायें चलकर
आओ फिर से गीत सजा लें अपने अधरों पर मिलकर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2022

बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

अपने मन की मधुशाला में
लिए खड़ा मैं मौन पियाला
कुछ छलकाये यादों पर अरु
कुछ को पृष्ठों पर लिख डाला
कुछ अधरों को आये छूकर
कुछ आँसू का बने निवाला
हाँ, बहुत गिरे हैं आँसू बनकर गीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

गुपचुप गुमसुम प्यारी बातें
वो बीते दिन अरु बीती रातें
मिलना जुलना साथ निभाना
सबकुछ खोकर सबकुछ पाना
मिला यहाँ उन्माद नहीं है
अरु खोने का अवसाद नहीं
है खोकर पाया बहुत यहाँ पर जीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे है मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

माना के इस गुंजित नभ में
मेरे हैं कुछ गीत अधूरे
माना मन की कुंज गली में
जो चाहे वो पुष्प न फूले
कुछ वंचित गीतों के कारण
पंथी अपना पथ क्यूँ भूले
हाँ, माना मन में रही अधूरी रीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे हैं मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

मन करता है मुक्त गगन में
बस पंछी बनकर उड़ जाऊँ
इन राहों के साथ चलूँ मैं
राहों संग-संग मुड़ जाऊँ
ढूँढूँ अपने मन के भीतर 
बस अपनेपन को मैं गाऊँ
दिन अनुप्रासों के बहुत गये हैं बीत मगर अब और नहीं
हाँ, बहुत लिखे है मधुमासों के गीत मगर अब और नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2022

जीवन की कितनी इच्छाएं मन में मोह जगाती हैं।।

जीवन की कितनी इच्छाएं मन में मोह जगाती हैं।।

कुछ सपने नयनों में भरकर
खुली आँख में खो जाती हैं
पलकों की पंखुरियों से जब
नींद सुनहरी ले जाती हैं।।

पलकों की पाँखुरियों पर हौले से चुम्बन दे जाती हैं
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

जाने कितनी अभिलाषा से
मन प्रतिपल लिपटा जाता है
जाने कितने अनुरागों में
मन खुद को सिमटा पाता है।।

अनुरागों की मृदुल छुअन जब आशा के दीप जलाती है
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

खुली पलक के स्वप्न सभी ये
निज नयनों के हैं आभूषण
आशाएँ भी घनीभूत हों
नित-नित करतीं जिनका पोषण।।

उम्मीदें नवदीप जला जब पल-पल मन हर्षाती हैं
तब जीवन की कितनी इच्छाएँ मन में मोह जगाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अगस्त, 2022

अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

प्रीत के धागों ने बांधा स्नेह का संसार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

ये जग भूल भुलैया है इक, भटक रहे हैं सारे
सुख शांति की खातिर अपना सबकुछ हैं हारे
ऐसे में मन की शीतलता का है ये आधार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

सावन की मस्ती में कोयल मधुमय गीत सुनाती
मेघों के मृदु ताप पे बरखा रानी भी मुस्काती
चहुँ ओर है हरियाली और बह रही मृदुल बयार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

आज धरा ने चंदा मामा को संदेशा भिजवाया
इंद्रधनुषी राखी बाँधी माथे तिलक लगाया
सच है दुनिया में सबसे सच्चा भाई बहन का प्यार
अनगिन खुशियाँ लेकर आया राखी का त्योहार।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अगस्त, 2022

तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।।

तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

तनिक ठहर जा मौन पल में ऐ मेरे मन प्राण
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

युग-युग से अंधकार में तुमने मुझको पाला
नित राहों में दीप जला हाथ पकड़ सम्भाला
इस जीवन के तापों में तुमसे मिली है छाँव
तुम बिन नहीं पूरा होगा मेरे मन का गाँव।।

छोड़ चले जो बीच सफर मिलेगी कैसे ठाँव
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

आज कह दो बातें मन की खोल हृदय का द्वार
कब तक मौन दबा रखोगे उर में हाहाकार
कंठ के कुंठित स्वरों का मोल तब कोई नहीं
पड़ रही हों लाल डोरे आंख जब सोई नहीं।।

खोल दो अपने हृदय को न अब रोको तूफान
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

वक्त कितना शेष है अब सूर्य देखो ढल रहा
सांध्य की आगोश में जा मौन हो कुछ कह रहा
तुम कहो कितनी बची हैं उन हड्डियों में भार
कौन जाने किस समय में पुष्प बन जाये क्षार।।

कहने सुनने को यहाँ रह जायेंगे आख्यान
तुम बिन अब तक है अधूरा इस जीवन का गान।। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अगस्त, 2022


वसुधैव कुटुंबकम।

वसुधैव कुटुंबकम।  

विश्व पटल पर ऊँची प्रतिपल
धरती माता की शान रहे
शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता
पर सबको अभिमान रहे।।

ऊंच नीच का भेद नहीं हो
जाति धर्म  अवरोध नहीं हो
सबके हों अधिकार सुरक्षित
मन में कहीं विरोध नहीं हो।।

घृणा भाव से ऊपर उठकर
जन-जन के मन में प्रेम रहे
सम्मान करें इक दूजे का
बस मानवता ही श्रेष्ठ रहे।।

एक धरा है एक विश्व है
हम सबको इसका भान रहे
वसुधैव कुटुंबकम मंत्र सभी का
गुंजित सदा अभियान रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31जुलाई, 2022


नदिया और समंदर।

नदिया और समंदर।  

चली है आज नदिया फिर समंदर में समाने को
मचलते भाव ले मन में नया फिर गीत गाने को
उसे अब इन हवाओं से नहीं कोई  शिकायत है
चली है आज जीवन से खुद मिलने मिलाने को।।

नहीं नदिया महज व्याकुल समंदर में सिमटने को
नहीं राहें महज व्याकुल निगाहों में सिमटने को
मंजिल की भी है चाहत कि राहें पास तक पहुँचे
समंदर की भी ख्वाहिश कि नदिया आये मिलने को।।

नदिया ये समंदर की नहीं यूँ ही दीवानी है
कि नदियों ने समंदर में बसायी राजधानी है
लिख डाले हैं कवियों ने मिलन के गीत कितने ही
गीतों को जो महकाये नदिया का ही पानी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

अभिमान तिरंगा भारत का।।

अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

युग युग से इसकी खातिर
है लाखों ने बलिदान किया
आज़ादी के पुण्य हवन में
अपना सब कुछ दान किया
यही कामना सबके दिल की
ऊँची हरदम शान रहे
घर घर में लहराये तिरंगा
गुंजित ये अभियान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा उद्देश्य यही
पल-पल हम दुहरायेंगे
याद शहीदों को करने को
घर-घर हम फहराएंगे
आज़ादी के मतवालों से
हर पल गूंजेगा नभ सारा
शान तिरंगे की खातिर है
अर्पित जीवन प्राण हमारा।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

अपनी है बस यही कामना
ये विश्व पटल पर लहराये
शांति सभ्यता मूल तत्व का
इससे ही दुनिया अपनाये
बने प्रतीक मानवता का
हर अधरों पर गुणगान रहे
जब तक ये सूरज चाँद रहे
दुनिया मे तेरा नाम रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2022

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             1
कितना दूर अभी चलना है
रुकना है आगे बढ़ना है
पग नाप रहे मोड़-मोड़ को
जीवन के हर छोर-छोर को
कहीं धूप है छाँव कहीं है
मौसम में बदलाव कहीं है
अब बोलो क्या तुमको प्यारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              2
सिरहाने तुम आन खड़े हो
पकड़े बाँह मेरी खड़े हो
कितनी बार यहाँ पूछा है
शब्द कहो क्यूँ कर सूखा है
कह दो अपनी बात हृदय की
चाह नहीं क्या कहो अमिय की
कह दो जो है और सहारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

              3
कभी लिया आलिंगन मुझको
कभी माथ लगाया पग धूल
तुमने जो सम्मान दिया है
उसे कैसे मैं जाऊँ भूल
दीप सजाया जो राहों में
आ ,उसको कभी जला जाओ
अपने उन सारे वादों को
आओ इक बार निभा जाओ
तेरे वादों पर सब हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          4
हर गाँवों की चौपालों से 
संसद के उन गलियारों तक
दूर भागती इन सड़कों से
कहीं ठहरते चौराहों तक
हमने नजर जहाँ तक डाली
देखी बस रातें अँधियारी
थोड़ी लाली इधर बिखेरो
अपने उन वादों को तोलो
दे दो अब तो साथ हमारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

             5
कितनी सदियाँ बीत गयी हैं
पर वैसा बदलाव न आया
आरोपों के रथ पर चढ़कर
क्या तुमने बस समय गँवाया
केवल अपनी बात कही है
प्रश्नों से प्रतिपल दूर रहे
प्रतिपल सदियों ने देखा है
लम्हे सत्ता में चूर रहे
लम्हा जीता लम्हा हारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

          6
गहराती जा रही रात है
अधरों पर अनकही बात है
कौन पूछता जग में बोलो
अवरोधों को खुद ही खोलो
लिखो रात की नई कहानी
हो जाये दुनिया दीवानी
रचो भाव कुछ ऐसा सुंदर
रहे नहीं अब कोई अंतर
तुमसे पूछे स्वयं सितारा
कितना दूर गाम तुम्हारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जुलाई, 2022



गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

गीत गजल जो रच न पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

शब्दों के पैमाने लेकर आज मिले हो मैखाने में
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

अनगिन लोग यहाँ मिलते हैं भावों का घट ले फिरते हैं
अंतस के सूने भावों को कुछ कहते हैं कुछ सुनते हैं
फिर भी कितने शब्द बिछड़ कर रह जाते हैं वहीं कहीं पर
जिनको मन ढूँढा करता है आशाओं में यहीं कहीं पर
जो भावों को समझ न पाये मोह भला उनसे क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

ऐसे कितने जीवन भी हैं पथ आसान नहीं जिनका
ऐसे कितने सपने भी हैं पलकों को भान नहीं जिनका
ऐसे जीवन के सपनों को छोड़ भला क्या रह पाओगे
छूट गिरा जो स्वप्न पलक से दर्द भला क्या सह पाओगे
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर चाह भला फिर क्यूँ करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

मौन पथ पर जीवन के माना चला रहा अब तक अकेला
कहो कौन है दुनिया में ऐसा मौन पल जिसने न झेला
अब तुम कहो है कौन ऐसा जिसने बस जीवन में पाया 
तुम ही कहो है कौन ऐसा कुछ भी नहीं जिसने गँवाया
खोना पाना रीत जगत की मोह यहाँ फिर क्यूँ कर करना
गीत गजल जो रच ना पाओ अफसोस यहाँ फिर क्यूँ करना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24जुलाई, 2022

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

दूर देश एक बस्ती जहाँ, न कोई आता है न जाता है
भूली बिसरी राहों को कहो, क्या कोई यहाँ अपनाता है
पग-पग दौड़ रही ये सड़कें कब कहो गाँव को आती हैं
गाँवों की पगडंडी ही अब तक शहरों को आती जाती हैं
मोड़ सड़क की राहों को आज यहाँ हम गाँवों के छोर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

सूख रही हैं बावड़ियाँ सारी सूख रहे सब ताल तलैया
सूख रही धरती की माटी औ सूख रही बरगद की छइयां
सूनी-सूनी गलियाँ सारी औ सूने लगते त्यौहार सभी
मौन पड़ी खलिहान की हलचल जहाँ लगते थे चौपाल कभी
भीड़ भरे तहखानों से हट हम सब गलियारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

महज शहर की चकाचौंध से ही ये देश नहीं बन जायेगा
जो खलिहानों से दूर हुए तो ये जीवन क्या पल पायेगा
बूढ़ी झोंपड़ियों से अब भी वही प्रेम की खुशबू आती है
जिस माटी ने जीवन पाला वो कब छोड़ हमें रह पाती है
लोभ-मोह और स्वार्थ से हटकर सदव्यहारों की ओर चलें
चलो उजालों को लेकर के हम सब फिर गाँवों की ओर चलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पास पाकर तुम्हें जिंदगी खिल गयी।।

सुन समय छुप चला बादलों में कहीं
साँझ ढलने लगी राह में ही कहीं
चाँदनी ओट से बादलों के चली
मन के आगोश में जिंदगी है खिली
एक अहसास से बंदगी खिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

पलकों में स्वप्न की स्वर्ण रेखा सजी
भाव मे मोहिनी रूप रेखा सजी
गीत अधरों पे आकर सजे इस तरह
नेह के पृष्ठ पर गीतिका है सजी
गीत ऐसे सजे ताजगी मिल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

आस की पाँखुरी फिर निखरने लगी
रूप की रोशनी में सँवरने लगी
एक पल, एक क्षण, ये सदी, वो सदी
प्रीत की रश्मियाँ फिर बरसने लगी
मन के भावों में सादगी घुल गयी
पास पाकर तुम्हें जिंदगी मिल गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2022

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।


मन उपवन की कुंज गली में पिय आओ आकर मिल जाओ
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

इच्छाएँ फिर पर फैला कर मन को दूर कहीं ले जाती
सपने पलकों पर छाते हैं आशाएँ मृदु गीत सुनाती
कह लें मन की सारी बातें आ अंतस में यूँ मिल जाओ
साँसों की सरगम को छू लो फिर  मन हो जाये नवल मुकुल
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

मन मृदु स्पर्श तुम्हारा पाकर पल-पल यूँ स्वप्न सँजोता है
बरखा की प्यासी धरती को जैसे मधु मेघ भिंगोता है
छू ले अंतस के भावों को अंतर्मन में यूँ घुल जाओ
उर से उर का संगम हो यूँ अधरों पर हो नव गान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

जिस सुख की मन करे प्रतीक्षा उसको तकता रहता प्रतिपल
निज मन की है यही कामना फैलाता कर नव दल हरपल
आशा के नव अंकुर फूटे यूँ सम्मुख आकर मिल जाओ
मिल जाये जीवन से जीवन इच्छाओं का सम्मान मधुर
उर के शांत सरोवर में फिर छेड़ो वीणा की तान मधुर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जुलाई, 2022

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

यादों के मानसरोवर पे कितने बादल मँडराये
कुछ बरसे हैं आँसू बनकर कुछ भावों में गहराये
अंतस में घिरते बादल को गीतों से मैं बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

लहरों की बहती धारा में दूर किनारे तक जाऊँ
चाहे मुझको छोड़ चले सब मैं तो सबको अपनाऊँ
अपने और पराये का कभी भेद समझ न पाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

नहीं दूर तक जाना मुझको नहीं चाहता सब पा लूँ
इस छोटे से जीवन के जो गीत चुनूँ उसको गा लूँ
गीतों में मन के भावों को छूता हूँ सहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

बहुत कर लिया मन की बातें अब कोई अधिकार नहीं
झंझाओं में उलझे मन से अब कोई प्रतिकार नहीं
खुद से ही बातें करता हूँ खुद को ही बहलाता हूँ
सुधियों के दो पल कागज पे लिखता हूँ मुस्काता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20जुलाई, 2022

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

जो पुष्प डाली से बिछड़ कर गिर पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

मुक्त होने को मुखर हैं सब यहाँ पर
बंधनों से दूर दुनिया है जहाँ पर
पास जाकर देखते ही सब विकल है
कौन किसको पूछता सोचो वहाँ पर।।

बंधनों को तोड़ कर जो है चल पड़ा
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

कौन है जो पुष्प बस पाया यहाँ पर
कौन तपन में न कुम्हलाया यहाँ पर
स्वेद बूंदों ने लिखे जब गीत मन के
कंटकों में गीत मन गाया यहाँ पर।।

कंटकों से राह के जो डर गया है
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

पुष्प चरणों मे चढ़े या फिर माथ पर
पुष्प आँचल में भरे या फिर हाथ पर
भावनाओं से सजी है सृष्टि सारी
है सत्य, सारा पथ सँवरता साथ पर।।

निज स्थान के जो भाव को समझा नहीं
कौन है फिर पूछता उसको यहाँ पर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई,2022

छाँव।

छाँव।   

एक माटी एक स्थल है एक सी धरती यहाँ
जन्म लेती भावनायें एक सी हरपल यहाँ
एक ही जीवन यहाँ पर एक ही है पालना
एक सा सींचा यहाँ क्यूँ द्वेष मन में मानना।।

नेह बरसाया गगन ने एक सा सब पर यहाँ
और धरती ने बिछाई है पुष्प की चादर यहॉं
कैसे फिर अंतर यहाँ मन में कोई पालता
जब एक सी ही चाँदनी चाँद सब पर डालता।।

जन्म के क्षण में जीवन बोलो कब है सोचता
लड़ के मृत्यु से यहाँ वो सत्य को है पोसता
काँटे चुन आँचल में वो पुष्प पथ पर डालती
लड़ती प्रकृति से यहाँ वो ऐसे हमें पालती।।

उम्र भर प्रतिपल बरसता नेह उसका शीश पर
छोड़ती है कब यहाँ वो प्रीत की कोई कसर
देव उसके त्याग को संसार ऐसे पूजता
ताउम्र उसकी छाँव को देवता भी खोजता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई, 2022

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

आस जो मन में दबी थी फिर उठी इक टीस बनकर
गीत अधरों पर सजे सब दर्द का आशीष बनकर
साँस भी तब धड़कनों से कुछ यूँ उलझ कर रह गयी
आँसुओं में बह चले सब पीर पलकों से मचलकर।।

इस क्षितिज से उस क्षितिज तक ये वक्त कुछ ऐसा घिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

सिंधु को गहराइयों तक बस दर्द का संसार था
अंक में सिमटा हुआ निज स्वप्न का पारावार था
कामनायें भी ठिठककर रुक गयीं मन के द्वार पर
क्या कहे उस एक पल में मन में जो हाहाकार था।।

रह गयीं ख्वाहिश अधूरी था टूट कर तारा गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

संदर्भों के सब सिलसिले सहसा सिमटने से लगे
गीत अधरों पर सजे जो टूट कर झरने लगे
शब्दों में सिमट न पाये भाव अंतर्मन के सभी
अवशेष यादों के सभी आँसुओं में बहने लगे।।

बह गए सब आस के क्षण तम टूट कर ऐसे गिरा
वो थी अधूरी रात जब मृदु स्वप्न पलकों से गिरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जुलाई, 2022


मन जो बात नहीं कह पाता कविताओं में कह लेता हूँ।।

मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

खुद के मन की बातें सारी
खुद ही खुद से कर लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

छंदों की पहचान नहीं है
मात्राओं का भार न जानूँ
गजलों, दोहों, चौपाई की
मैं कोई पहचान न जानूँ
दग्ध हृदय में उमड़ रहे सब
भावों को मैं सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

व्याकुलता के पल में कितने
मन में बहती हैं धाराएं
पीड़ा के निस क्षण में मन ने
रच डाली कितनी रचनायें
रचनाओं के इर्द-गिर्द में
डूबा खुद में रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

जगती के सब ताने सारे
बन शब्द तड़पने लगते हैं
पीड़ित मन जब कह ना पाये
मन बूँदों में कहने लगते हैं
उन बूँदों के दर्द सभी वो
पलकों में ही सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

कंटक में उलझे मन लेकिन
श्रृंगार सृष्टि का करना चाहे
अवसादों में भले घिरा हो
सत्कार सुरभि से करना चाहे
काँटे मन में भले चुभे हों
हँसते-हँसते सह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

शब्द बाण से मन हो घायल
चाहा जब प्रतिकार किया
अपने हों या भले पराये
मन ने सबका सत्कार किया
प्रतिकारों के दोष सभी तब
मन में लेकर रह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

पग-पग कितने आरोपों में
ये जीवन उलझा जाता है
पग-पग कितना गरल पिया है
फिर भी न सुलझ ये पाता है
अनसुलझे सारे प्रश्नों को
पलकों में ही दह लेता हूँ
मन जो बात नहीं कह पाता
कविताओं में कह लेता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2022

लिख सके न हम मन की बातें।

लिख सके न हम मन की बातें।  

जब लिख सके न हम मन की बातें
तुमने बोलो कैसे पढ़ डाला।।

जो बातें कभी निकली ही नहीं
तुमने बोलो कैसे सुन डाला।।

इक बात पकड़ कर जो बैठे हो
मन ही मन में क्या-क्या रच डाला।।

तुम शोषित हो हम शोषक माना
सोचो, तुमने क्या-क्या कह डाला।।

तुम मन तक कभी पहुँच कब पाये
कहते हो मेरा मन पढ़ डाला।।

कुछ शब्द गिराये होंगे हम सब
वक्त यूँ ही नहीं सब कढ़ डाला।।

क्या दोष यही है मेरा बोलो
बातें तेरी तुमसे कह डाला।।

अब ये नजर की बातें हैं "देव"
जिसने यहाँ रिश्ता बदल डाला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2022

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।


नैन में भरकर प्रतीक्षा अंक में मृदु गीत भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

छुप रही हैं रश्मियाँ भी दूर देखो अब क्षितिज पे
छा रही हैं बदलियाँ भी मौन भावों के हरिज पे
पक्षी भी अब उड़ चले हैं आसरे की ओर देखो
और सूरज लिख रहा कुछ शब्द पृष्ठों पर जलज के।।

सांध्य से कुछ पल चुराकर नैन में कुछ स्वप्न भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

चिमनियों से सांध्य चूल्हे लिख रहे नूतन कहानी
सूर्य की अंतिम किरण भी कर रही पल को  सुहानी
धूम्र भी कुछ गढ़ रहे हैं बादलों में तूलिका से
देख फिर खिलने लगी है भाव में अब रातरानी।।

दृष्टि का विस्तार करके प्रेम अंगीकार कर के
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

द्वार पर आकर पुकारा रात का पहला सितारा
चाँदनी भी खिल उठी है देखकर सुंदर नजारा
जुगनुओं ने छेड़ दी चौपाल पर फिर इक कहानी
तेज होती धड़कनें सुन कर रहीं हमको इशारा।।

अंग का विन्यास करके पाश में मधुमास भरकर
आस का दीपक जलाये द्वारे पर ठहरा हूँ मैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2022

कुछ शब्दों में जीवन भर के मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

जीवन इतना सरल रहा कब
के कोई सब कुछ लिख डाले
पल-पल यहाँ बदलते देखा
जगती ने किस्मत को पाले।।

इस पाले से उस पाले तक
सफर अधूरे रह जाते है
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

हाँ, सही कहा जो कहा नहीं
गलती पर, लेकिन झुका नहीं
जग ने तो बस शब्द चुने इक
पर, रुक कर कुछ भी सुना नहीं।।

खुद ही कथ्य बनाने वाले
हो प्रखर सत्य कब सुन पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

क्षण भर को बादल छाने से
कब सूर्य छुपा जो यहाँ छुपेगा
बाधाएँ कितना पथ रोकें
पुण्य पथिक जो, निडर चलेगा।।

निज संबंधों की बेदी पर
बर्फ कहो कब टिक पाते हैं
कुछ शब्दों में जीवन भर के
मूल्य मुखर कब हो पाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11जून, 2022

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।


अंक में कुछ शब्द भर लो छंद को फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

मैं हृदय में पुण्यता भर प्रीत का विश्वास पालूँ
दग्ध भावों को सँभालूँ मन के सारे दाह धो लूँ
आज खोलूँ बंधनों को मोह को अनुरंजनों को
नैन भर तुमको निहारूँ श्वास में अहसास पा लूँ।।

श्वास में संगीत भर लो साज को फिर से उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

इन कपोलों पर बिखरती ये नेह की कुछ बदलियाँ
बूँद जल की हैं चमकती जैसे मेह की हों तितलियाँ
अधरों से मधुरस छलकते नयनों से है चाँदनी
जैसे पुलकित हो थिरकती साजों पर ये उँगलियाँ।।

गात का कण-कण पुकारे आ मुझे फिर से निखारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

उर निलय के भाव सुरभित प्रेम का आसक्त गहना
स्वप्न की मृदु पाँखुरी को फिर नयन में आज पढ़ना
राग गुंजित हो पवन में खिल उठे मधुमास फिर से
नख से शिख तक राग मधुरिम साजों में आज गढ़ना।।

निज निशा से भोर तक फिर चाँद धरती पर उतारो
है प्रणय की प्यास गहरी प्रीत से आँगन सँवारो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जुलाई, 2022

अपनी हो सूरज से यारी।।

अपनी हो सूरज से यारी।।

रक्तिम रंजित भाव प्रकट कर
पृष्ठों पर कुछ दृश्य सँवारे
इन नैनों में चाहत भर कर
दूर किया सारे अँधियारे
पलकों के लालायित सपने
जोह रहे हैं अपनी बारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

अगणित पथ हैं अगणित बाधा
अगणित मन की अभिलाषाएँ
रह-रह कर प्रतिबिंबित होती
भावों में सारी गाथाएँ
प्रखर प्रेम की नव ज्वाला में 
अभिलाषाएँ पंख पसारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

समय चक्र के साथ चलूँ मैं
जैसे चलते चंदा तारे
लिख डालूँ नव गीत गगन में
प्रकृति का जो रूप निखारे
आशाओं को पथ मिल जाये
अपनी हो इतनी तैयारी
कहते मन के भाव मचल कर
अपनी हो सूरज से यारी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जुलाई, 2022

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

सफर में अकेला नहीं मैं मुसाफिर
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

भोर से साँझ तक बस तपन ही तपन थी
मगर आस में एक मीठी छुअन थी
वो मीठी छुअन से हुआ भाव पावन
कि मरुधर में लहराया है आज सावन।।

ये पावस की रातें मुखर हो चली हैं
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।✅

हवाओं के झोंकों ने है राग छेड़ा
कलियों ने हंँसकर के अनुराग छेड़ा
सजने लगी जिंदगी बन सयानी
लिखी आज मौसम ने नूतन कहानी।।

कहानी सुनों आज भी मनचली है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

कैसे अकेला चला इस सफर में
यादों की बदली है छायी  डगर में
वो भीनी सी खुशबू महकती कहीं हो
है मालूम संग-संग मेरे तुम यहीं हो।।

 कि यादों में मेरे घुली जिंदगी है
मेरे साथ देखो ये राहें चली हैं।।

 ©✍️ अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        06जुलाई, 2022

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

अनजान नगर अनजान डगर
अनजानी राहों का नरतन
कहीं रुकी हैं कहीं मुड़ी हैं
भटका-भटका सा लगता मन
इन राहों के चक्रव्यूह से
सोच रहा कैसे निकलूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

जिसे पूजना था मंदिर में
उसने ही मन को तोड़ दिया
जिससे मन की डोर बँधी थी
जाने बीच राह में छोड़ दिया
भूलों से जो घाव मिले हैं
उसे अकेला मौन सहूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

सींचा था जिसको मृदु मधु से
इस जीवन की फुलवारी में
कैसे कह दूँ काँटे बोये
हैं, पग-पग उसने क्यारी में
उपवन के कुछ शुष्क पात हैं
किसको छोड़ूँ किसे चुनूँगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

रीत गया मधुऋतु घट सारा
अब शेष रहा क्या बोध नहीं
अंतस के भावों को प्रकटूँ
अब ऐसा भी अनुरोध नहीं
बिखर चले जब स्वप्न सुनहरे
खारे जल से पग धोऊंगा
प्रतिपल भावों में मंथन है
क्या जाने किस ओर चलूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...