बूँदों को वनवास मिला।
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।
जाने कैसी रही भूमिका पलकों से जो स्वप्न गिरे
जाने कैसे गिरी बिजलियाँ जीवन के सब रंग झरे
रीता मन का आँचल कैसे, कैसे खुशियाँ मुरझाईं
कैसे मन का दर्पण टूटा, छूटी कैसे परछाईं
दर्पण ने जब कहना चाहा पलकों का अहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।
इस अस्थि पंजर से लिपट कर क्यूँ मौन मन व्याकुल रहा
क्यूँ दूर तक जीवन सफर ने कब क्या कहे आकुल रहा
फिर क्यूँ तड़पती आह मन की साँस में आकर समाई
औ क्यूँ विकल होकर हृदय से, आँख फिर से डबडबाई
जब-जब नैन से नीर निकले मोक्ष का एहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।
अब क्या कहूँ क्यूँ कर जलाती व्यर्थ में मन को तपन ये
अब क्या कहूँ क्यूँ कर रुलाती व्यर्थ आहों की अगन ये
किये लम्हों ने कुछ फासले औ दूर सदियाँ हो गईं
इक भोर को तकती निगाहें उस रात में ही खो गयीं
ऐसा ही होना था शायद नेह को अवकाश मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17सितंबर, 2022
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