लाक्षागृह

       लाक्षागृह
       लाक्षागृह                                          

नहीं योग्यता उसकी थी पर,
सिंहासन का मोह उसे था।
पाण्डव की बढ़ती ख्याती से
अंतर्मन में द्रोह उसे था।

युधिष्ठिर गुणवान बहुत था,
धर्मराज सम्मान अधिक था।
आशीष पितामह का उसको,
प्रजाजनों में मान अधिक था।

प्रजाजनों के मन को देखा,
सब ने उस पर नेह जताया।
नैतिकता के अनुदेशों से,
धर्मराज युवराज बनाया।

हाथ से सत्ता गिरते देख,
स्वप्न को यूँ ही मिटते देख।
मन ही मन कुंठित हो बैठा,
क्रोधित मन चिंता कर बैठा।

जब उससे बर्दाश्त ना हुआ,
जब उसे लगा प्रतिघात हुआ।
मन की बात पिता से बोला,
अपने मन की गाँठे खोला।

सिंहासन यदि उसे मिला तो,
राज्य उसी का हो जाएगा।
कुछ भी प्राप्त न होगा हमको,
कुरु वंश दास हो जाएगा।

युधिष्ठिर यहाँ बड़ा सभी से,
है अधिकार उसी का पहले।
पंचों का निर्णय है सारा,
कौन यहाँ जो इसको बदले।

शकुनी की इक कुटिल चाल से,
तब दुर्योधन ने विवश किया।
अपनी इच्छा मनवाने को,
फिर संबंधों को विवश किया।

मन में भरकर कुटिल आस को,
पांडवों के समूल नाश को।
एक योजना मन में आई,
कुटिल कामना मन में छाई।

उसने मन में खेल रचाया,
नई योजना को समझाया।
सत्ता रण से हटना होगा,
पांडव को अब मरना होगा।

मेरी आप मदद ये करना,
जो मैं कहूँ आप वो करना।
वर्णावत में महल बना है,
कहना, सुंदर बहुत सुना है।

जाने को बस उनसे कहना,
कुछ दिन बस उनको है रहना।
उनको है उपहार हमारा,
मिट जायेगा संकट सारा।

महल बना है मुंज, लाख का,
पल भर में हो ढेर राख का।
जरा आग सेे जल जाएगा,
वंश समूचा जल जाएगा।

होनी को मंजूर अलग था,
कैसे सब कुछ मिटने देता।
सर पर उनके हाथ विदुर का,
कैसे घटना घटने देता।

लोभ कभी जब हावी होता,
सभी चेतना मर जाती है।
सारा बोध खत्म हो जाता,
सभी वेदना मर जाती है।

रिश्तों का फिर मोल न रहता,
लालच हावी हो जाता है।
ज्ञान, ध्यान सब मिट्टी होता,
मन विवेक सब सो जाता है।

समय शेष रहते ही जिसने,
कुंठित मन का त्याग किया है।
उसने ही जीवन को समझा,
खुल कर मन को स्वयं जिया है।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27अक्टूबर, 2023

प्रभु की पीड़ा

प्रभु की पीड़ा

किया वचन संपूर्ण सब, रखा सभी का मान।
पूर्ण किया चौदह बरस, प्रभुवर लौटे धाम।।

रावण वध कर पाप मिटाये। सीता सहित अवध को आये।।
देखि अयोध्या प्रभु हर्षाये। अवधपुरी के मन को भाये।।
देख नगर को नयना बरसे। मन ही जाने कितना तरसे।।
ऋषी मुनी सब प्रिय जन आये। बाद बरस के सबको पाये।।
माता के पग शीश नवाया। माता ने नव जीवन पाया।।
मिले सभी पर नयना तरसे। याद पिता की पल-पल बरसे।।
खोज रहे हैं नयना जिसको। दिल में क्या है कहते किसको।।
बहते आँसू रोक न पाते। अपने मन को क्या समझाते।।
सिंहासन पे सूनापन था। बिना प्राण ज्यूँ जीवित तन था।।
विधना ने क्या खेल रचाया। खुद को खोकर वचन निभाया।।
प्रभुवर कैसे सोये होंगे। सिया-राम बस रोये होंगे।।
राजमहल सब सूना लागे। रात-रात भर नैना जागे।।
मात-पिता का वचन निभाया। जग को सुंदर पाठ पढ़ाया।।
मर्यादा का मान बढ़ाया। तब पुरुषोत्तम राम कहाया।।
दया शौर्य का मान बने हैं। भारत के प्रतिमान बने हैं।।

लोभ मोह सब त्याग कर, दिया जगत को ज्ञान।
कर्तव्यों के पथ चले, बने राष्ट्र अभिमान।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अक्टूबर, 2023

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3
सांख्य योग अर्थात ज्ञान एवं कर्म योग से संबंधित है।

शरीर अन्न से बनता है
अन्न वृष्टि से
वृष्टि यज्ञ से
यज्ञ वेद से
अर्थात वेदों से ऊपर कुछ भी नहीं है।।1।।

शरीर पर इंद्रियों का नियंत्रण है
इंद्रियों पर मन का
मन पर बुद्धि का
बुद्धि पर आत्मा का।।2।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4

ज्ञान कर्म व सन्यास योग

शास्त्र सम्मत कर्म- जिस कर्म में धर्म का पालन होता हो व जिसको करने से  कर्तव्य पूर्ण होते हों लाभ-हानि को सोचे बिना।
किये गए कर्म किसी के लिए अच्छे होते हैं और किसी के लिए बुरे परन्तु कर्म वही सही है जो शास्त्र सम्मत हो।

जिसने अपने मन व अंतःकरण के साथ शरीर को जीत लिया है, अपने मन व इंद्रियों को अपने काबू में कर लिया है ऐसे पुरुष को अशा रहित कहा जाता है।
मन आशाएँ जगाता है तब आप वही करते हैं जो मन कहता है अर्थात मन के वश में होते हैं। जो मन पर विजय प्राप्त कर लेता है वो केवल शरीर संबन्धी कर्म ही करता है वो कर्म करता है पर नहीं भी करता।
जिसको बिना माँगे जो मिले वो उसी में संतुष्ट रहे जिसे दूसरों से जलन नहीं होती और जो सुख-दुख आदि झंझटों से छूट चुका है ऐसा सिद्धि और असिद्धि में रहने वाला कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उसमें नहीं बंधता। श्री कृष्ण कहते हैं कि योगी को बिना माँगे जो भी मिल जाता है वो उसी में संतुष्ट रहता है। जो किसी से जलन नहीं रखता कि अन्य के पास अधिक धन या नाम है और जो सुख और दुख में एक जैसा महसूस करता है, वही असली कर्मयोगी है। कर्मयोगी को अपनी ताकत अथवा अपनी देह पर घमंड नहीं रहता कि वो कितना ताकतवर है अथवा सुंदर है वह अपने मन में लोभ, मोह, अथवा घमंड को नहीं आने देता ऐसे योगियों के मन में परमात्मा का ज्ञान होता है। उसी ज्ञान पर चलते हुए अपना कर्म यज्ञ की तरह करते हैं। ऐसा कठोर नियंत्रण होने से ही ये लोग मोक्ष को समझ व प्राप्त करते हैं। ऐसा करना आसान नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कई असंभव है। कई लोग इस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं कर्म योगी बन चुके हैं।
जिसे यज्ञ में चढ़ाया जाए वो ब्रम्ह है और जिसे हवन में चढ़ाया जाए वो भी ब्रह्म है साथ ही जो हवन की अग्नि में दी जाए वो भी ब्रह्म है और हवन से योगी जो भी फल प्राप्त होता है वो भी ब्रह्म है। यहाँ ब्रह्म से आशय है सबसे बड़ा सत्य। हमारे आस-पास जो दुनिया है वो इसी सच का रूप है। ऐसा नहीं के इससे कुछ बदल जाता है या हमें एक दूसरे के लिए समय मिल जाता है परन्तु आवश्यकता है श्री कृष्ण के मन्तव्य को समझने की। हम यज्ञ को देवताओं को समर्पित करते हैं देवताओं से मतलब है हम जिन रूपों की पूजा करते हैं यही यज्ञ का रूप होता है। जो योगी होते हैं वो अपने यज्ञ को ब्रह्म को समर्पित करते हैं उनका हर अनुष्ठान ब्रह्म के लिए होता है। हम राम, कृष्ण, शिव या माँ दुर्गा किसी को अपना यज्ञ समर्पित कर सकते हैं बस अपने कर्म अथवा कर्तव्य को यज्ञ मान कर करने की आवश्यकता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि आग में कुछ भी डालो वो जल कर भस्म हो जाता है, संयम को भी श्री कृष्ण एक अग्नि कहते हैं। वो कहते हैं कि जो योगी होते हैं वो अपनी इंद्रियों को संयम की आग डालते हैं और अपनी इच्छाओं को अर्थात इंद्रियों को भस्म कर देते हैं परन्तु जो योगी नहीं होते वो अपना सब कुछ इन्हीं इंद्रियों में भस्म कर देते हैं जैसे किसी को देख कर क्रोध आना या जलन होना कि वो मुझसे अधिक में क्यों है, वो मुझसे अधिक प्रसन्न व साधन संपन्न क्यूँ है बस इसी तरह की बातों में नादान लोग खुद को जला डालते हैं। अपनी इंद्रियों को अथवा अंतःकरण को अपने वश में करने का सबसे बड़ा माध्यम है ज्ञान। ज्ञान से ही योगी लोग अपनी इंद्रियों को अपने वश में करते हैं। मन में जब बुरा विचार आता है तो ये ज्ञान ही उन्हें बताता है कि उनका लक्ष्य कुछ और है ये नहीं। हर काम के दो पहलू होते हसन आउट उसे करते वक्त हमें पता होता है कि क्या सही है और क्या गलत अब हम कौन सा रास्ता चुनते हैं। ये ज्ञान ही है जो हमें रास्ता चुनने में हमारी सहायता करता है। और श्री कृष्ण भी हमें गीता के माध्यम सर यही ज्ञान देते हैं। हर किसी के लक्ष्य अलग हैं इसीलिए हर किसी का यज्ञ अथवा कर्म भी अलग होता है। कुछ लोग द्रव्य रूपी यज्ञ करते हैं, कुछ लोग तपस्या रूपी यज्ञ करते है, कुछ लोग योग रूपी यज्ञ करते हैं, कुछ लोग यत्नशील पुरुष व्रतों से युक्त स्वाध्याय यज्ञ करते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि कोई पुष्प, फल, फूल अथवा द्रव्य चढ़ा कर यज्ञ पूरा करना चाहता है, कोई तप कर ईश्वर को प्रसन्न करना चाहता है, कोई योग से आवश्यकता है अपने लक्ष्य पहचानने की और अपना यज्ञ चुनने की।
श्री कृष्ण कहते हैं यज्ञ से बचे हुए अमृत का पान करने वाले योगी जन सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए ये मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक भी सुखदायक नहीं हो सकता है। यज्ञ के पश्चात जो बचता है वो अमृत है और वो सीधे पर ब्रह्म परमात्मा तक ले जाता है। हमारा कर्म ही यज्ञ है कर्म करने के पश्चात उसका जो भी फल हो उसे ईश्वर का प्रसाद समझ स्वीकार कर लेना चाहिए और उससे संतुष्ट होकर अपने अगले कर्म में लग जाना चाहिये। अपनी इंद्रियों को अपने वश में करना, साँसों को अपने नियंत्रण में रखना, प्राणायाम करना जो स्वनियंत्रण में सहायक होता है, ये सब यज्ञ ही तो है।
आहुति चढ़ा कर किये गए यज्ञ से अच्छा ज्ञान यज्ञ होता है। एक यज्ञ वह है जिसमें हम देवताओं की आह्वान कर उसे घी, पुष्प इत्यादि द्रव्य चढ़ाते हैं और दूसरा है ज्ञान यज्ञ जिसमें हम अपनी इंद्रियों को वश में करते हैं, कर्म करते हैं पर फल में इच्छा नहीं रखते हैं और ये द्रव्यों से कहीं अच्छा है इसलिए ज्ञान यज्ञ हमें सीधे ईश्वर से साक्षात्कार कराता है। इंद्रियों को जीतने वाले, श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त होता है एवं ज्ञान प्राप्त करने उसे ईश्वर की परम शांति मिलती है। 

आँसू अनमोल

आँसू अनमोल

निज मन के नील कमल पर,
इक तितली थी मँडराई।
कुछ देर ठहर कर उसने,
मुझसे थी प्रीत जताई।

पर मुझको बोध नहीं था,
कर बैठा मैं नादानी।
दे बैठा दिल मैँ उसको,
उसकी मंशा ना जानी।

मेरे सम्मुख आ-आकर,
बस झूठा प्रेम जताया।
नादान रहा ना समझा,
क्यूँ मुझको बहुत छकाया।

बेचारा दिल ना समझा,
उसने मुझसे क्या पाया।
क्यूँ दिल से मेरे खेला,
क्यूँ झूठा प्रेम जताया।

जो शब्द पलक से छलके,
वो गीतों में बसते हैं।
उस झूठे आलोड़न से,
अब आँसू भी हँसते हैं।

पर आँसू तो आँसू हैं,
कब जग ने सुनी कहानी।
खो गये गिरे मिट्टी में,
सब बातें हुईं पुरानी।

जब तोड़ दिया इस दिल को,
तब उसने था समझाया।
उन किंचित मौन पलों में,
मेरे मन को सहलाया।

आँसू का मोल नहीं है,
उपहार बहुत है सुंदर।
इनको मत व्यर्थ गँवाना,
हर प्रश्नों के ये उत्तर।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अक्टूबर, 2023



प्रेम हमारा पूजन है

प्रेम हमारा पूजन है

गंगाजल सा पवित्र रूप है मन भी कितना पावन है,
मोहक छवि है भाव सुमन है नयनों में अनुबंधन है।
स्वर में पूजन हँसी कमल सी अधरों पर रक्तिम लाली,
पवित्र प्रेम की मूरत हो तुम प्रेम हमारा पूजन है।

रूप निखरती मधुर चाँदनी शीतलता का बोध करे,
मुस्कानों में फँस कर भी मन तनिक नहीं अफसोस करे।
चाल नदी की चंचल धारा दूर किनारे मदमाते,
कंचन काया देख मुदित मन मिलने का अनुरोध करे।

बरबस मन लिपटा जाता है देह नहीं ये चंदन है,
पवित्र प्रेम की मूरत हो तुम प्रेम हमारा पूजन है।

अंग-अंग पावनता जैसे हो मानस की चौपाई,
शब्दों में शीतलता जैसे हो गीता सी गहराई।
ग्रन्थों का सब मधुर गान हो कवि मन की तुम आशा हो,
तुमसे ही आदेशित होती कवि मन की ये अमराई।

नयनों से है नेह बरसता अन्तस में आराधन है,
पवित्र प्रेम की मूरत हो तुम प्रेम हमारा पूजन है।

जिसकी एक झलक पाने को रहती ये आँखें प्यासी,
जिसके सम्मुख आने भर से मन की हो दूर उदासी।
अलंकार उपमायें सारी छंद सभी तुम पर रीझे,
बिन तुम्हारे अनुमोदन के गीत हुए सब सन्यासी।

पथ के सब आकर्षण तुमसे, तुमसे ही सम्मोहन है,
पवित्र प्रेम की मूरत हो तुम प्रेम हमारा पूजन है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अक्टूबर, 2023

राम का नाम मन में बसा लीजिये

राम का नाम मन में बसा लीजिये

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।

कंटकों से भटकने लगे मन कभी,
मुश्किलों में उचटने लगे मन कभी।
जब किसी बात से क्षोभ होने लगे,
मौन मन में कभी क्रोध होने लगे।
भक्ति का भाव मन में जगा लीजिये
मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे
राम का नाम मन में बसा लीजिये।

धर्म का मार्ग हो सत्य का मार्ग हो,
राम प्रतिपल चले लडखडाये नहीं।
लोभ हो मोह हो या कभी द्रोह हो,
पाँव उनके कभी डगमगाए नहीं।
मुश्किलें शूल बन राह रोकें कभी,
मुश्किलों को गले से लगा लीजिये।।


हो पिता का कथन मात का हो वचन,
माथ हरदम वचन को लगाया सदा।
भ्रात हो शत्रु हो या कोई मित्र हो,
प्रण किया जो उसे तो निभाया सदा।
शब्द के घाव से मन तड़पने लगे,
मौन को ढाल अपनी बना लीजिये।

जब हुआ क्रोध तो स्वयं पर वश किया,
ज्ञान का ध्यान का मंत्र जग को दिया।
बेर शबरी के जूठे कुछ गम नहीँ,
प्रेम मन में जो है तो कुछ कम नहीं।
भेद मन में कभी जब पनपने लगे,
मन को शबरी, अपने बना लीजिये।

राम हो जाये जग ये संभव नहीं,
जो चले धर्म पथ पर वही राम है।
राम का पथ चुने आज संभव नहीं,
कर्म पथ पर चले जो वही राम है।
पंथ में पाँव जब लड़खड़ाने लगे,
राम का दीप मन में जला लीजिये।

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अक्टूबर, 2023






जिंदगी की शाम

जिंदगी की शाम

जिंदगी के मोड़ का ये भी इक मुकाम है
हर उम्र की है इक सुबह हर उम्र की इक शाम है

कब थमी हैं चाहतें उम्र के पड़ाव पे
चाहतों के दौर में उम्र बस बदनाम है

नफरतों का दौर तो स्वयं को सँभाल लो
स्वयं का स्वभाव ही प्रेम का पैगाम है

कहने को तो जिंदगी जी रहे हैं सभी
औरों के लिए जिये उसी का तो नाम है

था दिवस थका-थका माना रात मंद है
पर बीच में हँस रही इक हसीं शाम है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       17अक्टूबर, 2023



काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता

काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता

जीवन के कितने सावन, संग समय के बीत गये,
कभी हृदय घट भरा रहा और कभी ये रीत गये।
रीते घट में सपनों को कोई आता भर जाता
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

गली मुहल्ले की बातें संग गुजारी वो यादें,
दिन के टुकड़ों में छुपकर रातों तक होती बातें।
बीते पल की यादों को कोई आता दुहराता,
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

मिलते जब दो चार घड़ी बातों में खो जाते थे,
मन में कोई फिकर नहीं नित-नित स्वप्न सजाते थे।
सपनों से पंखुरियों को कोई आता सहलाता
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

फिर वो कागज की कश्ती फिर बारिश का पानी,
कहीं बरसते फिर घन बादल आती याद पुरानी।
बन बारिश की बूँदें आता अंतर्मन सहलाता,
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

हर छोटी से ख्वाहिश पर मन कितना खिल जाता था,
इक छोटे से आँचल में सब सपना मिल जाता था।
फिर सपनों के आँचल से आता पलकें सहलाता
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

धूप-छाँव का खेल जिंदगी इससे किसकी यारी है,
जीवन की संध्या में कल जाने किसकी बारी है।
जीवन की बची सांध्य में आता मन बहला जाता,
काश मुझे इन गीतों में मेरा बचपन मिल जाता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17अक्टूबर, 2023



आसान नहीं है

आसान नहीं है

कुछ शब्दों में मन की कहना, इतना भी आसान नहीं है
चुप-चुप रह आँसू को पीना इतना भी आसान नहीं है

कितने घाव मिले हैं दिल को, औ कितने दर्द भुलाये हैं
हर पल उन घावों में जीना, इतना भी आसान नहीं है

साथ गलत का छोड़ न पाये, रिश्ता खुद ही तोड़ न पाये
खुद के मन को अब बहलाना, इतना भी आसान नहीं है

तुमसे माना दूर हुआ हूँ, पर यादों को भूल न पाया
यादों को दिल में दफनाना, इतना भी आसान नहीं है

साथ दो कदम चल न सके हम, हाथों में शायद रेख नहीं
पर किस्मत को दोषी कहना, इतना भी आसान नहीं है

बरज़ोरों की इस बस्ती में, कमजोरों की कौन सुनेगा
बरज़ोरों को दोषी कहना, इतना भी आसान नहीं है

झूठे वादे बेच रहे हैं, बस्ती-बस्ती द्वारे-द्वारे
पर वादों को झूठा कहना, इतना भी आसान नहीं है

इंसानी खालों में कितने, वहशी पथ में घूम रहे हैं
पर वहशी को वहशी कहना, इतना भी आसान नहीं है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14अक्टूबर, 2023

तब इस दिल में प्यार न होगा

तब इस दिल में प्यार न होगा

जब रूठेगा हृदय हमारा,
तब इस दिल में प्यार न होगा।

कितनी बातें कहें सुनेंगे,
शूल हृदय में कहीं चुभेंगे।
बातों से जब छलनी होगा,
पायेगा जब पग-पग धोखा।
जब टूटेगा हृदय हमारा,
नयनों पर अधिकार न होगा।

बस गीतों में प्रेम बुनेंगे,
राहों के अवरोध चुनेंगे।
तुमसे दिल की बात कहेंगे,
नयनों में नव स्वप्न सजेंगे।
जब टूटेगा स्वप्न हमारा,
पलकों का आभार न होगा।

हम-तुम जब तक साथ चलेंगे,
खुशियों के सब फूल खिलेंगे।
छूटेगा जो साथ हमारा,
टूटेगा विश्वास हमारा।
तब न लगेगा कोई प्यारा,
फिर कोई श्रृंगार न होगा।

आँसू का जब मोल न होगा,
बातों का भी मोल न होगा।
जब कोई व्यवहार न होगा,
जब मन में उजियार न होगा।
सत्य फिरेगा मारा-मारा,
फिर सुंदर संसार न होगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अक्टूबर, 2023

सबल रहो प्रबल रहो

सबल रहो प्रबल रहो

विपत्तियाँ तो आयेंगी, उनकी एक राह है,
समुद्र की गहराईयों, की भी एक थाह है।
अपने हौसलों पे तुम, अविचल रहो अटल रहो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

हैं द्वार तो अनेकों पर चाभी सिर्फ एक है,
सत्य का हो साथ जिसपर राह वो ही नेक है।
तुम चुन के मार्ग जीत का स्वयं को निश्चल रखो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

भोर के प्रभाव को न रात रोक पाई है,
एक नई सुबह लिये उम्मीद मुस्कुराई है।
उम्मीद के प्रभावों से स्वयं को उच्चल रखो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

है कमी जो स्वयं में तो उसका आत्मज्ञान हो,
सदा यहाँ विपत्तियों में स्वयं का सम्मान हो।
हर विपत्तियों में भी सदा स्वयं को अचल रखो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

हर उम्र का इक दौर है आयेगी-जायेगी,
उम्र के प्रभाव की नव कहानियाँ सुनाएगी।
उस प्रभाव के स्वभाव से मन को तुम सरल रखो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

हो पुण्य पंथ के पथिक तो जीत बस पड़ाव है,
जो रुक गये पड़ाव पर तो स्वयं से दुराव है।
हर पुण्यता के मार्ग पर मन को तुम अटल रखो,
सत्य मार्ग के प्रशस्ति तक, सबल रहो प्रबल रहो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अक्टूबर, 2023


उच्चल- गतिवान, उच्चता

इतिहास से

इतिहास से

क्यूँ अँधेरा लग रहा है आज हम सबको नया सा,
जबकि ये अँधियार मन को है छल रहा इतिहास से।

क्या हमारी दृष्टि से वो रात ओझल हो गयी है,
या हमारी आँख से वो नींद बोझल हो गयी है।
है कहीं कुछ तो छुपा सा ज्ञात जो हमको नहीं है,
या किसी के चौंध से ये रात बोझिल हो गयी है।

क्यूँ न जाने दृष्टि को अवसान अब लगता नया सा,
जबकि ये अवसान मन को है छल रहा इतिहास से।

साँस सिमटी जा रही है ज्यूँ अँधेरा हो रहा हो,
प्यास पागल हो रही है मन अकेला हो रहा हो।
डँस रही है चेतना को यूँ लग रहा अँधियार ये,
उम्र काजल में सिमट कर ज्यूँ सवेरा खो रहा हो।

सांध्य पीढ़ी को यहाँ अब लग रहा बिल्कुल नया सा,
जबकि ये व्यवहार मन को है छल रहा इतिहास से।

दीप तब होता पराजित जब-जब उजाला मौन हो,
और बाती की दशा पर जब सूर्यवादी मौन हों।
मंच से अँधियार का उपदेश भारी हो पड़ेगा,
जब अँधेरे में सिमटकर लौ दीपिका की मौन हो।

धर्म का उपहास मन को लग रहा है क्यूँ नया सा,
जबकि ये उपहास मन को है छल रहा इतिहास से।

लगता अँधेरा ही यहाँ कुछ रास्ता दिखलायेगा,
फिर सत्य की स्थापना का नव रास्ता बतलायेगा।
यह अँधेरा धमनियों में रोष जब बोने लगेगा,
तब हृदय की दीपिका को नव रास्ता दिखलायेगा।

आज ये प्रतिकार सबको लग रहा है क्यूँ नया सा,
जबकि ये प्रतिकार मन में है पल रहा इतिहास से।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अक्टूबर, 2023



मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

सावन के बादल से मिलकर बूँदों ने नवगीत गढ़ा है,
भींगा-भींगा मन का आँगन सुधियों ने नवगीत पढा है।
चली मचलती पुरवाई ने साँसों को वरदान दिया है,
मदमाते नयनों से मन ने यौवन का मधुपान किया है।
पूरी मन की हुई साधना जिसकी खातिर मन तरसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है।

कितने सावन बाद मिलन की घड़ियों ने संजोग सजाया,
कितने पतझड़ बीते हैं तब ऋतु ने मन में नेह जगाया।
देख चाँदनी की किरणों को रीता पनघट हर्षाया है,
मन के सूने आसमान पर मेघों ने जल बरसाया है।
मेघों का अल्हड़पन देखा पुन अंतर्मन ये हुलसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है।

सदियों तक यूँ करी प्रतीक्षा सब मन का आँगन रीत गया,
बरसा जब-जब मन का बादल नयनों का काजल भींग गया।
अंबर की रिमझिम धुन पर अंतर्मन कितना रोया है,
बही प्रतीक्षा आँसू बन जब घावों को पल-पल धोया है।
धुली प्रतीक्षा इन नयनों की कोरों का मरुथल विहँसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अक्टूबर, 2023





एक हस्ताक्षर

एक हस्ताक्षर। 

कितने लम्हे ठहरे होंगे
और खुद ठगा पाया होगा
जब कागज के चंद पुलिंदे
मन के ऊपर छाया होगा।

कागज के उस संधी पत्र पर
बेमन संज्ञान लिया होगा
उस इक पल में जाने कितने
आँसू का घूँट पिया होगा।

इक छोटे से हस्ताक्षर ने
पल में क्या से क्या कर डाला
जो भूगोल बदल सकता था
पल ने इतिहास बदल डाला।

क्या से क्या हो गया गगन में
क्षण भर सूरज छुपा गगन में
कहीं विजय की पटकथा लिखी
पर चोट लगी अंतर्मन में।

क्षण भर को दिल धड़का होगा
शोला मन में दहका होगा
स्मरण शहादत का जब आया
खुद पर कितना भड़का होगा।

देखा होगा कहीं आइना
कैसे नजर मिलाया होगा
अपने भीतर उठे क्षोभ को
कैसे वहाँ दबाया होगा।

सीमा पर जो लहू गिरा है
उसका कैसे मान करूँगा
पत्नी, माँ, बहनों को बोलो
कैसे अब आश्वासन दूँगा।

क्या बोलूँगा जन गण मन को
मन सोच विक्षिप्त हुआ जाता
उस क्षण में घटित हुआ था जो
उससे अतृप्त हुआ जाता।

उलझन के उस क्षण में खुद को
कितना तनहा पाया होगा
जाने कितने भाव हृदय में
अपने पलते पाया होगा।

दुविधा के इस भँवरजाल में
पीड़ा मन की बढ़ती जाती
पल पल जैसे बीत रहा था
उसकी छाती फटती जाती।

उस एक पल ने सदियों बाद
फिर चक्रव्यूह को था देखा 
और भोर की किरणों ने फिर
अभिमन्यू को गिरते देखा।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद
        02अक्टूबर, 2023

जीवन है ताना-बाना

आँसू- जीवन है ताना बाना

1
कुछ कहना चुप हो जाना 
पलकों से सब कह जाना 
कुछ खोना कुछ है पाना 
जीवन है ताना-बाना।

कुछ रुक रुक कर के चलना 
फिर मिलना और बिछड़ना 
ठोकर खा-खाकर गिरना 
गिर-गिर कर और सँभलना। 

फिर गीतों मे ढल जाना 
बिन कहे बहुत कह जाना 
हँस- हँस कर सब अपनाना
जीवन है ताना-बाना। 

2
निज मन ये पुण्य पथिक है
चलता, रुकता न तनिक है
अभिलाषाओं का जगना
पलकों पर उनका सजना।

वो रात-रात भर जगना
नींदों से स्वयं उलझना
मन बहलाने की करवट
वो खिली माथ की सिलवट

सिलवट में भाव छुपाना
आँसू यदि, तो पी जाना
फिर से नव स्वप्न सजाना
जीवन है ताना-बाना।

3
कब जीवन रहा सरल है
पग-पग पे भरा गरल है
कभी नीलकंठ बना है
विष पीकर स्वयं तना है।

मन कितना क्रंदन करता
या जीता या फिर मरता
तब मन खुद की है सुनता
आँसू में जीवन बुनता।

ले बीती पीर पुरानी
तब लिखता नई कहानी
फिर स्वयं पात्र बन जाना
जीवन है ताना-बाना।

4
करुणा के मौन पलों में
झर-झर नयनों से बहती
अधरों पे मौन भले हो
आँसू हर पीड़ा कहती

सब बीती-बीती बातें
नयनों की सूनी रातें
जब-जब स्मृतियाँ तड़पातीं
तब-तब मन को समझातीं।

नयनों की अगन बुझाती
कुछ सुनती कुछ कह जाती
आहों से नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

5
मन गंगा से निर्मल था
सपनों में नीलकमल था
पल-पल ये दृश्य बनाता
मन ही मन उसे सजाता।

चुनता पग-पग के कंटक
वो पथ के सारे झंझट
फिर देता नई निशानी
कुछ अनजानी पहचानी।

जब उसको कुछ मिल जाता
मन ही मन वो खिल जाता
अंतस में नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

6
मन सुख को मौन तरसता
दुख आँसू बनकर झरता
इस कोमल हृदय कमल में
अलकों के मौन निलय में।

आँसू आयी बहलाने
घन पीड़ा को सहलाने
जो कह न सकी वो कहने
मन की पीड़ा को हरने।

देने को मौन दिलासा
बन कर छोटी सी आशा
फिर-फिर मन को समझाना
जीवन है ताना-बाना।

7

पलकों ने मौन पुकारा
आँसू ने दिया सहारा
दिल के छाले सहलाये
पल-पल मन को बहलाये।

आहों को दिया सहारा
साँसों ने जहाँ पुकारा
क्या करता मौन अकिंचन
कोरों से आये छन-छन।

आहों को पुनः मनाने
सपनों का पंथ सजाने
पलकों में फिर सज जाना
जीवन है ताना बाना।

©️✍️अजय कुमार पांडेय 
        हैदराबाद 




अंतिम सफर

अंतिम सफर

मुक्त हो सब बंधनों से अब आज वो उड़ने चला

दौड़ थी ऐसी अनूठी, उम्र भर वो रुक न पाया,
पास था सागर मगर, दो घूँट भी वो पी न पाया।
एक ही थी रट अधर पर, और कितना और पाना,
हाय कैसे बैठ जाऊँ, जब अभी है दूर जाना।
अब जो मिला इस दौड़ से, सब छोड़ अब पीछे चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

जोड़ कितनी राह मन ने, आस की मंजिल बनाई,
मंजिलों के पास था पर, राह मन को मिल न पाई।
थक गया जब दौड़ कर, मन वो उम्र से लड़ने लगा,
क्या, हाय पीछे छोड़ आया, वो उम्र से कहने लगा।
उम्र भर थी जो शिकायत, सब भूल कर खिलने चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

शोर में खामोशियाँ थीं, कुछ मौन था आधार था,
स्वयं से थी जंग जब-जब, मन खेलता हर बार था।
अब हार हो या जीत हो, फर्क कब उसको पड़ा है,
इस जिंदगी की जंग में, हर बार देखा खड़ा है।
खामोशियों को शोर दे, हो मौन अब आगे चला
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

सब मिट गये हैं फासले, पर छूटता जाता नगर,
चार काँधों पर पड़ा वो, अब चल पड़ा अंतिम डगर।
आज उसके मौन में भी, मृदुल नेह का स्वभाव है,
जिंदगी के इस सफर में, ये मौत इक ठहराव है।
अब खुश रहे तू जिंदगी, वो स्वयं से मिलने चला,
मुक्त हो सब बंधनों से, अब आज वो उड़ने चला।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30सितंबर, 2023



दायित्यों को पूजन समझा

दायित्यों को पूजन समझा

जगती से जो मिला ज्ञान, उसको मन ने जीवन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले दायित्यों को पूजन समझा।

रहा अपरिचित भाव सदा, कितने मौन मचलते देखा,
रात-रात भर बाती को, जग ने मौन पिघलते देखा।
रात फिसलती रही वहाँ, मन ने केवल फिसलन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

कुछ शब्द जगत से मिले कभी, कुछ घाव बने कुछ मलहम,
कुछ अनुभव का भाग बने हैं, कुछ की अब तक है अनबन।
कुछ बिसरे कुछ धूल हुए, कुछ को मन ने साधन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

रजनी के अलसित भावों का, सदा यथोचित मान किया,
नयनों के अरुणिम भावों को, अरुणोदय का मान दिया।
दिवस निशा में भेद न समझा, कर्तव्यों को प्रण समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29सितंबर, 2023



पाँव ठहरने लगते हैं

पाँव ठहरने लगते हैं

देख किनारे सागर के जब भाव विचरने लगते हैं,
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

उस पार क्षितिज के जीवन के कुछ प्रश्न अधूरे मिल जायें
जो खुले नहीं हैं भाव अभी तक शायद सारे खुल जायें
बंद हृदय के द्वार खुलें सब मन शायद सहज वहीं पर होगा
जो प्रश्न अधूरे हैं अब तक शायद उनका उत्तर भी होगा
धरती अंबर का मिलन देख अहसास उमड़ने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

उस पार कहीं पर शायद नभ गंगा का तीर मिलेगा
शुभ्र चंद्रिका सा लहराता मृदु मनमोहक चीर मिलेगा
अलकों से कहीं झलकता हो वहाँ शिशिर विमल बन कर स्वेद
शायद करुणा छप जाती हो स्मृति पटल पर बनकर निर्वेद
शुभ मंगल के मधुर भाव से अनुराग मचलने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।

शतदल का चुम्बन पाकर के जल खुद पर इतराता होगा 
भ्रमरों के गुंजन से शायद नभ भी शीश झुकाता होगा
शायद मन के करुण भाव को मृदु नेह इशारा मिल जाये
शायद इन तपते अंगारों से वहीं सहारा मिल जाये
मन में पनपे नेह बिंदु से मन भाव सँवरने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28सितंबर, 2023


व्यस्तता ऑनलाइन

व्यस्तता ऑनलाइन

नजर जिधर भी डालिये सब मोबाइल में मस्त हैं,
इक दूजे की कौन सुने सब ऑनलाइन ही व्यस्त हैं।

ट्रेन भले हो बस हो चाहे, स्टेशन या कहीं  पार्क हो,
कहीं रोशनी ज्यादा हो या, फिर कहीं अँधेरा डार्क हो।
नजर जिधर भी डालिए, बस रील बनाने की होड़ है,
रिकिम-रिकिम के कंटेंट हैं, रिकिम-रिकिम की दौड़ है।

चाहे पूजा पाठ हो या फिर शादी हो बारात हो,
भले अकेले हो कोई या, संगी-साथी साथ हो।
मेमोरी के नाम पर खुद को ऐसे-ऐसे मोड़ रहे,
पाउट कहीं, कहीं पर एक्शन, अच्छे तन को तोड़ रहे।

आज घरों से निकल सड़क तक रील की होड़ा-होड़ी है,
कल तक जिसके पैसे लगते वो स्वयं द्वार तक दौड़ी है।
पल भर में फेमस होने की ये गली-गली तकरार है,
फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर अब इनकी ही भरमार है।

रील बनाने के चक्कर में, कितने ट्रेन के नीचे आये,
कितने जीवन दूषित हो गये, पूछे कौन कि क्या-क्या पाये।
हो कहीं सड़क पर कोई घटना, बस पहले रील बनाना है,
मोबाइल के दौर में पहले, खुद ही न्यूज़ चलाना है।

न तथ्यों की परख यहाँ है, सब बातों को तोड़ रहे हैं,
एक ग्रुप से माल उठाते, दूजे ग्रुप में छोड़ रहे हैं।
झूठ-साँच की परख के बदले, अफवाहों का दौर है,
ऐसा लगता चोट कहीं पर, दर्द कहीं पर और है।

बदला समय बड़ी तेजी से, अनुभव की अब कौन सुने,
पहले आओ पहले पाओ, घड़ी प्रतीक्षा कौन चुने।
सस्ती लोक लुभावन बातें, करती मन को विकल यहाँ,
ऐसा ही जो दौर चला तो, किसको पूछे कौन कहाँ।

सब मोबाइल का दोष नहीं, ये सारा दोष हमारा है,
आज दिखावे की दुनिया में, सब फिरते मारा-मारा हैं।
सुविधाएं जब सिर पर चढ़कर, अपना रूप दिखाएंगी,
फिर तार-तार शुचिता होगी, फिर  नैतिकता पछताएगी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25सितंबर, 2023

मन की बात

मन की बात

इस रात की तन्हाइयों में भी कहीं कुछ बात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

ये रात लगती क्यूँ दिवस के बोझ से मजबूर है,
ऐसा लगता है कि ये भी थक के मुझसा चूर है।
वो टूटता आकाश तारा कर रहा है इशारा,
लग रहा मन की धरा से आकाश अब भी दूर है।

फिर भी खुद को है झुकाया जाने कुछ तो बात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

स्वप्न का मन देख कर पलकों को मनाती रह गई,
मधुमास के मृदु गीत मलयानिल सुनाती रह गई।
ये रात रानी चाँदनी की रश्मियों में जल गई,
रात बरबस ओस छुप-छुप आँसू बहाती रह गई।

यूँ लग रहा है आँख से पल-पल गिरी बरसात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

मन कहता है पूर्ण कर ले आज अधूरी कामना,
और सफल हो जाये शशि की अनसुनी आराधना।
याचना अब गीत बनकर आधरों से चल पड़ी है,
गूँजते हैं भाव मन के बन आदि कवि की साधना।

साधना कवि के हृदय की बस प्यार की सौगात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2023

यादें सुहानी

यादें सुहानी

नहीं मुमकिन सिमट जाये किताबों में कहानी ये
बहुत भटका हूँ तब पाया हूँ मैं जिंदगानी ये

शहर ये छेड़ता अब भी पुरानी याद गीतों में
कई यादों से गुजरा हूँ मिली है तब निशानी ये

नहीं मुमकिन भुला पाना गुजारे साथ लम्हों को
कि यादों में महकती है सुहानी रात रानी ये

चलो इक बार फिर से हम उन्हीं राहों में हो आयें
जहाँ पर छोड़ कर आये अधूरी सी कहानी ये

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2023


मुक्तक

मुक्तक

छू सकूँ दिल को कलम से मुझे दुआयें देना,
मैं छू सकूँ दर्द दिलों के ये दुआयें देना।
मेरे मालिक बस इतनी मेहरबानी कर दे,
लिखूँ गीतों में मैं मन को ये दुआयें देना।
*****************************

इस मौन को विश्राम दें कुछ तुम कहो कुछ मैं कहूँ,
भावनाओं का समर है कुछ तुम गुहो कुछ मैं गुहूँ।
अब दूर हों सब फासले फिर एक हम-तुम हो यहाँ,
अब दुख मिले या सुख मिले कुछ तुम सहो कुछ मैं सहूँ।
****************************

पलकों के किनारों ने लिखी कितनी कहानी,
काजल के इशारों ने लिखी कितनी कहानी।
पलकों के कोरों में कहीं कुछ बात छिपी है,
नयनों ने बहारों की लिखी उतनी कहानी।
****************************

शाख से उजड़ा हूँ पर कमजोर नहीं हूँ,
सबसे हूँ बिछड़ा मगर कमजोर नहीं हूँ।
हालात कैसे भी हों अफसोस नहीं है,
टूट के सँभला हूँ मैं कमजोर नहीं हूँ।
******************************

लिखूँ कितनी कहानी मैं कुछ किस्से छूट जाते हैं,
भरूं कितना भी चित्रों में कुछ हिस्से छूट जाते हैं।
जाने क्या कमी है जो मेरे हिस्से में आई है,
रहूँ कितना सँभल कर भी ये रिश्ते टूट जाते हैं।
******************************

मुझे उनसे मुहब्बत है मगर कहना नहीं आया,
मिले जो दर्द उल्फत में कभी सहना नहीं आया।
कहीं कुछ तो कमी होगी लकीरों में हथेली की,
हुए जब पास हम दोनों हमें रहना नहीं आया।
*****************************

मिले जो जख्म हैं तुमसे मुझे उनसे मुहब्बत है।
चुभे जो शब्द इस दिल पर मुझे उनसे मुहब्बत है।
नहीं कोई शिकायत है नहीं कोई गिला उनसे,
हमसे रूठे हैं वो पर हमें उनसे मुहब्बत है।
***************************

तुम्हारे दर्द को अपना बनाने की गुजारिश है,
तुम्हारे ज़ख्म पर आँसू बहाने की गुजारिश है।
नहीं चाहत मुझे कोई मगर है प्रार्थना इतनी,
तुम्हारे साथ मरने और जीने की गुजारिश है।
****************************

मेरी आँखों के आँसू को कभी तो पढ़ लिया होता,
नए सपने निगाहों में कभी तो गढ़ लिया होता।
बिछड़ते ना कभी हम-तुम यहॉं इस मोड़ पर आकर,
पकड़ कर हाथ दूजे का आगे बढ़ लिया होता।
*****************************

भाव उसके हृदय को छुआ ही नहीं।
दर्द का बोध उसको हुआ ही नहीं।
जानेंगे क्या तड़प वो किसी और की,
प्रेम जिसके हृदय में हुआ ही नहीं।
*****************************

दिल में क्या आपके है जता दीजिये
मौन कब तक रहेंगे बता दीजिए
दिल का अपने मुझको पता दीजिये
दूर कब तक रहें आपसे हम यहाँ

मौन को तोड़िये सब बता दीजिये


तुम्हारे साथ जो बीती वही अपनी कहानी है







शुभ घड़ी आयी

शुभ घड़ी आयी

तोरण सजाओ, जलाओ दीप की लड़ियाँ
आज पूरी हुई हैं प्रतीक्षा की घड़ियाँ।
हाथ पूजा की थाली शुभ दीप जलाओ,
आयी शुभ घड़ी आयी सब मिल-जुल आओ।

माथ टीका लगाओ गीत मंगल गाओ,
दोनों हाथों से सब मिल मोती लुटाओ।
आई द्वारे पे मोरे पी की सवारी,
भरी नयनों में मोरे छवि न्यारी-न्यारी।

मुझे मिल सजाओ हाथ मेंहदी लगाओ,
आँख काजल लगा काला टीका लगाओ।
उनके नयनों के कोर में यूँ बस जाऊँ,
जहाँ पलकें खुलें बस नजर मैं ही आऊँ।

आज सपने सभी मेरे पूरे हुए हैं
कई जनमों के वनवास पूरे हुए हैं।
गीत खुशियों के अब चाँदनी गा रही है,
पिया मिलन की घड़ी पास अब आ रही है।

मुझे आशीष दो मेरा जीवन सँवारो,
सखियों मिल जुल सब मेरी नजरें उतारो।
मेरे जीवन की बगिया यूँ सजती रहे,
हर घड़ी मन की ये बगिया महकती रहे।

गीतों की पालकी से मधुर गीत गाओ,
आयी शुभ घड़ी आयी सब मिल-जुल आओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18सितंबर, 2023

दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।

दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।

प्रेम का अहसास सारा दर्द बिन पूरा हुआ कब,
बिन विरह के गीत की हैं पंक्तियाँ सारी अधूरी।
आह साँसों से लिपट कर ना कहे जब तक कहानी,
चाहतों के पृष्ठ पर है लेखनी तब तक अधूरी।

अहसास जब सम्मान पाया नेह उतना ही खिला है,
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

वेदना का वेद लिखकर ग्रन्थ तब पुलकित हुआ है,
वेदना का वेद जब-जब साँस में छापा गया हो।
भूख का इतिहास भी तब पृष्ठ पर पूरा हुआ है,
मापनी में जिंदगी के स्वेद जब मापा गया हो।

मापनी में वेदना के माप को जीवन मिला है,
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

भाग में चाहे लिखा हो बूँद अमृत या गरल की,
सत्य के विश्वास खातिर वक्त ने सब कुछ पिया है।
द्यूत क्रीड़ा जिन्दगी के मोड़ पर जब-जब छिड़ी हो,
दाँव पर इस जिन्दगी ने स्वयं को तब-तब किया है।

दाँव में कुछ भी रहा हो सत्य को ही पथ मिला है
दर्द जब सम्मान पाया प्रेम उतना ही खिला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर, 2023




दूर बड़ी रहिया

दूर बड़ी रहिया

कवने घाटे जिनगी जाई, कवने घाटे देहिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

जनम मरल के फेरा, जग में लगल बा
विधना के आगे बोला, केकर चलल बा
हाथ के लकीर में ही, लिखल सारी बतिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

सुख-दुख आये जाये, न केहू के सगा है
मन में वहम जेकरे हौ, वही तो ठगा है
धीरे-धीरे बीते ई भी, जइसे दिन रतिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

धन के ही सङ्गे-सङ्गे, मन जब बढ़ल बा
शंका के करिया बादर, मन के ढँकल बा
मन के सम्हारे में ही, बीते ई उमरिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

पद, मान, धन, दौलत, सब यहीं रह जाई
चार जन के काँधा ही हौ, सगरौ सच्चाई
फिर काहे मनवा मन से, करे बरजोरिया
धीरे-धीरे चला हो राही, दूर बड़ी रहिया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2023

सनातन

सनातन

है बिखराया किसने चमन में जहर को,
के कलियों से रौनक मिटी जा रही है।
है दिया घाव किसने लहर को नदी की,
के कश्तियाँ लहर में फँसी जा रही है।

जहर किसने घोला है बहती हवा में,
के सभी फूल उपवन झुलसने लगे हैं।
है कैसी ये फिसलन फिजाँ में कहो कुछ,
जाने क्यूँ रास्ते ही फिसलने लगे हैं।

कुरु की सभा में मौन बैठे हैं सारे,
उपहास धरम का जो किये जा रहे हैं।
हो चले बाँधने राष्ट्र की आतमा को,
रसातल में स्वयं को किये जा रहे हो।

जो कहते घृणा का ना है धर्म कोई,
घृणा धर्म से वही अब करने लगे हैं।
जो चले थे कभी जोड़ने इस वतन को,
जाने क्यूँ रास्ते से भटकने लगे हैं।

सदियों में जिसकी लिखी गयी न कहानी,
लम्हों में उसको बाँधने चल रहे हो।
नहीं भान तुमको सुनो, क्या कर रहे हो,
के जीवन को ही बाँधने चल रहे हो।

सनातन है ये अब न इसे और समझो,
चाह कर भी जड़ों को हिला ना सकोगे।
के गीता का जिसने पढा पाठ रण में,
चाह कर भी उसे अब हरा ना सकोगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16सितंबर, 2023

कब तलक आँख अपनी ढूँढेगी परछाइयों को

कब तलक आँख अपनी ढूँढेगी परछाइयों को

और कब तक आँख अपनी छाँव बरगद की तकेगी
और इच्छाएं हमारी दूर जा कितनी रुकेगी
और कब तक मौन होकर स्वयं को चलते रहेंगे
और कब तक बरगदों की छाँव में पलते रहेंगे
चाहतें कब तक छुपेंगी मौन हो गुमनामियों में
कब तलक....।

धार जब तक ही रहेगी दूर तक नदिया बहेगी
साथ कितने रास्तों के शूल कंटक भी सहेगी
धार जो ठहरी कभी तो नीर दूषित हो पड़ेगा
चुप्पियाँ ठहरीं अधर पर शब्द शोषित हो रहेगा
वक्त रहते चीख लेना दूर कर तन्हाइयों को
कब तलक.....।

सपनों का न मोल होगा और नहीं कोई वास्ता
ढूँढेगी न स्वयं आँखें खुद आगे बढ़कर रास्ता
कर मिथक सब दूर कल के साकार हो कल्पनाएं
रोक न पायेंगी तुझको ध्येय पथ पर वर्जनाएं
तोड़ कर पाखंड सारे मुक्त कर बदनामियों को
कब तलक......।

आ रही देखो सुहानी भोर प्राची की दिशा से
नाचती हैं रश्मियाँ भी मुक्त हो कर के निशा से
लिख रहा सुंदर सवेरा गीत की नव पंक्तियाँ अब
बंधनों से मुक्त कर दो मन की अभिव्यक्तियाँ सब
मुक्त हो अब बंधनों से दूर कर रुसवाइयों को
कब तलक.......।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08सितंबर, 2023


भावों को सहलायेंगी

भावों को सहलायेंगी

सांध्य क्षितिज पर जब शरमाये तुम अपना आँचल लहराना
तब गीतों की मधुर पंक्तियाँ भावों को सहलायेंगी।

भाव निखर बाहर जब आयें आहें भी जब गीत सुनायें
जब अक्षर-अक्षर बिखरे होंगे बीते पल के कतरे होंगे
साँसों में जब विचलन होगी आहों में भी फिसलन होगी
पलकें सारी बात कहेंगी तन्हाई में रात बहेगी
तब आहों को गीत बनाकर तुम मेरे मन को बहलाना
तब गीतों....।

जब यादों के बादल छायें वादे जब मन को तड़पायें
इक धुँधली पर घनी लकीरें लुक-छिप लुक-छिप आये जायें
जब बादल के अंक सिमट कर सांध्य कहे कुछ फिर शरमाये
जब हल्की सी छुअन पौन की मन में इक सिहरन दे जाये
उम्मीदों की पाँखी बनकर मेरी पलकों को सहलाना
तब गीतों....।

तन्हाई मन को तड़पाये परछाईं धूमिल पड़ जाये
कही-अनकही, भूली-बिसरी बात हृदय को जब तड़पाये
खुद से जब मन कहना चाहे खुद को जब मन सुनना चाहे
पलकें जब खुद ही झुक जायें कहे बिना ही सब कह जायें
मन से मिल जब मन सकुचाये, मन ही मन, मन को समझाना
तब गीतों......।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06 सितंबर, 2023


कोई अधिकार नहीं

कोई अधिकार नहीं

माना कई उपासक तेरे अपना कोई और नहीं
होंगे लाखों बाँह पसारे अपना कोई ठौर नहीं
तिनका माना महासमर का तुमसा मैं अवतार नहीं
पर मेरे जीवन पर तुमको है कोई अधिकार नहीं।

सुबह किया आरंभ कहीं पर रात कहीं विश्राम किया
कभी दुपहरी को अपनाया संझा का बलिदान किया
पैरों ने कितने पग नापे तब आहों में गाया है
जितना जाना अपने मन को उतना ही अपनाया है
माना जगती के फेरों में तुमसा है व्यवहार नहीं
पर मेरे........।

जब-जब जैसा चाहा तुमने वैसा ही वरदान जिया
चाहे जितनी राह कठिन हो तुमने तो पहचान जिया
तुम धरती का उगता सूरज हम डूबे के प्रहरी हैं
सांध्य ढले इस जीवन पथ पर आँखें हम पर ठहरी हैं
तुम्हें मिले उपहार बहुत हमें कोई उपहार नहीं
पर मेरे...... ।

तुम सत्ता के शीश मुकुट, हम धरती पर रहने वाले
पुष्पादित पथ के राही, धूप-ताप हम सहने वाले
लोकतंत्र की परिभाषा में पर है अपना स्थान बड़ा
स्याही की इक बूँद गिरी जब सजे मुकुट का मान बढ़ा
लोकतंत्र है व्यवहारों का कभी यहाँ उपकार नहीं
पर मेरे जीवन.....। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2023



याद बनकर

याद बनकर

कब हुई है याद बोझिल कब हुई है राह ओझल,
कब हुए हैं स्वप्न बोझिल कब हुई है नींद ओझल 
हो अभी मानस पटल पर ग्रन्थ का अनुवाद बनकर,
कैसे कह दूँ विदा जब छाये हो तुम याद बनकर।

साथ कितने वक्त गुजरे सांध्य हो या फिर सवेरे
भीड़ में तन्हा रहे और तन्हाई में अकेले
पर तुम्हारी याद हरपल छाई इक गीत बनकर
कैसे कह दूँ विदा जब छाये हो तुम याद बनकर।

पास रहना यदि कठिन था तो दूर रहना भी कठिन
ये मन हमेशा ढूँढता था एक अनजाना मिलन
जिसकी सिलवट में गुजरती जिंदगी सारी सिमटकर
कैसे कह दूँ विदा जब छाये हो तुम याद बनकर।

हो मिलन के भाव मन में या जुदाई की कहानी
उम्र भर लिखती रही है जिंदगी कैसी कहानी
चाहतें विस्तृत रहीं पर रह गईं साँसें उलझकर
कैसे कह दूँ विदा जब छाये हो तुम याद बनकर।

एक ही जीवन मिला है देव उसकी ये कहानी
ढूँढती है साँस हरपल भीड़ में खोई निशानी
मौन सारी चाहतें अब भी हृदय में कहीं छिपकर
कैसे कह दूँ विदा जब छाये हो तुम याद बनकर।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अगस्त, 2023

कहाँ पर छोड़ कर आये

कहाँ पर छोड़ कर आये

कुछ हौसला कुछ स्वप्न कुछ पोटली बाँध कर आये
चले कुछ दूर तब जाना कि क्या-क्या छोड़ कर आये
कभी सत्तू, कभी लाई, बताशा, या कभी गुड़ से
बताएं क्या के अपनी भूख कहाँ छोड़ कर आये।

पिता के हाथ की लाठी और माँ की आँख का चश्मा
वो साँकल बीच से तकती सूनी रात का सपना
रातों की सिफारिश में वो चंदा का सँवर जाना
फिर शरमा के तारों में कभी मिलना कभी छुपना।

कितनी आँखों के सपने निगाहों में लिए आये
बतायें क्या मन के भाव कहाँ पर छोड़ कर आये।

चमकती रात सड़कों में उनींदी है उबासी है
उजालों में कहीं हर पल छिपी दिल की उदासी है
छुपा कर दर्द कितने मन यहाँ पर मुस्कुराता है
पलक के कोर में अब भी बची खुशियाँ जरा सी हैं।

कितनी बार पलकों ने छुपाये बूँदों के साये
बतायें क्या कि बूँदों में छुपा कर दर्द क्या लाये।

सपनों की वो पगडंडी अभी भी राह तकती है
कदमों ने लिखी जिसपर वो राहें राह तकती हैं
मगर कुछ तो कहीं पर है जिसे मन कह नहीं सकता
जाती हैं वहीं यादें और जा-जा के रुकती हैं।

उन कदमों की लिखावट से कितने गीत सज आये
बतायें क्या उन कदमों को कहाँ पर छोड़ कर आये। 

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अगस्त, 2023

चंद्रयान

चंद्रयान

राष्ट्र के स्वभाव का प्रमाण चंद्रयान है।
विश्व मे प्रभाव का प्रमाण चंद्रयान है।
भूत की न बात कर है वर्तमान लिख रहा,
एक नई दृष्टि का निर्माण चंद्रयान है।

पंक्ति-पंक्ति भाव का व्यवहार चंद्रयान है।
खंड-खंड सोचों पे प्रहार चंद्रयान है।
है घिरा ये विश्व जब संक्रमण के दौर में,
इक नई उमंग है उपहार चंद्रयान है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अगस्त, 2023

मुक्तक

मुक्तक-
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त्याग तप की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं सभी।
भाव मन में प्रेम का गढ़ रहे हैं सभी।
कौन है यहाँ कहो कष्ट जो सहा नहीं,
लेख अपने पृष्ठ का पढ़ रहे हैं सभी।

कोई पार हो गया कोई बीच धार है।
कोई इस पार है तो कोई उस पार है।
एक महीन रेख है जो बाँधती है हमें,
जो रेख ने गढ़ी कड़ी जीत है न हार है।

प्रेम मन का भाव है ये पंथ है प्रधान है।
भावना का सूर्य है ये इक नया विहान है।
कितने ग्रन्थ हैं लिखे और कितने बाकी हैं,
प्रेम ही प्रभाव है और प्रेम ही प्रमाण है।



खंडित होती रही आस्था

खंडित होती रही आस्था

हमने मन के भोजपत्र पर रेख बनाई उम्मीदों की
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।

कितने दीप जलाये घी के धूप दीप बाती भी डाली
मंगल गीत सुनाये कितने कितनी आशायें कर डाली
सिंदूरी भावों से हमने अपने मन पर लेप लगाया
करके शंखनाद गीतों में हमने सोया भाव जगाया
देव बनाया पूजा प्रतिपल पल-पल मन में आस बँधाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।

अधिकारों से पहले मन ने कर्तव्यों को सम्मुख रक्खा
जब-जब मंथन हुआ विषय का आगे बढ़कर विष को चक्खा
कोशिश लेकिन मन की अपने जाने क्यूँ कर विफल हो गयीं
भाग्य रेख की बदल न पाया मन की साँसें विकल हो गयीं
फिर भी मन की छुपा विकलता साँसों में उम्मीद बँधाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।

भूख गरीबी बेकारी अब बीते कल की बातें लगतीं
बनी जिंदगी बाजारू अब सुविधाएं बस न्यारी लगतीं
सत्ता के गलियारों में अब मुद्दों का आभाव हो गया
मूल चेतना से भटकाना लगता यहाँ स्वभाव हो गया
लिखे भाव मन के गीतों में हमने सारी रीत निभाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।

संविधान के अनुछेदों को हमने मन का सार बनाया
तुमने कुछ भी गाया हो पर हमने संविधान ही गाया
लेकिन कितने बादल ऐसे जिनकी धुंध न छँटी अभी तक
हर डोली पर पुष्प चढाये फिर भी खाली रही अभी तक
उँगली की स्याही में हमने जब नूतन तस्वीर बनाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अगस्त, 2023

मौन मन के पास की

गजल- मौन मन के पास की

दूर तक परछाइयाँ हैं आपके अहसास की
मिट गई तनहाइयाँ सब मौन मन के पास की

शून्य में डूबा हृदय ये ढूँढता जिस भाव को
खुल गयी अब बंदिशें सब भाव के विन्यास की

कितने अधरों पर रुके हैं कितने पल ने कह दिए
गूँजते हैं शब्द बनकर शुन्यता में आस की

उड़ रहीं बनकर हवाएँ यादें सब आकाश में
कौन जाने किस हवा में जिंदगी अनुप्रास की

कैसे कह दूँ याद में अब मेरे तुम आते नहीं हो
जबकि बनकर गूँजती है बातें सब विश्वास की

उस एक लम्हे ने लिखी है जिंदगी की पंक्तियाँ
जिसकी चाहत में है गुजरी उम्र ये अहसास की

क्या लिखूँ मैं बिन तुम्हारे गीत या कोई गजल
कह रहीं है चाहतें अब देव दिल के पास की
 
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अगस्त, 2023

संकल्प

संकल्प 

आज द्वार पे उनके जाकर मौन कलम से कुछ तो बोलो
जिनके कारण आजादी का हम ये उत्सव मना रहे हैं।

व्यक्ति-व्यक्ति से पंक्ति बनी है पंक्ति-पंक्ति से बनी लकीरें
इन्हीं लकीरों के बनने से बनी राष्ट्र की तकदीरें
नमन राष्ट्र के उन वीरों को जिनकी गाथा सुना रहे हैं
आज द्वार पे.........।

रानी झाँसी, तांत्या टोपे, मंगल पांडे, वीर शिवाजी
जिनकी एक अलख ने जग से दूर करी थी सभी उदासी
लाल, बाल, पाल के प्रण ने जीवन में उम्मीद जगाई
आजाद, भगत सिंह, राजगुरु के प्रण ने नूतन राह दिखाई
जिनके कारण कितने सपने नयनों में हम जगा रहे हैं
आज द्वार पे........।

वीर सुभाष, पटेल, महामना, नेहरू, गाँधी, बाबा साहेब
जिनके त्याग समर्पण ने हमको दिन ये दिखलाया
है नमन सभी उन रणवीरों को जीना जिसने सिखलाया
हँस कर हर फंदे को चूमा और अरि को धूल चटाई है
जिनके त्याग समर्पण से नित नूतन पुष्प खिला रहे हैं
आज द्वार पे.......।

सावरकर का काला पानी भूल नहीं सकता है भारत
आजादी के पुण्य भाव को जिनके प्रण ने किया है स्वारथ
सेलुलर जेल की दीवारें जिनके कारण मुस्काई हैं
जिनके लिखे ग्रन्थ में खुलकर भारत माता मुस्काई है
जिनके लिखे राष्ट्र ग्रन्थों से भारत भूमी नहा रही है
आज द्वार पे.....।

आतंकी मंसूबों को जिन वीरों के प्रण ने तोड़ा है
प्राणों की आहुति देकर जिन वीरों ने भारत जोड़ा है
सीने पर गोली खा-खाकर भारत की शान बचाई है
जिनके खून पसीने से धरती पर हरियाली छाई है
जिनके उद्द्यम के बल से ही धरती पुष्प खिला रही है
आज द्वार पे......।

राष्ट्र विरोधी नारों को अब जड़ से हमें मिटाना होगा
इस धरती में जन्म लिया है सबको फर्ज निभाना होगा
इतिहासों से न्याय नहीं तो फिर वर्तमान पछतायेगा
भूत काल से सीख न पाये भविष्य फिर ठोकर खायेगा
वर्तमान के अभियानों से जो पथ भविष्य का सजा रहे हैं
आज द्वार पे.......।

शांति दूत हैं हम दुनिया को गीता का पाठ पढ़ाते हैं
जो जिस भाषा में समझेगा हम वैसा ही समझाते हैं
है अहिंसा परम धर्म पर धर्म की रक्षा फर्ज हमारा
राष्ट्र धर्म के पावन ध्वज से जुड़ा सभी संकल्प हमारा
राष्ट्र वाद के संकल्पों से जो जीवन का पथ सजा रहे हैं
आज द्वार पे.......।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अगस्त, 2023

पथिक पंथ से भटक न जाना।

पथिक पंथ से भटक न जाना।  

जीवन का है पंथ निराला
अमृत कहीं कहीं पर हाला
कहीं भीड़ के रेले होंगे
कहीं बिछड़ते मेले होंगे
मधुमित सा ये जीवन होगा
कहीं बिखरता सावन होगा
जीवन की उच्छृंखलता में
पथिक पंथ से भटक न जाना।

पथ में कंटक बिछे हजारों
पाँव चुभे हों शूल हजारों
अवरोधों के गिरि वन होंगे
पुष्पच्छादित वन भी होंगे
खारे जल का सागर होगा
मीठे जल का निर्झर होगा
धूप-छाँव की संलिप्ता में
पथिक पंथ से भटक न जाना।

मधुवेला की चाह बढ़ेगी
उन्मन मन की आह बढ़ेगी
साँसों में कुछ फिसलन होगी
आहों में भी विचलन होगी
आकर्षित लोचन, तन होंगे
मदमाते से यौवन होंगे
उन्मन मन की अभिलिप्सा में
पथिक पंथ से भटक न जाना।

विरही का जीवन भी होगा
नेह प्रतीक्षित आँगन होगा
तड़क दामिनी के सुर होंगे
सावन के घन मौसम होंगे
नेह मिलन के भाव सजेंगे
नयनों में मृदु सपने होंगे
प्रथम मिलन की उत्कंठा में
पथिक पंथ से भटक न जाना।

कितनों की संलिप्ता होगी
कितनी ही निर्लिप्ता होगी
कितने पथ आशंकित होंगे
कितने पथ अनुशंसित होंगे
जीवन पथ की पगडंडी पर
कुछ पग भी प्रतिबंधित होंगे
किंतु विकल, आशंकित होकर
पथिक पंथ से भटक न जाना।

वेदों पर आक्षेप लगेंगे
पग-पग कुरूक्षेत्र रण होंगे
मस्तक कुमकुम चंदन होंगे
अरि के घर में क्रंदन होंगे
महाकाल वेदी पर होगा
फिर से सागर मंथन होगा
निहित स्वार्थ में आनन्दित हो
पथिक पंथ से भटक न जाना।

राष्ट्र प्रथम हो भाव प्रथम हो
धर्म ज्ञान सद्भाव प्रथम हो
वेद मंत्र से गुंजित नभ हो
इक दूजे के पूरक सब हों
धर्म परायण भाव सकल हों
सत्य प्रबल हो राष्ट्र सबल हो
राष्ट्र धर्म की भाव प्रवणता
पथिक राष्ट्र का धर्म निभाना।

पथिक पंथ से भटक न जाना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अगस्त, 2023


दिल की अनकही बातें

दिल की अनकही बातें

गीत अधरों पे लाते उमर ढल गयी
बात दिल की अभी तक कही न गयी।

उम्र भर जिंदगी को निहारा किये
दूर तक रास्तों को बुहारा किये
आस हर पल मिलन की लगाए रहे
जाने क्या बात थी जो छुपाए रहे
दिल का आँगन सजाते उमर ढल गयी
बात दिल...।

खुद ही दर्पण बने खुद को देखा किये
जो मिले ज़ख्म दिल को चुप-चुप सिये
अपनी परछाईं को भी छुपाते रहे
प्रतिबिंब भी नीर में हम बनाते रहे
अपनी परछाईं सजाते उमर छल गयी
बात दिल.....।

हाथ की रेख पल-पल बदलती रही
सिलवटें रात करवट बदलती रही
रात खुद लाज ओढ़े छुपती रही
साँस खुद साँस के हाथ बिकती रही
सिलवटों को छुपाते उमर ढल गयी
बात दिल....।

काल के हाट में अब खड़े हम यहाँ
मोल खुद का लगाये हुए हम यहॉं
जिंदगी किश्तों में यूँ उलझती रही
चाहतें अंजुरी से फिसलती रहीं
किश्तें सब से छुपाते उमर चल गयी
बात दिल...।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 अगस्त, 2023


भूले शब्द अधरों से

भूले शब्द अधरों से

थी न जाने गलतियाँ क्या शब्द सब भूले अधर से।

थे शब्द जो परिचित कभी हर पंक्तियों हर गीत से
और थे बसते हृदय में भावनाओं के मीत से
मन न जाने शब्द क्यूँ वो अब अपरिचित हो गये हैं
व्याकरण भूले सभी सब छंद शंकित हो गये हैं
थी न जाने गलतियाँ क्यूँ पंक्तियाँ बिखरी कहर से।

अल्पना दहलीज पर थी पार उसको कर न पाये
जाने कैसी चुप लगी थी भाव सिमटे कह न पाये
जो स्वप्न पलकों पर सजे सब बूँद बनकर झर गये
गीतों से उपमाओं के श्रृंगार सारे झर गये
व्यंजना बन मौन चादर रह गयी मन में उलझकर।

तार सप्तक मौन थे सब गीत में मुखड़ा नहीं था
अंतरे बिखरे सभी थे चाँद टुकड़ों में कहीं था
स्पर्श पायें उँगलियों के पलकों ने इतना ही चाहा
चाँदनी की ओट लेकर अलकों ने मुखड़ा सजाया
मौन मन की कश्तियाँ पर टूट कर बिखरी लहर से।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09अगस्त, 2023


बचपन की दोस्ती

बचपन की दोस्ती

बचपन की दोस्ती का हर पृष्ठ गीत जैसा
कोई नहीं मिला है बचपन के मीत जैसा।

था पुष्प पंखुरी सा कोमल हृदय सभी का
सपनों के गाँवों में जैसे निलय सभी का
पल-पल सितार बजते थे नेह के स्वरों के
हो मुक्त भाव उड़ते मद मस्त हर क्षणों में
कोमल पलों की यादों का पृष्ठ प्रीत जैसा
कोई नहीं मिला है बचपन के मीत जैसा।

मस्तियों के दिन थे बेफिक्र थी वो रातें
आज भी बसी हैं यादों में सारी बातें
शाम ढलते लगता था दोस्तों का रेला
टोलियाँ निकलती जैसे लगा हो मेला
गालियाँ भी लगतीं सुरों के गीत जैसा
कोई नहीं मिला है बचपन के मीत जैसा।

मिलने को ढूँढता था मन कुछ न कुछ बहाना
हर पल दिलों में हलचल जैसे हो कुछ बताना
कभी शब्द स्वप्न बनते कभी स्वप्न जिंदगी
कभी स्नेह भाव दिल में, साँसों में बन्दगी
हार में भी आनंद आता था जीत जैसा
कोई नहीं मिला है बचपन के मीत जैसा।

कितने हैं रास्तों में कितने बिछड़ गये हैं
यादों की पोटली बन दिल में ठहर गये हैं
कुछ आज भी जुड़े हैं कुछ अब भी लापता
लेकिन दिलों में अब भी उनका वही पता
खोए मिले हैं जैसे यादों में गीत जैसा
कोई नहीं मिला है बचपन के मीत जैसा।

दिल की यही तमन्ना इक बार फिर मिलें हम
फिर छेड़ें वही तराने फिर संग-संग चलें हम
साइकिल की घण्टियों में फिर से गीत गाये
यादों की तितलियों को फिर चलो उड़ाएं
आ गायें जिंदगी को सपनों के गीत जैसा
फिर चलो मिलें हम बचपन के मीत जैसा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अगस्त, 2023

भोर का प्रभाव

भोर का प्रभाव

भोर की रश्मियों में देखो नया गीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

व्योम से उर्मियों ने मौन को आवाज दी
भाव के तितलियों के पंख को परवाज दी
रात की ओढ़नी से झाँकती नव रीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

रात के प्रभाव का अब खत्म हो रहा असर
छोड़ सब विषाद कल के दिख रहा नया शिखर
इस शिखर की राह ही तेरा नया मीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

थक के बैठ जाने में तेरी ही हार है
कर्म के बिना मिले तुझे कहाँ स्वीकार है
शूल-शूल पुष्प है सब राह-राह जीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

है लिख रहा दिवस नये भाव की प्रधानता
घुल गया जो सांध्य में स्वभाव की महानता
लिख रही नई सुबह का सांध्य नया गीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

इस नई सदी को हम प्रेम का उपहार दें
हर प्रहर से प्रीत लें हर प्रहर को प्यार दें
नेह का विस्तार ही मनुजता की जीत है
शब्द-शब्द भाव हैं औ छंद-छंद प्रीत है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       01 अगस्त, 2023

मुक्तक

मुक्तक
     1
महज नजरों का धोखा है इसे कुछ और मत समझो।
मुसाफिर हूँ मोहब्बत का मुझे कुछ और मत समझो।
नहीं इसमें खता मेरी है सारा दोष नजरों का,
मैं आशिक हूँ नजारों का मुझे कुछ और मत समझो।
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       2
आये थे तेरे पास निभाने के वास्ते।
चले कुछ दूर तक साथ निभाने के वास्ते।
तुमने इसे मजबूरियों का नाम दे दिया,
छोड़ा तुम्हारा साथ निभाने के वास्ते।
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         3
ऐसा नहीं कि हमको कोई शौक नहीं है।
रुसवाइयों का दिल में कहीं खौफ नहीं है।
मजबूरियों ने शौक को ऐसा दफन किया,
हरदम यही कहा के हमको शौक नहीं है।
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          4
वक्त के सितम भी कितने क्रूर हो गए।
हम ठीक से मिले न थे कि दूर हो गए।
हाथ की लकीरों में कुछ तो कमी रही,
मजबूरियों में उलझे यूँ मजबूर हो गए।
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           5
ऐसा नहीं के आँख में मेरे नमी नहीं।
ऐसा नहीं कि अब भी है तुम पर यकीं नहीं।
हाँ, दूर हुआ तुमसे यही दोष है मेरा,
कैसे कहूँ तेरे बिना कोई कमी नहीं।
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             6
नहीं भूला अभी तक दिल पुरानी वो मुलाकातें।
अभी तक याद है दिल को सुहानी चाँदनी रातें।
नहीं है बेवफा कोई महज ये खेल किस्मत का,
गिरे जब हाथ से लम्हे न थी कुछ राज की बातें।
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                7
ये माना कि हमें इस राह में मिलना जरूरी था।
चले जिस राह हम तुम साथ में चलना जरूरी था।
मगर कुछ बंदिशें थीं, घाव थे दिल मे लगे ऐसे,
दिलों से बंदिशों के घाव का धुलना जरूरी था।
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                 8
यही चाहत है इस दिल की तुम्हें हर पल निहारूँ मैं।
तुम्हारे गेसुओं के छाँवों में लम्हा गुजारुँ मैं।
नहीं होंगे जुदा तुमसे अब यही वादा हमारा है,
कि अपनी साँस के हर मोड़ पर तुमको ही पुकारूँ मैं।
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               9
महफ़िल में यहाँ देखो हजारों लोग आए हैं।
दिल में प्यार, अपनापन भरे सब लोग आए हैं।
अपनी खुशनसीबी है मिले हैं आप सब हमको,
दिलों को जीतने सबके प्यारे लोग आए हैं।
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                 10
हैं लिखे जो गीत सब तुमको सुनाना चाहता हूँ।
तुम्हारे गीतों को मैं गुनगुनाना चाहता हूँ।
ख्वाहिश है तुम्हारे संग जीने और मरने की,
के मेरे दिल में है क्या-क्या दिखाना चाहता हूँ।
******************************

                11
खुशी के साथ में कुछ गम का रहना भी जरूरी है।
किसी से बात अपने दिल की कहना भी जरूरी है।
कहीं ना बोझ बन जाये रुके आँसू इन आँखों में,
पलक के कोर से आँसुओं का बहना भी जरूरी है।
*******************************

               12
थी जाने कैसी जिद सभी पे भारी पड़ गई।
मजबूरियाँ सभी जिंदगी पे भारी पड़ गईं।
उलझे रहे सब शौक यहाँ मजबूरियों में यूँ,
कि ये जिंदगी भी मौत पे अब भारी पड़ गई।
*******************************

                 13
एक सपना नयन में छुपाए रहे।
बात दिल की लवों पे दबाए रहे।
जब भी सोचा तुम्हें बताऊँ कभी,
दूर होने के डर दिल में छाए रहे।
******************************

                   14
ज़ख्म जो भी मिले हम सिले ही नहीं।
दाग दिल पर लगे जो धुले ही नहीं।
दिल को मेरे कोई शिकायत नहीं,
बस ये सोचा हम तुम मिले ही नहीं।
******************************

                   15
साथ रहने का वादा अधूरा रहा।
भावनाओं का सागर अधूरा रहा।
राहों की थी जाने क्या मजबूरियाँ,
जब भी हम तुम मिले कुछ अधूरा रहा।
******************************

              16
दूर अब भी वहीं है वो वीरानियाँ।
बैठ गिनता जहाँ अपनी तनहाइयाँ।
लोगों में मैं रहूँ या अकेले कहीं,
ढूँढता हर घड़ी तेरी परछाइयाँ।
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            17
न पुष्प लाया हूँ न नजराने लाया हूँ।
गीत की कुछ पंक्तियाँ सुनाने आया हूँ।
बस दिल में आपके जरा जगह बना सकूँ,
भावनाओं को मैं सहलाने आया हूँ।
*******************************

            18
शूल चुभे पैर में या लहू निकल पड़े।
ताप में झुलसे फफोले अब उबल पड़े।
रोकेंगी क्या मुश्किलें राह की तुम्हें,
हौसला जब जीत का लेकर निकल पड़े।
*******************************

              19
जो दूर तक चले उसी का साथ चाहिए।
जो हाथ न छोड़े उसी का हाथ चाहिए।
मिलने को मिल जाएंगे कितने सफर में,
जो साथ निभाए उसी का साथ चाहिए।
*******************************

             20
शब्द-शब्द हैं चुने तब पंक्तियां बनी।
पंक्तियाँ चुनी कहीं तब गीतिका बनी।
गीतिका में भरी जब दिल की भावना,
वही नेह के प्रसार की पत्रिका बनी।
*******************************

               21
नजराना चाहिए न उपहार चाहिए।
दिल में आपके मुझे बस प्यार चाहिए।
जिंदगी की दौड़ सभी जीत जाएंगे,
मुझको साथ आपका हर बार चाहिए।
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                  22
आज माना हारा हूँ पर दिल को गम नहीं।
हौसला मेरा हुआ है अब भी कम नहीं।
आज हारा हूँ मगर कल जीत जाएंगे,
अपना भरोसा है ये कोई भरम नहीं।
*******************************

                 23
कुछ पलों का साथ है ये मेरा आपका।
गीतों में जो भाव हैं वो प्यार आपका।
क्या कहूँ क्या-क्या मिला है मुझको आपसे,
सुन रहे हैं मुझको है अहसान आपका।
*******************************

               24
शिकायतें, हिदायतें सभी सहूलियतें बदल गईं।
इस जिंदगी के दौर की सब हकीकतें बदल गईं।
इंसानियत के मरने का है अब किसको गम यहाँ,
ताकत के इस दौर में सभी नसीहतें बदल गईं।
*****************************

              25
चेहरों पे सदा सबके तुम मुस्कान खिलाना।
सपनों की लिखावट से सदा घरबार सजाना।
हर पल रहे खुशियाँ सदा दामन में तुम्हारे,
आशीष है बेटी सदा तुम यूँ ही मुस्काना।
*******************************

                26
देखो मोहब्बत ने नई जीत लिखी है।
मजबूत इरादे ने नई प्रीत लिखी है।
अब लिख रही है भोर आसमान इक नया
सांध्य सितारों ने भी नई रीत लिखी है।
*******************************

                  27
मुश्किल थी यहाँ फिर भी हमने काम है किया।
हर पल तुम्हारे नाम का गुणगान है किया।
तुमने तो बस समझा हमें इक वोट की तरह,
जब चाहा भुनाया हमें और फेंक फिर दिया।
*******************************

                 28
बहुत वीरानियाँ पसरीं कभी कुछ शोर तो होगा
मिरी परछाइयों का भी कभी कुछ दौर तो होगा।
बहुत भटकी हैं राहें ये कितनी ख्वाहिशें लेकर,
मिरी तन्हाइयों का भी कभी कुछ ठौर तो होगा।
*******************************

             29
नहीं हूँ पास माना मैं मगर थोड़ी सी दूरी है,
के थोड़े फासले रखना यहाँ पर भी जरूरी है।
मैं कैसे भूल सकता हूँ बिताए संग लम्हों के,
समय के साथ चलना है तो दूरी भी जरूरी है।
*******************************
         30

है माना जेब खाली पर खरीद सकता हूँ,
हो चाहे दाम कुछ भी पर खरीद सकता हूँ।
इस प्रेम से मिली है मुझको दौलतें इतनी,
तुम्हारा दर्द जो भी हो खरीद सकता हूँ।
******************************

         31
कल जो कहते थे कि, अब कल से वो नहीं आयेंगे,
फिर से गीतों को मेरे, अब वो न गुनगुनायेंगे।
नहीं शिकवा मुझे उनसे, अब न कोई शिकायत है,
मगर क्यूँ साथ छूटा है, यहाँ कैसे बतायेंगे।
*****************************

              32
अब कोई रुकावटें मुझको न रोक पायेंगी,
अब कोई भी वेदना मुझको न तड़पाएँगी।
जब से थामा है हमने हाथ राम का अपने,
कोई भी मुश्किलें राहों में अब न आयेंगी।
***************************

             34
दूर जाते हो नजर से , तो चले जाओगे,
माना फिर लौट के तुम अब यहॉं न आओगे।
तुम्हारी बेरुखी भी सब कुबूल है मुझको,
मुझे यादों से भला कैसे, पर भुलाओगे।
***************************

लोरियाँ यहीं कहीं

लोरियाँ यहीं कहीं

चाँद की जमीन पर, क्यूँ रोटियों का घर नहीं
क्यूँ नींद द्वार पर खड़ी, क्यूँ लोरियाँ कहीं नहीं

आज है धुआँ-धुआँ, कभी तो रात साफ होगी
उम्र की लकीरों की, ये गलतियाँ भी माफ होंगी
वक्त की पाबंदियां भी, अनछुई कहाँ रहीं
क्यूँ नींद द्वार .......

तक रही हैं चाँद को, रो रही हैं लोरियाँ
दर्द के प्रभाव को, न छू सकी हैं लोरियाँ
जाने क्यूँ बिखर रही, जब डोरियाँ यहीं कहीं
क्यूँ नींद द्वार......

रोटियों सी जिंदगी, कहीं पकी कहीं जली
कल खड़ी थी साथ-साथ, जाने अब कहाँ चली
जिंदगी की रोटियाँ भी, हैं दबी यहीं कहीं
क्यूँ नींद द्वार.......

सब्र कर वक्त अभी, आटा गूँधने में व्यस्त हैं
हाथ कितने यहाँ, रोटियाँ सेंकने में मस्त हैं
चर्चा है बाजार में, मिलेंगी रोटियाँ कभी
क्यूँ नींद द्वार.....

एक वक्त वो भी था, एक वक्त आज है
रोटियाँ ही ताज थीं, रोटियाँ ही ताज हैं
रोटियों के बोझ में, लोरियाँ दबी रहीं
क्यूँ नींद द्वार....

नग्न हो रही सदी, तमाशबीन वक्त है
दर्द से भरे हुए हैं, लोरियों में रक्त है
कंठ स्वर दबे हुए, क्यूँ आँख झर-झर बही
क्यूँ नींद द्वार.....

हाथ जोड़ कर खड़े हैं, ताज के जो दास हैं
सदियों दूर तक रहे जो, कह रहे हैं पास हैं
झूठ फिर श्रृंगार कर, मोह फिर से मन रही
है नींद द्वार......

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जुलाई, 2023

एक कहानी

एक कहानी

गाड़ी में पीछे 
बैठा मुसाफिर
अपनी ही धुन में है रहता
लिखता कभी कुछ 
कहता कभी कुछ
फिर पन्नों में डूबा रहता।

आती जाती 
राहों को तकता
हँसता कभी गुनगुनाता
जीवन सफर है 
मन है मुसाफिर
खुद से ही कहता सुनाता

न कोई दिन है 
न कोई रातें
आधी अधूरी 
रह जाती बातें
मीठी सी यादें, 
तुतलाती बोली
गाड़ी में उसकी 
होली, दिवाली।

जब मन मचलता
खुद में ही हँसता
लिखता दिलों की कहानी
लम्हों को चुनता
लम्हों को सुनता
लम्हों को लिख दी जवानी।

अपना है क्या और
क्या है पराया
मुस्का के सबके 
मन को लुभाया
ऐ दुनिया वालों
मानो न मानो
उसकी भी है 
कुछ कहानी।

मन जब मचलता
खुद ही बहलता
खुद ही है
खुद का वो साथी।

ऐ सुगना सुन ले
उसकी तू धड़कन
दे दे उसे कुछ निशानी
कब तक अकेला
गुमसुम रहे वो
अब पूरी कर दे कहानी।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         28जुलाई, 2023





नई शुरुआत

नई शुरुआत

जिस मोड़ पे रुकी थी कभी अपनी जिंदगी
आ फिर शुरू करें वहीं से हम अपनी जिंदगी

इक लम्हा था गिरा जो कभी अपने हाथ से
छूटा था अपना हाथ जहां पे अपने हाथ से
आ फिर मिलें वहीं पे जहाँ बिखरी जिंदगी
जिस मोड़....

आये थे कितने लोग यहाँ कितने चल दिये
कुछ ने लुटाया प्यार यहाँ कुछ ने गम दिये
रिश्तों की कशमकश में घुटी अपनी जिंदगी
जिस मोड़.... 

अब खुद के मन से जाने क्यूँ बिछोह हुआ है
अब कैसे कह दूँ खुद से खुद को क्षोभ हुआ है
देख अपनी जिल्द में सिमटती अपनी जिंदगी
जिस मोड़.....

कोने में अब भी दिल के मगर आस बाकी है
उखड़ी हुई है माना मगर कुछ साँस बाकी है
उम्मीद के सिरे में कहीं है बँधी अपनी जिंदगी
जिस मोड़....

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25जुलाई, 2023

बिलखती धरती

बिलखती धरती

आज बिलखती धरती माता केशव क्यूँ कर दूर खड़ा है
शायद भारत की नियती में सत्ता का संघर्ष बड़ा है।

दूर दृष्टि का दंभ भरें क्यूँ पास हुआ जब देख न पाए
चीरहरण की कितनी घटना भूल इन्हें मन कैसे जाए
लगता शायद दरबारों में वोटों का अपकर्ष बड़ा है
शायद भारत की नियती में सत्ता का संघर्ष बड़ा है।

बिलख रही मानवता सारी देख बिलखती घर-घर नारी
दुर्योधन बन बैठे सारे हैं बने हुए सारे दरबारी
अपने घर की घटना छोटी दूजे का अपराध बड़ा है
शायद भारत की नियती में सत्ता का संघर्ष बड़ा है।

पूर्व में देखा पश्चिम देखा उत्तर देखा दक्षिण देखा
सत्ता मद में अपराधों का कदम-कदम पर रक्षण देखा
आज निहत्था कुरुक्षेत्र में अभिमन्यू फिर देख खड़ा है
शायद भारत की नियती में सत्ता का संघर्ष बड़ा है।

इन राज्यवार घटनाओं के ब्यौरे से क्या हासिल होगा
मौन रहा फिर आज समय तो अपराधों में शामिल होगा
दुखती धरती की छाती पर दुःशासन फिर आज खड़ा है
शायद भारत की नियती में सत्ता का संघर्ष बड़ा है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2023

गजल- गीत कोई गाए कैसे

गजल-गीत कोई गाए कैसे

कैसी मुश्किल है कोई दिल को बताए कैसे
दर्द कब हद से गुजरता है  जताए कैसे

दूर तक जख्मों से छलनी हों जो मन की राहें
कोई इन राहों पे जाए तो वो जाए कैसे

हर किसी को  जो नहीं मिलता  मुहब्बत का सफर
कोई फिर दिल को दिलासा ये दिलाये कैसे

फिर से इन आँखों में  थोड़ी-जो नमी आयी है
आज आँखों से कोई अश्क छिपाए कैसे

भीड़ भी यूँ तो हरिक सिम्त मगर किससे कहें
 ये नकाबों का शहर है तो यूँ जाएं कैसे

गीत रहते हैं दफन  दिल में तेरी यादों के
"देव" महफ़िल में तेरी कोई भी गाए कैसे

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2023




कोई बहाना बता दो

कोई बहाना बता दो

फिर से बचपन मेरा लौट आये
ऐसा कोई तो बहाना बता दो।

नन्हें पैरों के नीचे खुला आसमान
हर कदम यूँ लगे ज्यूँ नया हो विहान
हर घड़ी पलकों पे दृश्य नूतन सजे
भाव की पालकी नित्य नूतन लगे
नैन में दृश्य फिर से वही लौट आए
खोया हुआ वो खजाना बता दो।

न खबर न फिकर थी दुनिया जहाँ की
क्या है अपना-पराया फिकर ही कहाँ थी
जो मिला प्यार से मन उसी का हुआ
थपकियाँ नेह की मन का आँगन छुआ
वही थपकियाँ पलकों पे लौट आएं
ऐसा हमें फिर ठिकाना बता दो।

रिश्तों की डोर को थामकर उँगलियाँ
उड़ती रहतीं मगन प्यार की तितलियाँ
गुड़ की भेली बताशों की वो चाशनी
चाँदनी रात में ज्यूँ घुली रोशनी
रिश्तों को बाँधने फिर वहीं लौट आएं
फिर से रिश्तों को मन से निभाना बता दो।

कहाँ थे कहाँ आ गया अपना जीवन
दूर लगता है जाने क्यूँ मन का ये उपवन
रोटी, कपड़ों की जद्दोजहद ये बड़ी है
मुश्किलें लग रही जिंदगी से बड़ी हैं
खोई मुस्कान अधरों पे फिर लौट आये
दोस्ती की वो भुला तराना सुना दो।

फिर से बचपन मेरा लौट आये
ऐसा कोई तो बहाना बता दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2023

जीवन नैया डोल रही है

जीवन नैया डोल रही है

जीवन के महा समर में अब तो राह दिखा जाओ
जीवन नैया डोल रही है आओ पार लगा जाओ।

दूर-दूर तक गहरा सागर मुश्किल जाना पार हुआ है
भटक रहा मन अँधियारों में मुश्किल जग संसार हुआ है
ज्ञान ध्यान का दीप जलाकर मन का अँधियार मिटा जाओ
जीवन नैया डोल रही है आओ पार लगा जाओ।

हम सेवक प्रभु तुम हो स्वामी हम दीन-हीन प्रभु अंतर्यामी
तुम सा नहीं कोई जगत में तुम चंदन प्रभु हम हैं पानी
भरम जाल में उलझा है मन प्रभु आकर आस जगा जाओ
जीवन नैया डोल रही है आओ पार लगा जाओ।

भीड़ भरे इस वीराने में तुम ही हो इक मात्र सहारा
किससे मन की बात कहूँ मैं तुम बिन मेरा कौन सहारा
कुरुक्षेत्र में उलझा है मन गीता का सार सुना जाओ
जीवन नैया डोल रही है आओ पार लगा जाओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2023

दिखता नहीं है

दिखता नहीं है

जाने अब सम्मान यहाँ दिखता नहीं है
इंसान को इंसान यहाँ दिखता नहीं है

खून से जिसने नवाजा जिंदगी को
उसका क्यूँ अहसान यहाँ दिखता नहीं है

चीखती है मौत भी देखो यहाँ अब
दर्द का आसमां यहाँ दिखता नहीं है

दूर देखो लाज का परदा लुटा है
घाव उसका क्यूँ यहाँ दिखता नहीं है

कौरवों की भीड़ का आतंक देखो
आँखों को अब भी यहाँ दिखता नहीं है

भीड़ में कोई नहीं जो सुन सके अब
"देव" केशव अब यहाँ दिखता नहीं है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जुलाई, 2023

वक्त गीत हमारा गायेगा

वक्त गीत हमारा गायेगा

कब वक्त यहाँ पर ठहरा है जो आज ठहर वो जायेगा
हम दूर रहें या पास रहें पर गीत हमारा गायेगा।

कितनी गजलें, कितनी कविता, कितनी रातें कितने सपने
कितने भाव सुनहरे गाये, कितने हुए पराए अपने
कितने भाव पंक्ति में सिमटे, ये वक्त कभी बतलायेगा
हम दूर रहें या पास रहें पर गीत हमारा गायेगा।

आज यहाँ हम गाने वाले, क्या जाने कल और कहाँ हो
आज दिलों में रहते हैं हम, क्या जाने कल ठौर कहाँ हो
आज लिखे जो यहाँ कथानक, फिर कल कोई दुहरायेगा
हम दूर रहें या पास रहें पर गीत हमारा गायेगा।

कितनी शिद्दत से गीतों में हमने अपनापन पाया है
जितना तुमको सुनते देखा उतना खुलकर के गाया है
अपनेपन के इन गीतों से कल कोई मन बहलाएगा
हम दूर रहें या पास रहें पर गीत हमारा गायेगा।

पंक्ति-पंक्ति में इन गीतों के जीवन की मधुर कहानी है
बीत चुके हैं कितने जीवन जो बाकी बची सुनानी है
आज सुनाता हूँ मैं इनको कल कोई और सुनाएगा
हम दूर रहें या पास रहें पर गीत हमारा गायेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19जुलाई, 2023

शिव भजन।

शिव भजन।  

हाथ में डमरू जटा में गंगा, भस्म लपेटे रहते हैं
इनके शरण में जो भी आया, कष्ट सभी के हरते हैं।

नहीं और कोई जगत का स्वामी
मेरे भोले हैं अंतर्यामी
जो भी इनकी शरण में आया
मनचाहा वो फल पाया
भटकों को हैं राह दिखाते
सबके मन की सुनते हैं
इनके शरण में जो भी आया, कष्ट सभी के हरते हैं।

कोई नहीं है शिव सा दानी
शिव हैं चंदन हम हैं पानी
भरम जाल में उलझे सारे
आये प्रभु सब द्वार तिहारे
सबकी पीड़ा कष्ट निवारे
नीलकंठ बन रहते हैं
इनके शरण में जो भी आया, कष्ट सभी के हरते हैं।

हम भी द्वार तिहारे आये
भक्ति भाव के पुष्प चढाये
हम माया में उलझे सारे
हर पल तुम्हरी ओर निहारें
प्रभु जगत के पालनहारे
सबके दिल में रहते हैं
इनके शरण में जो भी आया, कष्ट सभी के हरते हैं।

प्रभु की महिमा हम क्या गायें
वेद, ग्रन्थ सब गाते हैं
प्रभु की एक झलक मिलने से
खुद देवलोक हरषाते हैं
भक्तों के सब कष्ट हरें प्रभु
हरपल हँसते रहते हैं
इनके शरण में जो भी आया, कष्ट सभी के हरते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जुलाई, 2023

कजरी।

कजरी।  

पिया सावन में हमके बुलाई ल जिया हरषाई द न
पिया सावन में.....।

पड़े बरखा बहार तरसे मनवा हमार
पड़े बरखा बहार तरसे मनवा हमार
अबके सावन में झलुआ झुलाय द
जिया हरषाई द न
पिया सावन में......।

कइसे तोहके बोलाई कहा कइसे समझाई
कइसे तोहके बोलाई कहा कइसे समझाई
का बताई के कइसन अब हाल बा
जिया बेहाल बा न।

जब से गइला परदेस नाही चिट्ठी संदेश
जब से गइला परदेस नाही चिट्ठी संदेश
अबकी सावन में सुरतिया दिखाई द
जिया हरषाई द न
पिया सावन में....।

सुबह, साँझ, दिन, रात बाटे तोहरे खयाल
सुबह, साँझ, दिन, रात बाटे तोहरे खयाल
बिना तोहरे ई जिनगी मोहाल ब
जिया बेहाल ब न।

बड़ी बैरन हौ रात करी केकरा से बात
बड़ी बैरन हौ रात करी केकरा से बात
अबके सावन में हमके सजाई द
जिया हरषाई द न
पिया सावन में....।

जो न बाहर कमाइब बोला कइसे खियाईब
जो न बाहर कमाइब बोला कइसे खियाईब
बड़ा मुश्किल भयल अबकी साल बा
जिया बेहाल ब न।

हरदम मनवा डेरात आवे कइसन खयाल
हरदम मनवा डेरात आवे कइसन खयाल
आ के हमके तू फिर से हँसाई द
जिया हरषाई द न
पिया सावन में...।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जुलाई, 2023




हैं अबोले शब्द मेरे तुम इन्हें आवाज दे दो

हैं अबोले शब्द मेरे तुम इन्हें आवाज दे दो

यूँ तो मन में भावनाओं का बहा निर्झर हमेशा
पर क्या जानूँ क्यूँ रुके स्वर कंठ तक आकर हमेशा
भाव मेरे छू के अपने भाव का अहसास दे दो
हैं अबोले शब्द मेरे तुम इन्हें आवाज दे दो।

ये उँगलियाँ इन अक्षरों को छू सकें मचलीं हमेशा
गीतों की ये पंक्तियाँ मृदु स्पर्श को भटकीं हमेशा
छू के अपने आधरों से जिंदगी की आस दे दो
हैं अबोले शब्द मेरे तुम इन्हें आवाज दे दो।

द्वार अधरों के रुकी हैं मन की सारी अर्चनाएं
चाहकर भी कह सके ना मन की सारी भावनाएं
अपने भावों से मिलाकर साँस का अहसास दे दो
हैं अबोले शब्द मेरे तुम इन्हें आवाज दे दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19जुलाई, 2023


लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है

लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है

खुश नहीं है आत्मा क्या जाने क्यूँ ऐसा हुआ है
कौन जाने इस हृदय को दर्द ये कैसा छुआ है
पूछते हैं शब्द सारे व्याकरण सुलझे नहीं क्यूँ
पँक्तियों में प्रश्न के वो अर्थ अब खुलते नहीं क्यूँ
जाने न क्यूँ उत्तरों में पीर का मंथन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।

उम्र भर शंकित रहा मन उलझनों में अड़चनों में
सोचता पल-पल रहा क्यूँ बँध न पाया बंधनों में
तोड़ जाने क्यूँ न पाया वक्त की सब वर्जनाएं
छल रही थी हर घड़ी जो थी कहीं कुछ एषणाएं
जाने न क्यूँ उम्र का किस पीर से बंधन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।

यूँ लग रहा है दर्द ही इस गात का श्रृंगार है
अब आँसुओं का खार ही इस जिन्दगी का सार है
मौन मन की भावनायें क्या कहूँ क्यूँ जल रही है
स्वयं की ये वेदनाएं स्वयं को क्यूँ छल रही है
लग रहा इस गात का अब पीर ही चंदन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2023

ऐषणाएं- अभिलाषा, याचना

दूर सागर पार मन के गीत गाता कौन है

दूर सागर पार मन के गीत गाता कौन है

अंजुरी में पुष्प भर कर आचमन करता हृदय
छंद की नव पंखुरी से गीत में भरता प्रणय
सुप्त होती भावनाओं को जगाता कौन है
दूर सागर पार मन के गीत गाता कौन है।

शांत सागर सम हृदय में प्रेम के संदेश सा
निर्लिप्त मन में लालसा, नेह के संकेत सा
शून्यता में कामनाओं को जगाता कौन है
दूर सागर पार मन के गीत गाता कौन है।

आरंभ है या अंत है या के अपरिमेय है
पास अपनी सी लगे ये और कभी अज्ञेय है
शून्य मन के भाव में हलचल मचाता कौन है
दूर सागर पार मन के गीत गाता कौन है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2023


अबके पावस में दिल चाहे तुम पर कोई गीत लिखूँ

अबके पावस में दिल चाहे तुम पर कोई गीत लिखूँ

अब तक कितने गीत लिखे, विरह वेदना प्रेम समर्पण
कुछ में खुद को पाया है, और किया कुछ में सब अर्पण
पर अब गीतों में दिल चाहे, पंक्ति-पंक्ति में प्रीत लिखूँ
अबके पावस में दिल चाहे, तुम पर कोई गीत लिखूँ।

कितने कल्पित भावों से, रहा भ्रमित ये हृदय हमारा
खोज में ढाई अक्षर के, रहा भटकता मारा-मारा
सारे कल्पित भावों के, क्या हार लिखूँ क्या जीत लिखूँ
अबके पावस में दिल चाहे, तुम पर कोई गीत लिखूँ।

दिवस रात का मिलन अनोखा, देख प्रहर भी ठहरा है
दूर क्षितिज पर उम्मीदों का, रंग अभी भी गहरा है
रिमझिम बारिश की बूँदों में, सांध्य पलों की प्रीत लिखूँ
अबके पावस में दिल चाहे, तुम पर कोई गीत लिखूँ।

साँस-साँस के प्रति पृष्ठों पर, दिल चाहे श्रृंगार लिखूँ
छंद-छंद नव रीत सजाकर, मैं जीवन का सार लिखूँ
जीवन के इस पुण्य ग्रन्थ का, दिल चाहे मनमीत लिखूँ
अबके पावस में दिल चाहे, तुम पर कोई गीत लिखूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2023

हृदय का खालीपन।

हृदय का खालीपन।  

पलकों की गिरती बूँदों से मन को चाहे लाख भिंगो लो
लेकिन संभव नहीं हृदय का सारा खालीपन भर पाना।

बिना कथानक बनी यहाँ कब मन की एक कहानी कोई
रंगमंच पर बिना पटकथा कृतियाँ सारी सोई-सोई
संवादों में लिखे शब्द से पृष्ठों को फिर लाख सजा लो
लेकिन संभव नहीं हृदय का सारा खालीपन भर पाना।

पाँव जले मरुथल में कितने किसने देखा पता नहीं है
चले शूल पर कितने सपने पलकों को जब पता नहीं है
रात चाँदनी में नयनों के अनुरोधों को लाख जता लो
लेकिन संभव नहीं हृदय का सारा खालीपन भर पाना।

असमंजस के चक्रव्यूह में अभिमन्यू का जीवन दंडित
कुछ साँसों में कुछ आहों में आस निराशा के पल खंडित
रिश्तों के बेमेल चयन में कितना भी विश्वास जता लो
लेकिन संभव नहीं हृदय का सारा खालीपन भर पाना।

ओस बूँद से इस जीवन की मुश्किल प्यास बुझा पाना है
भागीरथ जो बना वही तो जाना क्या खोना-पाना है
टुकड़े-टुकड़े चाँद अंक में लाकर चाहे लाख सजा लो
लेकिन संभव नहीं हृदय का सारा खालीपन भर पाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जुलाई, 2023

शब्द हृदय का परिचय दे दें।

शब्द हृदय का परिचय दे दें।  

साँस-साँस में करूँ आरती, मैं आहों में गुणगान करूँ,
काश कभी ऐसा हो जाये, शब्द हृदय का परिचय दे दें।।

मुक्त गगन में उड़ते फिरते, संभव गीतों में ढल जाना,
कहना मन की बात निखरकर, भावों का ले ताना-बाना।
पल में छू लूँ हृदय वृन्द मैं, फिर अंतस में आख्यान करूँ,
अंजुलि में वो भाव भरूँ जो, पुण्य प्रवण का निश्चय दे दें।।

खोल हृदय के वातायन सब, बंधन सभी मुक्त हो जायें,
कुछ तो ऐसा लिखो आज फिर, मन ये प्रेम युक्त हो जाये।
कहीं वेदना यदि गहरी हो, मनमीत बने अवदान करे,
मिले नयन के मृदु बूँदों में, कोरों से जो अनुनय कर दे।।

बिन धागा के मोती बिखरे, माला में कब बँध पाते हैं
भटके मन के भाव अगर तो, छंद यहाँ कब सज पाते हैं
कहीं व्याकरण युक्त हृदय हो, जो त्रुटियों का संज्ञान करे
संभव होता पंक्ति-पंक्ति में, साँसों का जो संचय कर दे।

काश कभी--------।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05जुलाई, 2023


यादों के विषधर।

यादों के विषधर।  

रजनीगंधा नहीं महकती
दूर हुई कदमों की आहट
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

दूर हुई जीवन की पुस्तक
शब्द अधूरे बिखरे-बिखरे
एकाकीपन की पीड़ा से
धड़कन दिल की कैसे निखरे।

उलझन मन की नहीं सुलझती
मन ये चाहे थोड़ी राहत
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

सांध्य अजनबी सी लगती है
रात नहीं फिर अब सजती है
भीड़ भरे इन सन्नाटों में
आहें भी सिमटी रहती हैं।

सुधियों के मेले जब सजते
मन में भी होती अकुलाहट
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

जीवन बस बीता जाता है
पल-पल दुख सीता जाता है
लेकिन यादों के पनघट पर
मन का घट रीता जाता है।

रिसते हुए पीर के पल से
साँसों ने जब चाही चाहत
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जुलाई, 2023






पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते

यदि पीड़ा को वरदान न मिलता गीत अधूरे रह जाते पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते कितना पाया यहाँ जगत में कुछ भोगा कुछ छूट गया, कुछ ने ...