मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

सावन के बादल से मिलकर बूँदों ने नवगीत गढ़ा है,
भींगा-भींगा मन का आँगन सुधियों ने नवगीत पढा है।
चली मचलती पुरवाई ने साँसों को वरदान दिया है,
मदमाते नयनों से मन ने यौवन का मधुपान किया है।
पूरी मन की हुई साधना जिसकी खातिर मन तरसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है।

कितने सावन बाद मिलन की घड़ियों ने संजोग सजाया,
कितने पतझड़ बीते हैं तब ऋतु ने मन में नेह जगाया।
देख चाँदनी की किरणों को रीता पनघट हर्षाया है,
मन के सूने आसमान पर मेघों ने जल बरसाया है।
मेघों का अल्हड़पन देखा पुन अंतर्मन ये हुलसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है।

सदियों तक यूँ करी प्रतीक्षा सब मन का आँगन रीत गया,
बरसा जब-जब मन का बादल नयनों का काजल भींग गया।
अंबर की रिमझिम धुन पर अंतर्मन कितना रोया है,
बही प्रतीक्षा आँसू बन जब घावों को पल-पल धोया है।
धुली प्रतीक्षा इन नयनों की कोरों का मरुथल विहँसा है,
मन के कोरे कागज पर सुधियों का सावन बरसा है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अक्टूबर, 2023





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