और कब तक आँख अपनी छाँव बरगद की तकेगी
और इच्छाएं हमारी दूर जा कितनी रुकेगी
और कब तक मौन होकर स्वयं को चलते रहेंगे
और कब तक बरगदों की छाँव में पलते रहेंगे
चाहतें कब तक छुपेंगी मौन हो गुमनामियों में
कब तलक....।
धार जब तक ही रहेगी दूर तक नदिया बहेगी
साथ कितने रास्तों के शूल कंटक भी सहेगी
धार जो ठहरी कभी तो नीर दूषित हो पड़ेगा
चुप्पियाँ ठहरीं अधर पर शब्द शोषित हो रहेगा
वक्त रहते चीख लेना दूर कर तन्हाइयों को
कब तलक.....।
सपनों का न मोल होगा और नहीं कोई वास्ता
ढूँढेगी न स्वयं आँखें खुद आगे बढ़कर रास्ता
कर मिथक सब दूर कल के साकार हो कल्पनाएं
रोक न पायेंगी तुझको ध्येय पथ पर वर्जनाएं
तोड़ कर पाखंड सारे मुक्त कर बदनामियों को
कब तलक......।
आ रही देखो सुहानी भोर प्राची की दिशा से
नाचती हैं रश्मियाँ भी मुक्त हो कर के निशा से
लिख रहा सुंदर सवेरा गीत की नव पंक्तियाँ अब
बंधनों से मुक्त कर दो मन की अभिव्यक्तियाँ सब
मुक्त हो अब बंधनों से दूर कर रुसवाइयों को
कब तलक.......।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08सितंबर, 2023
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