पाँव ठहरने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।
उस पार क्षितिज के जीवन के कुछ प्रश्न अधूरे मिल जायें
जो खुले नहीं हैं भाव अभी तक शायद सारे खुल जायें
बंद हृदय के द्वार खुलें सब मन शायद सहज वहीं पर होगा
जो प्रश्न अधूरे हैं अब तक शायद उनका उत्तर भी होगा
धरती अंबर का मिलन देख अहसास उमड़ने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।
उस पार कहीं पर शायद नभ गंगा का तीर मिलेगा
शुभ्र चंद्रिका सा लहराता मृदु मनमोहक चीर मिलेगा
अलकों से कहीं झलकता हो वहाँ शिशिर विमल बन कर स्वेद
शायद करुणा छप जाती हो स्मृति पटल पर बनकर निर्वेद
शुभ मंगल के मधुर भाव से अनुराग मचलने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं।
शतदल का चुम्बन पाकर के जल खुद पर इतराता होगा
भ्रमरों के गुंजन से शायद नभ भी शीश झुकाता होगा
शायद मन के करुण भाव को मृदु नेह इशारा मिल जाये
शायद इन तपते अंगारों से वहीं सहारा मिल जाये
मन में पनपे नेह बिंदु से मन भाव सँवरने लगते हैं
चलते-चलते खुद ही तब ये पाँव ठहरने लगते हैं
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28सितंबर, 2023
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