इतिहास से

इतिहास से

क्यूँ अँधेरा लग रहा है आज हम सबको नया सा,
जबकि ये अँधियार मन को है छल रहा इतिहास से।

क्या हमारी दृष्टि से वो रात ओझल हो गयी है,
या हमारी आँख से वो नींद बोझल हो गयी है।
है कहीं कुछ तो छुपा सा ज्ञात जो हमको नहीं है,
या किसी के चौंध से ये रात बोझिल हो गयी है।

क्यूँ न जाने दृष्टि को अवसान अब लगता नया सा,
जबकि ये अवसान मन को है छल रहा इतिहास से।

साँस सिमटी जा रही है ज्यूँ अँधेरा हो रहा हो,
प्यास पागल हो रही है मन अकेला हो रहा हो।
डँस रही है चेतना को यूँ लग रहा अँधियार ये,
उम्र काजल में सिमट कर ज्यूँ सवेरा खो रहा हो।

सांध्य पीढ़ी को यहाँ अब लग रहा बिल्कुल नया सा,
जबकि ये व्यवहार मन को है छल रहा इतिहास से।

दीप तब होता पराजित जब-जब उजाला मौन हो,
और बाती की दशा पर जब सूर्यवादी मौन हों।
मंच से अँधियार का उपदेश भारी हो पड़ेगा,
जब अँधेरे में सिमटकर लौ दीपिका की मौन हो।

धर्म का उपहास मन को लग रहा है क्यूँ नया सा,
जबकि ये उपहास मन को है छल रहा इतिहास से।

लगता अँधेरा ही यहाँ कुछ रास्ता दिखलायेगा,
फिर सत्य की स्थापना का नव रास्ता बतलायेगा।
यह अँधेरा धमनियों में रोष जब बोने लगेगा,
तब हृदय की दीपिका को नव रास्ता दिखलायेगा।

आज ये प्रतिकार सबको लग रहा है क्यूँ नया सा,
जबकि ये प्रतिकार मन में है पल रहा इतिहास से।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अक्टूबर, 2023



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