लोरियाँ यहीं कहीं
क्यूँ नींद द्वार पर खड़ी, क्यूँ लोरियाँ कहीं नहीं
आज है धुआँ-धुआँ, कभी तो रात साफ होगी
उम्र की लकीरों की, ये गलतियाँ भी माफ होंगी
वक्त की पाबंदियां भी, अनछुई कहाँ रहीं
क्यूँ नींद द्वार .......
तक रही हैं चाँद को, रो रही हैं लोरियाँ
दर्द के प्रभाव को, न छू सकी हैं लोरियाँ
जाने क्यूँ बिखर रही, जब डोरियाँ यहीं कहीं
क्यूँ नींद द्वार......
रोटियों सी जिंदगी, कहीं पकी कहीं जली
कल खड़ी थी साथ-साथ, जाने अब कहाँ चली
जिंदगी की रोटियाँ भी, हैं दबी यहीं कहीं
क्यूँ नींद द्वार.......
सब्र कर वक्त अभी, आटा गूँधने में व्यस्त हैं
हाथ कितने यहाँ, रोटियाँ सेंकने में मस्त हैं
चर्चा है बाजार में, मिलेंगी रोटियाँ कभी
क्यूँ नींद द्वार.....
एक वक्त वो भी था, एक वक्त आज है
रोटियाँ ही ताज थीं, रोटियाँ ही ताज हैं
रोटियों के बोझ में, लोरियाँ दबी रहीं
क्यूँ नींद द्वार....
नग्न हो रही सदी, तमाशबीन वक्त है
दर्द से भरे हुए हैं, लोरियों में रक्त है
कंठ स्वर दबे हुए, क्यूँ आँख झर-झर बही
क्यूँ नींद द्वार.....
हाथ जोड़ कर खड़े हैं, ताज के जो दास हैं
सदियों दूर तक रहे जो, कह रहे हैं पास हैं
झूठ फिर श्रृंगार कर, मोह फिर से मन रही
है नींद द्वार......
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29जुलाई, 2023
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