कहाँ पर छोड़ कर आये
चले कुछ दूर तब जाना कि क्या-क्या छोड़ कर आये
कभी सत्तू, कभी लाई, बताशा, या कभी गुड़ से
बताएं क्या के अपनी भूख कहाँ छोड़ कर आये।
पिता के हाथ की लाठी और माँ की आँख का चश्मा
वो साँकल बीच से तकती सूनी रात का सपना
रातों की सिफारिश में वो चंदा का सँवर जाना
फिर शरमा के तारों में कभी मिलना कभी छुपना।
कितनी आँखों के सपने निगाहों में लिए आये
बतायें क्या मन के भाव कहाँ पर छोड़ कर आये।
चमकती रात सड़कों में उनींदी है उबासी है
उजालों में कहीं हर पल छिपी दिल की उदासी है
छुपा कर दर्द कितने मन यहाँ पर मुस्कुराता है
पलक के कोर में अब भी बची खुशियाँ जरा सी हैं।
कितनी बार पलकों ने छुपाये बूँदों के साये
बतायें क्या कि बूँदों में छुपा कर दर्द क्या लाये।
सपनों की वो पगडंडी अभी भी राह तकती है
कदमों ने लिखी जिसपर वो राहें राह तकती हैं
मगर कुछ तो कहीं पर है जिसे मन कह नहीं सकता
जाती हैं वहीं यादें और जा-जा के रुकती हैं।
उन कदमों की लिखावट से कितने गीत सज आये
बतायें क्या उन कदमों को कहाँ पर छोड़ कर आये।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25अगस्त, 2023
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