खंडित होती रही आस्था
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।
कितने दीप जलाये घी के धूप दीप बाती भी डाली
मंगल गीत सुनाये कितने कितनी आशायें कर डाली
सिंदूरी भावों से हमने अपने मन पर लेप लगाया
करके शंखनाद गीतों में हमने सोया भाव जगाया
देव बनाया पूजा प्रतिपल पल-पल मन में आस बँधाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।
अधिकारों से पहले मन ने कर्तव्यों को सम्मुख रक्खा
जब-जब मंथन हुआ विषय का आगे बढ़कर विष को चक्खा
कोशिश लेकिन मन की अपने जाने क्यूँ कर विफल हो गयीं
भाग्य रेख की बदल न पाया मन की साँसें विकल हो गयीं
फिर भी मन की छुपा विकलता साँसों में उम्मीद बँधाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।
भूख गरीबी बेकारी अब बीते कल की बातें लगतीं
बनी जिंदगी बाजारू अब सुविधाएं बस न्यारी लगतीं
सत्ता के गलियारों में अब मुद्दों का आभाव हो गया
मूल चेतना से भटकाना लगता यहाँ स्वभाव हो गया
लिखे भाव मन के गीतों में हमने सारी रीत निभाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।
संविधान के अनुछेदों को हमने मन का सार बनाया
तुमने कुछ भी गाया हो पर हमने संविधान ही गाया
लेकिन कितने बादल ऐसे जिनकी धुंध न छँटी अभी तक
हर डोली पर पुष्प चढाये फिर भी खाली रही अभी तक
उँगली की स्याही में हमने जब नूतन तस्वीर बनाई
न जाने क्यूँ पल-पल मन की सब खंडित होती रही आस्था।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20अगस्त, 2023
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