श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3
सांख्य योग अर्थात ज्ञान एवं कर्म योग से संबंधित है।

शरीर अन्न से बनता है
अन्न वृष्टि से
वृष्टि यज्ञ से
यज्ञ वेद से
अर्थात वेदों से ऊपर कुछ भी नहीं है।।1।।

शरीर पर इंद्रियों का नियंत्रण है
इंद्रियों पर मन का
मन पर बुद्धि का
बुद्धि पर आत्मा का।।2।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 4

ज्ञान कर्म व सन्यास योग

शास्त्र सम्मत कर्म- जिस कर्म में धर्म का पालन होता हो व जिसको करने से  कर्तव्य पूर्ण होते हों लाभ-हानि को सोचे बिना।
किये गए कर्म किसी के लिए अच्छे होते हैं और किसी के लिए बुरे परन्तु कर्म वही सही है जो शास्त्र सम्मत हो।

जिसने अपने मन व अंतःकरण के साथ शरीर को जीत लिया है, अपने मन व इंद्रियों को अपने काबू में कर लिया है ऐसे पुरुष को अशा रहित कहा जाता है।
मन आशाएँ जगाता है तब आप वही करते हैं जो मन कहता है अर्थात मन के वश में होते हैं। जो मन पर विजय प्राप्त कर लेता है वो केवल शरीर संबन्धी कर्म ही करता है वो कर्म करता है पर नहीं भी करता।
जिसको बिना माँगे जो मिले वो उसी में संतुष्ट रहे जिसे दूसरों से जलन नहीं होती और जो सुख-दुख आदि झंझटों से छूट चुका है ऐसा सिद्धि और असिद्धि में रहने वाला कर्मयोगी कर्म करते हुए भी उसमें नहीं बंधता। श्री कृष्ण कहते हैं कि योगी को बिना माँगे जो भी मिल जाता है वो उसी में संतुष्ट रहता है। जो किसी से जलन नहीं रखता कि अन्य के पास अधिक धन या नाम है और जो सुख और दुख में एक जैसा महसूस करता है, वही असली कर्मयोगी है। कर्मयोगी को अपनी ताकत अथवा अपनी देह पर घमंड नहीं रहता कि वो कितना ताकतवर है अथवा सुंदर है वह अपने मन में लोभ, मोह, अथवा घमंड को नहीं आने देता ऐसे योगियों के मन में परमात्मा का ज्ञान होता है। उसी ज्ञान पर चलते हुए अपना कर्म यज्ञ की तरह करते हैं। ऐसा कठोर नियंत्रण होने से ही ये लोग मोक्ष को समझ व प्राप्त करते हैं। ऐसा करना आसान नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कई असंभव है। कई लोग इस अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं कर्म योगी बन चुके हैं।
जिसे यज्ञ में चढ़ाया जाए वो ब्रम्ह है और जिसे हवन में चढ़ाया जाए वो भी ब्रह्म है साथ ही जो हवन की अग्नि में दी जाए वो भी ब्रह्म है और हवन से योगी जो भी फल प्राप्त होता है वो भी ब्रह्म है। यहाँ ब्रह्म से आशय है सबसे बड़ा सत्य। हमारे आस-पास जो दुनिया है वो इसी सच का रूप है। ऐसा नहीं के इससे कुछ बदल जाता है या हमें एक दूसरे के लिए समय मिल जाता है परन्तु आवश्यकता है श्री कृष्ण के मन्तव्य को समझने की। हम यज्ञ को देवताओं को समर्पित करते हैं देवताओं से मतलब है हम जिन रूपों की पूजा करते हैं यही यज्ञ का रूप होता है। जो योगी होते हैं वो अपने यज्ञ को ब्रह्म को समर्पित करते हैं उनका हर अनुष्ठान ब्रह्म के लिए होता है। हम राम, कृष्ण, शिव या माँ दुर्गा किसी को अपना यज्ञ समर्पित कर सकते हैं बस अपने कर्म अथवा कर्तव्य को यज्ञ मान कर करने की आवश्यकता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि आग में कुछ भी डालो वो जल कर भस्म हो जाता है, संयम को भी श्री कृष्ण एक अग्नि कहते हैं। वो कहते हैं कि जो योगी होते हैं वो अपनी इंद्रियों को संयम की आग डालते हैं और अपनी इच्छाओं को अर्थात इंद्रियों को भस्म कर देते हैं परन्तु जो योगी नहीं होते वो अपना सब कुछ इन्हीं इंद्रियों में भस्म कर देते हैं जैसे किसी को देख कर क्रोध आना या जलन होना कि वो मुझसे अधिक में क्यों है, वो मुझसे अधिक प्रसन्न व साधन संपन्न क्यूँ है बस इसी तरह की बातों में नादान लोग खुद को जला डालते हैं। अपनी इंद्रियों को अथवा अंतःकरण को अपने वश में करने का सबसे बड़ा माध्यम है ज्ञान। ज्ञान से ही योगी लोग अपनी इंद्रियों को अपने वश में करते हैं। मन में जब बुरा विचार आता है तो ये ज्ञान ही उन्हें बताता है कि उनका लक्ष्य कुछ और है ये नहीं। हर काम के दो पहलू होते हसन आउट उसे करते वक्त हमें पता होता है कि क्या सही है और क्या गलत अब हम कौन सा रास्ता चुनते हैं। ये ज्ञान ही है जो हमें रास्ता चुनने में हमारी सहायता करता है। और श्री कृष्ण भी हमें गीता के माध्यम सर यही ज्ञान देते हैं। हर किसी के लक्ष्य अलग हैं इसीलिए हर किसी का यज्ञ अथवा कर्म भी अलग होता है। कुछ लोग द्रव्य रूपी यज्ञ करते हैं, कुछ लोग तपस्या रूपी यज्ञ करते है, कुछ लोग योग रूपी यज्ञ करते हैं, कुछ लोग यत्नशील पुरुष व्रतों से युक्त स्वाध्याय यज्ञ करते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि कोई पुष्प, फल, फूल अथवा द्रव्य चढ़ा कर यज्ञ पूरा करना चाहता है, कोई तप कर ईश्वर को प्रसन्न करना चाहता है, कोई योग से आवश्यकता है अपने लक्ष्य पहचानने की और अपना यज्ञ चुनने की।
श्री कृष्ण कहते हैं यज्ञ से बचे हुए अमृत का पान करने वाले योगी जन सनातन पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए ये मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है फिर परलोक भी सुखदायक नहीं हो सकता है। यज्ञ के पश्चात जो बचता है वो अमृत है और वो सीधे पर ब्रह्म परमात्मा तक ले जाता है। हमारा कर्म ही यज्ञ है कर्म करने के पश्चात उसका जो भी फल हो उसे ईश्वर का प्रसाद समझ स्वीकार कर लेना चाहिए और उससे संतुष्ट होकर अपने अगले कर्म में लग जाना चाहिये। अपनी इंद्रियों को अपने वश में करना, साँसों को अपने नियंत्रण में रखना, प्राणायाम करना जो स्वनियंत्रण में सहायक होता है, ये सब यज्ञ ही तो है।
आहुति चढ़ा कर किये गए यज्ञ से अच्छा ज्ञान यज्ञ होता है। एक यज्ञ वह है जिसमें हम देवताओं की आह्वान कर उसे घी, पुष्प इत्यादि द्रव्य चढ़ाते हैं और दूसरा है ज्ञान यज्ञ जिसमें हम अपनी इंद्रियों को वश में करते हैं, कर्म करते हैं पर फल में इच्छा नहीं रखते हैं और ये द्रव्यों से कहीं अच्छा है इसलिए ज्ञान यज्ञ हमें सीधे ईश्वर से साक्षात्कार कराता है। इंद्रियों को जीतने वाले, श्रद्धा रखने वाले मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त होता है एवं ज्ञान प्राप्त करने उसे ईश्वर की परम शांति मिलती है। 

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