दायित्यों को पूजन समझा

दायित्यों को पूजन समझा

जगती से जो मिला ज्ञान, उसको मन ने जीवन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले दायित्यों को पूजन समझा।

रहा अपरिचित भाव सदा, कितने मौन मचलते देखा,
रात-रात भर बाती को, जग ने मौन पिघलते देखा।
रात फिसलती रही वहाँ, मन ने केवल फिसलन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

कुछ शब्द जगत से मिले कभी, कुछ घाव बने कुछ मलहम,
कुछ अनुभव का भाग बने हैं, कुछ की अब तक है अनबन।
कुछ बिसरे कुछ धूल हुए, कुछ को मन ने साधन समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

रजनी के अलसित भावों का, सदा यथोचित मान किया,
नयनों के अरुणिम भावों को, अरुणोदय का मान दिया।
दिवस निशा में भेद न समझा, कर्तव्यों को प्रण समझा,
शूल मिले या पुष्प मिले, दायित्यों को पूजन समझा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29सितंबर, 2023



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