खुश नहीं है आत्मा क्या जाने क्यूँ ऐसा हुआ है
कौन जाने इस हृदय को दर्द ये कैसा छुआ है
पूछते हैं शब्द सारे व्याकरण सुलझे नहीं क्यूँ
पँक्तियों में प्रश्न के वो अर्थ अब खुलते नहीं क्यूँ
जाने न क्यूँ उत्तरों में पीर का मंथन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।
उम्र भर शंकित रहा मन उलझनों में अड़चनों में
सोचता पल-पल रहा क्यूँ बँध न पाया बंधनों में
तोड़ जाने क्यूँ न पाया वक्त की सब वर्जनाएं
छल रही थी हर घड़ी जो थी कहीं कुछ एषणाएं
जाने न क्यूँ उम्र का किस पीर से बंधन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।
यूँ लग रहा है दर्द ही इस गात का श्रृंगार है
अब आँसुओं का खार ही इस जिन्दगी का सार है
मौन मन की भावनायें क्या कहूँ क्यूँ जल रही है
स्वयं की ये वेदनाएं स्वयं को क्यूँ छल रही है
लग रहा इस गात का अब पीर ही चंदन हुआ है
लग रहा है मन हमारा पीर का नंदन हुआ है।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
14जुलाई, 2023
ऐषणाएं- अभिलाषा, याचना
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