सनातन
के कलियों से रौनक मिटी जा रही है।
है दिया घाव किसने लहर को नदी की,
के कश्तियाँ लहर में फँसी जा रही है।
जहर किसने घोला है बहती हवा में,
के सभी फूल उपवन झुलसने लगे हैं।
है कैसी ये फिसलन फिजाँ में कहो कुछ,
जाने क्यूँ रास्ते ही फिसलने लगे हैं।
कुरु की सभा में मौन बैठे हैं सारे,
उपहास धरम का जो किये जा रहे हैं।
हो चले बाँधने राष्ट्र की आतमा को,
रसातल में स्वयं को किये जा रहे हो।
जो कहते घृणा का ना है धर्म कोई,
घृणा धर्म से वही अब करने लगे हैं।
जो चले थे कभी जोड़ने इस वतन को,
जाने क्यूँ रास्ते से भटकने लगे हैं।
सदियों में जिसकी लिखी गयी न कहानी,
लम्हों में उसको बाँधने चल रहे हो।
नहीं भान तुमको सुनो, क्या कर रहे हो,
के जीवन को ही बाँधने चल रहे हो।
सनातन है ये अब न इसे और समझो,
चाह कर भी जड़ों को हिला ना सकोगे।
के गीता का जिसने पढा पाठ रण में,
चाह कर भी उसे अब हरा ना सकोगे।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16सितंबर, 2023
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