एक कहानी
बैठा मुसाफिर
अपनी ही धुन में है रहता
लिखता कभी कुछ
कहता कभी कुछ
फिर पन्नों में डूबा रहता।
आती जाती
राहों को तकता
हँसता कभी गुनगुनाता
जीवन सफर है
मन है मुसाफिर
खुद से ही कहता सुनाता
न कोई दिन है
न कोई रातें
आधी अधूरी
रह जाती बातें
मीठी सी यादें,
तुतलाती बोली
गाड़ी में उसकी
होली, दिवाली।
जब मन मचलता
खुद में ही हँसता
लिखता दिलों की कहानी
लम्हों को चुनता
लम्हों को सुनता
लम्हों को लिख दी जवानी।
अपना है क्या और
क्या है पराया
मुस्का के सबके
मन को लुभाया
ऐ दुनिया वालों
मानो न मानो
उसकी भी है
कुछ कहानी।
मन जब मचलता
खुद ही बहलता
खुद ही है
खुद का वो साथी।
ऐ सुगना सुन ले
उसकी तू धड़कन
दे दे उसे कुछ निशानी
कब तक अकेला
गुमसुम रहे वो
अब पूरी कर दे कहानी।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28जुलाई, 2023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें