भूले शब्द अधरों से

भूले शब्द अधरों से

थी न जाने गलतियाँ क्या शब्द सब भूले अधर से।

थे शब्द जो परिचित कभी हर पंक्तियों हर गीत से
और थे बसते हृदय में भावनाओं के मीत से
मन न जाने शब्द क्यूँ वो अब अपरिचित हो गये हैं
व्याकरण भूले सभी सब छंद शंकित हो गये हैं
थी न जाने गलतियाँ क्यूँ पंक्तियाँ बिखरी कहर से।

अल्पना दहलीज पर थी पार उसको कर न पाये
जाने कैसी चुप लगी थी भाव सिमटे कह न पाये
जो स्वप्न पलकों पर सजे सब बूँद बनकर झर गये
गीतों से उपमाओं के श्रृंगार सारे झर गये
व्यंजना बन मौन चादर रह गयी मन में उलझकर।

तार सप्तक मौन थे सब गीत में मुखड़ा नहीं था
अंतरे बिखरे सभी थे चाँद टुकड़ों में कहीं था
स्पर्श पायें उँगलियों के पलकों ने इतना ही चाहा
चाँदनी की ओट लेकर अलकों ने मुखड़ा सजाया
मौन मन की कश्तियाँ पर टूट कर बिखरी लहर से।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09अगस्त, 2023


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