यादों के विषधर।

यादों के विषधर।  

रजनीगंधा नहीं महकती
दूर हुई कदमों की आहट
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

दूर हुई जीवन की पुस्तक
शब्द अधूरे बिखरे-बिखरे
एकाकीपन की पीड़ा से
धड़कन दिल की कैसे निखरे।

उलझन मन की नहीं सुलझती
मन ये चाहे थोड़ी राहत
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

सांध्य अजनबी सी लगती है
रात नहीं फिर अब सजती है
भीड़ भरे इन सन्नाटों में
आहें भी सिमटी रहती हैं।

सुधियों के मेले जब सजते
मन में भी होती अकुलाहट
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

जीवन बस बीता जाता है
पल-पल दुख सीता जाता है
लेकिन यादों के पनघट पर
मन का घट रीता जाता है।

रिसते हुए पीर के पल से
साँसों ने जब चाही चाहत
तब यादों के विषधर मन को
दंशों से घायल करते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जुलाई, 2023






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