लाक्षागृह लाक्षागृह
नहीं योग्यता उसकी थी पर,
सिंहासन का मोह उसे था।
पाण्डव की बढ़ती ख्याती से
अंतर्मन में द्रोह उसे था।
युधिष्ठिर गुणवान बहुत था,
धर्मराज सम्मान अधिक था।
आशीष पितामह का उसको,
प्रजाजनों में मान अधिक था।
प्रजाजनों के मन को देखा,
सब ने उस पर नेह जताया।
नैतिकता के अनुदेशों से,
धर्मराज युवराज बनाया।
हाथ से सत्ता गिरते देख,
स्वप्न को यूँ ही मिटते देख।
मन ही मन कुंठित हो बैठा,
क्रोधित मन चिंता कर बैठा।
जब उससे बर्दाश्त ना हुआ,
जब उसे लगा प्रतिघात हुआ।
मन की बात पिता से बोला,
अपने मन की गाँठे खोला।
सिंहासन यदि उसे मिला तो,
राज्य उसी का हो जाएगा।
कुछ भी प्राप्त न होगा हमको,
कुरु वंश दास हो जाएगा।
युधिष्ठिर यहाँ बड़ा सभी से,
है अधिकार उसी का पहले।
पंचों का निर्णय है सारा,
कौन यहाँ जो इसको बदले।
शकुनी की इक कुटिल चाल से,
तब दुर्योधन ने विवश किया।
अपनी इच्छा मनवाने को,
फिर संबंधों को विवश किया।
मन में भरकर कुटिल आस को,
पांडवों के समूल नाश को।
एक योजना मन में आई,
कुटिल कामना मन में छाई।
उसने मन में खेल रचाया,
नई योजना को समझाया।
सत्ता रण से हटना होगा,
पांडव को अब मरना होगा।
मेरी आप मदद ये करना,
जो मैं कहूँ आप वो करना।
वर्णावत में महल बना है,
कहना, सुंदर बहुत सुना है।
जाने को बस उनसे कहना,
कुछ दिन बस उनको है रहना।
उनको है उपहार हमारा,
मिट जायेगा संकट सारा।
महल बना है मुंज, लाख का,
पल भर में हो ढेर राख का।
जरा आग सेे जल जाएगा,
वंश समूचा जल जाएगा।
होनी को मंजूर अलग था,
कैसे सब कुछ मिटने देता।
सर पर उनके हाथ विदुर का,
कैसे घटना घटने देता।
लोभ कभी जब हावी होता,
सभी चेतना मर जाती है।
सारा बोध खत्म हो जाता,
सभी वेदना मर जाती है।
रिश्तों का फिर मोल न रहता,
लालच हावी हो जाता है।
ज्ञान, ध्यान सब मिट्टी होता,
मन विवेक सब सो जाता है।
समय शेष रहते ही जिसने,
कुंठित मन का त्याग किया है।
उसने ही जीवन को समझा,
खुल कर मन को स्वयं जिया है।
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27अक्टूबर, 2023
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