मन की बात
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।
ये रात लगती क्यूँ दिवस के बोझ से मजबूर है,
ऐसा लगता है कि ये भी थक के मुझसा चूर है।
वो टूटता आकाश तारा कर रहा है इशारा,
लग रहा मन की धरा से आकाश अब भी दूर है।
फिर भी खुद को है झुकाया जाने कुछ तो बात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।
स्वप्न का मन देख कर पलकों को मनाती रह गई,
मधुमास के मृदु गीत मलयानिल सुनाती रह गई।
ये रात रानी चाँदनी की रश्मियों में जल गई,
रात बरबस ओस छुप-छुप आँसू बहाती रह गई।
यूँ लग रहा है आँख से पल-पल गिरी बरसात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।
मन कहता है पूर्ण कर ले आज अधूरी कामना,
और सफल हो जाये शशि की अनसुनी आराधना।
याचना अब गीत बनकर आधरों से चल पड़ी है,
गूँजते हैं भाव मन के बन आदि कवि की साधना।
साधना कवि के हृदय की बस प्यार की सौगात है,
मैं था अकेला कब यहाँ जब साथ में ये रात है।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
23सितंबर, 2023
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