पूरण मेरे सकल काज।

पूरण मेरे सकल काज।  

इस जीवन के सकल पुण्य को
मैं अर्पित करूँ चरण पर आज।।

मैंने प्रतिपल पंथ बुहारा
उम्मीदों का दीप जलाया
फूलों को यदि मान दिया तो
काँटों से भी प्रीत निभाया।
उम्मीदों के सकल प्राप्य अरु
गुंजित नव जीवन सकल साज
इस जीवन के सकल पूण्य को
मैं अर्पित करूँ चरण पर आज।।

मैंने बाधाओं के क्षण में 
तेरा ही गुणगान किया है
जीवन के दृढ़तम पथ में भी
बस तेरा ही ध्यान किया है।
तेरी इच्छा के प्रभाव से
हैं पूरण मेरे सकल काज
इस जीवन के सकल पूण्य को
मैं अर्पित करूँ चरण पर आज।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जून,2021


आषाढ़ की बूँदें।

आषाढ़ की बूँदें।  

आषाढ़ के मौसमों में
जब बूँदें गिरी बरसात की
मन का भ्रमर मचल बोला
कामनाओं ने भी बात की।।

हवा का जोर संग संग
तन पर पड़ी बूँदों की लड़ी
भाव में श्रृंगार जागे
कामनाएँ भी खिल खिल पड़ीं।।

प्रेयसी भी मुक्त होकर
प्रिय से रात दिल की बात की
आषाढ़ के मौसमों में
जब बूँदें गिरी बरसात की।।

आज बूँदों से धरा की
फिर प्यास सदियों की बुझी है
बीज में फिर कोंपलें हैं
फिर आस खुशियों की जगी है।

बैल की घण्टियों ने फिर
गुनगुनाकर दिल की बात की
आषाढ़ के मौसमों में
जब बूँदें गिरी बरसात की।।

स्वप्न लाखों फिर जगे हैं
अरु भाव खुशियों के खिले हैं
नैन में उल्लास छाया
फिर झूमकर सब दिल मिले हैं।

मौसमों ने गीत छेड़ा
और शब्दों को जज्बात दी
आषाढ़ के मौसमों में
जब बूँदें गिरी बरसात की।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जून, 2021





पाप पुण्य तोलना क्या।

पाप पुण्य तोलना क्या।   

हाय अब क्या सोचता जब तू गिरा आकाश से
मुक्त कर अपने हृदय को जग के मोहपाश से।।

पुष्प डाली से गिरे जब कौन है फिर पूछता
आँख से ओझल हुए फिर कौन किसको सोचता
अंक में जो प्रेम है सब वो छणिक उन्माद है
जो है छणिक उन्माद तो क्यूँ इसे तू खोजता।।

तूने पाया क्या यहाँ जिसका तू खंडन करे
अरु लाया ही क्या यहाँ जिसका तू मंथन करे
प्रस्थान के इस क्षण में छाया कैसा व्योम है
पथ तेरा जो भूल गए व्यर्थ तू चिंतन करे।।

जिंदगी के शुभ पलों का तुमने अभिवादन किये
शोक के भी पलों में बस प्रीत का वादन किए
हर पलों की निज व्यथा को तुमने पलकों में सहा
आह, कंठ चाहे थे रुँधे पर तुमने बस वंदन किये।।

ताप के अंतिम क्षणों में साँझ शीतल हो रही
स्निग्ध लौ की भूमिका से रात उज्ज्वल हो रही
है क्षितिज नजदीक जब और आगे बोलना क्या
मुक्त हुए बंधनों से पाप पुण्य तोलना क्या।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29जून, 2021



भाव नहीं पढ़ सकते।

भाव नहीं पढ़ सकते।  

लाख करो तुम जतन यहाँ अब
मेरे भाव नहीं पढ़ सकते
होंगे कितने गीत गढ़े पर
मेरे गीत नहीं गढ़ सकते।।

सरिता के तट सा है जीवन
साथ चले पर मिल ना पाए
लहरों ने जितना ही चाहा
उतनी बदली यहाँ दिशाएँ।
सरिता की कल कल धारा को
मौन किनारे कब पढ़ सकते
लाख करो तुम जतन यहाँ अब
मेरे भाव नहीं पढ़ सकते।।

मैं उश्रृंखल मुक्त पवन हूँ
अरु तुम अनुशाषित प्रेम पंथ
यहाँ वहाँ बंजारा मैं तो
अरु तुम हो स्थापित पुण्य ग्रंथ
बीत गयी सब बात पुरानी
नूतन भाव नहीं गढ़ सकते
लाख करो तुम जतन यहाँ अब
मेरे भाव नहीं पढ़ सकते।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       29जून, 2021


जिसने पथ की पीर समझ ली।

जिसने पथ की पीर समझ ली।   

अँधियारे कितने ही गहरे
दीपक लेकिन कब बुझते हैं
जिसने पथ की पीर समझ ली
बाधाओं से कब रुकते हैं।।

आँधी हो या तूफान चले
या घनघोर प्रलय आ जाये
भले शिलाएँ रस्ता रोकें
या लहरें अंबर तक जाएं
वीर वही जो अपने बल से
एक सुनहरा पथ लिखते हैं
जिसने पथ की पीर समझ ली
बाधाओं से कब रुकते हैं।।

बहती नदिया की धारा ने
अपना पथ है स्वतः बनाया
बंधक जो भी मिले पंथ में
सबने आगे शीश झुकाया
नदिया की लहरों के आगे
बड़े बड़े परबत झुकते हैं
जिसने पथ की पीर समझ ली
बाधाओं से कब रुकते हैं।।

जीवन एक संघर्ष यहाँ है
प्रतिपल बाजी अपनों की
कदम कदम पर व्यूह रचेंगे
अरु दाँव लगेंगे सपनों की
इन दांवों को जिसने समझा
वो कहाँ कभी रोके रुकते हैं
जिसने पथ की पीर समझ ली
बाधाओं से कब रुकते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जून, 2021






मुक्त हृदय के भाव।

मुक्त हृदय के भाव।  

मुक्त हृदय ने बात कही यूँ
बींध गए सब भाव हमारे
भींग गया तन मन का आँगन
भावों ने नव पंथ निहारे।।

वीणा की झंकार हृदय में
गीतों को नव प्राण दिए
सुप्त हृदय के भाव जगे सब
चाहत को विस्तार दिए।
वीणा के साजों में सजकर
गीतों ने नव पंथ निखारे
मुक्त हृदय ने बात कही यूँ
बींध गए सब भाव हमारे।।

रश्मि किरण ने पंथ निखारा
खिले हृदय के पुष्प सभी
निर्मल कोमल विमल हुआ मन
धुले हृदय के पंक सभी।
खिले हृदय में पुष्प सभी जो
अंतरतम के पंथ बुहारे
मुक्त हृदय ने बात कही यूँ
बींध गए सब भाव हमारे।।

भरे हृदय में नूतन क्षण फिर
जगे भाव पुलकित छाया
दीप जले उम्मीदों के फिर
अंतस आलोकित पाया।
दूर हुए अँधियारे सारे
किरणों ने यूँ पंथ निखारे
मुक्त हृदय ने बात कही यूँ
बींध गए सब भाव हमारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2021

कदम कदम मुझको पाओगे।

कदम कदम मुझको पाओगे।  

आज चले हो मुझे छोड़कर, कितना दूर मगर जाओगे
जाओ जितना दूर मगर तुम, कदम कदम मुझको पाओगे।।

बादल बन बरसे थे दोनों
इक दूजे के जीवन में
फूल खिले चंहुदिश यहाँ तब
अपने सूने उपवन में
फूलों से जो खुशबू बिखरी
उनको कैसे बिसराओगे
आज चले हो मुझे छोड़कर, कितना दूर मगर जाओगे
जाओ जितना दूर मगर तुम, कदम कदम मुझको पाओगे।।

तेरी राहों से काँटे चुन
हमने फूल सजाए थे
पलकों से मोती चुन चुन कर
हार तुमें पहनाए थे।
जिन बूँदों ने पंथ निखारा
कैसे उनको झुठलाओगे
आज चले हो मुझे छोड़कर, कितना दूर मगर जाओगे
जाओ जितना दूर मगर तुम, कदम कदम मुझको पाओगे।।

तुमसे ही था शुरू किया अरु
तुम पर ही है खत्म किया
कदम कदम तुमको ही चाहा
कदम कदम है तुमे जिया।
जो भी साथ निभे राहों में
उनको कैसे बिसराओगे
आज चले हो मुझे छोड़कर, कितना दूर मगर जाओगे
जाओ जितना दूर मगर तुम, कदम कदम मुझको पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2021

तरसते मौसम।

तरसते मौसम।   

जगत के ताप पलकों से निकल दिल में उतरते हैं
कभी मोती कभी आँसू कपोलों पर बिखरते हैं।।

करे कभी देह को शीतल अरु मन को कभी कोमल
जाने ये भाव कैसे हैं जो पल पल मचलते हैं।।

कभी तो धूप अच्छी है औ कभी छाँव है अच्छी
पलकों के झपकते ही देखो मौसम बदलते हैं।।

जाने है चितेरा कौन जो यहाँ रंग भरता है
चली है तूलिका जितनी उतना और निखरते हैं।।

सफर को जंग ना समझो देव इतना जरूरी है
जहाँ बादल नहीं होते वहाँ मौसम तरसते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2021

अनकहे गीत मेरे।

अनकहे गीत मेरे।   

अनकहे कुछ गीत मेरे
पँक्तियों में रह गए
होंठ ये चुपचाप थे अरु
आँसुओं में बह गए।।

था हृदय में शोर कितना
क्या तुम्हें बतलाऊँ
पाया जो भी दर्द हमने
क्या तुम्हें दिखलाऊँ।
घाव से आँसू मिले जो
मौन सारे बह गए
अनकहे कुछ गीत मेरे
पँक्तियों में रह गए।।

चाँद भी शरमा गया जब
देखी व्यथा रात की
सितारे भी तब रो दिए
सुनकर कथा रात की।
रात की सारी व्यथाएँ
भोर में ही छुप गए
अनकहे कुछ गीत मेरे
पँक्तियों में रह गए।।

भोर की वो लालिमा भी
खोजते हैं राज को
गीत वो जो मौन हैं अब
ढूँढ़ते हैं साज को।
साज ने जो भी सजाए
शोर में सब बह गए
अनकहे कुछ गीत मेरे
पँक्तियों में रह गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जून, 2022

बस्ती बस्ती बात हुई है।

बस्ती बस्ती बात हुई है।  

आज यहाँ मेरी राहों में वही पुरानी बात हुई है
नगर नगर सब गूँज गये अरु, बस्ती बस्ती बात हुई है।।

वो बीते पल सब गुजर गए,
साथ चले सब बिछड़ गए
उपवन अब भी पुष्पच्छादित
सौरभ जाने किधर गए
मुक्त भाव सब हुआ जगत अब, फिर ये कैसी बात हुई है
नगर नगर सब गूँज गए अरु, बस्ती बस्ती बात हुई है।।

बीते उन खुशियों के पल को
फिर से कौन गुजारेगा
मेरे उन भूले नामों से
फिर से कौन पुकारेगा
बीते उन पल में क्या कह दूँ, कैसी कैसी बात हुई है
नगर नगर सब गूँज गए अरु, बस्ती बस्ती बात हुई है।।

जितने गीत गुहे थे पथ में
अब वो सारे बिसर गए
मोती की माला जो गूंधी
टूट टूट सब बिखर गए
अब दिवस ढला धीरे धीरे अरु, धीरे धीरे रात हुई है
नगर नगर सब गूँज गए अरु, बस्ती बस्ती बात हुई है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जून, 2021


मौन मेरे गीत को आज तुम आवाज दे दो।।

मौन मेरे गीत को आज तुम आवाज दे दो।।

मौन मेरे गीत हैं प्रिय, आज तुम आवाज दे दो।।

प्रीत के इस ग्रंथ का तुम ही रचेता हो प्रिये
प्रीत के इस पंथ का पावन सवेरा हो प्रिये
तुम प्रणय की शक्ति हो और तुम ही विश्वास प्रिय
बाँध कर अपने सुरों में गीत को इक साज दे दो
प्रीत के इस गीत को अपनी मधुर आवाज दे दो
मौन मेरे गीत हैं प्रिय, आज तुम आवाज दे दो।।

कल्पनाओं के सफर में गीत कितने हैं रचे
भावनाओं में हृदय के प्रीत कितने हैं बसे
बाँध कर इक पाश में तुम नया आह्वान दे दो
शब्द हमने जो गढ़े आज इक पहचान दे दो
प्रीत के इस रीत को तुम नया अंदाज दे दो
मौन मेरे गीत हैं प्रिय, आज तुम आवाज दे दो।।

रात के उस पार ही भोर की पहली किरन है
पुण्य है जो प्रीत तो पुण्य अपना भी मिलन है
मिलन के पुण्य क्षण को प्रीत का श्रृंगार दे दो
भाव का विन्यास कर इक नया अवतार दे दो
औ बदल कर भाव सारे इक नया आगाज दे दो
मौन मेरे गीत हैं प्रिय, आज तुम आवाज दे दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जून, 2021


तुम चाहो तो बोलो।

तुम चाहो तो बोलो।   

आज सुनूँगा व्यथा तुम्हारी
जो तुम चाहो तो बोलो।।

तुमने अपने मन के भीतर 
जितने भाव छुपाए है
बूँद बने पलकों तक आकर
अंतरतम बहलाये हैं
भाव छुपाए अंतस में जो
तुम यदि चाहो तो खोलो
आज सुनूँगा व्यथा तुम्हारी
जो तुम चाहो तो बोलो।।

बहुत छुपाया तुमने मन को
इतना कौन छुपा पाया
बहुत दबाया है भावों को
इतना कौन दबा पाया
आज मिलूँगा मैं भावों से
यदि तुम चाहो तो खोलो
आज सुनूँगा व्यथा तुम्हारी
जो तुम चाहो तो बोलो।।

तुमने सबकी सुनी बहुत थी
लेकिन अपनी कह ना पाए
सबका घाव हमेशा देखा
पर अपना दर्द रहे छुपाए
आज तुम्हारा दर्द सहूँगा
यदि तुम चाहो तो खोलो
आज सुनूँगा व्यथा तुम्हारी
जो तुम चाहो तो बोलो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जून, 2021

चलो फिर गीत हम गायें।

चलो फिर गीत हम गायें।   

चलो फिर आज हम दोनों
पुराना गीत दोहराएँ
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।

है तुमको याद क्या अब भी
मुलाकातों की वो बातें
नहीं भूले अभी तक हमने
गुजारी कैसी वो रातें 
जलाए दीप जो उस रात
वही फिर दीप हम लाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

वही नदिया की लहरें हों
वही फिर से किनारा हो
मिलें जब फिर से हम दोनों
वही दिलकश नजारा हो
नजारों के इशारों में
चलो फिर डूब हम जाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

माना दिन ये गुजरा है
मगर ये रात अपनी है
जो बातें सदियों ने भूली
उन्हें लम्हों में कहनी है
मिलें फिर से वहीं हम तुम
औ जग को भूल हम जाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जून, 2021


स्वप्न है जो प्यार तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।

स्वप्न है जो प्यार तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।

बंद है जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ
स्वप्न तेरा प्यार है तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।।

है यहाँ पर कौन जिसके पलकों में ना स्वप्न आया 
है यहाँ पर कौन वो जिसे प्यार का ना शब्द भाया
कौन सा है पुष्प बोलो कभी टूट कर खिलता यहाँ
जब भी गिरे शाखों से पत्ते फिर वहाँ मिलते कहाँ
टूट कर संभला हूँ कैसे दास्ताँ कैसे सुनाऊँ
बंद है जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ।।

रात की नाकामियों का दंश सुबहों ने है झेला
सितारों की इस भीड़ में भी चाँद हुआ क्यूँ अकेला
चाँद के एकाकीपन को अब कौन समझेगा यहाँ
जागती उस रात का मरम अब कौन बोलेगा यहाँ
क्या हुआ था उस घड़ी अब कैसे मैं तुमको बताऊँ
बंद हैं जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ।।

स्वप्न जो ये प्यार है तो गीतों में मैं क्या कहूँगा
साथ तेरा जो ना पाया गीत बोलो क्या रचूँगा
खोल कर अपना हृदय बोलो किसको दिखलाऊँ यहाँ
बात जो बीती हृदय पर अब किसको बतलाऊँ यहाँ
तुम खड़े जिस राह बोलो तुमको मैं कैसे मनाऊँ
बंद हैं जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ
स्वप्न तेरा प्यार है तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जून, 2021


अधरों पर प्रतिबंध अनेकों।

अधरों पर प्रतिबंध अनेकों। 

अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे

किरणों का पथ रोक रहे हैं
काले काले मेघ घनेरे
अँधियारों ने बैठाए हैं
दीपक पर लाखों पहरे
अंतस के सागर में देखो
ऊँची ऊँची उठती लहरें
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

जाने कैसी चलन चली है
आडंबर सब अच्छे लगते
चमक दमक वाला जीवन
पलकों को सच्चे लगते
बैठ सादगी किसी किनारे
भरती है साँसें गहरे
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

प्रश्नों से जा कह दो कोई
महलों के दरबार न जाएं
अपनी राह बुहारें खुद ही
खुद ही अपना पंथ बनाएं
दरबारों की अनदेखी से
वरना घाव मिलेंगे गहरे
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जून, 2021




पुलकित पंथ बताओ।

पुलकित पंथ बताओ।   

ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो 
इक दूजे का सम्मान बढ़े और सबका अंतस हर्षित हो।।

रहे न कोई भेद किसी में अरु नहीं किसी में अंतर हो
जीवन में संकेत सुफल हो अरु पुण्य भाव का मंतर हो
सबका हिय आनंदित हो अरु सद्भाव हृदय में संचित हो
ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो।।

छोटी छोटी आशाओं अरु इच्छाओं को सम्मान मिले
एक दूजे में सुलह बढ़े अरु एक दूजे को मान मिले
देख समर्पण एक दूजे पर अब जन गण मन आनंदित हो
ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जून,2021

चक्रव्यूह में सच।

चक्रव्यूह में सच।  

सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

चक्रव्यूह ऐसा रच डाला
शापित सारे शब्द हुए
और दिखाया उनको ऐसे
विचलित सारे अर्थ हुए
भावों में भी अंतर आया बिखरे सारे मरम बिचारे
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

बहकी बहकी बातें भी जब
झूठ गवाही देती हैं
सिंहासन तक शोर मचाती
नहीं सुनाई देती है
मर्माहत होकर तब लम्हें सोचें किसको आज पुकारें
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

आरोपों के ओछेपन से
सच की राह मिटाते हैं
कदम कदम पर झूठ गढ़ रहे
कैसा खेल रचाते हैं
झूठ को अगणित पथ मिलते पर सच का पंथ कौन बुहारे
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

अँधियारे की पंचायत में
पर सच कैसे रोकोगे
दीपक की लौ रोक सके ना
सूरज को क्या रोकोगे
पथ के सारे अँधियारे को सूरज ने है आज बुहारे
सत्य उतना ही मुखर हुआ झूठ ने जितना पाँव पसारे
पर लम्हों पर जो कुछ बीती कोई कैसे उसे बिसारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जून, 2021



एक नगर अनजाना सा।

एक नगर अनजाना सा।  

एक नगर अनजाना सा ये
इक दिन एक अकिंचन आया
चेहरे पर मिश्रित भाव लिए
कितने स्वप्न सुनहरे लाया।।

थी अनिभिज्ञ अरु अनजान डगर
किंचित भर थी पहचान मगर
हिय में भर वचनों की पीड़ा
पलकों में सागर भर आया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

कर खाली अरु ग्रीवा कंपित
अधरों पर मधु भरकर संचित
भावों में अकुलाहट भर, पर
अंतस भाव मनहरे लाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

पंथ खुले पूजा के निस दिन
भाव मिले भावों से उस दिन
निस दिन फूलों ने पथ खोला
जिस दिन संग तुमारा पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

फूलों ने था पंथ बुहारा
सपनों को भी मिला सहारा
खिलने लगीं नगर की गलियाँ
खुद को तब सम्मोहित पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

आज नगर ये पहचाना है
नहीं कहीं कुछ अनजाना है
मिले यहाँ सपनों के मोती
कितना कुछ इससे है पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जून, 2021



मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।

मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।  

जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती है
मैंने जो भी कही कथाएँ तुम्हें पुरानी लगती हैं।।

तुम संग मेल हुआ था जब, तब तुम भी खोये खोये थे
अंक तुम्हारा भी सूना था कुछ पाए ना खोये थे
नया सहारा मिलते ही वो छाँह पुरानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।।

बाधाओं के चक्रव्यूह से तुम कैसे निकले भूल गए
साथ तुम्हारा छोड़ चले सब कैसे सँभले भूल गए
सँभले हो अब तो क्यों वो बात पुरानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।।

बार बार पंथ छला गया फिर भी है विश्वास किया
जग से भले दूर हुए हम पर तुमसे ही आस किया
मेरी सारी बात तुम्हें अब नादानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जून, 2021

दिल की अभिलाषा।

दिल की अभिलाषा।   

दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज

मन चंचल है अपना ये अरु
इच्छाओं का भार बहुत है
कदम कदम पर देखो जब भी
चाहत का अंबार बहुत है
आशाओं के नीलांबर में
सपन सलोने बुनूँ मैं आज
दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज।।

मुक्त गगन में मैं भी विचरूँ
फूल फूल इतराऊँ मैं भी
अपने अल्हड़पन से सबका
मन उपवन बहलाऊँ मैं भी
पावन सबका हृदय करूँ मैं
करूँ सभी को मगन मैं आज
दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021

ख्वाहिश।

ख्वाहिश।  

ऐ जिंदगी तुझसे मेरी बस इतनी सी गुजारिश है
बीते हर पल तेरी बाहों में बस यही ख्वाहिश है।।
ना कोई क्लेश रहे मन में और ना शिकवा कोई
खुश रहूँ हर पल तेरी राहों में यही फरमाइश है।।
रहे बस प्रेम मेरे मन में और मेरे गीतों में
रचूं नव गीत सदा जीवन के मेरि यही ख्वाहिश है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021

कैसे आऊँ मैं तुम तक।

कैसे आऊँ मैं तुम तक।  

पलकों पर मेरे भार बहुत है कैसे सपन सजाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

बहुत भीड़ है दरवाजों पर
कितने आस लगाए बैठे
तुझसे मिलने की खातिर ही
खुद को हैं उलझाए बैठे
कदम कदम दरबान बहुत हैं बोलो कैसे समझाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

कल्पना मात्र से ही तेरे
हर मन पुलकित हो जाता है
साथ मिला है जब जब तेरा
मन भावन हो खिल जाता है
तेरे वैभव के अहसासों को बोलो कैसे पाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

कितने मौसम बीत गए हैं
तेरी आस सजाए मुझको
कितनी रातें बीत गयी हैं
तेरा दीप जलाए मुझको
कैसे तेरी कृपा मिलेगी अरु कैसे तुझको गाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19जून, 2021


कुछ तो बोलो किसकी खातिर।

कुछ तो बोलो किसकी खातिर।  

पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मन के भीतर उठी तरंगें
गीत नया रच जाती हैं
और पिरो शब्दों को कितने
भाव नया रच जाती हैं
इन गीतों में किसे पुकारूँ
गाऊँ मैं किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

पलकों पर कितने ही सावन
आये आकर चले गए
कुछ ने खोले प्रीत द्वार के
कुछ आँसू बन छले गए
बूँद बूँद बन गिरे पलक से
रोकूँ अब किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मैंने गीतों के पंक्ति पंक्ति में
कितने सपन सजाए हैं
उनमें हिय के भाव भरे जब
तब गीतों में गाये हैं
अब तक गाया बहुत यहाँ मैं
अब गाऊँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

भूल न जाऊँ मैं गीतों में
लिखी हुई सारी बातें
भूल न जाऊँ मैं वादों में
कही हुई सारी बातें
तुम जो पथ से दूर हुए तो
रूप सँवारूँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021


चलो जहाँ अपने मिलते हैं।

चलो जहाँ अपने मिलते हैं।

तारों को सह देख चाँदनी
हौले से मुस्काई बोली
दूर गगन की छाँव चले हम
जहाँ सभी सपने पलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते है।।

एकाकी जीवन ने अब तक
क्या पाया है जो खोएगा
मिले जहाँ सपनों को मंजिल
उसी गोद में चल पलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

कितनी दूर प्रभाकर का रथ
फिर भी वो ऊष्मा देता है
उसके चलने से ही सारे
ऋतुओं के मरम बदलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

ऊँच नीच का भेद न होये
मिलें सभी कोई ना खोये
सबका जीवन सहज बने जँह
जहाँ पुष्प सुंदर खिलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18जून, 2021



राह चलो धीरे धीरे।

राह चलो धीरे धीरे।  

पलकों में अगणित स्वप्न सजा
कदम तले आकाश मिला
उम्मीदों की गठरी थामे
राह चलो धीरे धीरे।।

ऊबड़ खाबड़ रस्ते सारे
बढ़ने से कटते सारे
परे हटा सब अवरोधों को
राह चलो धीरे धीरे।।

बाधा से घबराना कैसा
थक कर रुक जाना कैसा
नया जोश भर नई उमंगें
राह चलो धीरे धीरे।।

दूर शिखर पर सूर्य दिख रहा
तेरा पथ धैर्य लिख रहा
संयम को हथियार बना अब
शिखर चढो धीरे धीरे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून, 2021

बूँदों का मधुमास।

बूँदों का मधुमास।   

सावन की बूंदें गिरी गगन से
अन्तस् में अधिवास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

हरित हुआ धरती का आँचल
काली मेघ घटायें छाईं
बारिश की बूँदेँ जीवन में
बनकर के सौगातें आयीं
तन मन ऐसे भींगा जैसे
मृदु भावों ने अनुप्रास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

देख धरा का खिलता आँचल
मेघों का भी मन डोला है
दूर क्षितिज पर मिलन देख कर
पपिहे का भी मन डोला है
पपिहे ने भी गीत सुना कर
फिर प्रियतम को है याद किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

सावन ऋतु की देख उमंगें
हिय प्रेम राग भर जाता है
दूर देश बैठे पियतम की
यूँ बरबस याद दिलाता है
प्रेम फुहारों से भींगा मन
अब मधुर मिलन की आस किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून,2021




सब बोल सुहाने लगते हैं।

सब बोल सुहाने लगते हैं।  

आज न जाने जग में सबको
हम दीवाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

जो कुछ भाया किया वही
दिल ने चाहा जिया वही
ज्यादा की उम्मीद न पाली
मिला जहाँ जो लिया वही
कितना कुछ पाया इस जग से
बेगाने अपने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

भूले ना हम कहीं भटककर
रुके नहीं हम कहीं ठिठककर
जब जो भी हमको पंथ मिला 
चले सदा हम सँभल सँभलकर
राहों ने यूँ छाँव दिए हैं
अब धूप सुहाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

हमने जीवन के हर पल को
खुले हृदय से सम्मान दिया
चाहे जैसा पात्र मिला हो
बस विष में भी मधुपान किया
अब तो पलकों के साये में
हर सपन सुहाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021

क्या नहीं अपराध है।

क्या नहीं अपराध है।  

झूठ है अब क्यूँ मुखर 
सत्य है बोलो किधर
अंक में अवसाद के
ढूँढ़ती है इक नजर
अब दर्द ये अगाध है
क्या नहीं अपराध है।।

रात काली हो रही 
बात काली हो रही
चाँदनी भी गुम यहाँ
भोर जैसे खो रही
क्यूँ दर्द ये असाध है
क्या नहीं अपराध है।।

युगों के बीच फँसकर
उमर जाने पिस रही
कर रही मधुपान या
फिर एड़ियाँ घिस रही
मोक्ष क्यूँ आगाध है
क्या नहीं अपराध है।।

कौन पूछे वक्त से
घाव जो गहरे लगे
मौन उसके पंथ में
आज क्यूँ पहरे लगे
क्यूँ दर्द ये दुसाध है
क्या नहीं अपराध है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021

राज बहारों ने खोला है।

राज बहारों ने खोला है।  

देख सितारों का आँगन 
मेरा मन भी डोला है
राज़ बहारों ने खोला है।

रात सँवारे दिन का सूरज
अरु पथ में सुंदर पुष्प सजे
पुरवा के शीतल झोंकों ने
कानों में सुंदर शब्द कहे
पवन झँकोरों ने गा गाकर
कानों में मधुरस घोला है
राज़ बहारों ने खोला है।।

पलकों के मोहक नरतन से
हिय के राज झलकते सारे
अधरों के पुष्पित कंपन से
मृदु श्रृंगार छलकते सारे
नेह को सुरभित पंथ मिला
ऋतुओं ने भी मधु घोला है
राज बहारों ने खोला है।।

आशाओं ने पंख पसारा
उम्मीदों ने ली अँगड़ाई
रात सजाई तारों ने जब
मधुर चाँदनी तब छाई
देख सुनहरी रात चाँदनी
भँवरे का भी मन डोला है
राज बहारों ने खोला है

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021


दुनिया एक मुसाफिरखाना।

दुनिया एक मुसाफिरखाना।  

खाली हाथ हो आये जग में खाली हाथ ही है जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना

पग पग कितने अरमानों ने
जीवन मे डेरा डाला
कुछ आशाएँ चलीं दूर तक
कुछ को पलकों ने पाला।
पले स्वप्न पलकों में जितने उनमें ही है जीवन जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

बहती जीवन की सरिता के
नैया तुम पतवार तुमी
सागर से जो उठी तरंगें
उनकी जीवन धार तुमी
सागर से मिलने की खातिर सरिता को है चलते जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

एक जनम का जीवन है ये
साथ नहीं कुछ जाएगा
जो कुछ भी बोया है तुमने
उसका ही फल पायेगा
मिला यहाँ जो कब अपना था अब खोया तो फिर क्या रोना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

होड़ मची पाने की ऐसी
कितने जीवन उजड़ गए
मोती के लालच में पड़कर
कितने अपने बिछड़ गए
सबका अंत सुनिश्चित है जब फिर क्या खोना अरु क्या पाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2021

मुक्तक।

मुक्तक- तुम सुनना  

हवाओं ने फ़िज़ाओं से कहा कुछ आज तुम सुनना
बहारों ने घटाओं से कहा कुछ आज तुम सुनना
मिले जब दिल खिले धरती नजारे गीत गाते हैं
नया सा स्वप्न कोई फिर पलक में आज तुम बुनना।।

बदल जाती है दुनिया जब किसी का साथ मिलता है
निखर जाती है कलियाँ जब किसी का प्यार मिलता है
बड़ा मुश्किल निभा पाना अकेले जग के मेले को
जहाँ मिलता है दिल दिल से वहीं पर युग बदलता है।।

न तेरी बात सुनती हैं ना मेरी बात सुनती हैं
मिले जब दो जवां दिल तो ये आँखें बात करती हैं
औ कहती हैं इशारों में जाने कितनी ही बातें
खुले जब भी गिरें जब भी ये बस फरियाद करती हैं।।

लरजते होंठ हौले से है कितनी बात कह डाले
पलकों ने भी इशारों में सभी दास्तान कह डाले
सुने या न सुने कोई यहाँ इनके इशारों को
जो दिल में बात है इनके इशारों ने है कह डाले।।

घटाओं ने बहारों से किया है प्रीत आलिंगन
मधुर अहसास ने अधरों पर दिया प्रीत का चुंबन
हृदय उल्लास से भरकर मधुर मधुमास गाते हैं
अरु इशारों ने इशारों में किया है मौन स्पंदन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         15जून, 2021



मन का दर्पण।

मन का दर्पण।  

रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे
रहे दूर जो अपनेपन से, मुश्किल है के खिल पाओगे।।

जीवन है इक सफर सुहाना
आज इधर कल उधर ठिकाना
पहचान गए जो तुम खुद को
नहीं जरूरी कोई बहाना
अपने अंतस में झांकोगे, भीतर कितना कुछ पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

दूजे के शब्दों में पड़कर
वक्त अपना बर्बाद करो ना
जग के तानों को सह लेना
चुप रहना आवाज करो ना
रुके रहे यदि लम्हों में तो, सदियों में फिर क्या पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

एक दौर था देखा तुमने
जब तुमसे गुलशन उजियारा
एक दौर अब आया है ये
जब तेरा न कोई सहारा
उसी दौर में पड़े रहे तो, नव जीवन कैसे पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

कभी सुनहरे गीतों से ही
तुमने दिल बहलाया था
शब्दों को बारीक पिरोया
तब जाकर गीत बनाया था
भाव हीन जो हुए शब्द तो, फिर से कैसे रच पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जून, 2021



कौन खोजता।

कौन खोजता।   

जो रात न होती इस जग में, उजियारे को कौन पूछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

इतना सहज नहीं रहता फिर
उन उम्मीदों से मिल पाना
धूप न होती जग में यदि तो
मुश्किल फूलों का खिल पाना
ताप न होते जीवन पथ में, छाँवों को फिर कौन पूछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

सुख ही सुख मिल जाए यदि तो
दुख का फिर अहसास कहाँ हो
इतना सहज रहा ये जग जो
दिल को दिल की आस कहाँ हो
दिल जो दिल से दूर रहा तो, पलकों से अश्रु कौन पोंछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

ग्रंथ लिखे ना जाते जग में
नैतिकता फिर मिलती कैसे
द्यूत रचा ना जाता यदि तो
भगवद्गीता मिलती कैसे
भगवद्गीता जो ना होती, सत्य पंथ फिर कौन बोलता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

सुख शांती का मोल वहाँ है
आवाजों में शोर जहाँ हो
मधुवन मधुरिम होता तब है
बँधी प्यार की डोर जहाँ हो
जो ना बँधती डोर प्यार की, रिश्तों का मन कौन टोहता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जून, 2021

उन राहों पर क्या जाना।

उन राहों पर क्या जाना।  

दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो
बीत चुकी जो बातें अब तक फिर से क्यूँ दुहराते हो।।

तुम क्या जानो कैसे मैंने खुद को पुनः संभाला है
कदम कदम पर जख्म पिये तब जाकर खुद को पाला है
अब जो सँभला हूँ तो फिर से मुझको क्यूँ बहकाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

कितनी मुश्किल से भूला मैं तुमसे जो भी घाव मिले
बहुत पुकारा था तुमको पर बीच राह तुम छोड़ चले
छोड़ चले जब बीच राह, क्यूँ फिर से मुझे बुलाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

दूर बहुत हो गयीं याद जो उनसे फिर अब क्या लेना
तुमसे जो कुछ पाया था अब वापस तुमको क्या देना
जो कुछ तुमसे मिला मुझे अब उनसे दिल बहलाने दो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

राहें जो हो गयीं अलग अब उनपर फिर से क्या जाना
बहुत मिले थे घाव वहाँ अब नया घाव फिर क्यूँ पाना
नहीं रहा जब कोई रिश्ता कैसी आस बँधाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जून, 2021






अनुभव।

अनुभव।   

ढूँढ़ते हो क्यूँ सुखन बस उम्र के ही गाँव में
आओ मिल बैठो घड़ी भर जिंदगी की छाँव में।।

जो वहाँ पर दर्द है तो खुशियों का भी तो राज है
कट रही है जिंदगी उन्हीं बादलों की छाँव में।।

जब से छूटी है जमीं छूटी हैं गलियाँ गाँव की
दर्द गाँवों का बढ़ा है देखा जो छाले पाँव में।।

जिन नन्हें कदमों की धमक से डोलते थे रास्ते
अब ढूँढ़ते हैं इक सफर वो इस नए बदलाव में।।

भूख का मतलब यहाँ पर बतलायेगी वो जिंदगी
जिसने खुद को है तपाया धूप के इस गाँव में।।

उमर का वो मोड़ अब भी है वहीं पहले जहाँ था
जिसने कभी चलना सिखाया आँचलों की छाँव में।।

फिर चलो बैठे वहाँ और खुद से ही बातें करें
राह भी शायद मिले उन्हीं बरगदों की छाँव में।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जून, 2021

मौन आवाजें।

मौन आवाजें।   

मोक्ष की गलियों में जब तक मूक आवाजें रहेंगी
कौन कब किससे यहाँ फिर दिल की सब बातें कहेंगी।।

वो खुद शिखर पर बैठ कर सम्राट बन बैठे यहाँ पर
राह की रुसवाईयाँ अब किस कदर बातें करेंगी।।

रातों के उस दर्द को फिर वो भला समझेंगे कैसे
जिनके चारों ही पहर बस रोशनी बातें करेंगी।।

भूख का अहसास क्यूँकर पूछते हो दरबारों में
सूखी छाती से लिपटी नन्हीं आँखें सब कहेंगी।।

वो पैर भी तब चल पड़े थे जब रास्ते सब मौन थे
पैरों के उस दर्द को अब रास्तों की छापें कहेंगी।।

क्या पूछते हो दर्द उनका बैठ कर महलों में यहाँ
दो घड़ी ठहरो वहाँ पर उनकी रातें सब कहेंगी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12जून, 2021

प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।

प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।   

यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या

है अभी प्रारंभ ये और 
दूर मंजिल है तेरी
औ तेरे इन काँधों पे ही
उम्मीद हैं कितनी बड़ी
जो शिथिल हैं तेरे कदम तो
जीत का फिर ये मंत्र क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

मुश्किलों से हारकर कभी
जो पंथ से विचलित हुआ
अरु छोड़ कर मँझधार में
ये नाव जो विस्मृति हुआ
है कर्मपथ से जो भी विचला 
योगी क्या और संत क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

इस पंथ में वो पंथी सफल
जो मुस्कुरा करके चले
बंधों में अवरोधों में भी
जो राह खुद अपनी गढ़े
जो गढ़ सके ना स्वयं से पथ
फिर फूल का भी पंथ क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11जून, 2021


प्रकृति का आलिंगन।

प्रकृति का आलिंगन।   

नील गगन की छांव तले पलकों ने स्वप्न सजाये हैं
रुके रहे या बीत गए जीवन ने सब अपनाये हैं।।

है विस्तृत आकाश यहाँ पर और खुली राहें कितनी
दूर दूर तक फैलायी हैं किरणों ने बाहें अपनी
और पवन के मधुर गीत नव जीवन राग सुनाते हैं
आर पार के दृश्य सभी जन जन को बहलाते हैं
प्रकृति की आभा ने कितने सुंदर बाग सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

किरणों संग खेलती लहरें छुपती हैं इतराती हैं
दूर क्षितिज पर गगन चूम कर अंजुली भर जल लाती हैं
लहरों के आँचल में लुक छिप सागर गीत सुनाता है
ओस फुहारों की शीतलता अंतस तक मदमाता है
मदमाते अंतस ने कितने सुंदर साज सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

कितना सुंदर लगता जग जब खिलता धरती का आँगन
सरस भाव से लिपट रेशमी किरणें करतीं मन पावन
नभ में पंछी मुक्त विचरते पग पग करते अवलोकित
और धरा पर हरित पुष्प खिल करते सब तरु तृण शोभित
खिले पुष्प दूर क्षितिज तक अवनी का रूप सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

मुक्त चित्त हो मुकुलों के मन भावों को करतीं विंबित
अरु सरिता तट पर किरण सुनहरी करतीं जल को स्पंदित
खग मृग वन्य पशु पक्षी सारे गुंजित करते नभ का स्वर
कलरव के मधुर स्वरों से मिट जाते शोकाकुल अंतर
प्रकृति के इस आलिंगन ने स्नेहिल भाव जगाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जून, 2021

नव जीवन के काव्य।

नव जीवन के काव्य।  

काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

कलम उठा कर जीवन के 
हर पन्नों को आज खँगालें
आज लिखें नवगीत कोई
राग नया कुछ आज बना लें
राग सजे अधरों पर ऐसे
सुने हृदय काबू कर जाए
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

लिख दो मन की बातें सारी
खिल जाए हृद की फुलवारी
रहे कहीं न भेद कोई अब
रहे नहीं कोई लाचारी
खिल जाए मन का उपवन यूँ
अविरत तप जीवन तर जाए
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

लिखो कलम से सार लिखो
इस जीवन का व्यवहार लिखो
ऐसी बातें लिखो मिलन की
नव जीवन का उपहार लिखो
रचो गीत ऐसे उपवन में
तन मन ये पावन हो जाये
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        09जून, 2021
        हैदराबाद

मलहम फिर क्या दे पाएँगे।

मलहम फिर क्या दे पाएँगे।   

जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

व्यर्थ है अश्रु बहाना उनपर
छोड़ गए फिर क्या आएँगे
मुड़ कर भी ना देखा इक पल
साथ सफर में क्या जाएँगे
छोड़ चले जो बीच सफर में
पास तिरे फिर क्या आएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

नींद में तुझे छोड़ गए जो
सब सपनों को तोड़ गए जो
कुछ दूरी तक साथ चले फिर
बीच राह में छोड़ गए जो
जिनको तेरा साथ न भाया
गीत मिलन के क्या गाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

जा पलकों के अश्रु से कह दो 
व्यर्थ ना करें अपना जीवन
अवसादों में घिरकर अब वो
झुलसाए ना अपना मधुवन
जिन हाथों ने बाग उजाड़े
पुष्प खिलाने क्यूँ आएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

कितनी बार उठे हैं गिरकर
तब बचपन में चलना आया
कदम कदम पर सीख मिली जब
तब जाकर सच कहना आया
मीठा झूठ जिने भाता हो
वो कड़वा सच क्या पी पाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

घने अँधेरों ने बोलो कभि
क्या सूरज का पथ रोका है
ऊँचे ऊँचे बंधों ने भी
कब नदिया का पथ रोका है
बन नदिया तू राह चला चल
बंधक सारे गिर जाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून, 2021


रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।

रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।

कितने ही पल बीत गए हैं
तुमसे अब तक मिल ना पाया
भाव हृदय के रीत गए सब
लेकिन कुछ भी कह ना पाया
भावों का अभिप्राय नहीं जब
कहूँ यहाँ मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

कलुष भावना के प्रतिफल से
रीत रहा है जीवन घट ये
और थपेड़ों से लहरों के
क्षीण हो रहा सरिता तट ये
तटबंधों का मोह नहीं जब
बँधूं यहाँ मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

मैं प्यासा हूँ संबंधों को
इस जग में कुछ पहचान मिले
भले नहीं कुछ मिले किसी को
पर रिश्तों को सम्मान मिले
रिश्तों के मोती फीके जब
गुहुँ उन्हें मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

बिना स्नेह के मधुवन में 
कभी पुष्प नहीं खिला करते
बिना प्रेम के जीवन में भी
कभी गीत नहीं सजा करते 
गीत लिखे जब अर्थहीन हों
फिर उन्हें लिखूँ किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        07जून, 2021
        हैदराबाद



नवा जमाना कइसा।

नवा जमाना कइसा।  

घरे दुआरे अइया बइठइं बाबा करे खरिहानी
नउके लरिके सूट चढ़ाई के खूब करें मनमानी।।
चूल्हा फूँकत उमर गइल निकलल आँखिन के पानी
नई बहुरिया गैस पे भी अब करत हौ आनाकानी।।
खेत गयल खलिहान गयल अउ छूटल सब बाग बगइचा
छूट गयल पगहा गोरु के ई नवा जमाना कइसा।।
खेते डांडे जात न केहू गोड़ में लागे चेंहटा
ऊसर बनत जात अब खेतवा दोष लगावें केहका।।
घरे में जब जब झगड़ा भयल बा बँटल खेत खलिहान
बइठ दुआरे अइया बाबा झंखइ पकरि पकरि के कान।।
जइ लरिका तइ चूल्हा होइगा अब बुढवन जाई कहाँ
थरिया के भाँटा बनि माई बाबू लुढकइ इहाँ उहाँ।।
गाँव गाँव के इहे कहानी दोष लगावइ केहका
ई नवा जमाना कइसन आइल बिगड़त हैं सब लरिका।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2021



रिश्तों का भँवर।

रिश्तों का भँवर।  

शाम के धुँधलके में कुछ निशाँ छिप गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

याद की गहराइयों में कुछ चुभे शूल से
अरु रास्तों में बिछे बन के कुछ फूल से
जो भी मिले राह में सीख कुछ दे गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

मटमैले रिश्तों ने कहानी कई गढ़ी
दर्द के प्रभाव से ही कुछ लिखी कुछ पढ़ी
जो पढ़े किताबों में शब्द सब मिट गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

वक्त से छूट कर भी कितने अलग हुए
रिश्तों के भँवर में हि कितने उलझ गए
कुछ चले दूर तलक और दूर कुछ हुए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2021



फर्ज की राहें।

फर्ज की राहें। 

गा रहे तुम गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

खेतों में खलिहानों में
बागों में चौबारों में
रात के अंधकारों में
या सूर्य के अंगारों में
तप गए हैं जिसके चरण
तुमने उसको देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

गाँव के पगडंडियों से
शहर की राहें खुली हैं
स्वप्न देखा एक ने जब
साँस दूजे को मिली है
एक की गुमनामियों में
दूजा पलते देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

दूर सीमा पर खड़े हो
मधुरस गीत गा रहे जो
स्वयं को आहूत कर के
देश भाव जगा रहे जो
छुपी उस भावनाओं का
क्या मर्म तुमने देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

मिलेंगी राहें यहाँ जब
नव पथ का निर्माण होगा
जब चलेंगे साथ में जब
स्वप्न सब साकार होगा
उस स्वप्न के साकार का
क्या फर्ज तुमने देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021



कहाँ ठिकाना।

कहाँ ठिकाना। 

मंजिलें और रास्ते भी हैं 
पर तुझे कहाँ है जाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

तुम चलो राहें चलेंगीं
तुम रुको राहें रुकेंगी
तेरे संग संग रास्ते भी
लिख रहे नूतन फसाना।
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

सूर्य, चंदा औ सितारे
चल रहे सफर में सारे
पूछते हैं आज तुझसे
कहो कहाँ तुझको जाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

भूल तुम कैसे गए वो
पंथ था तुमने चुना जो
कर स्वयं को दृढ़ प्रतिज्ञ तू
गढ़ अपना ताना बाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021



कविता में मन।

कविता में मन।  

तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित
हर पन्नों पर बिंब तेरा है
तुझ पर मेरा सब कुछ अर्पित।

शब्द शब्द में भाव भरे हैं
औ पंक्ति पंक्ति जीवन मेरा
पृष्ठ पृष्ठ तू बढ़ी यहाँ पर
पुस्तक पर है प्रभाव तेरा।
तुझसे मैंने लिखना सीखा
तुझ पर मेरा भाव समर्पित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

कहीं रुकी जो राहें मेरी
तुमने ही राह दिखाया है
भटका जब भी कहीं मार्ग से
तुमने ही राह सुझाया है।
तुझसे मैंने जीना सीखा
तुझ पर मेरा जीवन अर्पित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

मुझको बस वरदान यही दो
जन भावों को लिखता जाऊँ
गीत लिखूँ मैं जन गण मन के
नवगीत नया रचता जाऊँ।
ऐसा कोई गीत लिखूँ मैं
जिससे जग हो सारा गुंजित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021

स्वप्न सुंदर दे गए।

स्वप्न सुंदर दे गए।   

दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गये
शांत सागर की लहर में व्यग्र हलचल दे गए।।

गुदगुदा कर भावनाएँ बात अपनी कह दिया
पाश में भरकर मुझे मदहोश ऐसे कर दिया
पुष्प अधरों पर खिले औ नयन में अठखेलियाँ
प्रीत के अहसास से तुमने हृदय को भर दिया।
प्रीत का मधुमास दे श्रृंगार सुंदर दे गए
दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गए।।

थम गया था वक्त उस क्षण जब मिले दो प्राण प्रिय
मुक्त बंधन सब हुए थे जब खुले श्रृंगार प्रिय
मन की ड्योढ़ी पे लाखों दीप उस क्षण जल उठे
जब मिले थे दो हृदय ले मुक्त इक अहसास प्रिय।
उस मिलन के क्षण में मधुर गान सुंदर दे गए
दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      05जून, 2021

संकट दूर करो रघुवर।

संकट दूर करो रघुवर।  

प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर
हम बालक हैं नादान अभी
हमको भयमुक्त करो रघुवर।।

प्रभु दीन हीन का तुम बल हो
प्रभु मेरा भी उद्धार करो
प्रभु ज्ञान ध्यान की ज्योति जला
प्रभु अंतस का संताप हरो।
प्रभु मुक्त करो अँधियारों से
जग दमके बनकर के दिनकर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

रोग व्याधि से पीड़ित है जग
चहुँदिस हाहाकार मचा है
जग की सब पीर हरो प्रभुवर
तुमपर ही विश्वास टिका है।
अब सूझ रहा ना कोई पथ
कुछ राह दिखा जाओ प्रभुवर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

भले बुरे हम जैसे भी हैं
हम सब तेरे ही बालक हैं
चरणों मे अपने स्वीकारो
प्रभु दाता तुम हम याचक हैं।
दान भक्ति का हमको देकर
अंतस के पाप हरो प्रभुवर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05जून, 2021

चिड़िया रानी।

चिड़िया रानी।  

सुबह सवेरे डाल डाल पर
फुदक फुदक कर आती चिड़िया
सूरज उगने के संग संग ही
मीठा राग सुनाती चिड़िया।।

आँगन आँगन गाना गाती
वन उपवन चहकाती चिड़िया
अँधियारा अब दूर हुआ है
संदेशा पहुँचाती चिड़िया।।

त्यज आलस्य नींद से जागो
मेहनत से कभी ना भागो
मेहनत का पर्याय नहीं है
सबको ये समझाती चिड़िया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05जून, 2021

उम्मीद का सूरज।

उम्मीद का सूरज।  

घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

आसानी से कब मिलता है
सागर में मोती बोलो
भरी यहाँ कब सहज भाव से
सपनों की झोली बोलो।
साहस के आगे बोलो कब
कहाँ किसी ने टोका है
घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

माना लहरों का शोर बहुत है
औ सागर में हलचल है
तूफानों के बीच निकलना
माँझी का ही कौशल है।
लहरों के घने थपेड़ों ने
माँझी को कब रोका है
घने अँधेरों ने बोलो कब 
सूरज का पथ रोका है।।

हार जीत जीवन के पहलू
इनसे सबका नाता है
वही उठा है पथ में गिरकर
जिसको चलना आता है।
जिसने भी संघर्ष किया है
वक्त उसी का होता है
घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2021

मुझको गाने दो।

मुझको गाने दो।   

बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

बरस बरस यूँ बीत गए हैं
तुमसे नेह लगाए मुझको
भरे हृदय थे रीत गए हैं
सपनों ही में पाए तुमको।
आज मिले हो जो मुझको तुम
फिर से वो स्वप्न सजाने दो
बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

बीते कितने दिन जीवन के
इस ड्योढ़ी को तकते तकते
कितनी बार रुके अधरों पर
शब्द यहाँ कुछ कहते कहते।
ये पल फिर आये ना आये
सब आज मुझे कह जाने दो
बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2021



करवट।



करवट।  

हैं बड़ी नादान रातें ये सितारे भी समझते हैं
मगर आगोश में आयें नजारे भी तरसते हैं।।

किसी का साथ जब होता है मौसम भी हसीं लगता
बिछड़ कर आसमानों से कहाँ बादल बरसते हैं?

गुजर जाते हैं ये लम्हे भी यादों के झरोखों से
अकेले  हो गये जब भी बड़ी मुश्किल गुजरते हैं।

कहें किससे ये बातें औ सुनाएँ दास्ताँ किसको
अकेली  रात जब भी है तो बस करवट बदलते हैं।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2021

स्वयं से है संघर्ष अपना।

स्वयं से है संघर्ष अपना।  

चल रहा हूँ भीड़ में मैं
होड़ पर खुद से मची है
मंजिलों की दौड़ है औ
द्वंद अंतस में खिंची है।।
विजित रहूँ या अविजित मैं
परिणाम को नहीं तकना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

मैं वही हूँ जो वहाँ था
अब यहाँ हूँ कल कहाँ था
वक्त का है खेल सारा
मुक्त कोई कब यहाँ था।
बंधनों के बीच रहकर
स्वयं को है मुक्त रखना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

मिल गया इस पंथ में जो
स्वीकार उसको कर लिया
यज्ञ की आहूती बनकर
स्वयं से ही मिल लिया
मोक्ष के इस हवन में फिर
सुनूँ किसी की क्यूँ गर्जना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2021





व्यथा।

व्यथा।   

जब रात के आगोश में
भोर कोई पल रहा था
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

नींद पलकों पर रुकी थी
स्वप्न ड्योढ़ी पर खड़े थे
भावनाओं के समर में
शब्द पर पहरे बड़े थे।
रात की तन्हाइयों में
दीप चुप चुप जल रहा था।
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

रात की अपनी व्यथा है
औ दिवस की है कहानी
बीच में पिसती रही है
जाने कितनी जिंदगानी।
है सदी का घाव जिसको
वक्त पल पल सिल रहा था
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जून, 2021

संबंध।

संबंध।   

शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

दूर तलक जाती राहों पर
लाखों पग डग भरते हैं
कुछ चलते हैं साथ साथ 
कुछ बीच राह बिछड़ते हैं।
साथ चले जो पग राहों में
अभिप्राय उन्हीं के बनते हैं।
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

सबके मन के भावों को
पिरो बना मोती की माला
एक पंक्ति में भगवद्गीता
दूजे में यज्ञों की ज्वाला।
यज्ञ जहाँ पर होते हैं
उपहार वहीं पर मिलते हैं
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

कर्तव्यों की ड्योढ़ी पर ही
अधिकार फला फूला करते
जहाँ सुमति है परिवारों में
पुण्य प्रभाव मिला करते।
अधिकारों को सम्मान वहीं
कर्तव्य सभी मिल करते हैं
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वही पर खिलते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जून, 2021






तुम हमारे हो ना पाए।

तुम हमारे हो ना पाए।   

नयन में भर नीर कितने
एक दिन तुमने कहा था
है बहुत अफसोस तुमको
गीत संग संग गा ना पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

था वो नदिया का किनारा
हो गया बोझल सहारा
अधरों में कंपन बहुत था
मुक्त लेकिन मिल न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

था हृदय में शोर कितना
पर जगत था मौन सारा
सुन रही थी साँझ चुप हो
बात लेकिन कह न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

शेष थे जो शब्द झलके
अश्रु बन पलकों से छलके
स्वयं से था तब मैं हारा
वो गीत फिर से गा न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

अब तुम कहीं औ मैं कहीं
पर रास्ते अब भी वहीं
चल रहीं राहें अभी तक
लेकिन हम तुम चल न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01जून, 2021

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...