लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं। 

ये रात सागर का किनारा और हम तुम घाट पर
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूधिया आकाश ओढ़े रात पल-पल ढल रही है
और मीठी सी छुअन दे पौन मद्धम चल रही है
गा रही है गीत ऋतु का सुन रहे हैं चाँद तारे
घुल रही है चाँदनी भी देख अधरों पर हमारे
ओस बूँदें चाँदनी में मोतियों में ढल रही हैं
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

नाचती हैं पंक्तियाँ औ आधरों पर गीत सारे
झूमती हैं बदलियाँ भी झूमते सारे नजारे
कनखियों से रास रचकर रात ने मन को लुभाया
भर दिया अनुराग मन में गीत ने आकाश पाया
नेह की मीठी छुअन से यामिनी भी तर रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूर इन पगडंडियों पे देख परियाँ नाचती हैं
गात में मधुमास भरतीं पुष्प से पथ साजती हैं
बीत जाये ना कहीं ये रात की घड़ियाँ सुहानी
और कुम्हलाये कहीं न आधरों की रात रानी
शब्द से श्रृंगार करती पंक्ति आगे बढ़ रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15नवंबर, 2022

अपने अंतस के पट खोलें।।

 अपने अंतस के पट खोलें।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा आ नैनों में इसे सहेजें
नयनों के पृष्ठों को खोलें यादों को फिर चलो समेटें
पलक भरें यादों के झुरमुट सपनों को फिर चलो टटोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

याद करो उस प्रथम भेंट को जब हम दोनों थे ऋतुणखी
अधरों के दो पुष्प खिले थे नयनों ने सम्मोहन बाँधी
कहें भाव फिर से अंतस के मन के बंद द्वार फिर खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

हों अक्षर-अक्षर मधुर गीत जब मन में तब छाता है सावन 
जहाँ गीत में फागुन आता वहीं गात होता वृंदावन
नेहमुग्ध हो बाँधे मन को अधरों के फिर मधुघट खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

पता नहीं मधुमास ढले कब जाने कब साँसें ढल जायें
जीवन का ये महादिवस भी संध्या में कब जा घुल जाये
हैं भूली बिसरी जो स्मृतियाँ उनसे फिर से नैन भिंगो लें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2022

मुक्तक- अधरों पर उपकार बहुत है।

अधरों पर उपकार बहुत है।

जीवन के इस महासमर में पीड़ा का आभार बहुत है
जग से इतना कुछ पाया है अब तो ये अधिकार बहुत है
निज पीड़ा पर गीतों ने जो मलहम बनकर चैन दिया है
गीतों के उस महा पंक्ति का अधरों पर उपकार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022 

समय संग रीत जाता है।

समय संग रीत जाता है।

न समझो राह का पत्थर मैं वही रस्ता पुराना हूँ
जो तुम हो गीत की दुनिया तो मैं भी इक फसाना हूँ
नहीं कोई अदावत है मुझे तुम्हारे जमाने से
जो तुम हो आज की दुनिया तो मैं गुजरा जमाना हूँ।।

जहाँ तुम आज पहुँचे हो उसे हमने ही बनाया है
हटा कर के राह से काँटे नया रस्ता बनाया है
नहीं थी मखमली राहें चुभे कितने शूल पैरों में
औ कितनी ठोकरें खाईं तब जाकर पथ सजाया है।।

नया क्या सूर्य है देखा औ नया कब चंद्रमा देखा
सुना है क्या कभी तुमने नया कोई आसमां देखा
पुराने हैं सितारे ये औ वही रातें पुरानी है
सिवा धरती के आँचल के कोई क्या आसना देखा।।

नया तब दौर आता है जब पुराना बीत जाता है
है समय का खेल कुछ ऐसा समय ही जीत जाता है
कहाँ ठहरी हैं ये राहें उमर संग बीत जाती हैं
भरो सागर से घट कितना समय संग रीत जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बावले कुछ गीत मन में चुभ गये
नैन थे बेचैन कुछ-कुछ कह गये
कुछ कपोलों पर गिरे कुछ मौन थे
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन, कितनी व्यथा का भार ढोते
शब्द के घाव का व्यवहार ढोते
हैं कलेजे पर चुभे तीर कितने
कह न पाये, मौन हर बार रोते
दर्द थे जितने सभी चुप सह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रुओं में भींगते मन हारते
देखा है कितने जीवन वारते
जीत के द्वार पे जितने खड़े थे
देखा कितनों को उनमें हारते
हार कर बात दिल जो कह न पाये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अंक में जो भाव हैं जो है कसक
छोड़ता है मन कहाँ कोई कसर
कंठ में जो शब्द की अब तक तपन
देखा है मन पे सदियों ने असर
कंठ में जो शब्द दब कर रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

क्या नहीं इस अश्रु ने अब तक किया
मौन रह कर बात कितनी कह दिया
किंतु जाने रेख में क्या था यहाँ
आँसुओं ने दर्द को पल-पल सिया
सी न पाए दर्द जो सब बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

भाग्य में जिनके व्यथा लिपटी रही
दर्द से उनका सदा नाता रहा
थी अभागे शब्द की कुछ तो व्यथा
आँसुओं में भींगता गाता रहा
शब्द कितने मौन झर-झर बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन पलकों में कभी आ जब कढ़े
था भला यदि टूट गिर जाते वहीं
जब न कोई दिल पसीजा क्या कहें
टूट कर यूँ ही बिखर जाते कहीं
छूट पलकों से अकेले रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बह चले जो शब्द दुखिया आँख से
इस जगत ने बस उसे पानी कहा
फिर जगत की लाज क्यूँ पलकें करें
जब किसी ने भी नहीं आँसू कहा
बूँद माटी में मिले गुम हो गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये। 

क्या कहें क्या बेबसी इनकी रही
साँस से कैसा सदा नाता रहा
जब कपोलों पर लुढ़क कर आ गिरे
नैन से क्यूँ नेह भी जाता रहा
सूख कर के भी हृदय में छप गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन लम्हों ने कई सदियाँ लिखी
मोड़ कितने और क्या गलियाँ लिखीं
उम्र भी जिस मोड़ पर आ थक गई
उस मोड़ पर आखिरी दुनिया लिखी
काँप कर के शब्द जिस पल दह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2022









आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।। 

घाव सारे आज मन के धुल गये
नैन जो कल तक मुँदे थे खुल गये
आज किस करवट हवायें चल रहीं हैं
बंद थे जो द्वार सारे खुल गये
सज गए सुर तार किसने बीन छेड़ी
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज लहरों ने मधुर संगीत गाया
दूर सागर से मिलन का पथ सजाया
चल पड़ी, मँझधार नौका कब रुकी है
दूर तारों ने मिलन का गीत गाया
चाँद करे सिंगार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

पौन ने छूकर मधुर संगीत गाया
दूर लहरों ने नया फिर सुर सजाया
दो दृगों में स्वप्न फिर नूतन सजे हैं
मौन लम्हों ने नया है राग गाया
मौन हैं उद्गार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2022




हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

प्रेम के व्यवहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने अश्रुधार के गीत हैं लिखे बहुत
क्या मिला नहीं मिला अब कोई गिला नहीं
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

चाहतों की रश्मियाँ ढूँढते रहे सदा
अंधड़ों में बस्तियाँ ढूँढते रहे सदा
भीड़ में रहे कभी या नीड़ में रहे कभी
मौन अपनी हस्तियाँ ढूँढते रहे सदा।।

वक्त के मनुहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

शीत में रहे जो तो धूप की कशिश रही
धूप में रहे जो तो छाँव की कशिश रही
पूर्णता के भाव क्यूँ मन को छलते रहे
मौन में पुकार की मन को इक़ खलिश रही।।

मौन के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

मन की सभी ख्वाहिशें पूर्ण कब हुई यहाँ
उम्र संग चली और कुछ उम्र में घुलीं यहाँ
कुछ ने रास्ते बुने राह में कुछ खो गए
कुछ को चित्रकार की तूलिका मिली यहाँ।।

चित्रों के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

रात जब हुई कभी भोर ने आवाज दी
शून्य जब हुए कभी मौन ने आवाज दी
कब कहो के रश्मियाँ सिमट कर रही कहीं
रश्मि के श्रृंगार ने जिंदगी को साज दी।।

रश्मि से श्रृंगार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05नवंबर, 2022



पास हम आने लगे।

पास हम आने लगे।  

शब्द अधरों पर हमारे गीत बन छाने लगे
बेकसी में जब कभी भी याद तुम आने लगे।।

बात पूरी हो न पायी दूर सबसे हो गए
दूरियाँ वो गीत बनकर होंठ पर आने लगे।।

सिलवटों ने माथ पर हैं लिखी जितनी कहानी
उम्र की दहलीज पर वो मौन समझाने लगे।।

कुछ अधूरे गीत उस दिन राह में भटके कहीं
देख कर तुमको यहाँ पर याद सब आने लगे।।

यूँ था सफर छोटा मगर दूरियाँ ऐसी बढ़ीं
दूरियों को पाटने में उम्र को जमाने लगे।।

जिंदगी की रेल का "देव" यूँ सफर चलता रहा 
दूर हम जबसे हुए हैं पास हम आने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03नवंबर, 2022


शर्वरी भी गा रही थी।

शर्वरी भी गा रही थी। 

द्वार पर मधुमास लेकर 
प्रेम का अनुप्रास लेकर
लाज का श्रृंगार ओढ़े
पास पल-पल आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी। 

दो दृगों में नेह लेकर
अंक में मृदु प्रेम भरकर
आस का आकाश ओढ़े
स्वप्न नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

सजल नयन में स्वीकृति थी
नवल नयन नव आकृति थी
झाँझरों के मृदु स्वरों से
साँसें सुर सजा रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

चाँदनी में आज लिपटी
दो पलों में रात सिमटी
ओस की चादर सुनहरी
पौन मद्धम आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

आँजुरी संसार सारा
अंक में आकाश तारा
भोर भी जिसके सहारे
आस नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02नवंबर, 2022



कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

साँझ ढले सागर के तट पर तरुवर है एकाकी
आस सिमटती चली जा रही कितना कुछ है बाकी
लहरों से भी शोर अधिक अब अंतस में उठता है
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कौन किनारा छोड़ सका जो छोड़ चले जाओगे
दूर कहीं भी जाओ सबसे यादों में आओगे
कहीं रागिनी मद्धम-मद्धम जब मन बहलायेगी
बरबस तब तस्वीर हमारी नयनों में पाओगे।।

नयनों के कोरों में अब भी कहीं नमी है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

टूटे कितने दफा किनारे लहरों से टकराए
कभी दूर से घात लगाया कभी पास तक आये
बिछड़े कितनी बार लहर से कितने दाग उठाये
दूर कहो कब हुए किनारे, पास लहर के आये।।

लहरों की हर घातों में कुछ, कहीं कशिश है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

छूटा अवसर जो हाथों से मुश्किल फिर आएगा
छूटा मन का साथ कहीं तो जीवन पछतायेगा
बिखरे मन से गीत भला कब कोई गा पाया है
सरगम गीतों से रूठी छंद सँवर कब पाया है।।

सरगम में फिर गीत सजाओ राग अभी भी बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01नवंबर, 2022




राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

कितनी घड़ियाँ बीत गईं
 इक दूजे के भाव समझते
कितनी कड़ियाँ छूट गईं
इक दूजे का राग समझते
इक युग बीत गया हमको 
इक दूजे को गीत सुनाते
इक युग बीत गया हमको 
इस ड्योढ़ी तक आते जाते।।

राह भटकने से पहले गीतों का संसार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मन के भाव कहे हर कोई 
इतना तो अधिकार सभी का
मन के भाव समझ पायें 
इतना हो सत्कार सभी का
सबकी रेखों ने कब पाया 
दुनिया का अनमोल खजाना
किंतु समय का मर्म समझना 
हाय, न अब तक सबने जाना।।

समय छिटकने से पहले आहों का व्यवहार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मोल विजय का क्या बोलो
जीत माथ जब चढ़ कर बोले
हारा पर वो जीत गया
जिसने मन के भाव झिंझोड़े
जीत कभी जो कहा नहीं
हार बात वो कह जाती है
आवाजें जो कही नहीं
मौन हृदय के कह जाती है।।

हार-जीत के निस पल में रिश्तों का आधार सँभालो
राग उतरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2022




पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

बाँध मुझको आज अपने नेह के नव बंधनों में
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

रोक मुझको न सकीं संसार की घातें कोई भी
बाँध मुझको न सकीं अवसाद की रातें कोई भी
माना मेरे पथ में केवल कंटकों के जाल थे
जंजीर थी इक पाँव में औ अंक में जंजाल थे
दूर आया हूँ सभी से लौट अब जाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

धूल के कुछ कण उड़े जो शीश पर मेरे गिरे थे
सिलवटें कभी मिट सकी न भाल पर ऐसे सटे थे
किंतु मेरी भावनाओं ने मुझे बाँधा यहाँ पर
थे भरे जब नैन मेरे दोष था आधा वहाँ पर
बहुत बिखर का दर्द पाया और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

मुक्त हूँ सब बंधनों से मुक्त आहों के सफर से
मुक्त हैं अब सब किनारे मुक्त सागर की लहर से
आज मन की रागिनी निर्बाध निर्झर बह रही है
संग पा कर के मधुर सब भाव मन के कह रही है
कह रही है चाह मन की और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अक्टूबर, 2022

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

नभ के सारे पंछी थककर
तरुवर को अपने लौट रहे
सागर में बलखाती नौका
फिर तटबंधों को ओर चले
पश्चिम की गोदी में जाकर
थक कर किरणें कहीं छुप रहीं
दबे पाँव संध्या भी आकर
रातों को आवाज दे रहीं
कितना कुछ दिन ने ढोया है
उफ्फ तक लेकिन किया नहीं।।

दिन के कितने काम अधूरे
चाहे लेकिन कर ना पाये
अधरों तक कितनी ही बातें
आईं लेकिन कह ना पाये
पलकों ने था किया इशारा
औ साँसों ने स्वीकार किया
पर कुछ बातें रहीं अधूरी
आ रातों ने सत्कार किया
मन से मन की डोरी बाँधी
नव सपनों को पर दिया यहीं।।

रवि का रजनी से आलिंगन
संध्या साक्षी स्नेह मिलन का
उपवन का हर कोना महका
ऐसे बहका झोंक पवन का
आज प्रतीक्षा में यादों ने
फिर से मन का दीप जलाया
आलिंगन में पिय को पाकर
पपिहे ने मधुमास जगाया
दिन का चाहे ताप गहन था
रातों ने उफ्फ किया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अक्टूबर, 2022

देख खुशियाँ आ रही हैं।

देख खुशियाँ आ रही हैं।  

दीप की जगमग लताओं ने कुहासों को मिटाया
रात की गुमनामियों से देख पर्दा है उठाया
आज खुशियाँ स्वयं चल कर द्वार देखो आ रही है
और चादर जो तिमिर की दूर देखो जा रही है
दीप आशा के जगे हैं जिंदगी भी गा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

रोशनी से जगमगाया औ गेह वंदनवार से
झूम कर दिल मिल रहे हैं इस दीप के त्यौहार में
आज आशा की किरण भी देख नर्तन कर रही है
और ये बहती हवायें आस नूतन भर रही हैं
दीप की लड़ियों में सजकर रात मुस्कुरा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

आज हम भूलें दिवस के ताप थे जो भी हठीले
आज मिलकर गुनगुनाएं राग जीवन के सुरीले
अवसादों के अंधेरे अब आज सारे त्याग दो
वीथियों पे नेह लिख दो औ गात को नव साज दो
गात का श्रृंगार करने की घड़ी अब आ रही है
देख खुशियाँ आ रही है।।

भाव को चंदन करें हम थाल पूजा के सजाएँ
आंजुरी में आस भरकर नेह से हम पथ सजाएँ
जब मिलेंगे दिल सभी के गीत अधर ये गाएंगे
प्रेम को आशय मिलेगा देव धरा पर आएंगे
रात का श्रृंगार करने दीपमाला छा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2022

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सत्य हो या कल्पना हो या फिर कोई अभ्यर्थना हो
स्वप्न हो माधुर्य कोई भावों की अभिव्यंजना हो
व्यर्थ आशाएं सभी कहो मन से क्यूँ कर रार ठानूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आज रोना व्यर्थ होगा आँसुओं का कुछ न अर्थ होगा
जब बूँद माटी में मिलेगी चाँदनी पल-पल जलेगी
जब चाँदनी अपनी नहीं फिर क्यूँ कहो श्रृंगार साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आएगा मधुमास फिर से, फिर से पपीहे गायेंगे
चाहे तुम जितना पुकारो पर हम नहीं फिर आएंगे
गीत ही जब ना रहेंगे कैसे कहो नव राग साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अक्टूबर, 2022

सोचते ही रह गये।

सोचते ही रह गये।   

कल्पना के पृष्ठ अंकित नेह की कुछ पंक्तियाँ
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

प्रश्न लाखों उठ रहे नेह की संवेदना पर
उँगलियाँ भी उठ रही गेह की अवचेतना पर
हैं दिलासे लाख लेकिन पास सम्मुख कुछ नहीं
दूर तक इन वीथियों पे दीखता भी कुछ नहीं
मौन सब संवेदनाएँ वीथियों में ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

चाहतें हर पल रही दूर हैं जो पास आएं
जो कभी बिछड़े सफर में साथ मिल गुनगुनाएं
सोचता हर पल यही दिल आज उसको क्या मिला
क्यूँ नहीं टूटा अभी तक हादसों का सिलसिला
हादसों के सब निशाँ वो साँस में ही घुल गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

हूक कभी उठी हृदय में कंठ में ही रुक गयी
नैन बरबस भींग कर के क्या कहे बस झुक गये
आज जाना हर कहानी ढूँढती है छाँव क्यूँ
और पगडंडी अकेली ढूँढती है गाँव क्यूँ
छाँव की मारीचिका में स्वप्न सारे ढह गये
गीत का अधिकार पायें सोचते ही रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20अक्टूबर, 2022

अंक में बस प्यार लिखना।

अंक में बस प्यार लिखना।  

स्वप्न का चुंबन पलक पर नेह का आधार लिखना
रात कितनी भी घनेरी अंक में बस प्यार लिखना।।

इस हृदय से उस हृदय का मेल माना के कठिन है
पास से गुजरो कभी तो पंथ का विस्तार लिखना।।

भूल हो चाहे जिधर की या दर्द की स्मृतियाँ पुरानी
भाव कुछ भी हो हृदय में आस का संसार लिखना।।

रूठ कर जो जा रहे हैं आज जीवन के सफर में
लौट कर आओ कभी तो नेह का अधिकार लिखना।।

रात माना है घनेरी कुछ नहीं जब दिख रहा हो
खोल पलकों के किनारे इक नया भिनसार लिखना।।

कौन कहता बादलों को दर्द कभी होता नहीं है
बूँद छूटी बादलों से टूटता अधिकार लिखना।।

उम्र कब ठहरी है बोलो "देव" सदियों के सफर में
मौन लम्हों में, पलों में स्नेह का विस्तार लिखना। 

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2022

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

बहुत सुनी हमने गीतों में
अनुरागों की मधुर कहानी
बहुत सुनी है जग से हमने
प्यार मुहब्बत और जवानी
मैं काश पलों के भावों को अपने गीतों में गा पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

नाजुक लम्हों में जीवन का
भूले से पल वो बिछड़ गया 
बसने से पहले सपनों का
पलकों से रिश्ता उजड़ गया
काश स्वप्न के बिखरे पल को मैं नयनों में फिर ला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

कुछ अश्रु तुम्हारे पलकों में
कुछ मेरी पलकों में आये
संध्या के उन मौन पलों ने
जाने तुमको क्या दिखलाये
काश नयन की निज पीड़ा को मैं तुमको फिर बतला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

सूरज मौन क्षितिज में जाकर
जब सागर तल में डूब गया
सांध्य सिमटती रही अकेली
तब अंजुलि से पल छूट गया
बिखरे पल की उस पीड़ा का मैं घाव अगर दिखला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

गात खंडहर वीराना सा
मन में लेकिन शोर उठ रहा
रात उनींदी पलकों में क्यूँ
पल-पल कोई कोर चुभ रहा
काश हाथ से छूटे पल से मैं पलकों को नहला पाता
काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2022

चंचल नदिया लहराने दो।।

चंचल नदिया लहराने दो।।

मुक्त धरा उन्मुक्त गगन है
मुक्त भाव उन्मुक्त पवन है
मुक्त नयन में मौन सपन है
फिर क्यूँ ऐसी आज तपन है
मन भावों को महकाने दो
चंचल नदिया लहराने दो।।

कौन लहर का कहाँ किनारा
कहती कब नदिया की धारा
दूर क्षितिज पर तटबंधों का
कहो यहाँ है कौन सहारा
पल-पल ये बलखाती नदिया
विकल समंदर को पाने को।।

संध्या के इन मौन पलों में
कितना कुछ तुमसे कहने को
जो तुम मेरे पास नहीं हो
यादों को कुछ पल रहने दो
यादों के मानसरोवर में
मेरे मन को खो जाने दो।।

माना पथ में रात हुई है
दूर भोर किरणों की नगरी
अब भी पनघट की राहों पर
भोर खड़ी सर पर ले गगरी
दो बूँद प्यार की गागर के
मेरे अधरों को पाने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16अक्टूबर, 2022


साथी पर अब चलना होगा।।

साथी पर अब चलना होगा।।

बहुत हुईं बातें मृदुवन की
जगती के संवेदन मन की
तुमने मन की बात कही है
मैंने सारी बात सुनी है
मैंने भी कुछ तुमसे बोला
तुमने बंद हृदय को खोला
जीवन पथ पर मन जब हारा
इक दूजे का बने सहारा
ऐसे ही तो पलना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

कैसे बाँधूँ तुमसे बंधन
मन पर बोलो किसका शासन
मन तो प्रतिपल चला अकेला
साथ भले दुनिया का मेला
मन ने मन की बात सुनी है
तब जाकर ये राह चुनी है
जगती में है कौन हमारा
वादों का ही एक सहारा
वादा फिर से करना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

तकदीरों का कैसा नर्तन
संसृति का ये कैसा शासन
सागर के लहरों की जाने
तटबंधों से कैसी अनबन
टकराते हैं दूर किनारे
इक दूजे को मगर पुकारें
लहरों पर मन का नौकायन
खोल द्वार, सारे वातायन
लहरों सा ही बहना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

साथी हम दूजे को मानें
ऊंच-नीच क्या है पहचानें
इक दूजे का मान करें हम
इक दूजे का ध्यान धरें हम
अपनी सीमाओं को जानें
संकेतों को हम पहचानें
निजता का सम्मान करें हम
आहों में गुणगान करें हम
पल का मूल्य समझना होगा
साथी पर अब चलना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13अक्टूबर, 2022

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

माना तेज बहुत है धारा
पथिक वही जो थका न हारा
पग-पग जिसने पंथ बुहारा
आहों का ना लिया सहारा
जिसने जीवन क्या समझाया
आहों में भी जिसने गाया
उसके सपने हैं सुखदाई
जिसने मन की प्यास बुझाई
ऐसे ही पथ को अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

मरुथल जिसने पीछे छोड़ा
बिखरी सांसों को फिर जोड़ा
छोड़ा जिसने सभी निराशा
मन में भरकर नूतन आशा
जिसने सपनों को अपनाया
जिसने पलकों को सहलाया
जिसने राहें नई सुझाईं
जिसने की मन की सुनवाई
ऐसा जीवन तुम अपनाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

कौन कहो जो सदा रहेगा
समय कहो क्या यहाँ रुकेगा
कौन कहो जो यहाँ अमर है
मिला यहाँ जो सब नश्वर है
जीवन छोटा पग-पग आशा
बड़ी, उमर से है प्रत्याशा
दूर दृष्टि वीथी पर डालो
अपना पथ तुम स्वयं सजालो
मन से मन को स्वयं मिलाओ
आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अक्टूबर, 2022

गात का नव आवरण हो।

गात का नव आवरण हो।  

शब्द का अवतार पा भाव में व्यवहार ला
शब्द को विस्तार देकर भाव में व्यवहार लाकर
गीत की नव कल्पना हो औ सुनहरी अल्पना हो
हाँ, भरे कुछ रंग मन में नेह का आशय गगन में
मौन का फिर से क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

वो मनुजता व्यर्थ होगा आहों का क्या अर्थ होगा
नेह किंचित जिसमें होगा स्वार्थ सिंचित जिसमें होगा
संशयों का भाव होगा प्रतीति का अभाव होगा
संशयों का फिर क्षरण हो गात का नव आवरण हो।।

सत्य तो लाचार कैसा झूठ का अधिकार कैसा
हैं निपुण जब पंथ सारे राह में पाषाण कैसा
दृष्टिगोचर कल्पना जब व्यर्थ सारी जल्पना तब
दुस्साध्य का फिर वरण हो गात का नव आवरण हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अक्टूबर, 2022


देख संध्या ढल रही है।

देख संध्या ढल रही है। 

मुक्त हो कर बंधनों से मिल रहे धरती गगन
झूमती हैं नाचती हैं बदलियाँ भी हो मगन
सज रहे गीत मनहर देख सागर के किनारे
चाहतों की तितलियाँ गीत में तुमको पुकारे
आज फिर से मिलन की आस मन में पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

ढल रहा है सूर्य देखो बादलों के अंक में
घुल रही है सांध्य देखो चाँदनी के रंग में
सांध्य का चमका सितारा कह रहा है पास आ
आ मिलें हम इस सफर में देखो अब न दूर जा
इस सफर की राह भी साथ अपने चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रश्मियाँ भी चाँद की देखो धरा को चूमती
ओढ़ कर आँचल गगन का मस्त हो कर झूमती
पंछियों के शांत स्वर भी कुछ इशारे कर रहे
दूर मन को छाँव के, सुंदर नजारे हर रहे
आस के आकाश की चाह मद्धम पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

चाहता है दिल यहाँ अब बात सब कुछ बोल दूँ
बंद सदियों से हृदय के द्वार सारे खोल दूँ
बोल दूँ भाव सारे जो बसे दिल में हमारे
तुम कहो पंक्तियों में आज भर दूँ चाँद तारे
देख तुमको गगन की बदलियाँ भी जल रही हैं
देख संध्या ढल रही है।।

है तमन्ना चाहतों के गीत सब अर्पित करूँ
और अधरों पर हृदय के प्रीत मैं अंकित करूँ
स्वप्न सिन्दूरी सजाऊँ नैन की पाँखुरी में
और भर दूँ नेह बस इस सुकोमल आँजुरी में
स्वप्न सिन्दूरी लिए चाँदनी भी चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

रात से निस्तार होकर चाँदनी बिखरी यहाँ
रूप का श्रृंगार पाकर कामना निखरी यहाँ
आ भी जाओ गीतों की पंक्तियाँ खो न जायें
रात की आगोश में रश्मियाँ भी सो न जायें
सो न जाये प्रीत की दीपिका जो जल रही है
देख संध्या ढल रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

         हैदराबाद

        09अक्टूबर, 2022

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तेरी पलकों के आँसू को अपनी पलकों में लेता हूँ
अपने हिस्से की खुशियाँ सब तेरी झोली में देता हूँ
कितना कुछ पाया है तुमसे उसको हँसकर के सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

धूप-छाँव में इस जीवन के माना तुमने सबकुछ पाया
पर तुमको मालूम नहीं है तुमने कितना कुछ ठुकराया
मुझमें जो अवशेष बचे हैं उसको मुझको ही सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमको क्या जब भी चाहोगी नए बहाने मिल जाएंगे
जिस पथ तेरे कदम पड़ेंगे नए ठिकाने मिल जाएंगे
माना तेज बहुत है धारा लहरों में मुझको बहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

तुमसे कुछ भी प्रश्न करूँ मैं आहों को स्वीकार नहीं है
कैसे तेरा नाम पुकारूँ अधरों को अधिकार नहीं है
साँसों में कुछ ताप बसे हैं उनको साँसों में बसने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

कागज पर अब कलम चला कर अंतरतम को रीत रहा हूँ
जब से तुमसे दूर हुआ हूँ खुद से लड़ना सीख रहा हूँ
जीता जो पल पास नहीं है हार गया जो पल सहने दो
आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अक्टूबर, 2022

कुछ तो लगाव है।

कुछ तो लगाव है। 

कदम-कदम पे रास्तों में कैसा ये दुराव है
न ओर है न छोर है न दिख रहा पड़ाव है।।

क्या अर्थ है, अनर्थ है क्या कहें क्या व्यर्थ है
हर घड़ी न जाने कैसा मोह का घेराव है।।

पलकों में भरे हैं स्वप्न कितने भोर के लिए
नींद से नयन का फिर जाने क्यूँ दुराव है।।

चल रहे हैं रास्ते यहाँ साथ में मेरे मगर 
हैं पूछते कदम मेरे दूर कितना गाँव है।।

अब थक गई है साँझ भी कठिन रहा सफर यहाँ 
सिलवटों पे माथे के अब रात का कसाव है।।

दूर आ गये कहाँ हम छोड़ कर गलियाँ सभी
जाने रास्तों से अब भी कैसा ये खिंचाव है।।

रात जोहती रही यहाँ भोर की कुछ रश्मियाँ
भोर का भी रात से, "देव" कुछ न कुछ लगाव है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         06अक्टूबर, 2022

कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।


कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

घने अँधेरे गलियारों में छोटा सा इक द्वार तलाशो
अंतरतम आह्लादित कर दे ऐसा कुछ उपकार तलाशो
निपट दूसरों की आहों में अपने गीत नहीं सुनना
दूजे के गीतों में भी अपने कुछ व्यवहार तलाशो।।

गीतों में जो मिला यहाँ उपहार कहो मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

अनुरोधों औ अनुदानों के मध्य झूलता जीवन सारा
जीवन की बाजी में जीवन कितना जीता कितना हारा
अवसादों के गायन में बस व्यर्थ नहीं ये जीवन करना
बहता पानी मीठा होता रुका यहाँ जो होता खारा।।

पानी सम जीवन का है क्या व्यवहार यहाँ मालूम नहीं
कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

कद ऊँचा या पद ऊँचा हो समय सभी का न्याय किया है
अनुकंपा कब किया किसी पर कब बोलो अन्याय किया है
रुकी यहाँ लहरें नदिया की औ बंद हुए जब मार्ग कभी
दूर किनारे के कोरों से आशा का संचार किया है।।

आशाओं से जो पाया क्या आकार यहाँ मालूम नहीं
क्यूँ कर प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अक्टूबर, 2022

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

जगती के कितने कोने हैं
कुछ जाने कुछ पहचाने 
कुछ ने कुछ से आप मिलाया
कुछ अब तक भी अनजाने।।

उस अनजाने जीवन में जो पका नहीं था सीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

आज मिला जब मन दर्पण से मन का दर्पण रीझ गया।।

जीवन की मुश्किल राहों ने
पग-पग खेल रचाये हैं
चले साथ राहों के जो भी
वे आहों में गाये हैं।।

आहों के गायन में देखा मन का उपवन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

रातों में सूनी पगडंडी
मौन दूर तक जाती है
सूने कितने हों गलियारे
रात भोर को पाती है।।

सूनी पगडंडी का नरतन अंतरतम तक बींध गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

नदिया की लहरों पर नौका
डगमग-डगमग जाती है
माना दूर किनारा कितना
लहरें फिर भी आती हैं।।

लहरों पर नौका का नरतन देखा सावन भींग गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

पलकों पर कितने सपने हों
नयनों को अफसोस नहीं
आहों ने कितना कह डाला
साँसों को अफसोस नहीं।।

साँसों के इस अपनेपन से आहों का मन रीझ गया
आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02अक्टूबर, 2022



चुप को हथियार बना।

गांधी जयंती एवं लालबहादुर शास्त्री जी के जन्मजयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
आज मैं आप सभी के समक्ष अपनी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैं इन महापुरुषों को समर्पित करता हूँ, आप के सम्मुख समीक्षा हेतु प्रस्तुत है--
********************

चुप को हथियार बना।  

चुप को अब हथियार बना कर
चुपचाप यहां रहना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

आवाजों का शोर बहुत ही
फैला हो जब दरबानों में
लगे भटकने मुखर चेतना
सांझ ढले जब मैखानों में।

तब चुप को हथियार बना कर
प्रतिकार यहां करना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

संवादों का दौर बहुत है
संवाद नहीं पर दिखता है
संसाधन के सम्मुख बोलो
खबरनवीस कहीं झुकता है।

लेकिन खबरों की दुनिया भी
जब मौलिक राह भटकती है
लिए मशाल हाथ मे तब-तब
उजियार यहां करना होगा।

खबरों की नैतिकता पर जब
शंका के बादल छाते हैं
लोकतंत्र दिग्भ्रमित हुआ तब
बस कुटिल जन प्रश्रय पाते हैं।

खबरों के व्यवहारों पर
विचार पुनः-पुनः करना होगा
जहाँ मिले नहीं मार्ग कोई
प्रतिकार हमें करना होगा।

लोकतंत्र में चुप्पी भी अब
है जनता का हथियार बड़ा
इसे बनाकर शस्त्र यहां पर
कितनों ने पग-पग युद्ध लड़ा।।

मुश्किल हो जब कहना कुछ भी
मौन भाव से कहना होगा
इसको ही हथियार बनाकर
कुत्सित से फिर लड़ना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अक्टूबर,2022

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

इस जिंदगी की वाटिका में उम्र के कुछ पल मिले
और कितने पात बनकर राह में ही खो गये
वक्त की पगडंडियों पर चाहतें कुछ यूँ बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कब दिवस कब रात आयी ये समझ पाई नहीं
मेघ तो बरसे यहाँ पर आस मुरझाई रही
वक्त की थी जिद यहाँ या राह की मजबूरियाँ
जो पास था समझे नहीं दूर सुनवाई नहीं।।

चाह हर पल जीत की ले ख्वाहिशें ऐसी बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

साँस की हर आस पल-पल द्वार पर ठहरी रही
अंक से यूँ पल गिरे सब चाहतें बिखरी रहीं
अहसास कोरों से पलक के बूँद बन यूँ गिरे
आँजुरी से चाहतें सब रेत बन झरती रहीं।।

खोलने जब द्वार के पट चाहतें आगे बढ़ीं
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

कंठ से कुछ शब्द निकले वीथि पर आगे बढ़े
होंठ तक आये मगर न जाने क्यूँ वो रुक गए
और जो निकले अधर से कामनाओं में घुलीं
ताप में जिनके झुलस कर रास्ते सभी दह गये।।

ओर जब कहने कहानी शब्द अधरों ने धरे
थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अक्टूबर, 2022

जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

उम्र के हर पृष्ठ पर पंक्ति बनकर मैं निखरता
छू के अधरों को तेरे प्रीत बनकर मैं गुजरता
और भरता अंक तेरे छंद की नव पाँखुरी से 
और पलकों पे तुम्हारे स्वप्न लेकर मैं सँवरता।।

और भरता अंक में उम्मीद का नूतन सितारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

मैं चाहता हर रोज मेरे नेह का संचय बढ़े
और संचित कोष में तू प्रीत का आशय पढ़े
वक्त दोहराता हमारी गीत की जब पंक्तियाँ
भाव के आकाश पर बिन कहे सब कुछ कहे।।

बिन कहे भावों को देता जो यहाँ पल-पल सहारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

भाव की आलोडनाएँ हैं मुझे अकसर लुभाते
आपकी संवेदनाएँ पास हैं पल-पल बुलाते
जानता हूँ है कठिन इस पार से उस पार जाना
फिर भी आना चाहता हूँ मुश्किलें सारी भुला के।।

और बस जाता तुम्हारे नभ का बन आकाशतारा
जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30सितंबर, 2022



लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

ये कटीले राह मुझको लग रहे हैं मखमली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

दूर तक आया सफर में पर अकेला कब रहा
राह की दुश्वारियों को मैं अकेला कब सहा
जब भी भटका राह में मुझे नई राहें मिली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

राह की ठोकरों ने राह है नूतन दिखाई
और रातों में मुझे भोर की सूरत दिखाई
थी अँधेरी रात जब भी दीप बन कर के जली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

सिलवटों पर माथ के हैं लिखी कितनी कहानी
वक्त के कुछ घाव की चुभ रही अब भी निशानी
घाव के अहसास में पर जिंदगी पल-पल पली
लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29सितंबर, 2022

जयद्रथ वध।


जयद्रथ वध

जयद्रथ वध                                  

 भाग 1  

महाकाव्य की दिशा में आगे बढ़ते हुए आज मैं आप सभी के सम्मुख एक अन्य महत्वपूर्ण प्रकरण - जयद्रथ बध को अपने शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ, उम्मीद है कि मुझे आप सभी का आशीष प्राप्त होगा--
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 जयद्रथ वध       
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भाग 1 

कुरुक्षेत्र के रण में एक वीर जब सज्जित हुआ
देख उस युद्ध की गति सुरराज भी लज्जित हुआ।।1।।

घेर कर उस वीर का था कायरों ने वध किया
युद्ध के प्रतिमान सभी भय के कारण त्यज दिया।।2।।

देख उसका रौद्र रूप सम्मुख न कोई आ सका
जो भी आया सामने वो नर्क का भागी बना।।3।।

घेर कर के कौरवों ने ध्यान फिर अन्यत्र किया
चहुँ दिशा से वार कर के वीर को निःशस्त्र किया।।4।।

फिर भी हिम्मत थी कहां कि पास उसके आ सके
प्रचंड उसके वार से वो पार कैसे पा सके।।5।।

चक्रव्यूह बिखरता देख शत्रुओं ने घात किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध पीठ पर आघात किया।।6।।

व्यूह असफल देख कर जब काँपने सारे लगे
धूर्तता के भाव मन ले घात तब करने लगे।।7।।

क्रमशः---

        भाग 2

गतांक से आगे--

तोड़ डाला नीतियों को हार सम्मुख देखकर
गिर गए प्रतिमान सारे एक ही आदेश पर।।8।।

जयद्रथ ने घात करके पीठ पर फिर वार किया
युद्ध नियमों के विरुद्ध धूर्तता व्यवहार किया।।9।।

हो निशस्त्र शत्रु जब भी वार तब करते नहीं
नीति है रणभूमि की स्वीकार क्यूँ करते नहीं।।10।।

धर्म को रौंदा जिन्होंने अधर्म के व्यवहार से
रक्त था उसने बहाया आज कुत्सित वार से।।11।।

वीरता के पीठ पर ये धूर्तता का वार था
रक्तरंजित थी धरा अब कुछ नहीं आधार था।।12।।

वार इतना तीव्र था कि वीर उसको सह सका न
ऐसे धरती पर गिरा चाह कर भी उठ सका न।।13।।

चमकी प्रलय की बिजलियाँ खड्ग भी खंडित हुआ
वीर का सान्निध्य पा सुरलोक भी मंडित हुआ।।14।।

क्रमशः--

भाग 3

गतांक से आगे--

सूचना पा वीरगति की पार्थ फिर व्याकुल हुए
शत्रु के संहार का वो सब के सम्मुख प्रण किये।।15।।

वध जयद्रथ का करूँगा है ये मेरा प्रण यहाँ
दाह कर लूँगा अगर सूर्यास्त तक जीवित रहा।।16।।

थी प्रतिज्ञा घोर इतनी ब्रम्हांड सब गुंजित हुआ
पार्थ के इस रौद्र से भूभाग सब कंपित हुआ।।17।।

रौद्र देखा पार्थ का तो काँपने धरती लगी
गर्जना सुन पार्थ की थर-थर काँपने मृत्यु लगी।।18।।

जयद्रथ की प्राण रक्षा स्वयं दुर्योधन करेगा
जो करेगा घात उसपे नर्क का भागी बनेगा।।19।।

मेरे रक्षण में रहो तुम तक पहुँच न पायेगा
टूटी पार्थ की प्रतिज्ञा क्षोभ से मर जायेगा।।20।।

घेर में ऐसे रहोगे पार्थ न फिर पायेगा
टूटेगा जब प्रण यहाँ क्षोभ से मर जायेगा।।21।।

क्रमशः--

भाग 4

गतांक से आगे--

भोर की पहली किरण से सारथी रथ ले चला
दिन चला निर्वाध गति से कहीं जयद्रथ न पर मिला।।22।।

पार्थ का मन आज कितने क्षोभ से था भर गया
यूँ लगा के पार्थ का प्रण टूट कर के गिर गया।।23।।

वध किया न आज अरि का कैसे वापस जाऊँगा
टूटा जो प्रण यहाँ मुख कैसे मैं दिखलाऊँगा।।24।।

इस धरा पर जीने का न अब मुझे अधिकार है
है ये जीवन व्यर्थ मेरा हाँ मुझे धिक्कार है।।25।।

आज जो माधव यहाँ प्रण मेरा न पूर्ण होगा
बना भागी हास्य का हाय जी कर क्या करूँगा।।26।।

क्या करूँगा राज्य लेकर शत्रु को न साध पाया
व्यर्थ है गाण्डीव मेरा वक्त को न बांध पाया।।27।।

पार्थ छोड़ मन की भ्रांतियां यूँ क्षोभ में न तुम पड़ो
है कवच में वो छुपा संहार को आगे बढ़ो।।28।।

क्रमशः--

भाग 5

गतांक से आगे--

जिस भुजा में वीरता हो वो रुदन करते नहीं
देख कर बाधाओं को पथ से वो टरते नहीं।।29।।

देख शत्रु सामने है अब शोक का ये क्षण नहीं
शत्रु का संहार हो है बस तुम्हारा प्रण यही।।30।।

सुन के माधव के वचन उत्साह अर्जुन का बढ़ा
त्याग कर क्षोभ सारे उत्साह से आगे बढ़ा।।31।।

जयद्रथ तक पहुँचना वहाँ पार्थ को मुश्किल हुआ
युद्ध के अंतिम प्रहर को सांध्य ने जैसे छुआ।।32।।

देख सांध्य को निकट पार्थ का मन डोल गया
है समीप अंत मेरा स्वयं से वो बोल गया।।33।।

यूँ देख दुविधा पार्थ की कृष्ण तब मुखरित हुए
हो प्रभावित सूर्य भी जा बादलों में छुप गये।।34।।

वहाँ कौरवों में सांध्य का हर्ष चहुँदिश व्याप्त था
पार्थ को संकेत इतना अब वहाँ पर्याप्त था।।35।।

क्रमशः--

भाग 6

गतांक से आगे--

है दिवस का अंत ये प्राण कैसे अब हरोगे
बचा विकल्प कुछ नहीं सोच कर के क्या करोगे।।36।।

कौरवों के पक्ष में अब उल्लास ही उल्लास था
दर्प में डूबा जयद्रथ कर रहा अट्टहास था।।37।।

है दिवस का अंत ये रह गयी प्रतिज्ञा अधूरी
अग्नि में खुद जल मरेगा आस न होगी पूरी।।38।।

शत्रु सम्मुख है तुम्हारे विलंब नहीं अब करो
सांध्य में क्षण शेष है चलो शत्रु का अब वध करो।।39।।

गाण्डीव लो हाथ में अब लक्ष्य का संधान हो
दुष्ट, पापी कायरों का अंत ही परिणाम हो।।40।।

अभी वक्त थोड़ा शेष है व्यर्थ न इसको करो
अब एक ही प्रहार में सबके सम्मुख वध करो।।41।।

लक्ष्य में जब शत्रु हो ध्यान तब टरे नहीं
वार इतना तीव्र हो धरा पर शीश फिर गिरे नहीं।।42।।

क्रमशः--

भाग 7

गतांक से आगे--

बादलों से फिर निकलकर सूर्य जब सम्मुख हुआ
पार्थ का कुंठित हृदय भी क्षोभ से तब मुक्त हुआ।।43।।

सूर्य को फिर देखते ही आँख भय से झुक गयी
मौत सम्मुख देखते ही साँस उसकी रुक गयी।।44।।

जब मिली ना राह कोई भागने को जब हुआ
गाण्डीव लेकर हाथ में पार्थ ने फिर वध किया।।45।।

पूर्ण प्रतिज्ञा पार्थ ने की शत्रु का स्थल रिक्त हुआ
गुंजित हुआ सुरलोक भी पाप से जो मुक्त हुआ।।46।।

झूठ कितना तीव्र हो सत्य को कब ढँक सका है
मार्ग की बाधाओं से बोलो कब रूक सका है।।47।।

झूठ का प्रभाव केवल मूर्ख को भरमायेगा
चीर अँधेरा जगत का सत्य बाहर आयेगा।।48।।

इतिश्री🙏🙏

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

          26सितंबर, 2022

एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ ।।



एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ ।।

भावों की अठखेलियों में प्रीत वो नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

आहें लिखती साँसों में आस की नूतन कहानी
गुनगुनाती जिंदगी भी नेह की होकर दिवानी
मन सोचता फिर क्या कहे औ क्या यहाँ धारण करे
बिन कहे जो सब कहे मन में बसाए राजधानी। 

मन के सारे भाव की है प्रीत वो नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

मन से जब तक मन मिले न प्रीत भी कब पूर्ण होती
गीत रहते सब अधूरे चाहतें कब पूर्ण होती
पूर्णता के चाह में प्रतिपल मौन मन भटका करे
रहती अधूरी जिंदगी ये उम्र भी न पूर्ण होती।।

उम्र की नादानियाँ भी हैं प्रीत की नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

यूँ धधक कर मत जलो निज आग में बिरहन के सखी
इस विरह के बाद ही मिलता सुख मिलन का हे सखी
बढ़ती जाती हैं वो पल-पल प्रीत की नव रश्मियाँ
और भावों को परखती हैं चाहतों की तितलियाँ।।

चाहतों की तितलियाँ ही जीवन का नवगीत सखी
एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2022


चुभे हृदय में शूल।।

चुभे हृदय में शूल।।

आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल
आँखों ने जो दृश्य दिखाया गये ज्ञान सब भूल।।

नफरत के प्याले छलकाये 
कुछ मासूमों को फिर बहकाये
दे कर नयनों में मृदु सपने 
राहों से उनको भटकाये।।

लालच की यूँ ललक जगी गया पथिक पथ भूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

दो पल की रोटी को तरसा
दहशत के साये में जीवन
खिलने से पहले ही उजड़े
ना जाने कितने ही बचपन।।

बिछड़े सर से कितने साये औ डाली से फूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

आमों के उन बागीचों में
कल कोयल गायी कूक जहाँ
नफरत के अंधों ने बोई
अब नफरत की बंदूक वहाँ।।

नफरत के प्यालों में डूबे मानवता के मूल
आतंकित हो गयी मनुजता चुभे हृदय में शूल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22सितंबर, 2022

द्रौपदी

द्रौपदी 

                        

था सजा दरबार सारा और कोलाहल वहाँ,
था दिवस कुछ खास जैसे वक्त भी व्याकुल वहाँ।

वहाँ बिछी बिसात थी औ सत्ता का संघर्ष था
या फिर किसी में द्वेष वश भावों का अपकर्ष था।

वहाँ ज्ञान के प्रवेश को द्वार सारा बंद था,
सत्य और अज्ञानता के मध्य कोई द्वंद था।

थी चाह सत्ता की प्रबल नीतियों में दोष था,
सूर्य धरती औ गगन के भाव सब खामोश था।

मुक्त हो बहती पवन की धार मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने चीर की आहट सुनी।

मौन थी सत्ता वहाँ औ मौन सारे लोग थे,
मौन सब जीवन वहाँ था न कोई अनुरोध थे।

शूरवीरों की सभा का अब न कोई मान था,
एक नारी का सभा में क्या यही सम्मान था।

जो थी सभा में खड़ी वो भी किसी की लाज थी,
नेह के आँचल पली वो इक मधुर आवाज थी।                     

चीर जिसका ले दुशासन कर रहा अट्टहास था,
भरतवंशी अस्मिता का हो रहा उपहास था।

नीति के सब मार्ग जैसे आज सारे बंद थे,
द्वेष के आगे सभी सद्भाव सारे मंद थे।

वंश की सारी अस्मिता आज तार-तार हुई,
कौरवों की वाणी भी आज शुचिता पार हुई।

देखती जिस भी तरफ उस ओर अंधकार था,
कौरवों की उस सभा का गिर चुका व्यवहार था।
                   
कर्ण ने बोला सभी वस्त्र आज इसके तुम हरो,
हैं सभी ये दास अपने इनसे मन मुदित करो।

कर्ण के शब्द चुभ रहे थे चेतना को चीर कर,
कर रहे थे चोट पल-पल अस्मिता पर पीर पर।

बँट चुकी हो पाँच में अब सोचना बेकार है,
दासी हो कुरुवंश की सौ का भी अधिकार है।

अभिमान था जिस बात पर वो ही बनी लाचारी है,
थी हँसी उस रोज मुझपर आज मेरी बारी है।

जिस पाँच पर अभिमान तुझको आज मेरे दास हैं,
साँस की हर डोर उनकी आज मेरे पास है।

याचना की दृष्टि ले वो तक रही थी वीर को,
सोचती थी क्या करे कि तोड़े सबके धीर को।

हार कर के द्यूत में थे दास सारे बन चुके,
सूर्य से भी तेज जो निस्तेज हो कर गिर चुके।

शब्द ही जब न रहा तो बोलते क्या वो यहाँ,
और कहते क्या किसी से दास थे सारे वहाँ।

शोक था पसरा सभा में चाह कर कुछ कर सका न,
कृष्णा के क्रंदन वहाँ आज कोई सुन सका न।

बीच खड़ी दरबार के वो माँगती आज भिक्षा,
खत्म सब संस्कार थे नही बची थी आज शिक्षा।

नारी वस्तु नहीं कोई तुम जिसका मोल लगा बैठे,
क्या अधिकार कहो तुमको जो मुझको दाँव लगा बैठे।

है पितामह मौन क्यूँ जब मर्यादा भंग हुई,
लगता है जैसे धरती वीरों से तंग हुई।

दुर्योधन के छुद्र इशारे स्वाभिमान तड़पाते थे,
मर्यादा भी लज्जा से वहाँ गड़े जाते थे।

भूल चुकी राज सुख सभी भूल चुकी सब जन को,
भूल चुकी आज स्वयं भूल चुकी अपने तन को।

चीखते लम्हें रहे पर मौन सदियाँ हो गईं,
धूर्त औ दंभी गगन की छाँव पा कर सो गईं।

क्या कहे उस एक पल ने दर्द थे क्या-क्या सहे, 
लम्हों के उस घाव में सदियाँ ने क्या-क्या सहे।

दस दिशाएं चीखती थीं चीखते धरती गगन,
चीख उठे पंछी सारे चीख उठी पगली पवन।

मौन सब साम्राज्य था औ मौन थे सारे प्रहर,
दोष किस-किस पर मढ़ें जब मौन चेतन और जड़।

बाजुओं में भीम के सौ हाथियों का बल कहाँ,
पार्थ भी गाण्डीव जाने छोड़ आये थे कहाँ।

धर्म के मार्ग में जाने कैसी थी बाधा खड़ी,
सत्य के दरबार मे अब सत्य की किसको पड़ी।                      

कुरुवंश के आकाश का सूर्य क्या अस्त हो गया,
बाजुओं का जोर सारा क्या आज पस्त हो गया।

धर्मराज तुमने किया है धर्म का क्या काज बोलो,
सिर झुका कर मौन हो निर्बुद्धि हो क्या आज बोलो।

शकुनि के कुचालों को जान तुम क्यूँ न पाए,
चेतना क्या सुप्त थी जो यहाँ तुम दौड़ आए।

ब्याह कर लाये ही क्यूँ जब दाँव था मुझको लगाना,
उस सप्तपद का मोल क्या भूल गए जिसको निभाना।

किसने दिया अधिकार तुमको दासी हूँ मैं क्या तुम्हारी,
धर्म से क्या वासता क्या बुद्धि दूषित है तुम्हारी।

दाँव पर कैसे लगाया तुमने मुझको ये बताओ,
सिर झुकाए मौन हो क्यूँ धर्म हो तो मुख दिखाओ। 

धर्म का पर्याय कैसे मान लूँ इस बुद्धि को,
धिक्कारती हूँ मैं तुम्हारे मौन को, निर्बुद्धि को।

दस दिशायें गूँजती हैं न्यायप्रियता से तुम्हारे,
याचना किससे करूँ न्याय ही जब स्वयं हारे।

सहदेव पूछो ज्येष्ठ से ऐसे क्यूँ कर मौन हो,
दाँव मुझको जब लगाया पूछते के कौन हो।

प्रिय नकुल तुम तो यहाँ सब भाइयों में हो दुलारे,
ज्येष्ठ की इस बात को तुम सिर झुकाये क्यूँ स्वीकारे।

सच कहा है ग्रंथों ने नेह बस उससे लगाना,
आता हो जिसको यहाँ पर प्राण देकर प्रण निभाना।

धिक्कार है मुझको कि मेरे पाँच ऐसे हैं पिया,
जिनके रहते घूँट ये अपमान का मैंने पिया।

कहो श्रेष्ठ वीरों की सभा क्या नारी एक संपत्ति है,
बोलो पितामह मौन क्यूँ हो किस मन की ये उतपत्ति है।

पूछती हूँ आज सबसे क्या कुरुवंश का ये मान है,
क्या निर्वस्त्र करना नारी को नहीं वंश का अपमान है।

हार कर अपने को भी जो स्वयं का ही ना रहा,
उसका ये अधिकार मुझपर अब कहो कैसा रहा।

क्यूँ पति के हार का मोल पत्नी भी चुकाए,
नीति के मर्मज्ञ बोलें दाँव मुझे कैसे लगाए।

क्या करोगे राज्य लेकर चल सकोगे कैसे तन के,
बिन सकोगे क्या यहाँ पर मेरी लज्जा के ये मनके।

बैठे हैं दरबार में सब श्रेष्ठ कुल के और ज्ञानी,
कह सकेंगे श्रेष्ठ क्या दृष्टांत को अपनी जुबानी।

नग्न कर मुझको यहाँ पर बोलो तुम क्या पाओगे,
अपनी-अपनी मात को तुम कैसे मुख दिझलाओगे।

हाय क्यूँ अब इस घड़ी में कोई नीति कुछ न बोलती है,
देख कर अनीति ऐसी क्यों न शिराएं खौलती हैं।

उच्च कुल यदि है सभी का श्रेष्ठता दिखलाइये,
जिस कोख ने तुमको जना है उसको न लजाइये।

भीरू बन कर बैठे हैं सब वीर किसके पास जाऊँ,
कैसी विपदा है अभागन मैं कहो किसको सुनाऊँ।

बोलें कुल के श्रेष्ठ अब तो राष्ट्र के वो हैं प्रमुख,
गिर गयी जो लाज यदि तो कैसे आऊँगी मैं सम्मुख।

हे पितामह पूछती हूँ आप कुल के श्रेष्ठ ज्ञानी,
कैसे फिर कुरुवंश के ये पूत बन बैठे हैं कामी।

धिक्कार है इस वंश को जो इस कृत्य पर भी मौन है,
पूछती है ये सृष्टि सारी ये सत्य क्यूँकर मौन है।

थे डोलते जिसके कदम से ये धरा और आसमान,
कायरों की भाँति बैठे क्या यही उनका है मान। 

ये इतिहास पूछेगा जगत से सत्य क्यूँकर मौन है,
इस भ्रष्ट सत्ता के समक्ष ये शीश झुकाये कौन है।

अब तक मुझे था गर्व कितना के पार्थ हैं मेरे पिया,
ये भूल थी मेरी यहाँ क्यूँ विश्वास ये मैंने जिया।

मैंने सुना सौ हाथियों का बल भुजाओं में तुम्हारे,
क्यूँ सिर झुका कर मौन हो क्यूँ बैठे हो ऐसे बिचारे।

धिक्कार है ऐसी भुजा जो थाम न मुझको सकी,
क्या करूँ उस वीरता का न काम मेरे आ सकी।

सत्य की हे मूर्ति तुमको और मैं अब क्या कहूँ,
किस भँवर मुझको फँसाया कुछ कहो अब क्या करूँ।

तोड़ दो गांडीव अपना कुछ कहो किस काम का,
है मुझे अफसोस इतना पार्थ तुम वीर हो बस नाम का।

धिक्कारती हूँ कोख को जिस कोख ने तुमको जना है,
द्यूत की आड़ लेकर जो जाल तुम सबने बुना है।

किससे भावों को कहे किससे फिर अनुरोध हो,
लाज ही जब गिर पड़े तो क्यूँ किसी से मोह हो।

है कौन सा अपराध जो मौन हैं सारे यहाँ पर,
जो हैं सक्षम इस जगत में मौन क्यूँ बैठे यहाँ पर।

सिंहनी सी चाल जिसकी आज याचना कर रही,
लाज की खातिर सभी से प्रार्थना थी कर रही।

सुन रहे थे मौन हो सब उस रुदन चीत्कार को,
छोड़ शायद जा चुकी थी चेतना संसार को।

क्यूँ दिया आशीष मुझको भाग्य का सौभाग्य का,
मौन सहभागी बने जब स्वयं ही दुर्भाग्य का।

क्या करूँ बोलो पितामह क्यूँ झुकाया शीश है,
क्यूँ नहीं कहते कि मेरे शीश पर आशीष है।

मौन रह कर के यहाँ कहो सत्य क्या जी पाओगे,
कहो पितामह अश्रुओं की पीर क्या पी पाओगे।

आज आपके मौन से जो लाज मेरी हारेगी,
यहाँ आपकी भूमिका को हर सदी धिक्कारेगी।

आपके जिस नेत्र से धरती गगन सब काँपते हैं,
मौन होकर नेत्र बोलो क्यूँ बगल को झाँकते हैं।

जब गिरेगी लाज कुल की सह सकोगे क्या यहाँ,
और लज्जा बोझ से क्या जी सकोगे फिर यहाँ।

सत्य की प्रतिमूर्ति हो तुम तो धर्म का पर्याय हो,
मौन हो क्यूँ कर पितामह देख इस अन्याय को।

क्यूँ झुकाये शीश बैठे क्यूँ दृष्टि ये उठती नहीं,
नारी के अपमान पर भी छाती क्यूँ फटती नहीं।

कह सकोगे मात से क्या इस दृश्य को अपनी जुबानी,
हो रही दूषित पितामह गंगा माता का भी पानी।

डूब जाएगी धरा सारी आँसुओं की धार से,
जब गिरूँगी काल बनकर कुरुवंश के संसार पे।

शीर्ष मूँदे आँख जब-जब और भुजाएं क्षीण हों,
गात कैसे सह सकेगी खुद ही कहें इस पीर को।
                       
कुछ नहीं उत्तर मिला जब तात के सम्मुख हुई,
हाथ दोनों जोड़ कर थी पैर पर वो गिर गई।

अश्रु पलकों से उतरकर पैरों पर गिरते रहे,
याचना के पुष्प सारे अंक से झरते रहे।

कुछ कहो हे तात ऐसी धृष्टता को रोक दो,
बढ़ रहा जो हाथ मुझपर तात उसको रोक लो।

श्रेष्ठ सबमें हो यहाँ पर आप ही सत्ता प्रमुख,
हो रहा अपमान अब तो कुछ कहा हे तात सम्मुख।

कैसे जियूँगी मैं यहाँ पर झेल कर इस दंश को,
इतिहास सोचो क्या कहेगा कौरवों के वंश को।

पुत्रवधु हूँ आपकी मैं कुरुवंश की ही लाज हूँ,
रोकिए कुकृत्य को करती प्रार्थना मैं आज हूँ।

यदि मौन स्वीकृति आपकी आज इस विध्वंस को,
कल रोक पाओगे नहीं फिर काल के विध्वंस को।

जब न पाया हाथ अपने माथ पर आशीष का,
तब सुनाई द्रौपदी ने द्रोण के सम्मुख व्यथा।

मित्र हो मेरे पिता के मैं तुम्हारी नंदिनी,
याचना कर रही है तुमसे द्रुपद नन्दिनी।

जो हो पिता के मित्र यदि मेरे भी तो तात हो,
कुछ कहो चुप न रहो क्या तुम भी सबके साथ हो।

जो गिरेगी लाज खुद को माफ क्या कर पाओगे,
पाप के इस दाग को क्या साफ फिर कर पाओगे।

वीरता का पाठ तुमने क्या यही इनको पढ़ाया,
लाज से खिलवाड़ करना बोलो इनको कैसे आया।

साथ में शस्त्र शिक्षा के पाठ क्या ये भी पढ़ाया,
नारि का सम्मान करना क्यूँ नहीं इनको सिखाया।

समाज शिक्षक को सदैव श्रेष्ठ कह कर पूजता है,
फिर शिष्य के कुकृत्य पर क्यूँ कुछ नहीं सूझता है।

आज आपके मौन से मान शिक्षक का गिरेगा,
आपकी इस भूमिका को माफ ना कोई करेगा।

प्रतिबद्धता मात्र सत्ता से धर्म का अपमान है,
तुम ही कहो कुकृत्य क्या ये शीर्ष का सम्मान है।

विद्या विनय का स्रोत है क्या कह सकोगे फिर कभी,
ज्ञान दूषित गुरु द्रोण का क्या सुन सकोगे तुम कभी।

पुण्य है यदि शिष्य तो फिर मान शिक्षक का बढ़ा है,
पर पाप से हर शिष्य के मान शिक्षक का गिरा है।

इस एक पल की धृष्टता का पाप सबके सिर लगेगा,
हँस रहे मेरी व्यथा पर रक्त उनका भी बहेगा।

और किसके पास जाऊँ प्रार्थना किससे करूँ,
आप ही कुछ तो कहो मैं याचना किससे करूँ।

क्यूँ समय की चाल मद्धम आज क्यूँ रुकती नहीं,
मैं समा जाऊँ धरा में क्यूँ ये धरा फटती नहीं।

सहसा फिर गरजा सुयोधन है अब प्रतीक्षा और क्या,
सोचते क्या हो दुःशासन मन में तुम्हारे कुछ और क्या।

दासी ये कुरुवंश की अधिकार इस पर है हमारा,
आज छलनी हो रहेगा इसके मन का दर्प सारा।

पांच पतियों में बँटी हो हमसे है फिर कैसा लजाना,
अंक में बैठो हमारे हो दासी हमसे क्या छुपाना।

है शपथ मुझको सुयोधन तुझको न मैं छोड़ूंगा,
जिस अंग को तुमने दिखाया उसे युद्ध में मैं तोडूंगा।

है शपथ मुझको दुःशासन देव दानव सुन लें सभी,
तेरी छाती का पी लूँ लहू मैं चैन पाऊँगा तभी।

जिस भुजा से है छुआ द्रौपदी के केश को,
उखाड़ फेंकूँगा उसे खत्म कर दूँगा हर रेख को।

है शपथ मुझको यहाँ सुन लें सभा के श्रेष्ठ जन,
मारूँगा सौ भाइयों को क्या सुयोधन क्या दुःशासन।

द्रौपदी का यूँ रुदन यौद्धेय जब न देख पाया,
भाइयों के कृत्य पर प्रश्न फिर उसने उठाया।

अपमान करना नारी कुरुवंश का अपमान है,
सोचिए है ज्येष्ठ भ्राता ये कलुष है अज्ञान है।

सोचिए कुरवंशजों में क्या हमारी योग्यता है,
अपमान नारी शक्ति का न श्रेष्ठ है ये नीचता है।

जोड़ कर आज सम्मुख प्रार्थना मैं कर रहा,
कृत्य से कहो प्रिय मान कुल का कब रहा।

ये लाज अपने वंश की है न यूँ इसे गिराइए,
द्वेष की इस आग में न प्रतीति को जलाइये।

खेल था ये द्यूत का बस खेल तक ही श्रेष्ठ है,
कृत्य ऐसा शास्त्र में प्रिय खुद कहें क्या श्रेष्ठ है।

मैं अनुज प्रिय आपका कर रहा हूँ प्रार्थना,
त्यागिये मद, क्रोध सारा मेरी प्रिय से याचना।

ये मात्र नारी ही नहीं हैं ये मात हैं सम्मान हैं,
ज्येष्ठ कलुषित कृत्य ये कुरुवंश का अपमान है।

नारी के हर रूप का सम्मान शास्त्रों ने किया है,
मत भूलिये के जन्म हमको एक नारी ने दिया है।

नारी के अपमान का क्या बोझ प्रिय ढो पायेंगे,
लाख गंगा में नहायें प्रिय पाप न धो पायेंगे।

पत्नि हैं ये ज्येष्ठ की पूज्य हम सबके लिये हैं,
मात के समकक्ष हैं ये श्रेष्ठ हम सबके लिए हैं।

यौधेय के सुन कर वचन क्रोध में जलने लगा,
यौधेय दुर्योधन को वहाँ नेत्र में खलने लगा।

यूँ लग रहा भ्राता नहीं तू शत्रु का ही मीत है,
ये भूल है मेरी जो तुझको मान बैठा मीत मैं।

जो रक्त है कुरुवंश का तो शत्रु से व्यवहार क्यूँ,
यदि मानता है श्रेष्ठ मुझको तो शत्रु से है प्यार क्यूँ।

है तुझे यदि भीति कोई मूँद ले अपने नयन,
या कहीं तू बैठ जा छोड़ कर के ये भवन।

देर करते क्यूँ दुःशासन अब रहा जाता नहीं,
रूप के इस तेज को अब सहा जाता नहीं।

देख अत्याचार इतना मौन फिर ना रह सके,
क्रोध में हुंकार कर विदुर उद्वेलित हो उठे।

कर जोड़ बोले तात से ये कैसा अनाचार है,
हो रहा जो कुछ यहाँ क्या यही संस्कार है।

याचना है आपसे के आज इसको रोक दो,
पुत्रमोह छोड़ कर अन्याय को अब टोक दो।

आज यदि सब चुप रहे कुछ पास न रह जायेगा,
कटघरे में वक्त के इतिहास खुद को पाएगा।

हे पितामह क्यूँ मौन बैठे क्यूँ नहीं कुछ बोलते,
ऐसी है कैसी विवशता क्यूँ नहीं अब रोकते।

अब प्रार्थना मेरी सुनो हे पुत्र ये अन्याय है,
कर रहे जो कुछ यहाँ उसका न अभिप्राय है।

इस एक पल के दर्द से सभ्यता मिट जाएगी,
यूँ नारी के अपमान से ये सदी पछताएगी।

आदेश देता हूँ तुम्हें मैं पुत्र हर अधिकार से,
मत करो यूँ हीन कुल को अपने इस व्यवहार से।

छोड़ दो अपना सभी हठ रोक दो कुकृत्य को,
गर्व से क्या कह सकोगे तुम कहो इस कृत्य को।

द्वेष के इस आग में सम्मान मत जलाइये,
नारी के सम्मान को मत भीति में मिलाइये।

जो शत्रुता है भाइयों से उनसे ही निभाइये,
कुरुवंश के सम्मान को यूँ माटी न मिलाइये।


हो दास पुत्र मात्र तुम अब और कुछ भी मत कहो,
कह चुके हो तुम बहुत अब श्रेष्ठ होगा चुप रहो।

आदेश है मेरा तुम्हें अब और कुछ मत बोलना,
ऐसा न हो तुमसे मुझे भी रिश्ता पड़े सब तोड़ना।

धिक्कार है कुरुवंश को जो श्रेष्ठ सारे मौन हैं,
मैं पूछता हूँ ज्येष्ठ से के इसके पीछे कौन है।

कुरुवंश की इस सभा में न धर्म का अब स्थान है,
जो रहा मैं इस सभा में तो धर्म का अपमान है।

याद रखना शब्द मेरे काल विकट अब आयेगा,
धर्म के इस युद्ध में कुरुवंश ये चुक जाएगा।

देखते ही देखते संस्कार सारे गिर गए,
क्षोभ वश छोड़ वहाँ से दरबार फिर विदुर गये।

सूझता कुछ भी नहीं मुझको यहाँ अब आज तो,
क्या करूँ मैं अब जतन कैसे बचाऊँ लाज को।

कैसे दिखलाऊँगी अब मैं मुख यहाँ समाज को,
श्राप देती हूँ यहाँ मैं ऐसे भूपति राज को।

बैठे हैं निर्लज्ज सारे न लाज इनको आयेगी,
कौरवों की इस सभा में क्या लाज उसकी जायेगी।

मौन जो बैठे सभा में प्रश्न उनपर भी उठेगा,
प्रतिशोध के इस ज्वाल में मान उनका भी जलेगा।

वक्त जब जब भी लिखेगा द्यूत के इतिहास को,
काले अक्षर में लिखेगा वंश के इतिहास को।

नपुंसकों की सभा को आज मैं धिक्कारती हूँ,
जो पुरुष हैं इस सभा में उनको मैं ललकारती हूँ।

क्रोध से कभी काँपती कभी याचना करती वहाँ,
बस देखती कातर नयन से प्रार्थना करती वहाँ।

था दर्प में डूबा दुःशासन हाथ थामे चीर को,
जब कुटिलता मदमस्त होती वो सुने कब पीर को।

हो शीश पर जब तक नशा सत्ता और अभिमान का,
वो सोचता है कब किसी के मान का अपमान का।

सूझता कुछ भी नहीं ये कैसी विपदा आयी है,
जाने कैसे मोड़ पर विधना मुझे ले आयी है।

क्यूँ टूटता अंबर नहीं क्यूँ ये धरा फटती नहीं,
है किस जनम का पाप ये क्यूँ धुंध ये छँटती नहीं।

आंधियों में बल नहीं अब न जलधि में ज्वार है,
सब टूटती है आस सारी सब टूटता मनुहार है।

कौरवों की इस सभा में झुका सभी का शीश है,
हाय अबला की विपत में आस बस जगदीश है।

उँगली उठाया कर्ण ने जब देख उसकी ओर पे,
तब याद आये द्रौपदी को श्याम अंतिम छोर पे।

जब नहीं उत्तर मिला औ याचनाएं मौन हुई,
जब आँचल से निकलकर प्रार्थनाएं मौन हुईं।

और जब सूझा नहीं कुछ मार्ग इस संसार में
ध्यान फिर उसने लगाया स्वयं तारण हार में।
                 
इस जगत का ज्ञान तुम हो और घट-घट के निवासी,
सत्य सनातन हो तुम्हीं और तुम ही मात्र साथी।

देर तुमसे हो न जाये आ बाँह मेरी थाम लो,
टूट कर मैं गिर न जाऊँ आकर मुझे अब थाम लो।

चक्र से जब अंगुली में चीर केशव के लगी थी,
रक्त रंजित अंगुली को देख पीड़ा मन में जगी थी।

चीर आँचल कोर उसने जो सूत्र में बाँधा वहाँ,
द्रौपदी के प्रेम ने था श्री कृष्ण को साधा वहाँ।

जिसको बाँधा चीर उस पल उसका ही अब आसरा,
उसके रहते हानि क्या कर सकेगा कोई मेरा।

मेरी करुण याचना वहाँ द्वार तक जब जायेगी,
कैसी निद्रा में रहें वो खींच उनको लायेगी।

जानती हूँ छोड़ मुझको कभी नहीं रह पायेंगे,
जानेंगे जब हाल मिरा दौड़े-दौड़े आयेंगे।

बीच अपनों के खड़ी पर जाने क्या लाचारी थी,
श्रेष्ठ वीरों की सभा में आज बनी बेचारी थी।

कहते रचियता सृष्टि के और जगत के दाता हो,
कैसे मानूँ मैं तुम्हें के तुम जगत विधाता हो।

पालते हो तुम जगत को तुम ही जग के त्राता हो,
इस जगत में द्रौपदी के तुम ही केवल भ्राता हो।

रहते भ्राता आपके यदि लाज ये लुट जायेगी,
सत्य कहती हूँ तुम्हारी सृष्टि भी चुक जायेगी।

क्या झूठ हैं रिश्ते सभी क्या झूठा ये समाज है,
सुनते नहीं हो भ्राता क्यूँ क्या मेरा अपराध है।

वीर बैठे मौन सारे जाने क्या लाचारी है,
आज कृष्णा पर तिहारे आयी विपदा भारी है।

आज विपदा कालिमा बन कर के नभ में छाई है,
क्यूँ तुम्हारे आने में क्या कोई कठिनाई है।

तुम कहा करते थे हरदम श्रेष्ठ तेरा भाई है,
हो कोई विपदा इस जगत तुमसे न छुप पाई है।

आज विपदा की घटायें काली मुझ पर छाई है,
देखते तुम क्यों नहीं हो कैसी ये कठिनाई है।

सूत के बदले कहा था न भूल इसको पाऊँगा,
जब पुकारोगी मुझे, मैं दौड़ा-दौड़ा आऊँगा।

भीर गज पर जब पड़ी तब तुमने मिटाई पीर सारा,
दौड़ आते क्यों नहीं तुम दोष क्या बोलो हमारा।

यदि आपके होते हुए भी पाप ये हो जाएगा,
सूत्र बंधन से जगत का विश्वास ये उठ जायेगा।

नीचता कैसे सुनाऊँ कितना सहूँ अपमान को,
आकर तोड़ते क्यूँ नहीं इस दुष्ट के अभिमान को।

कक्ष के लोगों सुनो ये अंत तुम सबके लिए है,
मेरे वीर के चक्र में दंड तुम सबके लिए है।

हे पितामह द्रोण कुलगुरु और ये कुरुवंश सुन ले,
काल तुम सबका निकट है स्वयं अपना मार्ग चुन लें।

निज पुत्र वधु के हाल पर जो आज बैठे मौन हैं,
वज्र जब उनपर गिरेगा न देखेगा के कौन हैं।

धिक्कार है कुरुसभा को करुणा जिनके हृदय नहीं,
मृत्यु हैं वो शून्य हैं सब हिय में जिनके विनय नहीं।



है मुझे विश्वास इतना भाई मेरा आएगा,
शीश पर तुम दुष्ट जनों के काल बनकर छाएगा।

जो अभी तक समझ ही न पाया स्नेह को ममत्व को,
कब हृदय वो जान पायेगा नारी के महत्व को।

क्या नहीं बचाओगे तुम आ यहाँ मेरे सत्व को,
कहीं निगल जाये ना ऐसे दुष्टता मनुजत्व को।

जो हुआ अपमान मेरा मुख क्या दिखला पाओगे,
यदि तुम नहीं आये यहाँ मुझे न जीवित पाओगे।

जो भी हो जिस हाल में जैसे भी हो पास आओ,
इस नराधम नीच पापी से मुझे आकर बचाओ।

अब छोड़िए मुरली मुकुट बस चक्र लेकर आइये,
इन पापियों को रौद्र अपना आ यहाँ दिखलाइये।

जब बहिन विपदा में हो भाई का सामर्थ्य कैसा,
इस घड़ी यदि तुम न आये संबन्ध का अर्थ कैसा।

छोड़ कर मथुरा बसे हो ये है मुझे सब कुछ पता,
हो रहा क्या साथ मेरे क्या है नहीं तुमको पता।

विश्वास तुम पर जो मेरा आज न वो टूट जाये,
ऐसा न हो प्रतीक्षा में साँस मेरी छूट जाये।

कोर के हर अश्रुओं का मोल तुमको है चुकाना,
हो रहे अपमान का प्रतिशोध तुमको है चुकाना।

ये न समझो पापियों कि भाई तुमको छोड़ देगा,
जिस दर्प में डूबे हुए हो दर्प सारा तोड़ देगा।

अश्रु ये जो झर रहे हैं हो व्यर्थ न जायें कहीं,
होते हुए भी तुम्हारे मान न गिर जाये कहीं।

अब आस बस तुमसे बँधी है इसको न अब तोड़िये,
विपत की इस घड़ी में मुझे न यूँ अकेला छोड़िए।

जब आपदा गहराएगी याद अपने आयेंगे,
बंधन जिनसे हो हृदय का तोड़ कैसे पायेंगे।

हो दया का स्रोत तुम ही श्रेष्ठ हो तुम और दानी,
इस जगत में कौन तुमसे श्रेष्ठ बोलो और ज्ञानी।

शून्य हैं सबके हृदय अब मैं व्यथा किसको सुनाऊँ,
तुम नहीं आये अगर तो लाज मैं कैसे बचाऊँ।

टूटता है धैर्य मेरा विश्वास भी अब थक रहा,
क्षीण होती शक्ति सारी अब आत्मबल भी थक रहा।

है कलुष आकाश सारा कलुषित यहाँ परिवेश है,
पुकारते तुमको केशव मेरे खुले ये केश हैं।

छोड़िए सब रास केशव इस क्षण कहीं मत जाइये,
अपने सखी की लाज खातिर दौड़ कर आ जाइये।

छोड़िये अपना मुकुट अब छोड़िये श्रृंगार सारा,
आपदा जब द्वार पर हो देखता है कौन सारा।

देह पर जो भी वसन है केशव उसी में आइये,
अपने बहन की लाज को आ शीघ्र अब बचाइये।

इन आँसुओं को आज यदि देख नहीं तुम पाओगे,
सच कहती भाई सारी उमर यहाँ पछताओगे।

विध्वंस की घड़ी है नाथ आज यूँ न मुख छुपाइये,
मेरे अश्रुओं को देखिये न देर अब लगाइये।

आज आप जो न आ सके कुछ शेष न रह जायेगा,
तो प्राण ये तजूंगी मैं अवशेष न रह जायेगा।











इन अश्रुओं की धार का अब मोल क्या कुछ भी नहीं,
नारी के सम्मान का
अश्रुओं की धार ही क्या 






खींचना वो चीर तब सारी क्षमता पार हुआ
वस्त्र के रूप में जब माधव का अवतार हुआ
थी लिखी उस दिन कथा तब क्षोभ औ अपमान की
और टूटे थे मिथक सब सत्य के अवदान की।।27।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19सितंबर, 2022




अवदान- पराक्रम




बूँदों को वनवास मिला।

बूँदों को वनवास मिला।  

मन ने भित्ति चित्र पर कितने उम्मीदों ने चित्र बनाये
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

जाने कैसी रही भूमिका पलकों से जो स्वप्न गिरे
जाने कैसे गिरी बिजलियाँ जीवन के सब रंग झरे
रीता मन का आँचल कैसे, कैसे खुशियाँ मुरझाईं
कैसे मन का दर्पण टूटा, छूटी कैसे परछाईं
दर्पण ने जब कहना चाहा पलकों का अहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

इस अस्थि पंजर से लिपट कर क्यूँ मौन मन व्याकुल रहा
क्यूँ दूर तक जीवन सफर ने कब क्या कहे आकुल रहा
फिर क्यूँ तड़पती आह मन की साँस में आकर समाई
औ क्यूँ विकल होकर हृदय से, आँख फिर से डबडबाई
जब-जब नैन से नीर निकले मोक्ष का एहसास मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

अब क्या कहूँ क्यूँ कर जलाती व्यर्थ में मन को तपन ये
अब क्या कहूँ क्यूँ कर रुलाती व्यर्थ आहों की अगन ये
किये लम्हों ने कुछ फासले औ दूर सदियाँ हो गईं
इक भोर को तकती निगाहें उस रात में ही खो गयीं
ऐसा ही होना था शायद नेह को अवकाश मिला
लेकिन चली तूलिका जब-जब बूँदों को वनवास मिला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर, 2022

तेरे गीत सजा रखा है।

 गीत सजा रखा है।  

तेरी यादों के चिरागों को जला रक्खा है 
दिल का दरवाजा मैंने अब तक खुला रखा है।।

अब कहने को तो है रात ये घनेरी माना
पर उम्मीद का एक दीपक जला रखा है।।

मेरी तनहाइयाँ भी कहीं छोड़ न दें मुझको
मैंने रुसवाइयों को गले से लगा रखा है।।

शाम होते ही ये सड़कें भी चली जाती हैं
लगता है कहीं दूर नया गाँव बसा रखा है।।

अब तो चाहत है यही "देव" के लिखता जाऊँ
तूने जो गीत दिये अधरों पे सजा रखा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        16सितंबर, 2022

नेह का निमंत्रण।

नेह का निमंत्रण। 

है दिवस अवसान को औ रोशनी मद्धम हुई है
दूर पीछे बादलों के साँझ की शबनम गिरी है
शब्द साँसों में मचलकर कर रहे देखो समर्पण
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

हूँ खड़ा कब से यहाँ मैं देख लो सागर किनारे
शून्य को तकती निगाहें, साँस तुमको ही पुकारे
बस गए हो नैन में तुम बन के मेरा आत्म दर्पण
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

उम्मीद की सब रश्मियाँ सांध्य में ही खो न जायें
स्वप्न जो तुमसे जुड़े हैं शून्य में ही खो न जाये
खो न जाये आस मन के नयन में भर दो किरण धन
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

लौट कर जो आ गया तो स्वयं को न पा सकूँगा
कल्पनाओं के सफर में मैं न फिर से जा सकूँगा
हो रहा उद्विग्न मन ये तुम दिखाओ राह नूतन
गीत अधरों पर सजाओ नेह का तुमको निमंत्रण।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15सितंबर, 2022

यादें।

यादें।   

तेरी यादों के चिरागों को जलाया मैंने
खुद को खुद से ही आज फिर से मिलाया मैंने।।

बाद बरसों के इन हवाओं ने दस्तक दी है
आरजुओं को फिर हवाओं से मिलाया मैंने।।

बात कुछ ऐसी थी के चाह कर भी कह न सके
बारहा दिल के जज्बातों को भुलाया मैंने।।

अब तो यादों के सिवा कुछ भी नहीं है अपना
"देव" यादों में ही यादों को मिलाया मैंने

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14सितंबर, 2022


मुक्तक।

मुक्तक।   

चंदा से सितारों से तुम्हारी बात करता हूँ
अपने गीत गजलों में तुम्हें ही याद करता हूँ
कहे कुछ भी यहाँ कोई मगर सच है यही सुन लो
तुम्हारे जीत की हरपल मैं फरियाद करता हूँ।।

**************

तुम्हारी याद अधरों पर तुम्हारे गीत अधरों पर
तुम्हारी हार अधरों पर तुम्हारी जीत अधरों पर
हैं नयनों ने बसा रखे सुहानी वो मुलाकातें
लिखे जो मौन ने उस पल सुहानी प्रीत अधरों पर।।

*************

कहना क्या किसी से अब औ सुनना क्या किसी से है
मिलना क्या किसी से और बिछड़ना क्या किसी से है
कब ठहरा समय बोलो महज यादें ही रहती हैं
इन यादों के साये में लिपटना क्या किसी से है।।

***********

मैं अपनी नींद पलकों की तुम्हारी नींद पर वारूँ
मैं अपने स्वप्न सारे अब तुम्हारे स्वप्न पर वारूँ
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर दोनों को है मालूम
तुम्हारी जीत की खातिर मैं अपनी जीत सब वारूँ।।

*************

तुम्हारे शब्द गीतों में मैं लिखता हूँ सुनाता हूँ
कभी गाये जो संग-संग में अब भी गुनगुनाता हूँ
भरी महफ़िल में अब भी जब तुम्हारी बात चलती है
मैं खुद से बात करता हूँ मैं खुद ही मुस्कुराता हूँ।।

*************

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13सितंबर, 2022

मुक्तक।

मुक्तक।   

चंदा से सितारों से तुम्हारी बात करता हूँ
अपने गीत गजलों में तुम्हें ही याद करता हूँ
कहे कुछ भी यहाँ कोई मगर सच है यही सुन लो
तुम्हारे जीत की हरपल मैं फरियाद करता हूँ।।

**************

तुम्हारी याद अधरों पर तुम्हारे गीत अधरों पर
तुम्हारी हार अधरों पर तुम्हारी जीत अधरों पर
हैं नयनों ने बसा रखे सुहानी वो मुलाकातें
लिखे जो मौन ने उस पल सुहानी प्रीत अधरों पर।।

*************

कहना क्या किसी से अब औ सुनना क्या किसी से है
मिलना क्या किसी से और बिछड़ना क्या किसी से है
कब ठहरा समय बोलो महज यादें ही रहती हैं
इन यादों के साये में लिपटना क्या किसी से है।।

***********

मैं अपनी नींद पलकों की तुम्हारी नींद पर वारूँ
मैं अपने स्वप्न सारे अब तुम्हारे स्वप्न पर वारूँ
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर दोनों को है मालूम
तुम्हारी जीत की खातिर मैं अपनी जीत सब वारूँ।।

*************

तुम्हारे शब्द गीतों में मैं लिखता हूँ सुनाता हूँ
कभी गाये जो संग-संग में अब भी गुनगुनाता हूँ
भरी महफ़िल में अब भी जब तुम्हारी बात चलती है
मैं खुद से बात करता हूँ मैं खुद ही मुस्कुराता हूँ।।

*************

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13सितंबर, 2022

वरदान है हिंदी।

वरदान है हिंदी।  

मेरे अंतस के भावों की मधुर पहचान है हिंदी
हमारी आन हमारा मान हमारी शान है हिंदी
कई भाषा कई बोली कई लिपियों की जननी है
जो सबको सूत्र में बाँधे वो हिंदुस्तान है हिंदी।।

दिलों को जोड़ती है ये मनुज को पास लाती है
अँधेरा हो घना कितना ज्ञान की लौ जलाती है
चाहे पूरब हो पश्चिम हो या उत्तर हो दक्षिण हो
जो सभी के भाव हर्षाये नवल निर्माण है हिंदी।।

दिलों में प्रीत का पोषक सुखद आधार है हिंदी
शिक्षा, संस्कृति, ज्ञान, आचरण औ व्यवहार है हिंदी
जलाये प्रेम का दीपक औ मिटाये द्वेष जो मन से
दिलाये जो मनुजता को उचित अधिकार है हिंदी।।

कभी मीरा, कभी तुलसी, कभी रसखान है हिंदी
हृदय के भाव जो समझे वही अभियान है हिंदी
बढ़ाएं मान हम इसका मिटा कर द्वंद भाषा के
लिखे जो गीत उन्नति के वही वरदान है हिंदी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12सितंबर, 2022

आँसू।

आँसू।  

दिल की तनहाई के जज्बात हमारे आँसू
अनकहे भाव के सौगात ये प्यारे  आँसू।।

लाख चाहा मगर पलकों से  सँभाला न गया 
टूट कर गिर गये बन करके सितारे आँसू।।

अजब ही दौर है दुनिया के चलन का यारो
हैं ये बिगड़े हुए हालात के हैं मारे आँसू।।

आ के रुक जाते हैं पलकों के किनारे अकसर
चाह कर कह न सके कुछ भी बिचारे आँसू।।

किससे शिकवा करें ऐ "देव" शिकायत किससे
बन के मुजरिम खड़े हैं आज हमारे आँसू।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
      10सितंबर, 2022


तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

गुपचुप-गुमसुम मौसम है जाने ये कैसी रूत आई है
जब तुम भी हो औ हम भी हैं फिर कैसी ये तन्हाई है।।

वो चाँद सितारों वाली रातें खत्म न होने वाली बातें
कितना कुछ था कहना तुमको फिर कैसी चुप सी छाई है।।

ऐसी ही थी साँझ सुहानी जब हम पहली बार मिले थे
आज वही मौसम है देखो औ फिर से वो पुरवाई है।।

कितने सपने कभी सजाये नयनों ने एकाकी पन में
आज मिले हैं जब हम औ तुम फिर पलकें क्यूँ शरमाई हैं।।

कितने लम्हे बीत गए हैं खुद को जी भर कर ना देखा
तेरी आँखों में देखा जब ये किस्मत भी इतराई है।।

चलो जलायें दीप खुशी के अंतस के सूने आँगन में
चलो सजा लें अपने मन को फिर "देव" दिवाली आई है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        10सितंबर, 2022

जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

मौन शब्द की पीड़ाओं को कैसे जग तक पहुँचाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितनी तड़पन कितनी आहें कितनी मन की आशाएँ
पल-पल उमड़ रहीं अंतस में जाने कितनी धाराएँ
धारा को आश्वासन का देता कैसे कहो दिलासा
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

जब अधरों के कंपन से कुछ शब्द भटकने लगते हैं
जब पलकों के कोरों से सब भाव टपकने लगते हैं
तब भावों के महासमर से कैसे मन बाहर आता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितने सपने कितनी यादें पग-पग कितनी गाथाएँ
छोटे से जीवन में कितनी लिख डाली हैं कवितायें
जो कलम सहारा ना होता कवि को कौन समझ पाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

कितनी रातें रोशन कर दीं उसका भाव नहीं देखा
जलता दीपक सबने देखा उसका घाव नहीं देखा
जलते दीपक के भावों को कैसे कोई पढ़ पाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

है कोई अफसोस नहीं अब जग से मैंने क्या पाया
जो माथे की रेख छपा था वो मेरे आँचल आया
किस्मत से अब बैर नहीं है भावों से गहरा नाता
जो गीत सजल ना होते तो भावों को कैसे गाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2022

पैसे का प्रभाव या अभाव।

पैसे का प्रभाव या अभाव।  

पैसा ऐसी चीज है जिसने सबको नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

सब भावों पर इसका पहरा दुनिया पर ये भारी है 
इसकी एक झलक पाने को दुनिया सब कुछ हारी है
अब तो ऐसा लगता जैसे नैतिकता है बस बातें
इसके आगे नतमस्तक हैं क्या रिश्ते औ क्या नाते
इसकी खन-खन ने दुनिया को पल-पल नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसके ही आगे देखा है ये सारी दुनिया झुकती है
बस जिस्म नहीं इसके आगे सभी शराफत बिकती है
सिंहासन तक झुक जाते हैं सरकार खरीदे जाते हैं
इंसानों की क्या बता यहाँ भगवान खरीदे जाते हैं
गीता वेद पुराण ऋषि मुनि का ज्ञान सभी ने भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसकी ताकत के आगे दुनिया के टुकड़े देखा है
भूख, गरीबी, लाचारी का गर्दन जकड़े देखा है
इसके आगे सपने क्या ईमान धरम बंट जाते हैं
जिस आँचल ने पाला, हूँ हैरान कफ़न बंट जाते हैं
इसकी छन-छन के आगे आँचल का मान भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

पैसों की ताकत से दुनिया मे इंसान खरीदे जाते हैं
लाज शरम बाजारों में है ईमान खरीदे जाते हैं
पैसों के दम पर दुनिया के टुकड़े-टुकड़े कर बैठे
धरती माता के आँचल के टुकड़े-टुकड़े कर बैठे
खुद को जीने की खातिर माँ ने आँचल फिर फैलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022




©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022


पैसे का प्रभाव या अभाव।

पैसे का प्रभाव या अभाव।  

पैसा ऐसी चीज है जिसने सबको नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

सब भावों पर इसका पहरा दुनिया पर ये भारी है 
इसकी एक झलक पाने को दुनिया सब कुछ हारी है
अब तो ऐसा लगता जैसे नैतिकता है बस बातें
इसके आगे नतमस्तक हैं क्या रिश्ते औ क्या नाते
इसकी खन-खन ने दुनिया को पल-पल नाच नचाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसके ही आगे देखा है ये सारी दुनिया झुकती है
बस जिस्म नहीं इसके आगे सभी शराफत बिकती है
सिंहासन तक झुक जाते हैं सरकार खरीदे जाते हैं
इंसानों की क्या बता यहाँ भगवान खरीदे जाते हैं
गीता वेद पुराण ऋषि मुनि का ज्ञान सभी ने भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

इसकी ताकत के आगे दुनिया के टुकड़े देखा है
भूख, गरीबी, लाचारी का गर्दन जकड़े देखा है
इसके आगे सपने क्या ईमान धरम बंट जाते हैं
जिस आँचल ने पाला, हूँ हैरान कफ़न बंट जाते हैं
इसकी छन-छन के आगे आँचल का मान भुलाया है
जाति धरम औ रिश्ते नाते भेद सभी में भुलाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2022


दूर कहीं तेरा साहिल।

दूर कहीं तेरा साहिल।  

यादों की भूल भुलैया में
उलझ-उलझ कर भटका मन
बीते मंजर उमड़ रहे हैं
पलकों में आँसू बन-बन
बोझ अश्रु का कौन सँभाले
नयनों में आते पल-पल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

पीछे मुड़ कर देख रहा क्या
तुझको कौन पुकारेगा
राहों में जो ठोकर खायी
आकर कौन सँभालेगा
छोटे से इस जीवन मे है
कितनी बड़ी-बड़ी हलचल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

तुझ पर जो आरोप लगे हैं
उसी आग में जलता जा
अपनी लाश उठा काँधे पे
यहाँ अकेला चलता जा
आहों के उस पार निकल जा
यहाँ नहीं तेरी मंजिल
कौन यहाँ जो तुझे पुकारे
दूर कहीं तेरा साहिल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05सितंबर, 2022


पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

यादों के मानसरोवर में श्वेत हंस की टोली
मन के नील गगन को शोभित करती ज्यूँ रंगोली
सुरभित भाव हुए अंतस के छवि देखी तब न्यारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

कुसमित हैं सब अंग-अंग अधरों ने बंधन खोला
पुण्य प्रेम की पावनता से पपिहे का मन डोला
सुधियों के पथ चलकर आयी साँसों में फुलवारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

अंतस में भावों की हलचल आशाएँ पुलकित पल-पल
सुधियों को राह सुझाती मिलन विकल मन की हलचल
साँसों में मुखरित हो जैसे गीतायन की क्यारी
पावस की पुरवाई लेकर आई याद तुम्हारी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04सितंबर, 2022

स्वर ने सीवन खोले।।

स्वर ने सीवन खोले।  

सुधियों ने पैबंद हटाये मन ने सीलन खोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

वादों में अनुवादों में कुछ भावों की अमराई
जब-जब साँसें मुखर हुईं पावस ने ली अँगड़ाई
यादों के अनुबंध खुले पलकों ने मृदु जल घोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

मधुमय करता जीवन सारा मीठी-मीठी बातें
उलझन मन की खुल जाती हैं खुल जाती हैं गाँठें
मिल जाते जब भाव हृदय के मन का भँवरा डोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

धूप-छाँव जीवन के पहलू पग-पग राह दिखाते
ऊँच-नीच जीवन के प्रतिपल हमको ये समझाते
अंतर्मन में निहित अँधेरे ज्ञान ज्योति जब खोले
अधरों पर मृदु शब्द टँके तब स्वर ने सीवन खोले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03सितंबर, 2022

इस सफर को चलो हम नया नाम दें।

इस सफर को चलो हम नया नाम दें।

भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें
मन की पीड़ाओं को करें हम परे
इक दूजे को न कोई इल्जाम दें।।

तुम मुझे थाम लो मैं तुम्हें थाम लूँ
मैं तुम्हें हाथ दूँ तुम मुझे हाथ दो
तुम्हारी धरा को मैं अपना कहूँ
तुम भी मुझसे मेरा आकाश लो।।

स्वप्न में भी कभी आस टूटे नहीं
रिश्तों को इक नया फिर आयाम दें
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।

सिर्फ यादों में ही रह न जाये कहीं
छूट जाये न मुट्ठी से लम्हे कहीं
जिक्र साँसों में जब भी कहीं भी चले
मेरी हर साँस में बस तेरा नाम हो।।

जीतने की खुशी में यूँ बहके नहीं
एक दूजे को हम इतना सम्मान दें
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।

हर कदम जिंदगी की कहानी नई
साथ हम तुम लिखें जिंदगानी नई
मैं तुम्हें प्यार दूँ तुम मुझे प्यार दो
मेरे गीतों को साँसों से आकार दो।।

पृष्ठ पर लेखनी अब लिखे इस कदर
छंद-छंद गीत का प्रेम का भान दे
भागती दौड़ती जिंदगी का सफर
इस सफर को चलो हम नया नाम दें।।




©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02सितंबर, 2022

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ
कैसे बीत रहे हैं पल छिन कैसे मैं बतलाऊँ।।

आभासी हो गये सभी पल पास नहीं कुछ अपने
भोर नहीं होने पाए थे टूटे सारे सपने
पलकों ने था लाख सँभाला रोक नहीं पर पाये
आँसू बन सब शब्द गिरे अधरों को नहलाये
अधरों के उस कंपन को अब कैसे मैं समझाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

कितना कुछ था कहने को पर तुमसे कह ना पाये
भावों का आँगन सूना था तुम बिन रह ना पाये
जाने थे वो कैसे बंधन जिसने मन उलझाया
जाने मन उन दहलीजों को लाँघ नहीं क्यूँ पाया
घुटी-घुटी थी चीख कंठ में कैसे कहो सुनाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

कर लेता स्वीकार सभी आरोप लगे जो मुझपर
सह लेता मैं दंड सभी वो, जो तुम देती हँसकर
होती नहीं शिकायत जग से शिकवा क्यूँ कर करता
जो तुम मुझसे कह देती सब बात हृदय की खुलकर
कितने मन के दर्पण टूटे कैसे मैं दिखलाऊँ 
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

अपने मन की आहों को अब कैसे तुम सहती हो
बस इतना बतला दो कैसे मेरे बिन रहती हो
क्या अब भी बागों में कोयल कुहुक-कुहुक गाती है
क्या अब भी तेरी साँसों से मेरी खुशबू आती है
तुम बिन जीवन के प्रश्नों का उत्तर कैसे पाऊँ
उलझे-उलझे पल जीवन के कैसे मैं सुलझाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...