सुगम पथ


सुगम पथ। 

नव सृजन का भाव लेकर
राष्ट्र जन गण मन को तक रहा
धर्म बंधु हो, न्याय बंधु हो
उद्देश्य केवल पथ सुगम हो।

लाभ-हानि, लोभ-मोह का
सम्मुख भले पारावार हो
भीषण हिलोरे ले रहा
भले सिंधु अपार हो
सुगम पथ होता तभी, जब
कुशल हाथ मे पतवार हो।

विश्व दिग्भ्रमित हो रहा
ध्वांतचर प्रवृत्ति के मायाजाल से
चंहुओर क्रंदन है मचा
स्वार्थ युक्त व्यवहार से
स्वार्थ रूपी इस निशा का
आज तू संहार कर।
अपने कुशल प्रयास से
सुगम पथ का निर्माण कर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11अप्रैल,2020

वेद


वेद।  

जिसने ज्ञान के प्रकाश से
जग को आलोकित किया
विश्व बंधुत्व भाव की 
ज्योति प्रज्ज्वलित किया।

जिसने वसुधैव कुटुम्बकम का भाव
प्रथम, विश्व में अनुमोदित किया
जिसने ज्ञानपुंज के प्रकाश से
विश्व को आलोकित किया।

जब अन्य कोई ग्रन्थ नही था
इस विकल संसार में
अंधकार तब दूर करने को मिला
दिव्य वैदिक ज्ञान इस संसार में।

वेद, शास्त्र, उपनिषद, ब्राह्मण
स्मृतियां ज्ञान का भंडार हैं
जीवन जीना इक कला है
अध्यात्म है, विज्ञान हैं।

मनुष्यता के सिद्धांत को
विश्व में प्रतिपादित किया
भारतीयता के सम्मान को
हर हृदय में स्थापित किया।

ज्ञानयोग, कर्मयोग, तपयोग का
जीवन मे प्रमुख स्थान है
वेद रूपी पथप्रदर्शक जिसने दिया
वो हमारा हिंदुस्तान है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अप्रैल,2020



चाणक्य


चाणक्य।      

सत्यमार्ग दिखलाते चाणक्य
नवनिर्माण सिखलाते चाणक्य
राष्ट्र चेतना भाव प्रणेता का
देशज मार्ग बतलाते चाणक्य।।

चौथी शती ईसा पूर्व में जन्मे
तक्षशिला में ज्ञान लिया
राष्ट्रप्रेम व स्वाभिमान का
पल पल था सम्मान किया।

शिक्षा के महत्व को समझा
विद्या का सम्मान किया
अर्थशास्त्र की रचना कर
दुनिया को वरदान दिया।

अखण्ड भारत का अनुरोध लिए
वो जब धनानंद के पास गए
निर्लज्जता से अपमानित कर
प्रस्ताव को अस्वीकार किया।

किया अपमान आचार्य का उसने
सभाभवन में तिरस्कार किया
तब नन्दवंश के समूल नाश तक
शिखा न बांधने का शपथ लिया।

क्रोध व पश्चाताप से ग्रसित
सभाभवन से निकल पड़े
एक राष्ट्र श्रेष्ठ का प्रण लिए
अपनी ही जिद्द पर रहे अड़े।

मार्ग में देखा चन्द्रगुप्त को
राजकीलकम खेलते हुए
संभावना नजर दिखी तब
लेकर उनको चल दिये।

चन्द्रगुप्त के सहयोग से
एक राष्ट्र नीति का संधान किया
सब जनपद को साथ में लेकर
अखण्ड भारत का निर्माण किया।

सप्तांग सिद्धांत का वर्णन कर
राज्य तत्व का सम्मान किया
राजा, मंत्री, प्रजा या जनपद के योगदान
को राष्ट्रनिर्माण में सम्मिलन किया।

सीमा की रक्षा करना
राजकोष मुख के समान है
दण्ड व्यवस्था राज्य का मस्तिष्क
सुहृद( मित्रता) को स्थान दिया।

राष्ट्रवाद की व्याख्या की
बौद्धिक विमर्श का सिद्धांत दिया
स्वतंत्रता के महत्व को समझा
अभिव्यक्ति को सम्मान दिया।

राष्ट्रविरोधी भाव को मगर
नही कोई स्थान दिया
राष्ट्रद्रोह अपराध बड़ा है
कठोर दंड का विधान किया।

राष्ट्रवाद सिद्धांत सुघड़ है
सनातन संस्कृति मार्ग सुगम है
अनंतकाल से शाश्वत है ये
राष्ट्रप्रेम व्यवहार सुघड़ है।

यदि इन सिद्धांतों के मूल्य को
हम अब आज समझ न पाएंगे
तो फिर वो दिन दूर नही
जब समाज रसातल में जाएंगे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अप्रैल, 2020





गृह निर्माण करें


गृह निर्माण करें।  

नैतिकता की नींव पे खड़ा
सिद्धांतों की भीत पे अड़ा
छत्र हो जिसकी मूल्यता का
रीति का आंगन हो बड़ा।

जहां संवाद शून्यता का स्थान न हो
जहां निजता का अभिमान न हो
जहां नीतियां धन मूल्यों से हों बड़ी
जहां संस्कृति, सभ्यता दृढ़ता से डटीं।

आओ ऐसा कुछ पर्याय करें
ऐसे साध्य का संधान करें
जहां प्रेम, समर्पण, दया भाव हो
ऐसा गृह निर्माण करें।।

जहां अधिकारों की बातों से पहले
कर्तव्यों की बात चले
जहां व्यक्तिवाद की प्रमुखता से पहले
सद्वविचारों की बात चले।

जहां न तेरा हो, न मेरा हो
जहां न लोभ-मोह का फेरा हो
जहां ज्ञान दीप के प्रकाशपुंज से
दूर हृदय का अंधेरा हो।

जहां प्रेम प्यार की बात चले
जहां लाभ-हानि की बात से पहले
उत्तरदायी समर्पण की बात चले
जहां मूल्यवान सम्बंध मात्र हो
ऐसी उत्कंठा का संधान करें।।

आओ गृह निर्माण करें
आओ गृह निर्माण करें।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09अप्रैल,2020

हाहाकार


हाहाकार।   


हाहाकार मचा जन जन में
व्याकुलता मची त्रिभुवन में
तृषावन्त सब कैद पड़े हैं
कैसा पल आया जीवन में।

उर में प्रतिपल हुक सी उठती
इन नैनों में भूख सी उठती
यूँ पायोनिधि के पास खड़े हैं
फिर अतृप्ति भाव क्यूँ जगती।

मनुज स्वार्थ का खेल है सारा
दिग्भ्रमित भाव का दोष है सारा
प्रकृति से खिलवाड़ हुआ जब
कंपन आया भूतल में तब तब।

घायल विह्वल भटक रही सभ्यता
गर्दभ व्यवहार भुगत रही सभ्यता
किन किन पर आक्षेप लगाएं
स्वार्थ में अंधी बनी सभ्यता ।

चूस रहे हैं रक्त मनुज के
विश्व विजय की भ्रांति समेटे
अज्ञानी तृष्णा में पड़कर
ग्रीवा में अगणित विषदंत लपेटे।

हटो, व्योम से क्षोभ हटाओ
विश्व विजय का लोभ हटाओ
निरपराध नन्हें देवों के रक्षण को
स्वार्थ चित्त का मोह हटाओ।

जय जयकार करो मानवता की 
धरती, अंबर, गिरिराज, जलधि की
हो पंथ सुरक्षित सब जीवों का
हो सफल मनोरथ मानवता का।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08अप्रैल, 2020

परिचय


परिचय।     

मौन निगाहें पूछती हैं अकसर
मुझसे, क्या है मेरा परिचय
चलो आज बतलाता हूँ
सबसे, क्या है मेरा परिचय।

मैं जीवन का इक चित्रण हूँ
मैं स्वयं आत्म नियंत्रण हूँ
इस परमपूज्य जगदीश्वर का
मैं इक प्रिय अभिमन्त्रण हूँ।

मैं हिंद मन, मैं हिंद तन हूँ
मैं वसुधैव कुटुम्बकम का प्रण हूँ
मेरा बस परिचय इतना
भारत मुझमें, मैं भारत का कण कण हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल, 2020

मधुर सांध्य

                  मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र।          

मधुर सांध्य।     

मधुर भाव दे गोधूलि बेला में
दिनकर जाकर अस्त हो रहा
शीतल पवन हिलोरों से
जीवन भी मदमस्त हो रहा।

जब कोकिल की मीठी बोली
श्यामल अंबर को चहकाती है
जब ताप भी अपना तेज त्याग कर
शीतल, शिथिल, सुशील हो रहा।

फिर विचलन नैनों में भरकर
क्यों कर भ्रांतचित्त हो रहे
नीर से बोझिल इन नैनों से
विह्वल, व्याकुल, विक्षिप्त हो रहे।

किस अतीत की व्याकुलता ने
मन को है आघात दिया
किस व्याकुलता ने झंकृत कर
नैनों को संताप दिया।

शोक व्यर्थ होता है तब
जब बोध चूक का करा सको
सूने नभ की नीरवता में
दीप ज्ञान का जला सको।

पर रोगग्रस्त मूढ़ चित्त का
शोक व्यर्थ क्यूँ करते हो
अपने हृदय की शीतलता को
वेदना से छलनी क्यूँ करते हो।

मत उलझो स्मृति के टूटे तारों में
नीरवता के सूने व्यवहारों में
सांध्य भी उदास कहां रह पाती है
खेलने उससे रश्मि प्रकाश की आती है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल,2020


अंतर्मन

               चित्र चिंतन।     

अंतर्मन।       

पल-पल, छिन-छिन व्याधि दे रही
है अंतर्मन की ज्वाला
लगता पल पल पी रहा हूँ
घूंट घूंट भर कर हाला।

जब सत्य-असत्य में भेद न रहे
जब स्वार्थ-निःस्वास्थ में भेद न रहे
मूंद नयन तब चिंतन करना
अपने अंतर्मन की सुन लेना।

जब आक्षेप अनर्गल लगाए कोई
जब कपट भाव दिखलाए कोई
तब खुद को केंद्रित कर लेना
अपने मन की सुन लेना।

जब मर्यादा का मान न रहे
जब निष्ठा का सम्मान न रहे
तब खुद ही खुद से मिल लेना
अपने अंतर्मन की सुन लेना।

सत्य मार्ग है अतिशय दुष्कर
चलना इसपर संभल संभलकर
थक जाओ यदि कहीं कभी तो
स्थिर अंतर्मन को कर लेना।

हवनकुंड मन को कर लेना
सत्कर्मों की हवि भर लेना
आस निराश से विलग 
जीत का तुम आवाहन करना।

लक्ष्य कठिन पर अघट्टय नही है
सत्य अटल है अधीर नही है
संकल्प सृजन भावों में भरना
अंतर्मन स्थिर कर लेना।
अपने अंतर्मन की सुन लेना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2020






वनवास


वनवास।                                                         
विरह व्यथा से हो द्रवित
भोग रहे वनवास
अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।

पग-पग पर रजनीचर घूम रहे
अकुलीन भावों में झूम रहे
इन अमानुषिक भावों का
करें आज अवसान।

गली मुहल्ले सूने पड़े हैं
बाग बगीचे सूने पड़े हैं
हर आंखें आशंकित लगतीं
टूट रहा विश्वास।

अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।।

कुत्सित भावों का तिमिर घना है
रावण अब तक मरा कहां है
लक्ष्मण रेखा सब पर खींचो
हो अपनी परिधि का एहसास।

आओ मिलकर सेतु बनाएं
कर्तव्यों का एहसास जगाएं
सत्य धर्म की हो विजय सुनिश्चित
हो धर्म का वास।

आओ दूर करें वनवास
आओ दूर करें वनवास।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06अप्रैल,2020

हिस्से की रोटी

        मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र।                     
हिस्से की रोटी                                                
सदियों का संताप रहा है
हर पीढ़ी ने दर्द सहा है
अधिकारों की रक्षा हेतु
पल-पल का संघर्ष रहा है।

सामाजिक बदलाव की ज्वाला
पल-पल घूंट घूंट भर हाला
विरह, वेदना, घृणित भाव बढ़ा है
अर्थ प्रभावी जब से समाज बढ़ा है।

विद्या बनी जबसे धन की नीति
नैतिकता बन गयी मन की वृत्ति
इसका मोल चुकाऊं कैसे
इस परिवर्तन को अपनाऊँ कैसे।

चंहुदिश से वार हो रहा
दीन हीन का परिहास हो रहा
इस क्षण को अपनाऊँ कैसे
हृदय खोल व्याधि दिखलाऊँ कैसे।

उठो कलम इस दर्द को लिखो
मुक्त वायु के अनुबंध को लिखो
मिटे भेद जल जाए ज्योति
मिल जाये सबको, हिस्से की रोटी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04अप्रैल, 2020

आओ मिलकर दीप जलाएं


आओ मिलकर दीप जलाएं।                                                        

आओ मिलकर दीप जलाएं
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

दूर तिमिर हो जाये जग से
मन चित्त को प्रकाशवान बनाएं
हर चेहरे पर मुस्कान जगाने
का ऐसा कुछ पर्याय बनाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

चाहत के पंख फैलाकर
सपनों को यथार्थ बनाएं
अपने आत्मबल के बल पर
जग को प्रकाशवान बनाएं।
आओ मिलकर दिया जलाएं।।

राष्ट्र हमारा घिरा हुआ है
तिरोभूत प्रतिपक्षी से
इस प्रतिपक्षी के अवदारण को
सार्थकता का भाव जगाएं
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

इस तन को दीप बना लें
स्नेह भाव का घृत भरकर
सदाचार को बाती कर
चंहुओर प्रेम प्रकाश फैलाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04अप्रेल, 2020

    

पदचिन्ह


पदचिन्ह।                                                        
कर्तव्यमार्ग पर चलते चलते
पदचिन्हों के छाप हैं छपते
गीली मिट्टी पर हस्ताक्षरित
उपस्थिति के निशान हैं बनते।

कोटि चरण है, कोटि बाहु है
कोटि भाव है, कोटि मार्ग है
पर मानवता के इस पथ में
लक्ष्य सुनिश्चित, प्राप्य एक है।

गढ़ते जाना है नवजीवन
भरते जाना है सूनापन
भाव जो पुण्य श्लोक लिखेंगे
जीवन तब होगा मनभावन।

दूर क्षितिज तक है जाना 
ले उम्मीदों का ताना बाना
सुगठित, मधुरिम भाव लिए
उम्मीदों के नवपुष्प खिलाना।

कर सुनिश्चित ध्येय चलेंगे
अनवरत, अविराम चलेंगे
कर्तव्यपथ पर चलते चलते
पदचिन्हों के छाप बनेंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2020

बटोही


बटोही।                                                            
चिर सजग बटोही, व्यस्त है बाना
न ठहर अभी तू, दूर है जाना।।

सरिता की लहरों सा चलना
पल-पल कल कल बहते रहना
अचल हिमगिरि के हृदय से निकल
निर्वाध गति से बहते रहना।।

अगणित पथिक मिलेंगे पथ में
संग-संग तेरे चलेंगे पथ में
उन पथिकों पर ध्यान धरो तुम
पथ की अपने पहचान करो तुम।।

पथ में कंटक, शूल मिलेंगे
पथ में मौसम प्रतिकूल मिलेंगे
हर मौसम में ढलते रहना
पुण्य मार्ग पर चलते रहना।।

सफल पंथ हो, ध्यान करो तुम
असंभाव्य भाव से दूर टरो तुम
परिणामों के न फेर में पड़ना
निर्बाध, निरंतर चलते रहना।।

न ठहर अभी तू, दूर है जाना।
न ठहर अभी तू, दूर है जाना।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल, 2020


सूरज जैसा बन मिलाकर

सूरज जैसा बन मिलाकर।                                 
सूरज जैसा बनना है तो
सूरज जैसा ही चलाकर
सम दृष्टि सब जन पर डाले
सूरज जैसा बन मिलाकर।।

हर कोना उज्ज्वल कर देता
मिटा आलस्य मुस्कान है भरता
दिन समग्र खुद जलता रहता
सांझ ढले फिर घर को जाता।।

कड़ी धूप हो, अग्निकुंड हो
अंजुली भर कर अर्ध्य मिलेगा
स्वयं तपाया जो जीवन अपना
तब जाकर तम दूर हटेगा।।

है कितना कुछ सीखने को उससे
यही चाहता बस वो हमसे
छोड़ दर्प पद ताप तेज का
निश्छल, निष्कपट, निर्विकार मिलाकर।।

सूरज जैसा बनना है तो
सूरज जैसा ही चलाकर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल, 2020


उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य


           उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य।                                        
कितने पल आते जीवन में
कुछ हर्षित, कुछ करते अस्थिर
प्रतिपल रंग बदलता रहता
जीवन चक्र यूँ चलता रहता।।

आस-निराश क्षणों मेंं चिन्हित
अपनी इच्छाओं का प्रतिबिंबित
पल-पल व्याकुल करता रहता
जीवन चक्र यूँ चलता रहता।।

सपनों का व्योम बड़ा है
कर्तव्यों का बोध बड़ा है
आंख-मिचौली खेलूं कैसे
उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य बड़ा है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01अप्रैल, 2020

श्री राम प्रार्थना

      श्री राम प्रार्थना।                                         
कर जोड़ खड़ा जो द्वार तिहारे
निश्छल मनमोहक रूप निहारे
कहे, हृदय जो शुद्ध कर लीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

पढ़े भागवत , सुमिरे प्रभु को
शुद्ध भाव हो, करे निर्मल मन को
जो धर्म मार्ग पे खुद को अर्पित कीन्हा
उन्हें प्रभु फिर शरण में लीन्हा।।

परम् कृपा सुरूप हैं प्यारे
जन उद्धारक वो पाप सँहारे
परम् पुण्य तब आनन्दित कीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

लोभ, मोह, माया, अभिमानी
मिटे पाप बन जाये ज्ञानी
ज्ञान शक्ति जब अन्वेषण कीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

सहस्र कमल हो, दया शक्ति हो
सत्य ज्ञान हो, परम् धाम हो
पाप हरो प्रभु मंगल करना
शुद्ध भाव जन जन में भरना।।

बार बार करूं विनती प्रभु से
सुगुण-गण विस्तारित हो फिर से
राम नाम जप अमृत दीन्हा
ज्योतिर्मय निश्चय जग कीन्हा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल 2020


नग्न प्रदर्शन


चित्र चिंतन- नग्न प्रदर्शन                                   
नग्न प्रदर्शन, खून खराबा
कहीं शोर गुल कहीं सियापा
भय का अप्रत्याशित परिप्रेक्ष्य बड़ा है
डरा सहमा वो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है।।

हर कोई कोशिश कर रहा
खुद बचने को काठ हो रहा
नीति-अनीति के उहापोह से परे
अंतर्द्वंद्व से दो चार हो रहा।।

इक सनक भाव धारणा बदल रही
पथभृष्ट विचारों से पहचान खो रही
ध्वस्त हो रहे हैं मानक सारे
विश्वासों से आघात हो रहा।।

जनमत को तब कौन पूछता
सत्ता की जब धाक बड़ी हो
बर्बादी की परवाह कहां तब
जब केवल बकवास हो रहा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
31मार्च, 2020




प्राकृतिक त्रासदी

             प्राकृतिक त्रासदी

कैसी त्रासदी कैसा कहर है
मौन दिशाएं मौन पहर है
बंद हैं खिड़की, बंद दरवाजे
इक दूजे की किसे खबर है।

हर कोई बेजार हो रहा
लड़ने को तैयार हो रहा
इनको कैसे क्या समझाएं
मातृ हृदय सतत रो रहा।

कहीं हैं भूखे कहीं है प्यासा
कैसे दिलाएं उन्हें दिलासा
सपनों की जो गठरी बांधी
टूट कर तार तार हो रहा।

दिल बैठा जाता है उनके इस हाल पे
हुई ख़ता क्या आज हम इंसान से।।

रोकूँ कैसे जो बढ़े कदम हैं
अनजाने हो रहे सितम हैं
जिधर भी देखो मची है भगदड़
व्याकुल विह्वल असहाय हुआ है।

किस पत्रग ने डँसा चमन को
क्या हुआ है चैनो अमन को
जिधर भी देखो जीवन रुद्ध है
भाव शून्य चेतना अवरुद्ध है।

सामने सब कुछ टूटा जा रहा
मन ही मन में घुटा जा रहा
क्या हो गया है आज शहर को
किसने घोला इसमें ज़हर को।

हो करके मजबूर हम इसको जी रहे
घूंट घूंट कर के ज़हर को पी रहे।।

प्रकृति ने उपहार दिया है
लोभ मन ने घात किया है
काट दिए हैं जंगल सारे
बेघर हुए पशु पक्षी बिचारे।

रो रही है धरती सारी
व्याकुल हैं सारे नर नारी
शुद्ध हवा के लिए तरसते
बादल बदले नैन बरसते।

प्रकृति का ये दर्द बड़ा है
मानव पर भी कष्ट बढ़ा है
गर अब भी न हम संभलेंगे
कैसे इस मुश्किल से लड़ेंगे।

जो किया देर तो फिर हम सब पछतायेंगे
प्रकृति के इस कहर से कैसे बच पाएंगे।।

भूकंप, बाढ़, सूखा व सुनामी
करेगा तब प्रकृति मनमानी
आओ सब मिल जुल कर सोचें
प्रकृति का संरक्षण सोचें।

नदी झील जंगल सारे
हम सबका जीवन सँवारे
बिन इनके जीना मुश्किल है
मानवता है इनके सहारे।

आओ फिर मिल जाएं सारे
मिल जुल कर उपाय विचारें
प्रकृति क्षरण जो रोक पाएंगे
तभी त्रासदी से बच पाएंगे।

फिर देर नही करना अपने व्यवहार का
वरना कारण बन जायँगे अपने संहार का।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2020

संघर्षों की राह

              मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र               

         चित्र चिंतन- संघर्षों की राह                              
जो मानवता से प्रीत है सच्ची
तो संघर्षों की जीत है पक्की
चलते जाना रुक मत जाना
संघर्षों की राह है सच्ची।।

अगणित भले बाधाएं आएं
भोग-विलास मन भरमाएं
अटल इरादे  हैं जो तेरे
संघर्षों की राह है सच्ची।।

कर्मठता पर्याय मनुज का
आलस्य है पर्याय दनुज का
कर्मपथ पर अविराम चला चल
संघर्षों की राह है सच्ची।।

भौतिकता खोने का भय कैसा
पथ के शूलों से घबराना कैसा
खोने को है पास तेरे क्या, पर
जीत से तेरी कीर्ति है पक्की।।

चल उठ फिर आगे बढ़ तू
संघर्षों की ज्वाला बन तू
जितेंद्रिय जो आज बना तो
संघर्षों की जीत है पक्की।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29मार्च, 2020

पलायन

                 मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र
चित्र चिंतन-पलायन।                                      
पलकों में इक दर्द लिए
उर में सांसें सर्द लिए
बोझिल कदमों से चला जा रहा
पल-पल तिल तिल मरा जा रहा।

हर धड़कन इक चोट सी लगती
हर पदचाप पे इक हुक सी उठती
कहीं कोई तो होगा अपना
जो दिखलाता आत्मीयता का सपना।

थके समेटे सपनों की गठरी
आस की चाहत, विश्वास की छतरी
चक्षु विकल हैं, नम हैं ग्रीवा
टूट गयी जो करी प्रतिज्ञा।

नीड़ छूटता जाता है क्यूँ
नन्हा सपना व्याकुल है क्यूँ
नही कहीं है उत्तर अब तक
सब कुछ छूटा जाता है क्यूँ।

झर झर बहते आंसू नैनों से
ढांढस उसे बंधाऊँ कैसे
पूछ रहा हूँ मैं खुद ही से
पलायन उसका रोकूँ कैसे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28मार्च, 2020

मां जब तू लोरी गाती थी...


जब तू लोरी गाती थी।                                                              
नींद मुझे तब आती थी
मा जब तू लोरी गाती थी।।

दूर देश तू गयी कभी न
पर तू सैर कराती थी
मीठे-मीठे प्यारे सपने
लोरी में भर गाती थी।
नींद मुझे तब आती थी
मां जब तू लोरी गाती थी।।

चंदा तारों की लोरी
मीठे सपनों की डोरी
परियों के देश पहुंचकर
नींद आती तब चोरी चोरी।

घुनघुना बजाती, बाल सहलाती
चूम-चूम माथे को पल पल
तू ही नींद बुलाती थी।
नींद मुझे तब आती थी
मां जब तू लोरी गाती थी।।

जब तक तेरी गोदी में मैं था
दुनिया की कोई खबर कहां थी
छूट गयी है गोदी जब से
रह रहकर टीस सताती है।
मां नींद मुझे तब आती थी
जब तू लोरी गाती थी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28मार्च, 2020





हंसों का जोड़ा

                  मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र
चित्र चिंतन-हंसों का जोड़ा।                              
दो हंसों का जोड़ा 
नैनों में यूँ समाया है
लगता है फुर्सत से जैसे 
ईश्वर ने बनाया है।।

नील गगन की छांव तले
खुली हवा के झोंकों में चहके
झूम-झूम अठखेलियाँ करते
सुरम्य दृश्य बनाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

रंग-बिरंगी, जगमग दुनिया
पर पल-पल रंग बदलती दुनिया
ऐसे मायावी जग में भी
सुघड़ श्वेत रंग पाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

पवित्र आत्मा, पवित्र है रिश्ता
पवित्र भाव है, पवित्र है दृढ़ता
अवसादों में भी संग-संग रह
दृष्टांत यही समझाया है।
दो हंसों का जोड़ा
नैनों में यूँ समाया है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27मार्च 2020

निर्झर

मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र

चित्र चिंतन-निर्झर।      
                                                     
झर झर झरता रहता निर्झर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

नील गगन की छांव में बहता
मौन शिखर के चरण में बहता
सद्य विहंगम दृश्य यह सुघर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

प्रशस्त पथ है मुक्त मुखर
प्राणों का स्वर भावों में भर
रजत सनात सौंदर्य है अमर
बिना रुके बहता है निर्झर।।

नही कोई अवरोध बड़ा है
जीवन की गति है ये निर्झर
इठलाती लहरें मिलती झीलों में
नही देखता पर पीछे मुड़कर।।

चलना है चलते रहना है
जीवन नही ठहरता पलभर
यही सीख बतलाता रहता
बिना रुके बहता है निर्झर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27मार्च 2020


हौसला रख तू ज़िन्दगी

हौसला रख तू ज़िन्दगी।                                                                
हौसला रख तू ज़िन्दगी
फिर सुबह मुस्कुराएगी
आज जो कैद है तू
तो कल फिर बाहर आएगी।

इक संकट ने निःशक्त किया 
तेरे अस्तित्व पर घात किया
रख तू हौसला प्रतिपल
इनसे ही जंग जीती जाएगी।
हौसला रख तू ज़िन्दगी
फिर सुबह मुस्कुराएगी।।

जो आज कैद है कमरों में
दूर कर अपने मन के अंधेरों को
इरादे जो  बुलंद रहेंगे तेरे
तो सपने सच होंगे सारे।

अंधेरी राहों में दीप जला
राहों को आसान बनाएगी
हौसला रख तू ज़िन्दगी
सुबह फिर मुस्कुराएगी।।

क्या निशा प्रभात को कभी रोक पाएगी
इतना कमजोर तो नही तू कि
विपदाएँ तेरे हौसलों को तोड़ पाएंगी
तुझमें जीतने की शक्ति है
उठ चल पड़ेगा जब तू
मंज़िल भी मिलेगी तुझको
मिलने का आनंद फिर आएगा।।

हौसला रख तू ज़िन्दगी
हौसलों से तू हर जंग जीत जाएगा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25मार्च 2020

नव संवत्सर

नव संवत्सर।                                                    
भोर की बेला यह पावन
सिंदूरी-सिंदूरी आंगन
अवनी से अंबर तक फैला
नूतन संवत्सर यह पावन।।

पूरब दिश से मधु किरणें आईं
मानस मन में खुशियां छाईं
सुरभित मन का कोना कोना
हर्षित प्रभात ले किरणें आईं।।

उपहारों से भरा हो प्रतिपल
देवों का आशीष हो प्रतिपल
मात-पिता के चरणों मे अर्पित
सुखद बनाएं जीवन प्रतिपल।।

शाख-शाख पर नवपुष्प खिल रहे
शीतल प्रभात उपहार बांट रहे
नदियों की कल कल धाराएं
निर्झर संग मिल गीत गा रहे।

पंछी के मंगल कलरव ने
आलस्य सारे दूर भगाया
स्फूर्ति चेतना भावों में भर
नवप्रभात लिए नव संवत्सर आया।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25मार्च 2020

मैं हिंदुस्तान हूँ




मैं हिंदुस्तान हूँ।   
                                             
मैं हिंदुस्तान हूँ
मैं तुलसी की चौपाई हूँ
मैं खय्याम की रुबाई हूँ
मैं कबीर का दोहा हूँ
मीर की ग़ज़ल हूँ मैं
मैं रसखान का छंद हूँ
मैं ही मीरा का भजन हूं
मैं वेद और पुराण हूँ
मैं बाइबिल और कुरान हूँ
मैं गीता का ज्ञान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं दीपावली का प्रकाश हूँ
मैं मुक्त आकाश हूँ
मैं होली की मस्ती हूँ
भाईचारे की बस्ती हूँ
मैं क्रिसमस की रौनक हूँ
मैं ईद का अजान हूँ
मैं अगणित त्यौहारों की खान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं काशी का घाट हूँ
चिश्ती की दरगाह हूँ
बुद्ध के उपदेशों का प्रकाश हूँ
मैं तीर्थराज प्रयाग हूँ
मैं ही नानक का जन्मस्थान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं हिमालय का प्रभाव हूँ
मैं गंगा का प्रवाह हूँ
मैं सागर सा विशाल हूँ
मैं नभ का प्रसार हूँ
शिक्षा संस्कृति का प्रसार हूँ
विविधता में एकता का भंडार हूँ
मैं नैतिकता का आह्वान हूँ
मैं हिंदुस्तान हूँ।।

मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हूँ
मैं प्रेम की स्वीकार्यता हूँ
मैं अपनेपन का एहसास हूँ
मैं सभी के दिलों के पास हूँ
मैं लोगों के दिलों में बसा प्यार हूँ
मैं सहनशीलता का प्रतिमान हूँ
जी हां मैं हिंदुस्तान हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

कसौटी

कसौटी                                                         

तिरस्कार मन विह्वल करता
अविश्वास मन विक्षत करता
ठहरेगा पर वही यहां
कसौटी पर जो खरा उतरता।

अगणित थापों को है सहता
तप करके ही सोना बनता
तब जाकर मानस मन की
कसौटी पर वह खरा उतरता।

शंका तो मानव स्वभाव है
पल-पल, प्रतिपल गहरा प्रभाव है
खरा उतरता वही कसौटी पर
जिसका प्रबल मनोबल है।

सत्य मार्ग माना दुष्कर है
पग-पग में अगणित कंटक हैं
पर अमूल्य निधि ये जीवन धन है
जो इस धन को धारण करता
वही कसौटी पर खरा उतरता।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19 मार्च 2020

भोर का स्वागत करो

भोर का स्वागत करो।            
                           
भोर की पहली किरण
जब धरा पर आयी
सिंदूरी रंग रँगी धरती
नव बेला मुस्काई।

पनघट पर पंछी चहके
नभ में लाली छाई
आलस्य के बादल छंटे 
तन मन में स्फूर्ति आयी।

शीतल-शीतल मंद पवन ने
जीवन की बगिया महकाई
बाग-बगीचे सब झूम उठे 
खेतों में फसलें लहराईं।

दूर शिवाला की ॐ ध्वनि
नव चेतना जगाती है
सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर 
एहसास यही दिलाती है।

नई सुबह है, नया जोश है
नवजीवन अलबेला है
त्याग शैथिल्यता स्वागत करो
ये नवप्रभात की बेला है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18 मार्च, 2020


जिंदगी कभी तो मुस्कुराएगी

जिंदगी कभी तो मुस्कुराएगी।                             
कल मैंने देखा उसको
गली के मोड़ से कुछ चुनते
आंखों में एक आस लिए
शायद कुछ सपनों को बीनते
देर से देखता रहा मैं उसको
अपनी ही उंगलियों पर कुछ गिनते।

जब नही रहा गया तो मैंने पूछा-
इस ढेर में तुम क्या चुनती हो
रह रहकर अपनी उंगलियों पर
तुम क्या गिनती हो।
बड़े ही भोलेपन से उसने कहा-
साहब मैं अपने दर्द को गिनती हूँ
भूख से तड़पते अपने मन को गिनती हूं।

मैंने कहा- पुनर्वास की कितनी ही योजनाएं बनी
क्या तुमने अभी तक कोई योजना नही सुनी,
सुनी तो बहुत मगर साहब
हमारी कौन सुनता है
यहां जाने कितने ऐसे लोग हैं
जो हमसे भी पहले अपने सपनों को गिनते हैं।
योजनाएं चाहे जो भी हों
पहले वो अपना हिस्सा ढूंढते हैं।
नीचे से ऊपर तक रोज़ हज़ारों वादे मिलते हैं
उन्हीं वादों के पैबन्दों से हम
अपने सपनों को सिलते हैं।

उसकी आँखों में व्यंग्य था 
और मेरी आंखों में शर्मिंदगी
सोचा कैसे कैसे रंग दिखाती है जिंदगी।
हम भी तो दो वक्त की रोटी
की जद्दोजहद में लगे रहते हैं
कभी खाना ज्यादा हो जाये 
तो उसे हम फेंकते हैं।
हम बासी नहीं खाते हैं
कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।
कभी नही सोचा कि कुछ लोग
इन्ही टुकड़ों में अपने सपनों को बीनते हैं।

वो कहते थे कि वे अध्यादेश लाएंगे
देश से गरीबी,कुपोषण व भुखमरी हटाएंगे
जल्द ही समाजवाद लाकर
आर्थिक असमानता को मिटायेंगे।
पर जब भी उन वादों की हकीकत को तोला है
हर बीतते वादों में पाया अगणित घोटाला है।

सालों साल हम घोटालों में जीते आये हैं
उनके चाहे-अनचाहे वादों की घुट्टी पीते आये हैं
इस उम्मीद में कभी तो सबकी जिंदगी जगमगाएगी
महलों की जगमग के साथ ही
दिए की एक रोशनी टिमटिमाएगी
उन गगनचुंबी अट्टालिकाओं के साथ ही
झोपड़ियों की झांकती दीवारों से ही सही
कभी वो जिंदगी भी मुस्कुराएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
15 मार्च 2020



कैसे चला पाओगे

कैसे चला पाओगे।     
                                     
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे
ज़िंदगी की राहों में
अगणित पड़ाव आते हैं
हर पड़ाव में कुछ सिमटा है
क्या सब समेट पाओगे
यदि समेट भी लिया तो
क्या संभाल पाओगे।
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

ज़िंदगी में बोझ उठाओ, बोझा नही
बोझ- जिम्मेदारियों का, 
बोझ-उत्तरदायित्वों का
बोझ-सांस्कारिक आत्मनिर्भरता का।
लोगों का क्या 
वो तो त्रुटियां ही निकालेंगे
लोगों की बातों में आये
तो कैसे जी पाओगे।
कितना बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

कल किसी के धोखे से 
घायल हो गए थे
किसी के अनदेखेपन से 
आहत हो गए थे
ये तो उनका ही आचरण है
फिर तुम क्यों पछताते हो
जब उन्हें रोकना तुम्हारे वश में नही
व्यर्थ ही अपना रक्त जलाते हो।
क्यों इसका बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।

सफल तो वो होते हैं
जो दर्द से परे 
पुनर्वास निकाल लाते हैं
मिलती चोटों के 
आप ही मलहम बन जाते हैं
उपहास व रोना उनका काम है
जो औरों को नीचा दिखाते हैं
जो तुम सन्मार्गी ठहरे तो
व्यर्थ, इन पर वक्त नहीं गँवाओगे।
क्यों लेते हो इतना बोझा 
कैसे चला पाओगे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

साथ नहीं छोड़ेंगे



साथ नहीं छोड़ेंगे

संग संग चलना है हमको
हम  साथ  नही  छोड़ेंगे
इक दूजे की छांव बने हैं
अब  छांह  नही  छोड़ेंगे।

आंधी  आये तूफां आये
कितनी ही बाधाएं आएं
पुनर्मिलन ये हो के रहेगा
कितनी ही विपदाएं आएं।

जन्मों जन्मों बाद मिले हैं
सांस-सांस में फूल खिले हैं 
उर से उर का संगम  है ये
एहसास  के  दीप जले हैं ।

तुमसे है अब श्वास का रिश्ता
जीवन भर विश्वास का रिश्ता
बंधन  ये अनमोल  है  अपना
उम्मीदों के विन्यास का रिश्ता।

आव कहीं हो या दुराव
हम विश्वास नही तोड़ेंगे
संग संग चलना है हमको
अब ये साथ नहीं छोड़ेंगे ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       


रंग दो कान्हा

रंग दो कान्हा                                                    
मोहे रंग दो कान्हा
अपने ही रंग में
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं
रम जाऊं तुझमें आज।।

जो रंग रंगी राधा रानी
जिसमें झूमी मीराबाई
जो रंग में कबीरा नाचा
नाचे खुसरो और रसखान।
मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया
डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।

तुम बिन है अब कौन सहारा
तुम ही करो उद्धार
कौन है आपन कौन पराया
तुम ही सबका आधार।
अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो
बन  जाऊं चैतन्य जैसा आज।।

मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब
रम जाऊं तुझमें आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


होली

होली                                                              
ग्रीष्म ऋतु की आहट हुई
शीत ऋतु का अवसान
होली की आहट हुई
रंगों में डूबा हिंदुस्तान।।

मन में कोई मैल न रहे
दिलों में कोई बैर न रहे
मिलो इक दूजे संग ऐसे
खत्म हो जाये सब अभिमान।।

उम्र की रफ्तार तेज ही रही
कर्तव्यों की धार तेज हो चली
इन सबमें सामंजस्य बिठाकर
स्थापित करो नया प्रतिमान।।

रंग, अबीर, गुलालों से
भींग रहा है हर घर आंगन
प्रेम-प्यार और समर्पण से
सराबोर है सब मानव तन।।

मन में कोई भेद न रहे
दिल को कोई खेद न रहे
अंतर्मन पावन हो जाये
संशय का अवशेष न रहे।।

लगा कपाल पर रंगों का चंदन
करो आज इक दूजे का वंदन
निकलो बन मस्तों की टोली
प्यार का प्रतीक है ये होली।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

प्रातः वंदन

           

  प्रातः वंदन।           
                             
उठो मनुज स्वागत करो
स्नेहिल, सुरभित प्रभात का
त्याग कर आलस्य सारे
प्रभात का स्वागत करो।

क्यूँ सो रहा है अभी तक 
स्वयं से साक्षात्कार कर
हो रही है नवीन भोर
इस भोर का स्वागत करो।

व्यतीत निशा अब हो गयी
तम की चादर हट चुकी
छोड़ कर प्रमाद सारे
हर्ष से स्वागत करो।

बन चुनौती खड़े रहो
प्रतिपल कराल काल के
बन के दीपक ज्ञान का
दिव्य ज्योति प्रसारित करो।

है पल ये शंखनाद का
धर्म राष्ट्र के प्रसार का
अपने शंखनाद से तुम
विदीर्ण व्योम को करो।

उठो हिमाद्रि गिरी श्रृंग से
है माँ भारती पुकारती
त्याग कर अज्ञान सारे
स्वदेश के लिए जियो
स्वदेश के लिए मारो।

त्याग कर आलस्य सारे
नव प्रभात का स्वागत करो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

बनो स्थिर, न बनो अधीर

बनो स्थिर अचर, न बनो अधीर।                     

दृष्टिगत होता जब हिमगिरि
प्रश्नों का अंबार मचलता
प्रकृति के अगणित झंझावत भी
क्यों कर सके न इसे अधीर।।

मन में भर उत्साह नियत नित
कौतूहल वश हृदय सत्य ढूंढता
यूँ तो है सिकुड़न धरा का
फिर भी न कभी होता अधीर।।

कितनी सरिताओं का उद्गम है
निर्झर-झीलों का संगम है
नित्य पवित्रता के भाव दर्शाता
नहीं कभी होता अधीर।।

है कितना कुछ अध्ययन को इससे
व्यर्थ भटकता मन संशय में
अटल-अविचल भाव सिखाता
बनो " अजय " स्थिर-अचर, न बनो अधीर।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



जरासंध वध

      जरासंध वध।                                        

मय दानव के सहयोग से
सभाभवन का निर्माण किया
शुभ मुहूर्त देख के तब
युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया।।

राजसूय यज्ञ की आवश्यकता
नारद श्री ने तब सलाह दिया
पर जरासंध है यज्ञ का बाधक
माधव ने तब संकेत किया।।

बड़ा क्रूर , निर्दयी है वो
उसने आतंक मचाया है
वीरों से अतिवीरों को
उसने बंदी बनाया है।।

राजसूय यदि करना है
तो खुद को तैयार करो
यज्ञभूमि जाने से पहले
जरासंध को परास्त करो।।

युद्ध विजय का उद्देश्य लिए
तब ब्राम्हण का वेश धरे
सहित अर्जुन-भीम के, माधव
जरासंध के दरबार गए।।

ब्राह्मण समझ करके उनको
जरासंध ने सत्कार किया
राजसूय यज्ञ की खातिर तब
भीम ने युद्ध के लिए ललकार दिया।।

कई बार अवसर वो आया
जब भीम ने उसे हराया था
चीर करके धड़ को उसके
उसे नर्क लोक पहुंचाया था।।

पर था ऐसा वरदान उसे
सशरीर पुनः वो जुड़ जाता
युद्ध विजय की हर कोशिश को
भीम के वो मिटा जाता।।

उन दोनों का युद्ध बड़ा था
सबके पसीने छूट गए
लड़ते-लड़ते दोनों को 
जब तेरह दिन बीत गए।।

किया इशारा तब माधव ने
ऐसे न उसे हरा पाओगे
चीर के अलग दिशा में धड़ को
जब फेंकोगे तब विजय पाओगे।।

दिन चौदहवाँ जब आया
तब जरासंध कुछ थका दिखा
चीर के धड़ को दो भागों में
भीम ने अलग दिशा में फेंक दिया।।

जरासंध की मृत्यु से हर्षित
तब सारा साम्राज्य हुआ
मुक्त हुए बंदी सब राजा
राजसूय का सम्मान किया।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें

कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें                                     

राह कब मुश्किल यहां
फासले न थम सकें
मिट जाएंगी दूरियां
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।।

व्यर्थ है सब जिद्द यहां
व्यर्थ आडंबर सभी
खोल कर दिल की जिरह
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें।।

नफरतों का दौर हो जब
प्रीत का गागर लिए
आओ किसी पनघट पर
कुछ तुम भरो, कुछ हम भरें।।

स्वार्थ सिद्धि के लिए
मुंह मोड़ करके न चलो
कर्तव्यनिष्ठ मार्ग है ये
कुछ तुम डटो, कुछ हम डटें।।

हताश न होना कभी
विश्वास न खोना कभी
रिश्ते ये अनमोल हैं
रिश्तों के खातिर यहां
कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

तारक बनो

      तारक बनो।                                          

शस्त्र हो या शास्त्र 
दोनों में पारंगत बनो
हो जब राष्ट्र की बात
राष्ट्रधर्म के वाहक बनो।।

है नही अस्तित्व हमारा
धर्म से विमुख होकर
धर्म रक्षा के लिए
धर्म के प्रचारक बनो।।

न भटको निज स्वार्थ में
प्रलोभनों में, अपराध में
ये राष्ट्र हमारी कर्मभूमि है
इसके तुम तारक बनो।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


गुल्लक

            गुल्लक                                            

जोड़ जोड़ कर लम्हे लम्हे
इक गुल्लक बनाया मैंने
छोटी छोटी सी खुशियों से
फिर इसको सजाया मैंने
सोचा फुर्सत मिलते ही खोलेंगे
अपने सब सपने जी लेंगे।

कितने ही पल गुजर गए
इस गुल्लक को बनाने में
कितने ही खुशनुमा पलों को
भुलाया मैंने इसे बनाने में।

एक दिन गुल्लक ने पूछा-
इतनी शिद्दत से मुझे बनाते हो
इस पल में क्यूँ नही
अपना जीवन सजाते हो

मैंने बोला- फुर्सत के पल में सोचेंगे
जब भी मुझको मिलेगा मौका
खुलकर के इसको जी लेंगे।
उसने बोला- ऐसे तो जाने
कितना वक्त गुजर जाएगा
और जो पल बीत गया है
वो लौट कहां फिर आएगा।

बीते पल दोबारा नही मिला करते
सिक्के हों या ज़िंदगी
जो इक बार छूट जाते हैं
फिर दोबारा नही चला करते।

इक दिन खाकर के ठोकर
वो गुल्लक फिर गिर गया
गिरकर न जाने कितने ही
टुकड़ों में वो बिखर गया।

बिखर के भी उसने सिखलाया
कड़वी सच्चाई से अवगत करवाया
जो कुछ है बस इस पल में है
न जाने किस ठोकर से
जीवन ये बिखर जाएगा
जिन खुशियों को बटोरा प्रतिपल
जाने कब वो बिछड़ जाएगा।
यही वक्त है खुल कर के जी लो हर पल
फिर जाने लौट के आये न आये ये पल।।

©️अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

मैं नारी हूँ

             मैं नारी हूँ।                                       

मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं अबला नही, नादान नहीं
मैं स्वाभिमान, खुद्दारी हूं।
मैं उपवन की क्यारी हूँ
मैं आंगन की फुलवारी हूँ।
मैं नारी हूँ , मैं नारी हूँ।।

मैं आसमान में उड़ती हूँ
मैं उन्मुक्त बहारें लिखती हूँ
फैलाकर अपनी बाहों को
मैं नील गगन में उड़ती हूँ।।

पुरुषों की दुनिया में मैंने
अपना मुकाम बनाया है
जिन कामों पर वर्चस्व था उनका
उनको करके दिखलाया है।।

स्वर्णिम था अतीत हमारा
भविष्य की उच्च अभिलाषी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं जननी हूँ, मैं पालक हूँ
मैं नवयुग की निर्माता हूँ
सब जन्मे हैं उर से मेरे
फिर भी कोख में मारी हूँ।।

कितने ही वज्रपात सहे मैंने
फिर भी नही मैं हारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

मैं वेदों की ऋचाओं में हूँ
मैं संस्कारों की प्रणेता हूँ
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे
मैं ही गीता, कुरान, गुरुवाणी हूँ

मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ
मैं नारी हूँ, मैं नारी हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

            हैदराबाद

मां तू याद बहुत आती है

 माँ तू याद बहुत आती है                     

अरे उठता हूँ, क्यों परेशान करती हो
आज तो छुट्टी है, फिर भी हैरान करती हो
एक दिन आराम का मिलता है
न खुद आराम करती हो, न करने देती हो
इसी उधेड़बुन में पड़ा था, कि अलार्म घनघनाया
सुबह के नौ बज चुके थे, सूरज सर चढ़ चुका था
बड़ी अजीब स्थिति है दोस्तों
पहले मां की मखमली छुअन हमें जगाती थी
अब शहर का शोर हमें जगाता है।
यूँ तो शहर की चारदीवारी तेरी गोद से भी बड़ी है
पर जाने क्यूँ जब भी शहर का खालीपन डराता है
सच कहता हूँ- माँ तब तुम याद बहुत आती हो।।

तू जल्दी से तैयार हो जा
वरना तुझे देर हो जाएगी
अभी तक यूँ ही पड़ा है
जल्दी से मुंह हाथ धो ले
मैं नाश्ता लाती हूँ।
अच्छा तू अपना काम कर
मैं ही तुझे नाश्ता कराती हूँ
कितना भी रोकूँ तुझे
पर तू कहां मानती थी
अपने ही हाथों से हर रोज़ 
निवाला खिलाती थी
अब तो सबकुछ है मेरे पास 
पर भूख नही जाती है
देखकर रसोई का सूनापन
सच कहता हूं- माँ तू याद बहुत आती है।।

मेरी हर छोटी बड़ी गलतियों पर
तू आंख दिखाती थी
आने दे तेरे पिताजी को, कहकर धमकाती थी
जब भी पिताजी डांटते थे, 
तू सामने आ जाती थी
ज्यादा बोलें तो उन्हें भी तू आंख दिखाती थी
यदि मार मुझे पड़ती तो आंसू तू भी तो बहाती थी
कोई देख न ले, आँचल में अपना मुंह छुपाती थी
पर अब तो रोज़ ही जाने कितनी बातें सुनता हूँ
सवाल ये नही के इनसे परेशान होता हूँ 
सुन सुन कर बातें सबकी हैरान होता हूँ
पर मां खुदगर्जी में दुनिया जब भी रुलाती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

होली में ज्यादा रंग न लगाना
अपनी आंख रंगों से बचना
दिवाली में पटाखे जरा दूर से ही बजाना
अभी तक नए कपड़े नही पहने
अरे शाम हो गयी दिया कौन जलाएगा
है राम इस नालायक को कब अक्ल आएगी
कब तक बच्चा बनकर रहेगा
तू कुछ समझता क्यूँ नही
मां मैं आज भी बच्चा बनना चाहता हूँ
पर जब कभी दुनिया समझदार बताती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

वो गर्मी की धूप में कमरे में बंद कर देना
जाड़े की सर्दी न लगे रजाई में दुबका लेना
फिर बारिश में भींग कर आया है
तुझे सर्दी लग जाएगी
तुरन्त तौलिए से सर सुखाती थी
तुझे कब समझ आएगी।
अब तो रोज़ ही सर्दी, गर्मी, बारिश झेलता हूँ
मौसम के हर पहलू से खेलता हूँ
इनसे बचने को सारे साधन पास हैं
माँ अब तो एसी में रहता हूँ
मखमली बिस्तर पर ही सोता हूँ
पर अब भी गर्मी की वो धूप
बरसात की वो बूंदें
और जाड़े की वो सर्दी जब भी सताती है
सच कहता हूँ- माँ तू मुझे याद बहुत आती है।।

पहले जब भी ठोकर खाकर गिर जाता था
तुम दौड़कर मुझे उठाती थी
पर अब तो रोज़ ही 
जाने कितनी ठोकरें खाता हूं
पर अब कोई नही उठाता है
जब भी उन ठोकरों से आत्मा कराहती है
सच कहता हूँ- माँ तू याद बहुत आती है।।

बहुत बेफिक्र रहता था मैं
जब तू पास रहती थी
सारी हैरानी- परेशानी हमेशा दूर रहती थी
जब भी डर लगता था, तेरे गले लग जाता था
ऐसा नही के अब डर नही लगता है
ऐसा भी नही के अब डर से निकल नही पाता हूँ
पर सच तो ये है माँ, तेरा वो आँचल नही मिलता
अब बालों में हाथ फिराकर कोई ढांढस नही बंधाता।
लेकिन फिर भी जब अपनों से उपेक्षित होता हूँ
उनके कटुवचनों के बोझ को सहता हूँ
तब जाने क्यूँ इक सिहरन सी आती है
सच कहता हूँ- माँ तब तू याद बहुत आती है।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद




कहां रुकेंगे पांव ये मेरे

          कहां रुकेंगे पांव ये मेरे।                                          

इक जिद्द है खुद को पाने की
इक जिद्द है खुद को समझाने की
जिस जिद्द की खातिर जिद्द को पाला
जाने कब उसने जिद्दी बना डाला।

निकल पड़ा उस जिद्द की खातिर
तोड़ के आडंबर बहुतेरे
न जाने कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

हौसलों को फौलाद बनाया
हर पाबंदी को परे हटाया
उम्मीदों का सागर लेकर
चल रहे हैं अविरल पथ पर।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सपनों को पहचान दिलाने
मंज़िल को अपना पता बताने
इक जिद्द है सीमाओं से आगे
खुद की खातिर राह बनाने।

निकल पड़ा हूँ अपनी ही धुन में
चाहे हों कितने ही फेरे
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सूरज छू पाऊं ये चाह नही
चंदा तक जाऊं चाह नही
बस आगे बढ़ने की जिद्द है
छोड़ हार जीत के फेरे।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



एलबम ज़िंदगी

     एलबम ज़िंदगी                                       

एलबम के किसी कोने में
मुस्कुराती है जिंदगी,
कभी खुशियों, कभी गमों
के पलों को सजाती है जिंदगी।

पन्ने पन्ने जोड़कर
इक किताब बनाती है
यादों की पोटली से
निकाल बीती फिर सजाती है।

अतीत के उन पलों को
इक मुकाम दिलाती है, ज़िंदगी,
एलबम के किसी कोने में
मुस्कुराती है जिंदगी।।

इच्छाओं के भींगे चाबुक खाकर
सबको बांधने की कोशिश करती है
टूटती है, गिरती है, संभलती है
फिर उसी राह चल पड़ती है।

कभी रंग-बिरंगे, कभी श्वेत-श्याम
पन्नों पे उकेरी जाती है जिंदगी,
एलबम के किसी कोने में
हर पल मुस्कुराती है जिंदगी।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

अब जग गया हूँ

             अब जग गया हूँ                                               

चलते चलते लगता है 
कि जैसे मैं थक गया हूँ
दुनियादारी के बोझ तले
शायद दब गया हूँ।

झुलसने लगे हैं
अब कानों के पर्दे भी
सुनकर सारे प्रलाप
अब पक गया हूँ।

सीख यही मिली मुझको
जमाने की ठोकरों से
राह कैसी भी हो मगर
अब सँभल कर चल रहा हूँ।

झुलसाया है इतना
वक्त के थपेड़ों ने
नींद से उठकर के
अब जग गया हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

दर्द से परे पुनर्वास

दर्द से परे पुनर्वास।                                      

मैंने दर्द के दर्द से इतना कहा
तेरे दर्द से अब दर्द नही होता

तू दर्द तभी देगा मुझे जब
तुझे दर्द देने की इजाज़त दूंगा।

वादा है, कोशिश करे कितना भी वो
मगर अब उसे दर्द की इजाजत नही दूंगा।

वो जब भी आएगा, दरवाजा खटखटाएगा
खाली हाथ वहां से लौट जायेगा।

वो कितना भी कठोर क्यों न हो
मैं दर्द से दर्द देने का अधिकार छीनता हूँ।

कर्मपथ पर कितनी भी बाधाएं आये
पार कर उन्हें अपना मार्ग खुद चुनता हूँ।

अब किसी भी दर्द का भय नही मुझको
अब दर्द से परे, पुनर्वास खुद लिखता हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

मौलिक भारत का आह्वान

मौलिक भारत का आह्वान                                                                          


ऐसा क्यों लगता है मुझको
मौलिक भारत छूट रहा
अभिव्यक्ति के नाम मानो
खण्ड खण्ड ये टूट रहा।

ये कैसी आज़ादी है
ये कैसा व्यवहार है
भारत के टुकड़े चाहने वालों
के कैसे पहरेदार हैं।।

भ्रष्ट हो चुकी आज व्यवस्था
कुंद पड़ी सरकार है
भारत को गाली देने वाले की
कैसी जय जयकार है।

मत भूलो एक जयचंद ने
कैसे भारत बर्बाद किया
मगर आज तो भारत में
जयचंदों की भरमार है।।

बहुत सुन चुके इनकी बातें
अब इनका प्रतिकार करो
गली मोहल्लों से चुन चुनकर
अब इनका संहार करो।।

कैसे कैसे लोग पड़े हैं
सत्ता के गलियारों में
गिरगिट जैसे रंग बदल रहे हैं
सत्ता के गलियारों में।

कुर्सी से चिपके रहने को
ये इतने बेताब हैं
गिरवी रखने को अपना
ज़मीर तक तैयार हैं।।

कितना अंतर आ चुका है
अब इनके व्यवहारों में
जैसे शकुनि चाल चल रहा हो
सत्ता के गलियारों में।

बंट रहा है अखण्ड भारत
अब जाति धर्म के नारों में
एकलव्य फिर ठगा जा रहा 
सत्ता के गलियारों में।।

कितने सपने चूर हो रहे
इनके झूठे वादों से
पर ये अलसाये पड़े हुए हैं
सत्ता के गलियारों में।।।

मज़लूमों का हमदर्द नही है
सत्ता के गलियारों में
सबके अपने स्वार्थ सधे हैं
सत्ता के गलियारों में।।

मेरा भी मन करता है
झूमूं, नाचूं, गाऊं में
अभिव्यक्ति की तथाकथित
आज़ादी वाले गीत सुनाऊं मैं।

पर क्या करूं मैं राणा प्रताप
शिवाजी का अनुयायी हूँ
शकुनि, जयचंदों जैसी
भाषा खुद में कहां से लाऊं मैं।।

में दर्पण टांगे फिरता हूँ
उनको कहां से भाऊंगा
उनके जैसी कुटिल भावना 
खुद में कहां से लाऊंगा।

जनता अब ये पूछ रही है
सत्ता के गलियारों से
कब तक सीना छलनी होगा
गद्दारों के वारों से।

हम गीता के अनुयायी हैं
पहला वार नहीं करते
पर जो भी मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

हमसफ़र

हमसफ़र                                                     

तुम बने जो हमसफ़र तो
रास्ता मुझे मिल गया
मंज़िलें क्या कारवां क्या
जग हमारा हो गया।

चाहे ओझल चन्द्रमा हो
कोई न तारक आज हो
कालिमा ही कालिमा हो
नीरवता का राज हो।

हाथ में जब हाथ तेरा
फिक्र की क्या बात है
ऐसे आलम में
अँधेरा भी सवेरा हो गया।

तुम बने जो हमसफ़र तो
रास्ता मुझे मिल गया।।

है यही चाहत मेरी
के हर पल में तेरा साथ हो
हो खुशी या ग़म हो कोई
बस ज़िंदगी की बात हो।

देख कर धड़के जिसे दिल
वो हमदम मेरा हमराज़ हो
ज़िंदगी का हर अधूरा
अब ख्वाब पूरा हो गया।

तुम बने जो हमसफ़र तो 
मैं भी पूरा हो गया।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

बेटी की विदाई


बेटी की विदाई।               

अश्रुपूरित नैनों से जिस पल
मैंने उसे विदा किया
क्षणभर को लगा मुझे यूँ
मेरा सबकुछ चला गया।

खुशियां घर की चली गयी 
घर का उत्सव चला गया 
कोयल की कुह  कुह  चली गयी 
बगिया का कलरव चला गया| 

पर ये प्रथा है बेटी 
जो मैंने आज निभाई है 
तू मुझसे कब अलग हुई है 
तू तो इस हृदयतल में समाई है | 

जब तेरे नन्हे हाथों ने 
ऊँगली मेरी थामी थी 
मरुधर से मेरे जीवन में 
उम्मीद नई इक जागी थी | 

तेरे उन नंन्हे क़दमों ने 
जब घर का कोना नापा था 
तेरे हर पदचिन्हों को हमने 
नैनों में अपने छापा था | 

जब तेरे तुतलाते बोलों ने 
नया व्याकरण गाया था 
अधरों पे मुस्कान लिए 
खुशियों का मौसम आया था | 

तेरी पायल की रुनझुन ने 
जब घर आंगन खनकाया था 
मन हर्षित हो झूम गया था 
सौभाग्य मेरा इतराया था |
बालपन से अब तक का जीवन 
चलचित्र की मानिंद घूम गया 
क्षणभर को लगा मुझे यूँ 
मेरा सबकुछ चला गया | 

पर मानस की  रीति यही है 
जो हमको भी अपनाना है 
तेरे जीवन की बगिया को 
खुशियों से महकाना है | 

महके जीवन तेरा हर पल 
खुशियों से दामन भरा रहे 
जीवन के हर पथ पर बेटी 
सौभाग्य तुम्हारा बना रहे || 

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
14फरवरी, 2020

ज़िंदगी-एक पहेली

ज़िंदगी - एक पहेली                                                                                    

ज़िंदगी 
एक अबूझ पहेली की तरह है 
कभी लगता है- यह नाम है 
रफ़्तार का,जोश का,उम्मीद का 
वक्त के साथ साथ चलने का 
मंज़िल दर मंज़िल आगे बढ़ना का | 

कभी लगता है - यह नाम है 
मुश्किलों का, कठिनायों का 
लड़ने का, जूझने का
खुद से, औरों से, समाज से 
कभी लगता है-
यह काँटों भरी है 
तो अगले ही पल फूल सी लगती है 
यह ज़िंदगी || 

कभी लगता है 
यह एक बोझ है 
हम जिसे ढोने को मजबूर हैं 
 अगले ही पल-फूल सी लगती है 
कभी अजनबी सी लगती है 
कभी अपनी सी 
यह ज़िंदगी || 

मौत तो सत्य है, अटल है 
पर यह एक मृगमरीचिका है 
हम जिसके पीछे भागते हैं 
जितना सुलझाने की कोशिश करो 
उतनी ही उलझती जाती है 
क्या है - पल-पल रंग बदलती 
यह ज़िंदगी ? 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

मौत

मौत                                                                                                            

मौत 
एक ठहराव है 
ज़िंदगी का 
उम्र की कठिनाइयों से 
जब थक हार जाते हैं 
लड़ने की इच्छा शक्ति 
समाप्त हो जाती है 
जब सारे आडंबर दूर हो जाते हैं 
माया रुपी बदल जब छंट जाते हैं 
तब साक्षात्कार होता है,
एक सत्य का - मौत का | 

यह एक सत्य है, कटु सत्य 
जानते हैं, पर मानते नहीं,
मिलना है,इससे 
मुझे,तुम्हें,हर किसी को 
स्वीकारना चाहते नहीं 
जितनी रफ़्तार से इससे दूर भागते हैं 
दूनी रफ़्तार से इसे अपने नजदीक पाते हैं| 

हम डरते हैं- मौत से 
मौत तो सत्य है 
अटल है 
डरने की चीज तो ज़िंदगी है 
जो हर कदम बांहे फैलाये 
अपनी आगोश में लेने को बेताब है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

अभिव्यक्ति की आज़ादी

अभिव्यक्ति की आज़ादी                                                                                   

माना अभिव्यक्ति की आज़ादी है 
जैसा चाहो वैसा बोलो 
पर ध्यान रहे इतना दिल में 
जब भी बोलो तोल मोल कर बोलो | 

दिल की साड़ी बातें बोलो 
पर शब्दों की तीक्ष्णता से 
शांत फ़िज़ा में ज़हर न घोलो 
जब भी बोलो तोल मोल कर बोलो | 

कल चौराहे पर महफ़िल देखी 
बात चल रही रही थी अभिव्यक्ति की 
गाली से संवाद पटा था 
देशद्रोह के नारों से 
शर्मिंदा आकाश हुआ था | 

अभिव्यक्ति का  मतलब - क्या 
 देशद्रोह  के नारे हैं 
ऐसे नारे देने वाले- क्यों 
कुछ नेताओं के प्यारे हैं | 

ऐसे नारों के कारण 
मेरा दिल भी भी दुःखता है 
कोई कितना प्रलाप करे  
ये तीर जिगर में चुभता है | 

क्या लगता है वो आतंकी 
गीत तुम जिसका गाते हो 
क्यों करते हो छेड़ वहां 
तुम जिस थाली में खाते हो | 

पाक परस्ती इतनी प्यारी 
के भारत को भूल गए 
जिस कोख ने जन्मा तुमको 
उसी कोख को भूल गए | 

आज़ादी का मतलब क्या 
भारत को खंडित करना है 
या आज़ादी  के नाम पे बोलो 
आतंकी को महिमामंडित करना है | 

पत्थरबाजों के साथ खड़े हो 
क्यों स्तर अपना गिराते हो 
इसी माटी ने पहचान तुम्हें दी 
क्यों इसको भूल जाते हो  | 

आज़ादी का असली मतलब 
वीर सुभास ने जाना था 
असली आज़ादी क्या होती है 
"आज़ाद " जी ने पहचाना था | 

जिसकी खातिर राणा प्रताप जी ने 
घास की रोटी खाई थी 
जिसके लिए लक्ष्मीबाई, मंगलपांडे जी ने 
अपना सब कुछ त्याग दिया | 

जिस आज़ादी की खातिर  
भगत सिंह जी ने बलिदान दिया 
उस आज़ादी के नारों का 
क्यों तुमने अपमान किया? 

भूल गए उस माटी को 
जिसने तुमको सम्मान दिया 
ऐसे नारों के वाहक को 
अब आज सीखना है 
अभिव्यक्ति की असली आज़ादी से 
उनका परिचय करवाना है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

संवाद नही करते

संवाद नहीं करते                                                                                               

मुल्क हमारा घिरा हुआ 
है अगणित तूफानों से 
सेहत इसकी बिगड़ रही 
है अवसरवादी अवसादों से | 

अभी न चेते आज अगर 
तो फिर आगे पछताना होगा 
कोई कितना भी दंभ भरे 
भारत को मोल चुकाना होगा | 

जब लोकतंत्र के  वाहक ही 
जातिवाद की बात करें 
जब भ्रष्टाचारी हावी होकर 
जनतंत्र का नाश करें | 

जब सत्ता की चौखट पर 
अवसरवादी उपवास करें 
जब मिथ्यावादी खुलेआम 
सत्यकाम का उपहास करें| 

ऐसे में तुम्ही कहो 
मैं कैसे चुप चाप रहूँ 
कलम को कैसे गिरवी रख दूँ 
मैं कैसे चुपचाप सहूँ | 

मैं दिनकर और निराला जी 
की पीढ़ी का वाहक हूँ   
मैं भारत की मूल आत्मा 
राष्ट्र धर्म का ध्वज धारक हूँ|   

पर मुझको ये जातिवाद 
अवसरवाद डराता है 
गली गली में उठने वाला 
राष्ट्रद्रोह तड़पाता है | 

 भारत मान का  दिल रोता है 
देख के इन करतूतों को 
नफरत होने लगती है 
देख के इन कपूतों को | 

मैं ऐलान यहां करता हूँ 
भारत  के गद्दारों से 
कान खोल सुन लें जयचंद सारे 
जो छुपे हुए हैं 
 सत्ता के गलियारों में | 

हम अहिंसा के अनुयायी हैं 
हिंसा की बात नहीं करते 
पर जब भारत माँ का 
सीना छलनी हो 
तब संवाद नहीं करते || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 


तेरा ही आँचल पाऊं

तेरा ही आँचल पाऊं                                                                                          

ओस की इक बूँद था मैं 
इसे मोती बनाया  तुमने 
नदी की इक उच्छृंखल धरा था मैं 
इसे सलीके से बहना सिखाया तुमने| 

इक नादान परिंदा था मैं 
मुझे उड़ना सिखाया तुमने 
शब्द तो बहुत मिले जीवन में 
उन्हें सूत्र में पिरोना सिखाया तुमने| 

ये मेरे पूर्व जन्मों का पुण्य है 
जो तुम्हारा आँचल मिला है मुझको 
यही प्रार्थना है ईश्वर से 
मैं जब भी दुनिया में आऊं 
हे मात-पिता मेरे 
मैं तेरा ही आँचल पाऊं || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद 

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...