हाहाकार


हाहाकार।   


हाहाकार मचा जन जन में
व्याकुलता मची त्रिभुवन में
तृषावन्त सब कैद पड़े हैं
कैसा पल आया जीवन में।

उर में प्रतिपल हुक सी उठती
इन नैनों में भूख सी उठती
यूँ पायोनिधि के पास खड़े हैं
फिर अतृप्ति भाव क्यूँ जगती।

मनुज स्वार्थ का खेल है सारा
दिग्भ्रमित भाव का दोष है सारा
प्रकृति से खिलवाड़ हुआ जब
कंपन आया भूतल में तब तब।

घायल विह्वल भटक रही सभ्यता
गर्दभ व्यवहार भुगत रही सभ्यता
किन किन पर आक्षेप लगाएं
स्वार्थ में अंधी बनी सभ्यता ।

चूस रहे हैं रक्त मनुज के
विश्व विजय की भ्रांति समेटे
अज्ञानी तृष्णा में पड़कर
ग्रीवा में अगणित विषदंत लपेटे।

हटो, व्योम से क्षोभ हटाओ
विश्व विजय का लोभ हटाओ
निरपराध नन्हें देवों के रक्षण को
स्वार्थ चित्त का मोह हटाओ।

जय जयकार करो मानवता की 
धरती, अंबर, गिरिराज, जलधि की
हो पंथ सुरक्षित सब जीवों का
हो सफल मनोरथ मानवता का।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08अप्रैल, 2020

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