वनवास।
विरह व्यथा से हो द्रवित
भोग रहे वनवास
अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।
पग-पग पर रजनीचर घूम रहे
अकुलीन भावों में झूम रहे
इन अमानुषिक भावों का
करें आज अवसान।
गली मुहल्ले सूने पड़े हैं
बाग बगीचे सूने पड़े हैं
हर आंखें आशंकित लगतीं
टूट रहा विश्वास।
अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।।
कुत्सित भावों का तिमिर घना है
रावण अब तक मरा कहां है
लक्ष्मण रेखा सब पर खींचो
हो अपनी परिधि का एहसास।
आओ मिलकर सेतु बनाएं
कर्तव्यों का एहसास जगाएं
सत्य धर्म की हो विजय सुनिश्चित
हो धर्म का वास।
आओ दूर करें वनवास
आओ दूर करें वनवास।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06अप्रैल,2020
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें