कहां रुकेंगे पांव ये मेरे

          कहां रुकेंगे पांव ये मेरे।                                          

इक जिद्द है खुद को पाने की
इक जिद्द है खुद को समझाने की
जिस जिद्द की खातिर जिद्द को पाला
जाने कब उसने जिद्दी बना डाला।

निकल पड़ा उस जिद्द की खातिर
तोड़ के आडंबर बहुतेरे
न जाने कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

हौसलों को फौलाद बनाया
हर पाबंदी को परे हटाया
उम्मीदों का सागर लेकर
चल रहे हैं अविरल पथ पर।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सपनों को पहचान दिलाने
मंज़िल को अपना पता बताने
इक जिद्द है सीमाओं से आगे
खुद की खातिर राह बनाने।

निकल पड़ा हूँ अपनी ही धुन में
चाहे हों कितने ही फेरे
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

सूरज छू पाऊं ये चाह नही
चंदा तक जाऊं चाह नही
बस आगे बढ़ने की जिद्द है
छोड़ हार जीत के फेरे।
न जाने अब कहाँ रुकेंगे
चलते चलते पांव ये मेरे।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद



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