चित्र चिंतन- नग्न प्रदर्शन
नग्न प्रदर्शन, खून खराबा
कहीं शोर गुल कहीं सियापा
भय का अप्रत्याशित परिप्रेक्ष्य बड़ा है
डरा सहमा वो किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है।।
हर कोई कोशिश कर रहा
खुद बचने को काठ हो रहा
नीति-अनीति के उहापोह से परे
अंतर्द्वंद्व से दो चार हो रहा।।
इक सनक भाव धारणा बदल रही
पथभृष्ट विचारों से पहचान खो रही
ध्वस्त हो रहे हैं मानक सारे
विश्वासों से आघात हो रहा।।
जनमत को तब कौन पूछता
सत्ता की जब धाक बड़ी हो
बर्बादी की परवाह कहां तब
जब केवल बकवास हो रहा।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
31मार्च, 2020
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