प्राकृतिक त्रासदी

             प्राकृतिक त्रासदी

कैसी त्रासदी कैसा कहर है
मौन दिशाएं मौन पहर है
बंद हैं खिड़की, बंद दरवाजे
इक दूजे की किसे खबर है।

हर कोई बेजार हो रहा
लड़ने को तैयार हो रहा
इनको कैसे क्या समझाएं
मातृ हृदय सतत रो रहा।

कहीं हैं भूखे कहीं है प्यासा
कैसे दिलाएं उन्हें दिलासा
सपनों की जो गठरी बांधी
टूट कर तार तार हो रहा।

दिल बैठा जाता है उनके इस हाल पे
हुई ख़ता क्या आज हम इंसान से।।

रोकूँ कैसे जो बढ़े कदम हैं
अनजाने हो रहे सितम हैं
जिधर भी देखो मची है भगदड़
व्याकुल विह्वल असहाय हुआ है।

किस पत्रग ने डँसा चमन को
क्या हुआ है चैनो अमन को
जिधर भी देखो जीवन रुद्ध है
भाव शून्य चेतना अवरुद्ध है।

सामने सब कुछ टूटा जा रहा
मन ही मन में घुटा जा रहा
क्या हो गया है आज शहर को
किसने घोला इसमें ज़हर को।

हो करके मजबूर हम इसको जी रहे
घूंट घूंट कर के ज़हर को पी रहे।।

प्रकृति ने उपहार दिया है
लोभ मन ने घात किया है
काट दिए हैं जंगल सारे
बेघर हुए पशु पक्षी बिचारे।

रो रही है धरती सारी
व्याकुल हैं सारे नर नारी
शुद्ध हवा के लिए तरसते
बादल बदले नैन बरसते।

प्रकृति का ये दर्द बड़ा है
मानव पर भी कष्ट बढ़ा है
गर अब भी न हम संभलेंगे
कैसे इस मुश्किल से लड़ेंगे।

जो किया देर तो फिर हम सब पछतायेंगे
प्रकृति के इस कहर से कैसे बच पाएंगे।।

भूकंप, बाढ़, सूखा व सुनामी
करेगा तब प्रकृति मनमानी
आओ सब मिल जुल कर सोचें
प्रकृति का संरक्षण सोचें।

नदी झील जंगल सारे
हम सबका जीवन सँवारे
बिन इनके जीना मुश्किल है
मानवता है इनके सहारे।

आओ फिर मिल जाएं सारे
मिल जुल कर उपाय विचारें
प्रकृति क्षरण जो रोक पाएंगे
तभी त्रासदी से बच पाएंगे।

फिर देर नही करना अपने व्यवहार का
वरना कारण बन जायँगे अपने संहार का।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2020

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