कल मैंने देखा उसको
गली के मोड़ से कुछ चुनते
आंखों में एक आस लिए
शायद कुछ सपनों को बीनते
देर से देखता रहा मैं उसको
अपनी ही उंगलियों पर कुछ गिनते।
जब नही रहा गया तो मैंने पूछा-
इस ढेर में तुम क्या चुनती हो
रह रहकर अपनी उंगलियों पर
तुम क्या गिनती हो।
बड़े ही भोलेपन से उसने कहा-
साहब मैं अपने दर्द को गिनती हूँ
भूख से तड़पते अपने मन को गिनती हूं।
मैंने कहा- पुनर्वास की कितनी ही योजनाएं बनी
क्या तुमने अभी तक कोई योजना नही सुनी,
सुनी तो बहुत मगर साहब
हमारी कौन सुनता है
यहां जाने कितने ऐसे लोग हैं
जो हमसे भी पहले अपने सपनों को गिनते हैं।
योजनाएं चाहे जो भी हों
पहले वो अपना हिस्सा ढूंढते हैं।
नीचे से ऊपर तक रोज़ हज़ारों वादे मिलते हैं
उन्हीं वादों के पैबन्दों से हम
अपने सपनों को सिलते हैं।
उसकी आँखों में व्यंग्य था
और मेरी आंखों में शर्मिंदगी
सोचा कैसे कैसे रंग दिखाती है जिंदगी।
हम भी तो दो वक्त की रोटी
की जद्दोजहद में लगे रहते हैं
कभी खाना ज्यादा हो जाये
तो उसे हम फेंकते हैं।
हम बासी नहीं खाते हैं
कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं।
कभी नही सोचा कि कुछ लोग
इन्ही टुकड़ों में अपने सपनों को बीनते हैं।
वो कहते थे कि वे अध्यादेश लाएंगे
देश से गरीबी,कुपोषण व भुखमरी हटाएंगे
जल्द ही समाजवाद लाकर
आर्थिक असमानता को मिटायेंगे।
पर जब भी उन वादों की हकीकत को तोला है
हर बीतते वादों में पाया अगणित घोटाला है।
सालों साल हम घोटालों में जीते आये हैं
उनके चाहे-अनचाहे वादों की घुट्टी पीते आये हैं
इस उम्मीद में कभी तो सबकी जिंदगी जगमगाएगी
महलों की जगमग के साथ ही
दिए की एक रोशनी टिमटिमाएगी
उन गगनचुंबी अट्टालिकाओं के साथ ही
झोपड़ियों की झांकती दीवारों से ही सही
कभी वो जिंदगी भी मुस्कुराएगी।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
15 मार्च 2020
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