मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र।
मधुर सांध्य।
मधुर भाव दे गोधूलि बेला में
दिनकर जाकर अस्त हो रहा
शीतल पवन हिलोरों से
जीवन भी मदमस्त हो रहा।
जब कोकिल की मीठी बोली
श्यामल अंबर को चहकाती है
जब ताप भी अपना तेज त्याग कर
शीतल, शिथिल, सुशील हो रहा।
फिर विचलन नैनों में भरकर
क्यों कर भ्रांतचित्त हो रहे
नीर से बोझिल इन नैनों से
विह्वल, व्याकुल, विक्षिप्त हो रहे।
किस अतीत की व्याकुलता ने
मन को है आघात दिया
किस व्याकुलता ने झंकृत कर
नैनों को संताप दिया।
शोक व्यर्थ होता है तब
जब बोध चूक का करा सको
सूने नभ की नीरवता में
दीप ज्ञान का जला सको।
पर रोगग्रस्त मूढ़ चित्त का
शोक व्यर्थ क्यूँ करते हो
अपने हृदय की शीतलता को
वेदना से छलनी क्यूँ करते हो।
मत उलझो स्मृति के टूटे तारों में
नीरवता के सूने व्यवहारों में
सांध्य भी उदास कहां रह पाती है
खेलने उससे रश्मि प्रकाश की आती है।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल,2020
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