बनो स्थिर अचर, न बनो अधीर।
दृष्टिगत होता जब हिमगिरि
प्रश्नों का अंबार मचलता
प्रकृति के अगणित झंझावत भी
क्यों कर सके न इसे अधीर।।
मन में भर उत्साह नियत नित
कौतूहल वश हृदय सत्य ढूंढता
यूँ तो है सिकुड़न धरा का
फिर भी न कभी होता अधीर।।
कितनी सरिताओं का उद्गम है
निर्झर-झीलों का संगम है
नित्य पवित्रता के भाव दर्शाता
नहीं कभी होता अधीर।।
है कितना कुछ अध्ययन को इससे
व्यर्थ भटकता मन संशय में
अटल-अविचल भाव सिखाता
बनो " अजय " स्थिर-अचर, न बनो अधीर।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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