कैसे चला पाओगे।
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे
ज़िंदगी की राहों में
अगणित पड़ाव आते हैं
हर पड़ाव में कुछ सिमटा है
क्या सब समेट पाओगे
यदि समेट भी लिया तो
क्या संभाल पाओगे।
कितना बोझ लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
ज़िंदगी में बोझ उठाओ, बोझा नही
बोझ- जिम्मेदारियों का,
बोझ-उत्तरदायित्वों का
बोझ-सांस्कारिक आत्मनिर्भरता का।
लोगों का क्या
वो तो त्रुटियां ही निकालेंगे
लोगों की बातों में आये
तो कैसे जी पाओगे।
कितना बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
कल किसी के धोखे से
घायल हो गए थे
किसी के अनदेखेपन से
आहत हो गए थे
ये तो उनका ही आचरण है
फिर तुम क्यों पछताते हो
जब उन्हें रोकना तुम्हारे वश में नही
व्यर्थ ही अपना रक्त जलाते हो।
क्यों इसका बोझा लेते हो
कैसे चला पाओगे।।
सफल तो वो होते हैं
जो दर्द से परे
पुनर्वास निकाल लाते हैं
मिलती चोटों के
आप ही मलहम बन जाते हैं
उपहास व रोना उनका काम है
जो औरों को नीचा दिखाते हैं
जो तुम सन्मार्गी ठहरे तो
व्यर्थ, इन पर वक्त नहीं गँवाओगे।
क्यों लेते हो इतना बोझा
कैसे चला पाओगे।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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