रेल हमारी

रेल हमारी

नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

ले छोटी सी आशा मन में,
मुस्कानों को ओढ़ लिया है।
जंगल झाड़ी और सुरंगें,
पर्वत रस्ते मोड़ लिया है।

छुक-छुक करती भाव लुभाती,
गाँव-गाँव से अपनी यारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

लाखों सपने लिए साथ में,
नित-नित उम्मीदें गढ़ते हैं।
हर आने जाने वालों के,
मन के भावों को पढ़ते हैं।

हर रिश्तों से नेह हमारा,
अपनी सबसे रिश्तेदारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

हमने भारत के कण-कण को,
सदियों से खिलते देखा है।
जीवन रेखा हम भारत के,
हर सपना पलते देखा है।

भारत की आशाओं में है,
अपनी थोड़ी हिस्सेदारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       29 फरवरी, 2024

डाकिया जब खबर दे गया

डाकिया जब खबर दे गया

दूर पगडंडियाँ गीत गाती रहीं,
रात भर दीपिका टिमटिमाती रही।
द्वार पर नींद से नैन उलझे रहे,
कोर की बूँद में मौन उलझे रहे।

रात के मौन को वो सहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

आस की बूँदों में पाती भिंगोकर,
नैन ने देखा फिर सपना सँजोकर।
देख पाती हृदय ये मचलता रहा,
थी कहीं इक तपिश मन पिघलता रहा।

नेह की पंक्तियों को लहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

खुली पाती चेहरा दिखाई दिया,
पंक्ति में भाव मन के सुनाई दिया।
दूरियों से नजर डबडबाती रही,
आस की तितलियाँ मन लुभाती रही।

आस को इक नई वो प्रहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

दूरियाँ जो रहीं आज मिटने लगीं,
धुंध की बदलियाँ आज छँटने लगीं।
मन मिलन का नया गीत गाने लगा,
ऋतु पतझड़ में मधुमास छाने लगा।

शांत मन की नदी को लहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      28 फरवरी, 2024

मिल के सब निभाना

मिल के सब निभाना

आ जी लें जिंदगी को किस पल का क्या ठिकाना,
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

हमने काट ली है आधी सदी यहाँ पर,
कौन जाने कितनी है बाकी यहाँ पर।
अब आसमान पूरा तुम्हारे वास्ते है,
ध्यान से तो देखो कितने रास्ते हैं।

इन रास्तों के संग-संग रिश्ते सभी निभाना
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

बीती उस सदी में माना कमी रही थी,
तंग जेब कारण कोई कमी कहीं थी।
पल आने वाला सारे सपने नए सजाएं,
फूलों के रास्ते हों खुशियों से जगमगाएं।

पर बीते उन पलों का न नेह तुम भुलाना,
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

जो गीत लिख रहा हूँ सब भाव हैं हमारे,
है आशीष ये हमारा के पथ सदा सँवारे।
मुश्किलें भी हों गर तो तुम विचल न जाना,
हो कैसा भी प्रलोभन तुम मचल न जाना।

तुम जीतने से पहले न हार मान जाना
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28 फरवरी, 2024

रात होती रही

रात होती रही

रात भर तारों से बात होती रही
चाँद चलता रहा रात होती रही

किए अँधेरों ने यूँ तो लाखों जतन
शमा जलती रही रात होती रही

दर्द सिलवट का दिल ये भुला न सका
रात भर ऐसी बरसात होती रही

कैसे कह दूँ के हम तुम मिले ही नहीं
जब ख्यालों में मुलाकात होती रही

देव यादों ने दिल पे यूँ कब्जा किया
रात भर हिचकियों में बात होती रही

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 फरवरी, 2024



शायरी

शायरी

मलाल है मुझको तेरे यूँ रूठ जाने का,
करूँ क्या जतन ऐ दिल तुझे मनाने का।

मेरी आँखों मे जो ये थोड़ी सी नमी है,
कहीं अब भी इस दिल में तेरी कमी है।

ये जो है दर्द का टुकड़ा ये जीने को जरूरी है,
वरना कौन है इतना जो मुझे प्यार यूँ करता।

नजर ये फेरते हैं जो मेरे आने के बाद,
करेंगे याद रो-रो कर मेरे जाने के बाद।

भला ऐसे भी कोई दूर जाता है क्या
जैसे आते हो तुम कोई याद आता है क्या

मुझे कहते थे जो बेवफा हो गया हूँ
वही राह में छोड़ मुझे चल दिये

दुनिया में कोई कब हमेशा रहा है,
जाना तो है हम सभी को यहाँ से।
पर जैसे गये तुम हमें छोड़ कर,
ऐसे भी कहो कोई जाता है क्या।

चले जाना ज़रा ठहरो अभी कुछ बात बाकी है,
सितारों ने सजाई है जो सारी रात बाकी है।

महफ़िल में तेरी कभी यूँ भी आयेंगे
हम न होंगे पर लम्हे गुनगुनायेंगे

ये अंदाजे बयां बहुत दिलकशी है
मगर चाहता दिल जिसे तुम नही हो

ऐसा नहीं प्यार मुझको नहीं है
मगर अब तलक ये जताना न आया

जिंदगी क़ा सफ़र यूँ सुहाना बहुत है
मगर ये सफर इतना आसान कब था

जंग है जिंदगी तुम लड़ो तो सही
मुश्किलें हैं तो क्या तुम बढ़ो तो सही

मुश्किलों से यहाँ रार क्या ठानना
जीतने तक यहाँ हार क्या मानना

बिन कहे पलकों से वो सब कह दिए
और कहते हैं कि उनको कहना न आया

जिंदगी कब किसी को कहाँ रोकती है।
उम्र की सिलवटें भी कहाँ टोकती है।
गर हौसला हो दिल में करे कुछ नया,
मुश्किलें कब किसी को यहाँ रोकती हैं।

साथ चल न सके जो जुदा हो गये
मोहब्बत के अब वो खुदा हो गये

रात भर चाँद से बात होती रही
तेरे ख़याल ने मुझे सोने न दिया

कैसे मानूँ के मैं याद आता नहीं
इन आँखों ने कह दी कहानी सभी

मुझसे नजरें चुरा कर भले चल दिये
आईना देखिएगा जरा सोच के

कुछ है बाकी निशानी मेरे प्यार की
बेसबब आईना तुमने चूमा न होता

रात भर हिचकियों ने सताया मुझे
और कहते हैं मैं याद आता नहीं

याद करना ही मोहब्बत की निशानी नहीं 
भूल जाना भी मोहब्बत हुआ करती देव

भूल जाना किसी को बड़ी बात नहीं है देव
फिर याद न आना बड़ी बात हुआ करती है

कौन कहता है कि अब हम उन्हें याद नहीं हैं
कमबख्त हिचकियाँ आज भी सोने नहीं देती

जिंदगी एक दिन तू भी ये मान लेगी
मेरी शख्शियत क्या है पहचान लेगी

हर पल मंजिलों पे नजर रखता हूँ
ऐ जिंदगी हर रोज सफ़र करता हूँ

खुद ही बोले खुद ही खफा हो गये
और कहते हैं हम बेवफा हो गये

अब तो तन्हाईयाँ भी सताती नहीं
तेरी रुसवाईयाँ रास आने लगीं

जिन्हें मेरी परछाइयाँ भी गँवारा नहीं
उम्र भर दुश्मनी क्या निभायेंगे वो

जीवन के अँधियारे में रोशनी की आस हैं दोस्त,
बेचैनियों में भी इस दिल के सबसे पास हैं दोस्त।
मुश्किल हालात में जब कुछ भी नहीं सूझता दिल को,
आँख का अश्रु, अधरों की हँसी, मौन जज्बात हैं दोस्त।

जिस गली से गये वो मुझे छोड़ कर
ले चली जिंदगी फिर उसी मोड़ पर

गुनाहों की फेहरिस्त में एक गुनाह और जोड़ आया हूँ,
उन्हें भरी महफ़िल में तन्हा छोड़ आया हूँ।

बड़े अजीब रंग हैं यहाँ जमाने के,
बहाने ढूँढते हैं लोग दिल जलाने के।

जागेंगे कब तलक हम यूँ ही रात भर
ए सितारों चलो रात को ओढ़ लें

चल दिये छोड़ कर मुझको तन्हा यहाँ
ये न सोचा कि तुम बिन जियें किस तरह

फूलों से नाजुक मेरा दिल ये था
जाने क्यूँ राह तुमने चुनी काँटों की

ये दर्द ही है जिसने अकेला होने न दिया
वर्ना जमाने में कौन इतना सगा होता है

क्या करूँ कोई शिकायत क्या तुम्हें इल्जाम दूँ
दोष था अपना कि तुमको मान बैठे हम खुदा

लिख सका न गीत कोई लाख जतन दिल ने किए
थी जाने क्या अपनी खता जो शब्द सारे रूठ गये

ऐ सितारों आ मिलें हम उस सुहाने मोड़ पर
क्या पता कोई कहानी मोड़ पर अब भी खड़ी हो

माना तेरी नजरों में मैं बस एक फसाना रह गया
शुक्र है इतना कि अब भी याद है मेरी कहानी

चाँद के संग रात भर हम भी सफर करते रहे
पटरियों पर रेल सी यूँ जिंदगी चलती रही

जब से गुजरे हैं हम उनकी गली से
खुद से भी हम अजनबी हो गये हैं

कैसे कह दूँ कि मैखाने में आ के कुछ पाया नहीं
ये साकी ये पैमाना जैसा कोई हमसाया नहीं

तेरी यादों की खुशबू से महकने लगे
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे

तेरे दिए दर्द को हम पिये जा रहे हैं
जिंदगी हँसकर तुझे हम जिये जा रहे हैं

तेरे सिवा मुझको कोई भाता नहीं है
सच तो ये है कोई नजर आता नहीं है

ये न समझो हमेशा यूँ तन्हा रहा हूँ
कभी जिंदगी का तेरे एक लम्हा रहा हूँ

उम्र की सिलवटें भाने लगी हैं
तेरी चाहतें रास आने लगी हैं

दूर जाना था तो पास आये ही क्यूँ
जो था मुमकिन नहीं गीत गाये ही क्यूँ

खुशियों में तुम्हारी मुस्कुराना चाहता हूँ।
तुम्हारे दर्द में ऑंसू बहाना चाहता हूँ।
थक गया हूँ मैं जमाने में दिखावे से,
सब कुछ छोड़ कर मैं पास आना चाहता हूँ।

बिन तेरे आँसुओं को पिये जा रहे हैं
एक अधूरा सा जीवन जिये जा रहे हैं

कैसे लिख दूँ मैं तेरे बिना जिंदगी
मेरी साँसों के हर तार में तू ही तू

✍️अजय कुमार पाण्डेय

अजनबी

अजनबी

दो कदम साथ जब हम चले ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।
साथ हम तुम कभी जब रहे ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

दूर तुम भी रहे दूर हम भी रहे,
एक हसरत दिलों में दबी रह गयी।
रेल की पटरी संग चले साथ पर,
चाह दिल में मिलन की दबी रह गयी।

मिलन जब हमारा हुआ ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

कर सके न वफ़ा अपने दिल से कभी,
चाहतों को सदा हम छुपाते रहे।
बात थी जो दिलों में नहीं कह सके,
हसरतों को सदा हम दबाते रहे।

हसरतें जब मिलन की दबी रह गयी,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

एक अहसास से हम बँधे जब यहाँ,
कहें कैसे कि हम जानते ही नहीं।
इक कसक सी दिलों में दबी थी कहीं,
कहें कैसे कि पहचानते ही नहीं।

है कहीं कुछ कसक हम छुपाते रहे
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 फरवरी, 2024

आँसू- जीवन है ताना बाना

आँसू- जीवन है ताना बाना

1
कुछ कहना चुप हो जाना 
पलकों से सब कह जाना 
कुछ खोना कुछ है पाना 
जीवन है ताना-बाना।

कुछ रुक रुक कर के चलना 
फिर मिलना और बिछड़ना 
ठोकर खा-खाकर गिरना 
गिर-गिर कर और सँभलना। 

फिर गीतों मे ढल जाना 
बिन कहे बहुत कह जाना 
हँस- हँस कर सब अपनाना
जीवन है ताना-बाना। 

2
निज मन ये पुण्य पथिक है
चलता, रुकता न तनिक है
अभिलाषाओं का जगना
पलकों पर उनका सजना।

वो रात-रात भर जगना
नींदों से स्वयं उलझना
मन बहलाने की करवट
वो खिली माथ की सिलवट

सिलवट में भाव छुपाना
आँसू यदि, तो पी जाना
फिर से नव स्वप्न सजाना
जीवन है ताना-बाना।

3
कब जीवन रहा सरल है
पग-पग पे भरा गरल है
कभी नीलकंठ बना है
विष पीकर स्वयं तना है।

मन कितना क्रंदन करता
या जीता या फिर मरता
तब मन खुद की है सुनता
आँसू में जीवन बुनता।

ले बीती पीर पुरानी
तब लिखता नई कहानी
फिर स्वयं पात्र बन जाना
जीवन है ताना-बाना।

4
करुणा के मौन पलों में
झर-झर नयनों से बहती
अधरों पे मौन भले हो
आँसू हर पीड़ा कहती

सब बीती-बीती बातें
नयनों की सूनी रातें
जब-जब स्मृतियाँ तड़पातीं
तब-तब मन को समझातीं।

नयनों की अगन बुझाती
कुछ सुनती कुछ कह जाती
आहों से नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

5
मन गंगा से निर्मल था
सपनों में नीलकमल था
पल-पल ये दृश्य बनाता
मन ही मन उसे सजाता।

चुनता पग-पग के कंटक
वो पथ के सारे झंझट
फिर देता नई निशानी
कुछ अनजानी पहचानी।

जब उसको कुछ मिल जाता
मन ही मन वो खिल जाता
अंतस में नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

6
मन सुख को मौन तरसता
दुख आँसू बनकर झरता
इस कोमल हृदय कमल में
अलकों के मौन निलय में।

आँसू आयी बहलाने
घन पीड़ा को सहलाने
जो कह न सकी वो कहने
मन की पीड़ा को हरने।

देने को मौन दिलासा
बन कर छोटी सी आशा
फिर-फिर मन को समझाना
जीवन है ताना-बाना।

7

पलकों ने मौन पुकारा
आँसू ने दिया सहारा
दिल के छाले सहलाये
पल-पल मन को बहलाये।

आहों को दिया सहारा
साँसों ने जहाँ पुकारा
क्या करता मौन अकिंचन
कोरों से आये छन-छन।

आहों को पुनः मनाने
सपनों का पंथ सजाने
पलकों में फिर सज जाना
जीवन है ताना बाना।

©️✍️अजय कुमार पांडेय 
        हैदराबाद 
       19 फरवरी, 2024




जज्बात नहीं

जज्बात नहीं

बदल गए कितने ही मौसम बदले पर हालात नहीं
कागज़ की कश्ती झुलस गई आयी पर बरसात नहीं

सूनी आँखें तरस गयीं चौखट को तकते-तकते
पाती के संदेशों में अब पहली वाली बात नहीं

अबके शायद मन भी तरसे भींगी-भींगी रातों में
भींगी-भींगी रातों में अब पहले से जज्बात नहीं

रातों ने हर रोज सजायी सपनों की बारातों को
लेकिन जो सपने दे जाए आती क्यूँ वो रात नहीं

दो वक्त की रोटी को दूर शहर तक आ पहुँचे
माँ तेरी बासी रोटी सी इस रोटी में बात नहीं

दूर शहर तक चली जा रही पगडंडी धीरे-धीरे
पगडंडी का मोल चुका लें इतनी भी औकात नहीं

कितने सपने झुलस रहे हैं रोज बरसते वादों से
महज खोखले इन वादों से बदलेंगे हालात नहीं

बाजारू जब हुई व्यवस्था महँगे सब रिश्ते-नाते
देव दरकते रिश्तों में अब पहले से जज्बात नहीं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      18 फरवरी, 2024

बेटी जब मुस्काती है

बेटी जब मुस्काती है

नन्हें-नन्हें हाथों से जब, उँगली मेरी थामी थी,
पूर्ण हुई सारी आशायें, प्रभु से जो-जो माँगी थी।
तेरी नन्हीं मुस्कानों से, कितने सपने जागे थे,
किलकारी की मृदुल गूँज से, सभी अँधेरे भागे थे।

पायल की छम-छम से कितने, जीवन राग सुनाती है,
जन्म-जन्म के पुण्य फलित हों, बेटी जब मुस्काती है।

रामायण में लिखे छंद सब, बसते हैं मुस्कानों में,
वेदों की भी सभी ऋचाएँ, जिसके मीठे गानों में।
सुबह वंदना शाम आरती, गंगा सी निर्मल धारा,
तुतलाते बोलों के आगे, सभी व्याकरण है हारा।

तुतलाते रागों में जिसके, भोर वंदना गाती है,
जन्म-जन्म के पुण्य फलित हों, बेटी जब मुस्काती है।

वन उपवन सब खिल जाता है, चिड़ियों के आ जाने से,
जीवन में उत्सव आता है, बिटिया के घर आने से।
घर-घर में सोहर होता है, और बधाई बजती है,
कहीं दूर माँ के आँचल में, जब-जब बेटी सजती है।

देवत्व देव का खिल जाये, बेटी जब-जब गाती है,
जन्म-जन्म के पुण्य फलित हों, बेटी जब मुस्काती है।

खुशकिस्मत होता है जीवन, जिसने कन्यादान किया,
सात जन्म का पुण्य जिया है, देवों का वरदान जिया।
जिसके होने भर से जीवन, मंदिर सा बन जाता है,
जिसकी एक झलक मिलते ही, धूप छाँव बन जाता है।

जिसके चरण पड़े जब घर में, खुशियाँ दौड़ी आती हैं,
जन्म-जन्म के पुण्य फलित हों, बेटी जब मुस्काती है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       17 फरवरी, 2024

मेरे गीत अमर हो जाएं

मेरे गीत अमर हो जाएं

मेरे गीत कुँवारे अब तक, अधरों का मधुपान करा दो,
छू कर इन मधुमय अधरों को, मेरे गीत अमर हो जाएं।

कली-कली से शब्द चुने हैं, भ्रमरों से गुंजन माँगा है,
मन भावों को लिखने खातिर, रात-रात भर मन जागा है।
वर्ण-वर्ण में सजा भावना, प्रति चरणों में भाव सजाये,
मन को जो अनुरागी कर दे, साँसों ने वो गीत बनाये।

मेरे गीत अधूरे अब तक, साँसों का अनुमान करा दो,
छू कर इन मधुमय अधरों को, मेरे गीत अमर हो जाएं।

जब-जब जिसने जो-जो माँगा, रिक्त नहीं लौटाया हमने,
अंक भले था खाली अपना, जग पर नेह लुटाया हमने।
मिली भेंट में जग से जो भी, हमने उससे सपन सजाये,
तुमको भी कुछ दे पाऊँ मैं, प्रति पल कितने जतन बनाये।

रिक्त रहें न गीत मेरे ये, भावों का सम्मान करा दो,
छू कर इन मधुमय अधरों को, मेरे गीत अमर हो जाएं।

कितना जीवन बीत चुका है, शेष कहीं कुछ बचा हुआ है,
जीवन के अंतिम छंदों का, भाव अभी तक रुका हुआ है।
भावों की लाली जब सजती, तब सजती है कहीं महावर,
सुख की साँसों पर होता है, गीतों का अमरत्व निछावर।

अपने अधरों के कंपन से, छंदों के अरमान सजा दो,
छू कर इन मधुमय अधरों को, मेरे गीत अमर हो जाएं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16 फरवरी, 2024

बहलाते रहे

बहलाते रहे

भूख संसद से सड़क तक मुद्दे दहलाते रहे
और अबकी बार कहकर हमको बहलाते रहे

वो पिलाते ही रहे हैं वादों की घुट्टी सदा
वादों के हर ताप से लम्हे झुलसाते रहे

लिख रही है मुफ्तखोरी मुल्क की वो दास्ताँ
बोझ में जिसके कुचल बस जेब सहलाते रहे

हम इधर आँचल का अपने रोज करते हैं रफू
खींच कर आँचल हमारा हमको फुसलाते रहे

शर्म भी हैरान है देख कर मंजर यहाँ का
मासूमियत को रौंद जब मन को बहलाते रहे

जोड़ने की बात कहकर तोड़ डाला रास्तों को
देव बस वो दूर से ही हाथ दिखलाते रहे

और एक तोहमत हमेशा हम पे ये लगती रही
देख कर उनका सुखन हम यूँ ही चिल्लाते रहे

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 फरवरी, 2024

सारी रात नहीं सोया था

सारी रात नहीं सोया था

ठूँठ हुआ सूरज लगता है,
उगता कभी-कभी छुपता है,
कभी सरकता धीरे-धीरे,
सागर के उस तीरे-तीरे,
दूर क्षितिज जब वो ढलता है,
क्यूँ जाने मन को खलता है,
दूर कहीं ये मन खोया था,
सारी रात नहीं सोया था।

सरिता के पनघट पर जाकर,
छलकाई यादों की गागर,
नैन मूँद कर उपवन घूमा,
यादों के हर पट को चूमा,
सन्नाटे में बहुत पुकारा,
अपने प्रतिशब्दों से हारा,
यादों को हर पल ढोया था,
सारी रात नहीं सोया था।

आँसू का हर मौन छुपाकर,
पलकों का हर कोर सजाकर,
गिरी बूँद में कलम डुबोया,
हृदय पटल पर उसे सँजोया,
अधरों पर छुपकर ले आया,
साँसों ने तब गीत सुनाया,
पहली बार नहीं रोया था,
सारी रात नहीं सोया था।

कभी याद तो आती होगी,
आहों को सहलाती होगी,
किसी मोड़ पर जब सोचोगे,
पीछे मुड़ कर जब देखोगे,
तुमको गीत सुनाई देगा,
बिछड़ा मीत दिखाई देगा,
बस उधेड़बुन में खोया था
सारी रात नहीं सोया था।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13 फरवरी, 2024

गीत लिख पाता नहीं हूँ

गीत लिख पाता नहीं हूँ

क्या व्याकरण से शब्द खोजूँ,
और कितना और सोचूँ।
मृदु रूप की इस रोशनी से,
मैं मृदुल मनमोहिनी से।

जब पास आ पाता नहीं हूँ,
गीत लिख पाता नहीं हूँ।

प्रिय सांध्य की इस रोशनी से,
मधुमास की चाशनी से।
मृदु नैन की इस भंगिमा से,
गात की इस नीलिमा से।

पुष्पित अधर की पंखुरी से,
आस भर इस अंजुरी से।
ये नैन के सपने सुहाने,
जब खड़ा सागर मुहाने।

जब पार जा पाता नहीं हूँ,
गीत लिख पाता नहीं हूँ।

सुन इस हवा का गीत मद्धम,
है निशा का मीत शबनम।
श्रृंगार बूँदों में मचलती,
है निशा पल-पल पिघलती।

ये भाव तब किसको सुनाएं,
जब पथिक पथ भूल जाए।
तब सोचता हूँ प्यार कर लूँ,
मैं हार को स्वीकार लूँ।

जब जीत मैं पाता नहीं हूँ,
गीत लिख पाता नहीं हूँ।

एकांत की रिमझिम घटाएँ,
बूँद मधुमित गीत गाएं।
बिजलियों से माँग भरकर,
बादलों के अंग लगकर।

आ नैन में सपना सजा कर,
चाहतों के गीत गा कर।
फिर कुछ नया अनुमान कर लूँ,
भाव का सम्मान कर लूँ।

अनुमान कर पाता नहीं हूँ,
गीत लिख पाता नहीं हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12 फरवरी, 2024






साँसों ने गुणगान किया

साँसों ने गुणगान किया

जब-जब देखा दर्पण मैंने, यादों ने मधुपान किया,
लिखे गीत यादों के दिल ने, साँसों ने गुणगान किया।

पलकों पे सपनों की सागर, अधरों ने मृदु गीत कहे,
बीते कितने जाने जीवन, यादों के मनमीत रहे।
प्रेम ग्रन्थ के इतिहासों ने, कितने ही सोपान जिया,
लिखे गीत यादों के दिल ने, साँसों ने गुणगान किया।

लहरों का नर्तन देखा है, जब-जब मौसम बदला है,
बीते चाहे कितने सावन, अपना हरदम पहला है।
हर सावन में मधुमासों ने, कितने ही अनुमान जिया,
लिखे गीत यादों के दिल ने, साँसों ने गुणगान किया।

बंधन से मन मुक्त हुआ है, आशा का संचार हुआ,
आना-जाना, खोना-पाना, जीवन का व्यवहार हुआ।
मुक्त बंधनों से होकर के, मन अपनी पहचान जिया,
लिखे गीत यादों के दिल ने, साँसों ने गुणगान किया।

आज शून्य से जीवन उठकर, अपनी परिधि बनाई है,
त्रिज्याएँ जब स्वयं चलीं तब, नापी सब गहराई है।
व्यास, परिधि, त्रिज्या से उठकर, वीथी का संज्ञान किया,
लिखे गीत यादों के दिल ने, साँसों ने गुणगान किया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 फरवरी, 2024

दिल की राहत

दिल की राहत

स्वप्न न थे पलकों पर कोई, और नहीं कोई चाहत थी,
तुमसे जब तक मिले नहीं थे, दिल में कितनी राहत थी।

शाम कहीं पर सुबह कहीं पर, रात कहीं भी कटती थी,
करते थे बस मन जो चाहे, महफ़िल अपनी जमती थी।
सुबह शाम का बोध नहीं था, और नहीं कोई आहट थी,
तुमसे जब तक मिले नहीं थे, दिल में कितनी राहत थी।

यार दोस्त से मिलकर कितने, सपने सदा सजाते थे,
सुनते थे हम कभी किसी की, अपनी कभी सुनाते थे।
अपनेपन के उस रिश्ते में, कितनी ही गर्माहट थी,
तुमसे जब तक मिले नहीं थे, दिल में कितनी राहत थी।

नाम हमारा दर्ज हुआ है, दुनिया के दीवानों में,
अपनों के भी बीच रहूँ तो, लगता हूँ अनजानों में।
भूल गया दिल कभी यहाँ के, दिलों पे बादशाहत थी,
तुमसे जब तक मिले नहीं थे, दिल में कितनी राहत थी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 फरवरी, 2024

भूली बिसरी यादें

भूली बिसरी यादें

कॉलेज के दिन बड़े सुहाने,
नहीं खौफ थी चिंता थी।
कल के दिन की किसे खबर थी,
उम्मीदें सब जिंदा थीं।

एक हाथ में चाय का प्याला,
दूजे में अखबार का पर्चा।
देश-विदेश की सभी समस्या,
पर हम मिल करते थे चर्चा।

खर्चा वो करता था सारा,
जो मुद्दों पे हार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।

आधी रात सड़क पर जाना,
दूर बहुत हम जाते थे।
दोस्त यार संग कितने किस्से,
सुनते और सुनाते थे।

सूनी सड़क पर राजा बनते,
अपना राज चलाते थे।
इक दूजे की करी खिंचाई,
अपना मन बहलाते थे।

अपनी बारी जब आती तो,
कहते अब बेकार हुआ।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।

राजनीति की कितनी चर्चा,
चुटकी में कर जाते थे।
सत्ता पर हम कभी बिठाते,
कभी सरकार गिराते थे।

दिल्ली से बंगाल की चर्चा,
चाय समोसे संग होती थी।
राजनीति पर कोई चर्चा
बिन कश्मीर कहाँ होती थी।

जिम्मेदारी के आते ही,
रातों पर अधिकार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।

दस रुपये था पॉकेट खर्चा,
कितना कुछ कर जाते थे।
इक-इक पैसा जोड़-जोड़ कर,
सारे पिकनिक जाते थे।

साईकल की दौड़ सड़क पर,
बस से बाजी लगती थी।
थक जाते थे पैर हमारे,
उम्मीदें कब थकती थीं।

अल्हड़पन की उन बातों का,
जाने सब व्यवहार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।

सुबह-शाम बस दौड़ रहे हैं,
उम्मीदों के रेले में।
ढूँढ़ रहे हैं अपने मन को,
भीड़ भरे हर मेले में।

शिकन माथ पर जब आती है,
हर पल उसे छुपाते हैं,
यादों की ड्योढ़ी पर कितने,
आँसू मौन छुपाते हैं।

इस भीड़ भरी तन्हाई में,
क्यूँ वो बचपन हार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 फरवरी, 2024








सभी से जीत जाता हूँ तुम्हीं से हार जाता हूँ

सभी से जीत जाता हूँ तुम्हीं से हार जाता हूँ

न जाने कैसा बंधन है जो अकसर हार जाता हूँ
सभी से जीत जाता हूँ तुम्हीं से हार जाता हूँ

भले मजबूत दीवारें मुझे कब रोक पायी हैं
तेरी परछाइयों से भी मैं अकसर हार जाता हूँ

मुसाफिर जिंदगी अपनी कहाँ आराम पाती है
किनारे पास होते हैं तो अकसर हार जाता हूँ

नहीं कोई शिकायत है मुझे तेरी अदावत से
कहीं कुछ तो बचा होगा जो अकसर हार जाता हूँ

नहीं कोई गिला तुमसे नहीं कोई शिकायत है
लिखूँ जब गीत उल्फत के तो अकसर हार जाता हूँ

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08फरवरी, 2024

साँसें हारी हैं

साँसें हारी हैं

उन्हें यकीं हो या के न हो, बेचैनी हम पर भारी है,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।

तार-तार अनुमान सभी हैं, ये चुभती हुई हवायें क्यूँ,
बिखरे-बिखरे सपने सारे, हैं घायल सभी फिजायें क्यूँ।
कौन सुनेगा किससे मन के, अपने सारे भाव उचारें,
दूर-दूर तक नहीं दिख रहा, किसको मन अब आज पुकारे।

भावों में सूनापन गहरा, आशायें मन पर भारी हैं,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।

महँगे हैं सपने आँखों के, पलकों पे अब नींद नहीं है,
बाजारू हो चुकी व्यवस्था, बदलेगी उम्मीद नहीं है।
जाड़े की सिलवट में सिमटे, साँसों के अरमान बिचारे,
बाट जोहते कंबल के हैं, रातों के आगे सब हारे।

बाजारू जब हुई व्यवस्था, पलकों के सपने भारी हैं,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।

सोचा कितनी बार कहूँ मैं मुद्दे सारे सरकारों से,
लेकिन मन की बात लौट कर, आयी कितने दरबारों से।
खड़े द्वार पर तकते-तकते, उम्मीदें सारी उलझीं हैं,
उम्मीदों के महा युद्ध में, ये साँस कहो कब सुलझी है।

उम्मीदों के घने युद्ध में, सब बाजी मन पे भारी है,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       03फरवरी, 2024

आँसू से रिश्तेदारी

आँसू से रिश्तेदारी

खुशियों के तुम गीत सजा लो गम की कुछ परवाह न कर,
अपना क्या है अपनी तो हर गम से रिश्तेदारी है।

जिनके मन ने भ्रम पाले हैं सारे गीत सजाये हैं,
कैसे जानेंगे जीवन ने कितने नेह लुटाये हैं।
जिनके मन अभिसिंचित हैं सुविधाओं की बरसातों से,
दर्द यहाँ कैसे जानेंगे स्वप्न गिरे क्यूँ आँखों से।

सुविधाओं की सेज सजा भ्रम की कुछ परवाह न कर,
अपना क्या है अपनी तो हर भ्रम से रिश्तेदारी है।

कुछ आँसू पलकों पर ठहरे कुछ पलकों से उतर गये,
जो पलकों पर ठहरे हैं दुख उतरे का क्या जानेंगे।
कुछ बंधन से मुक्त हुए हैं, कुछ आहों में उलझ गये
मुक्त हुए जो बंधन से उलझे का दुख क्या जानेंगे।

अधरों पे सब गीत सजा लो आँसू की परवाह न कर,
अपना क्या है अपनी हर आँसू से रिश्तेदारी है।

तुमने जब-जब जो-जो चाहा इस जीवन में पाया है,
मेरे हिस्से में जीवन के माना खारा सागर है।
सरिताओं की मृदु लहरों ने तुमको गीत सुनाया है,
मेरे हिस्से की लहरों में माना दुख का सागर है।

मृदु लहरों में स्वयं नहा लो खारे की परवाह न कर,
अपना क्या है अपनी तो खारे से रिश्तेदारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01 फरवरी, 2024


हर बात सुनानी है हमको

हर बात सुनानी है हमको

इन चंद पलों के जीवन में, इक उम्र बितानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

शब्दों के आलोड़न से ही, अपने जीवन का नाता है,
गीतों गजलों से छंदों से, मन प्राण वायु ये पाता है।
साँसों की सरगम से चुनकर, इक उम्र बितानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

उस पथ से क्यूँ जाना मुझको, जिस पथ में तेरा द्वार नहीं,
चाँद किरण से कैसा नाता, जिसमें तेरा अहसास नहीं।
पुण्य प्रेम के अहसासों से, इक आस चुरानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

अनचाहे से अनुबंधों में, जीवन को उलझाना कैसा,
अभिशापित अधरों की पीड़ा, बार-बार क्यूँ गाना ऐसा।
रिश्तों में जुड़ने से पहले, हर बात बतानी है हमको,
न रहे अधूरी बात कोई, हर बात सुनानी है हमको।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जनवरी, 2024

डरते-डरते

डरते-डरते

दर्द न होता तो क्या करते,
या हम जीते या के मरते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

चाहे खुशियाँ चाहे आँसू,
अपने हिस्से जो कुछ आया।
चाहे सदमे या फिर आहें,
हमने हँसकर सब अपनाया।

खुद को अलग हम कर न पाये,
पास न आते तो क्या करते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

लाख जतन कर प्यार छुपाया,
भाव हृदय के रोक न पाये।
कितने पन्ने लिख कर फाड़े,
चाह के भी हम कह न पाये।

कहीं बचा कुछ बीच हमारे,
सोच रहे थे कैसे कहते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

तड़प रही हैं सदियाँ कितनी,
लम्हों की फिर कौन सुनेगा।
फैला हो चँहुओर उजाला,
अँधियारा फिर कौन चुनेगा।

आस किरण की लिए "देव" फिर
सम्मुख आया डरते-डरते।
दूर यहाँ से हो न सके हम,
आये हैं फिर डरते-डरते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       27 जनवरी, 2024


दोहा

दोहा

भारत का जन-जन कहे, सबका हो ये गान।
जन गण मन का गीत हो, हम सबका अभियान।।

संविधान का भाव हो, राष्ट्र प्रेम आधार।
पुण्य तिरंगे के तले, ले भारत आकार।।

सदियों की पीड़ा कटी, दूर हुआ अँधियार।
नव युग के निर्माण को, जन गण मन तैयार।।

प्रेम भावना हो हृदय, सबका हो सम्मान।
सबके मन में प्रेम हो, सबमें सबका मान।

कहे देव कर जोड़कर, बस इतनी सी बात।
कर्तव्यों का बोध ही, देता है अधिकार।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26 जनवरी, 2024


 

अभियान तिरंगा भारत का

अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

युग युग से इसकी खातिर
है लाखों ने बलिदान किया
आज़ादी के पुण्य हवन में
अपना सब कुछ दान किया
यही कामना सबके दिल की
ऊँची हरदम शान रहे
घर घर में लहराये तिरंगा
गुंजित ये अभियान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

शान तिरंगा उद्देश्य यही
पल-पल हम दुहरायेंगे
याद शहीदों को करने को
घर-घर हम फहराएंगे
आज़ादी के मतवालों से
हर पल गूंजेगा नभ सारा
शान तिरंगे की खातिर है
अर्पित जीवन प्राण हमारा।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

अपनी है बस यही कामना
ये विश्व पटल पर लहराये
शांति सभ्यता मूल तत्व को
इससे ही दुनिया अपनाये
प्रतीक बने मानवता का
हर अधरों पर गुणगान रहे
जब तक ये सूरज चाँद रहे
दुनिया मे तेरा मान रहे।।

शान तिरंगा भारत का 
अभिमान तिरंगा भारत का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा

क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा

शायद नजरों का धोखा था, कोई दोष नहीं तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

अपने हर एकाकीपन में, मन को साथ मिला तुम्हारा।
सदा जीतता आया सबसे, लेकिन मन तुमसे ही हारा।
लेकिन मिला छलावा मन को, जाने कैसी भूल हुई थी,
आँसू जब पलकों ने खोये, मिला नहीं तब उसे सहारा।

नहीं किसी पर दोष मढ़ा जब, कैसे कहूँ दोष तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

छूकर तुमको पवन चली जब, मेरे मन को कष्ट हुआ था।
चाँद किरण ने छुआ कभी जब, मेरा मन अभिशप्त हुआ था।
कभी किसी महफ़िल में कोई, लेकर तुमको नाम पुकारा,
समझ नहीं पाया था क्यूँ कर, मन ये मेरा तप्त हुआ था।

मैं ही तुमको समझ न पाया, सारा था अपराध हमारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

शपथ मुझे उन बीते पल की, अब उन्हें नहीं दुहराऊँगा,
अधरों पर प्रतिबंध लगा दूँ, के नाम नहीं अब लाऊँगा।
जितने मैंने गीत लिखे थे, ढाई आखर वाले तुमपर,
सौगंध मुझे उन गीतों की, अब कभी नहीं मैं गाऊँगा।

बिखरे मेरे सपने गिरकर, कोई दोष नहीं तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 जनवरी, 2024




श्री राम का प्रभाव

श्री राम का प्रभाव

स्वयं को संभाल कर दूसरों को तार दे।
स्वयं से भी पूर्व दूसरों को जो संवार दे।
औरों के लिए चले औरों के लिए पले,
औरों के लिए यहाँ स्वयं को भी वार दे।

ऐसे श्रेष्ठ पंथ का नहीं कहीं विराम है,
त्याग जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

प्रेम भाव का जहाँ पे स्वयं ही प्रभाव हो।
प्रेम का प्रवाह हो नहीं कोई दुराव हो।
सबसे एक भाव और सत्य का चुनाव हो,
श्रेष्ठ मन की वृत्ति और सबसे सद्भाव हो।

प्रेम सद्भावना का नहीं जहाँ विराम है,
प्रेम जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

अर्थ-लाभ द्रोह-मोह लोभ से जो हो परे।
क्षोभ-क्रोध व्यग्रता से मन रहे सदा परे।
वासना के भाव भी न ध्यान को डिगा सके,
जिसके बस प्रभाव से वर्जनायें हों परे।

वासनाओं का जहाँ पर न कोई काम हो,
धर्म जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

इक वचन के मान पे स्वयं को जो हार दे।
पा जगत की संपदा इक वचन पे वार दे।
शब्द-शब्द पुण्य पंथ भावना ही चेतना,
सत्य को स्वीकार कर स्वयं को भी हार दे।

सत्य की पुण्यता का नहीं जहाँ विराम हो,
सत्य जिसके भाव में, भाव उसके राम हैं।

सूर्य के भी ताप में खुद को जो जला सके।
चाँद की रश्मियों में खुद को जो गला सके।
शीत-ताप जो भी हो न माथ पे शिकन रहे,
उच्चता के बोध में मन को भी मिला सके।

शुद्धता के बोध का नहीं जहाँ विराम हो,
शुद्ध जिसकी भावना, भाव उसके राम हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       21 जनवरी, 2024

ट्रेन मैनेजर के मन के भाव

ट्रेन मैनेजर के मन के भाव

हजारों ख्वाब आँखों में लिए हम रोज चलते हैं।
लाखों भावनाओं का लिए एहसास चलते हैं।
काँधों पर हमारे अनगिनत लम्हों की मुस्कानें,
इन लम्हों की बाहों में हमारे दिन निकलते है।

हमारी रात का दिन का नहीं कोई ठिकाना है।
बनाते रोज पटरी पर यहाँ अपना ठिकाना है।
हमारी रात की दिन की यही इतनी कहानी है,
अधूरी इक कहानी है अधूरा इक फसाना है।

नहीं है नींद आँखों में मगर इक आस पलती है।
समानांतर पटरियों के हमारी साँस चलती है।
लिखे हैं गीत कितने ही यहाँ हर रोज जीवन के,
इन गीतों के साये में हमारी आस पलती है।
 
लिए मुस्कान चेहरों पर समय का मान करते हैं।
के आया पास जो अपने हम सम्मान करते हैं।
मिलती हैं दुआओं में हमें अकसर जो मुस्कानें,
उन्हीं मुस्कानों में अपनी खुशी अनुमान करते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जनवरी, 2024

मुक्त रचना- हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

मुक्त रचना- हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

दो घड़ी का मिलन माना अपना मिलन,
कौन जाने कहाँ फिर किधर जायेंगे।
बस यही गीत ही अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

धड़कनों में सदा यादें बन हिचकियाँ,
साँस के साथ ही आती जाती रहेंगी।
भावनाएं हृदय की छुपा न सकेंगे,
साँसों में ये सदा छटपटाती रहेंगी।

बस यही हिचकियाँ अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

नींद पलकों को छूकर के रुक जाएगी,
रातें बन अनछुई छटपटाती रहेंगी।
स्वप्न के बोझ से आँख झुक जाएगी,
सिलवटें रात भर कसमसाती रहेंगी।

अनछुई सिलवटें अपनी पहचान हैं,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

लम्हों ने जो लिखी सदियों ने वो पढ़ी,
जिंदगी की कहानी रुकी कब यहाँ।
आज है जो यहाँ कल कहीं और हो,
दासता बादलों ने सही कब कहाँ।

लम्हों की ये कहानी ही पहचान है,
हम कहीं भी रहें याद हम आएंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जनवरी, 2024








मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

मैं जग को गीत सुनाऊँगा

जग के अंतस की पीड़ा से, शब्द पुष्प के भाव उगाकर,
साथ कोई गाये न गाये, अपने सुर से उसे सजाकर।
इस जीवन के हर भावों को, मैं युग-युग तक दुहराऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

गीतों की हर पंक्ति-पंक्ति में, भावों का सम्मोहन होगा,
आहों के हर अनुरोधों का, साँसों में अनुमोदन होगा।
पलकों का हर अश्रु गीत बन, हृदय पृष्ठ पर अंकित होंगे,
पीड़ाएँ सम्मानित होंगी, हर शब्द-शब्द स्पंदित होंगे।

इस पीड़ा के हर स्पंदन को, मैं जन-जन तक पहुँचाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

यादों के मानसरोवर से, कुछ दृश्य बहारें आयेंगी,
जिस तक जग की पहुँच नहीं है, उन दृश्यों को दिखलायेंगी।
रेतीले तट पर सागर के, लहरों का अनुरंजन होगा,
सागर की लहरों से मन के, गीतों का अनुबंधन होगा।

यादों को हृदय लगाकर मैं, लहरों के गान सुनाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

इन गीतों के सिवा जगत को, और नहीं कुछ दे पाऊँगा,
आया खाली हाथ जगत पर, खाली हाथ नहीं जाऊँगा।
आज नहीं तो कल होगा जब, मेरे गीत सुने जायेंगे,
पीड़ा जब सम्मानित होगी, मेरे गीत चुने जायेंगे।

पीड़ा के हर द्रवित भाव को, मैं गीतों से सहलाऊँगा,
जब तक मेरी श्वास चलेगी, मैं जग को गीत सुनाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 जनवरी, 2024

हम अभियंता

हम अभियंता

पल-पल भारत को पुण्य पंथ पर हम लेकर जाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

आदि काल से जीवन का हमने हर पंथ सँवारा है,
समय-समय पर बदलावों को हमने हर स्वीकारा है।
हम जीवन पथ के हर दुष्कर को सहज बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

इतिहास हमारा उन्नत है हमने जग को ज्ञान दिया,
किया सुलभ जीवन हमने नित नूतन अनुसंधान किया।
अपने अनुसंधानों से हम उन्नत राष्ट्र बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

हैं सपने अपने उच्च शिखर सभी बाधाएं निर्मूल हैं,
राहों के कंटक पत्थर सब अपने लिए बस धूल हैं।
हर बाधा को दूर करें हम हर पथ सुगम बनाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

रहे राष्ट्र का मान सदा अपनी केवल यही कामना,
रहे तिरंगा उच्च सदा करते हैं बस यही प्रार्थना।
जन गण मन के विजय गान पर हम ये शीश नवाते हैं,
हम नव भारत के निर्माता अभियंता कहलाते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 जनवरी, 2024

ये पल आपके नाम कर जाऊँगा

ये पल आपके नाम कर जाऊँगा

दो घड़ी प्यार मुझसे जता दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

प्रीत के पृष्ठ से हम सजाते रहे,
उम्र की पुस्तिका आप ही के लिये।
कामना हर घड़ी हम जगाते रहे,
प्यास की तृप्ति तक आप ही के लिये।
दो घड़ी प्यास अपनी जता दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

सांध्य ने बादलों से कहा कुछ सुनो,
है नशीली यहाँ साँझ की रागिनी,
चाँद की रश्मियाँ अंक में कुछ चुनो।
खिल रही देख लो चाँद की चाँदनी।
चाँद की चाँदनी को सजा दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

कामना अश्रु की क्यूँ अधूरी रहे,
भावना का समंदर हृदय में भरो।
चाहतें फिर नहीं ब्रह्मचारी रहें,
भावनायें प्रणय की हृदय में भरो।
कामनायें हृदय की जगा दीजिये,
ये पल आपके नाम कर जाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 जनवरी, 2024




अवध में प्राण प्रतिष्ठा

अवध में प्राण प्रतिष्ठा

कितने सपने नयनों में भर, थीं सदियाँ देख रहीं रस्ता,
छोटे-छोटे निर्णय भारी, पर अडिग रही अपनी निष्ठा।
उस निष्ठा का पुण्य फलित है, पूर्ण हुई है सभी प्रतीक्षा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

आहुतियों से यज्ञ कुंड की, ये अग्नि नहीं बुझने पाई,
लाल हुआ सरयू का पानी, पर आस नहीं झुकने पाई।
त्याग, तपस्या और समर्पण, है ये सबके प्रण की रक्षा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

पूर्ण हुआ वनवास राम का, ये धरती फिर से मुस्काई,
जिसको नयना तरस रहे थे, वो घड़ी सुहानी है आयी।
आज राष्ट्र का पुण्य है जगा, कण-कण में है जागी निष्ठा,
आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा, आज अवध में प्राण प्रतिष्ठा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13 जनवरी, 2024

व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं

वेदना के गीत पलकों से बहे जब, व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

जब कली ने पुष्प का जीवन लिया है,
कंटको ने भी वहाँ अनबन किया है।
जब प्रणय ने गीत मन में गुनगुनाया,
वेदना ने भी वहाँ पर सुर सजाया।
क्यूँ प्रणय के गीत पलकों ने कहे जब,
वेदना से अश्रु खारी हो गये हैं।

साँस ने जब-जब मिलन का गीत गाया,
आह ने भी कण्ठ में आ सुर सजाया।
गूँजते हैं गीत अब अनुगूँज बनकर,
लौट आयी वेदना सब गीत बनकर।
गीत साँसों से लिपट कर हैं बहे जब,
अश्रु मन के ब्रह्मचारी हो गये है।

अब कहूँ क्या मौन मन की भावनाएँ,
सह रहा कैसा हृदय ये यातनाएँ।
गीत सारे रिक्त होकर लौट आये,
और बनकर अश्रु पलकों को सजाये।
वेदना का प्रीत से बंधन हुआ जब,
कोर के सब अश्रु भारी हो गये हैं।

वेदना के गीत पलकों से बहे जब, व्याकरण के शब्द भारी हो गये हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11 जनवरी, 2024



उम्मीद का सूरज

उम्मीद का सूरज

कई सपने हैं काँधों पर, कई आशा निराशा है।
कहीं काँधे हैं राहों में, यहाँ देता दिलासा है।
चलेंगे दूर तक हम सब, लिए सपने इन आँखों में,
सपनों के इन झुरमुट में, चमकती थोड़ी आशा है।

है खाली हाथ माना ये, मगर उम्मीद भी बाकी।
भले हों बंद एक राहें, मगर दूजी कहीं बाकी।
के ये नाक़ामियाँ भी बस, यही सन्देश देती हैं,
के हौसलों की परीक्षा है, अभी उड़ान है बाकी।

उम्मीदों का गगन अपना कभी छोटा नहीं करना।
कि मेहनत जब लिखे सपना कभी खोटा नहीं करना।
के ये उम्मीद का सूरज न डूबा है न डूबेगा,
छँटेगा ये अँधियारा मन कभी छोटा नहीं करना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जनवरी, 2024

अर्पण कर दूँ

अर्पण कर दूँ

कुछ शब्द बटोरे हैं दिल ने,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

कितनी ही सदियाँ बीती हैं,
तब जाकर अधिकार मिला।
कितनी ही साँसें रीती हैं,
तब जाकर ये प्यार मिला।
कुछ लम्हें हमने जोड़े हैं,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

कुछ सपने नयनों में ठहरे,
कुछ नयनों से बिछड़ गये।
कुछ कोरों में ऐसे उलझे,
पलकों से ही बिछड़ गये।
कह दो तो इन सपनों को मैं,
नयनों का दर्पण कर दूँ।

तेरी एक झलक पाने को,
पलकें अब भी हैं प्यासी।
कुछ तो ऐसा करो कि जिससे,
मन की हो दूर उदासी।
ऐसे पलकों पर छा जाओ,
खुद को आज समर्पण दूँ।

कुछ शब्द बटोरे हैं दिल ने,
चाहो तो अर्पण कर दूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
       12 जनवरी, 2024

मुक्तक- तेरी मेरी जुबानी

मुक्तक- तेरी मेरी जुबानी

बिना तेरे यहाँ कुछ भी मुझे अच्छा नहीं लगता।
लगे झूठा यहाँ सब कुछ मुझे सच्चा नहीं लगता।
भाती है न दुनिया की मुझे कोई भी सौगातें,
बिना तेरे मिले दुनिया मुझे अच्छा नहीं लगता।

साँसों में कहीं अब भी तुम्हारी याद बाकी है।
कि आहों में कहीं कुछ तो दबी फरियाद बाकी है।
कहीं कुछ तो बचा ऐसा हमारे बीच में अब भी,
कि मिट कर भी नहीं मिटती दिलों में याद बाकी है।

नहीं कुछ बात है बाकी बची जो है कहानी है।
नहीं कुछ पास है मेरे यही बाकी निशानी है।
कहो या न कहो ये बात मगर मालूम है मुझको,
कि जो मेरी जुबानी है वही तेरी जुबानी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09जनवरी, 2024

युयुत्सु

भाग 1

धर्मयुद्ध में खड़ा हुआ हूँ, मैं भी पात्र इक खास हूँ,
हूँ भ्रात मैं भी कौरवों का, हाँ, माना पुत्र दास हूँ।

मन झंझा में उलझा-उलझा, समझ नहीं कुछ आता है,
धर्म अधम के महा युद्ध में, मन मेरा घबराता है।

मेरे मन में गूढ़ व्यथा है, किससे मन  की बात कहूँ,
समझ नहीं पाता है मन ये, कैसे मैं आघात सहूँ।

हे नाथ तिहारे सम्मुख हूँ, मेरा भी उद्धार करो,
दूर करो शंका मेरी सब, प्रभु मुझपर उपकार करो।

एक तरफ है धर्म खड़ा, दूजे अधर्म की टोली है,
मैं जाऊँ किस ओर नाथ, दुविधा मन की भोली है।

दासी से जन्मा हूँ माना, पर भ्रात सभी हैं मेरे,
धर्मराज से भी रिश्ता है, सच से मुख कैसे फेरें।

कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध में, दुविधा मेरी भारी है,
जाने क्यूँ लगता है मेरी, इच्छा मन की हारी है।

लेकिन मैं कुरु ओर रहूँ, ये मुझको है स्वीकार नहीं,
धर्म की खातिर हत हो जाऊँ, इसमें मेरी हार नहीं।

भाग 2

भाई हैं वो सारे मेरे, नैतिकता पर कहीं नहीं,
सुलभ चेतना शून्य सभी में, प्रेम भावना रही नहीं।

उनके हर इक़ कृत्यों पे मैं, धर्मराज शर्मिंदा हूँ,
कैसे कह दूँ नाथ वहाँ मैं, घुट-घुट कर के जिंदा हूँ।

पर केशव मेरे इस मन में,  छाई दुविधा भारी है,
जिसके जालों में फँसकर के, साँसें मेरी भारी हैं।

एक तरफ हैं भाई मेरे, दूजी ओर सगे मेरे,
पर एक तरफ है धर्म ध्वजा, दूजी ओर अधम घेरे।

युद्ध करूँ उस ओर यहाँ मैं, मन को ये स्वीकार नहीं,
धर्म नीति पे प्राण त्यागना, इसमें मन की हार नहीं।

मेरे मन की इस दुविधा को, धर्मराज अब दूर करें,
साथ अधम का नहीं चाहिए, मन की इच्छा पूर्ण करें। 

निर्णय और अनिर्णय में फँस, जो मन समय गँवाता है,
समय अंक से झर जाता जब, पाछे बस पछताता है।

शेष समय रहने तक जो मन, अपनी भूल सुधारा है,
अंतर्मन के महा द्वंद्व में, कभी नहीं वो हारा है।

भाग 3

मान रहा इतिहास मुझे यूँ, याद नहीं रख पायेगा,
समय शेष रहते निर्णय में, नाम हमारा आयेगा।

नहीं विजय की चाह मुझे है, और नहीं अभिलाषा है,
धर्म ध्वजा से नभ लहराये, मन की इतनी आशा है।

सुनकर बात वीर की रण में, धर्मराज आगे आये,
तब दिया भार उसे रसद का, जहाँ योग्यता दिखलाए।

धर्म क्षेत्र में सभी खड़े हैं, अपना भाग निभाने को,
लेकिन कितने अड़ पाते हैं, पास सत्य के जाने को।

होते वीर नहीं केवल, जो युद्ध जिया बस करते हैं,
वो भी वीर कहाते हैं, जो सच पे जीते मरते हैं।

वर्तमान की देख दुर्दशा, कितने जो शर्माते हैं,
धर्म मार्ग पर चलने वाले, कटु निर्णय ले पाते हैं।

धर्म युद्ध कब खत्म हुआ, अरु होने का अनुमान नहीं,
लेकिन बने युयुत्सु यहाँ, क्या इतना भी आसान नहीं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2024

मील के पत्थरों का मर्म

मील के पत्थरों का मर्म

मील के इन पत्थरों ने राह को मंजिल दिखाई,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

चाह मन में है प्रबल तो क्या कहो मुश्किल यहाँ है,
प्रण प्रबल हो यदि यहाँ तो मुश्किलों का हल यहाँ है।
राह का जो मर्म समझा है इसे वो जान पाया,
तैरते उन पत्थरों के भाष्य को पहचान पाया।

प्रेम का ले भाव मन में राह को जो जान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

देख पाया सत्य वो ही स्वयं से जो मिल सका है,
सह सका जो भी समय को पुष्प सा वो खिल सका है।
हर घड़ी जिसके हृदय में सीखने की चाह होती,
कंटको में भी हमेशा कुछ न कुछ तो राह होती।

सत्य को जिसने जिया है कंटको से मान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

जीतने की चाह लेकर चल रहे सारे यहाँ पर,
पुण्य जिसकी साधना है वो सफल होता यहाँ पर। 
वासना से है परे वो स्वयं को जो बाँध पाया,
पार्थ वो ही बन सका है स्वयं को जो साध पाया।

है मिला आशीष पथ का पंथ जो पहचान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04 जनवरी, 2024


शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली

शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली

अभी अभी मन के आँगन में, एक कली मुस्काई है,
जैसे पतझड़ के मौसम में, दौर बहारें आयी हैं।
सूना-सूना था ये उपवन, अभी खिली है यहाँ कली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

सदी मिलन का बाट जोहती, तब जाकर ये दिन आया,
पुलकित मन के मृदु भावों ने, दिन ये हमको दिखलाया।
आज समर्पण के भावों से, जीवन को खिल जाने दो,
सदियों के इस पुण्य गान में, साँसों को मिल जाने दो।
सदियों से जो भाव मौन थे, चाहत उनकी आज फली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

दूर क्षितिज पर धरती अंबर, देखो कितने पास मिले,
जैसे सावन की बूँदों से, पपिहे का मधुमास खिले।
ऐसे मृदुल भाव जब मन के, रहे नहीं शंका किंचित
संग-संग जब समय चल रहा, वृथा हृदय क्यूँ है चिंतित।
जग के भरम जाल यदि घेरे, कैसे होगी प्रीत भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

बरस रही हैं नेह रश्मियाँ, आज चाँदनी के आँगन,
चलो समेटें प्रेम सुधा रस, भर जाये अपना दामन।
लिखें प्रेम का गीत नया हम, प्रकृति जिसके साथ चले,
गूँजे जिसके बोल युगों तक, जहाँ प्रणय की बात चले।
मन के पृष्ठभूमि पर लिख दें, रीत वही जो सदा भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2024

ये नया कैलेंडर वर्ष है

ये नया कैलेंडर वर्ष है

घना धुंध है सूर्य छुपा है,
सभी भोर का कार्य रुका है।
ओढ़ रजाई भारी-भारी,
काँप रहे सारे नर नारी।
जन-जन में नया उत्कर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

एक हाथ में बोतल भारी,
दूजे में है बोतल खाली।
झूम रहे सारे मदमाते,
छेड़ रहे सब आते-जाते।
गली-गली हुआ अपकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

नहीं हाथ को हाथ सूझता,
मुश्किल है अब हाल पूछना।
कुहरे की छाई है चादर,
उल्लासों में छाया बादल।
ये कैसा नया आकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

नहीं द्वार पर कहीं अल्पना,
अलसायी है सभी कल्पना।
ठिठुर रहे हैं भाव हृदय के,
बदले-बदले हाल समय के।
ये कैसा नया आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

जब धुंध सभी छँट जाएँगे,
जब खग मृग सारे गाएँगे।
प्रकृति नव निर्माण करेगी,
अधरों पर मुस्कान सजेगी।
नया संवत्सर आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

रंगों का मौसम आने दो,
मंदिर में गान सुनाने दो।
नव पल्लव खिल जाने दो,
खलिहान यहाँ मुस्काने दो।
तब चेहरों पे नया आकर्ष है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

चैत्र शुक्ल की पहली तिथि से,
दिवस शुरू हो नूतन विधि से।
मंत्रों से नभ सज जायेगा,
तब अपना नव वर्ष आयेगा।
यहाँ समय वही आदर्श है,
ये नया कैलेंडर वर्ष है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2024

हम भी कह न सके तुम भी कह न सके

हम भी कह न सके तुम भी कह न सके

जिंदगी की कहानी अधूरी रही,
हम भी कह न सके तुम भी कह न सके।

शब्द के अर्थ सारे कहीं छुप गये,
दो कदम जो चले थे कहीं रुक गये।
चाहतें मौन थीं कुछ कमी रह गयी,
बात कितनी यहाँ अनकही रह गयी।

वेदना अश्रु में भी अधूरी रही,
आँसू बह न सके तुम भी सह न सके।

गीत जब-जब सजे आँधियाँ आ गईं,
जब उजाले मिले बदलियाँ छा गईं।
आस थी कि बनायेंगे हम कारवाँ,
पर झुका कब जो झुकता ये आसमां।

चाह जो थी दबी वो दबी रह गयी,
हम भी कह न सके तुम भी कह न सके।

चाँदनी जब पड़ी हर घड़ी मन जला,
मन न कुंदन बना, मौन ये तन जला।
द्वंद्व चलता रहा स्वयं में हर घड़ी,
जुड़ सकी न स्वयं से जो बिछड़ी कड़ी।

चाँदनी दूर से मन लुभाती रही,
हम भी सह न सके तुम भी सह न सके।

अब न जानूँ यहाँ है किनारा कहाँ,
चल रहा पर न जानूँ कि जाना कहाँ।
राह ओढ़े मुसाफिर बनी जिंदगी,
कोष से झर रही है यहाँ जिंदगी।

धुंध गहरा हुआ जा रहा है यहाँ,
हम भी चल न सके तुम भी चल न सके।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 दिसंबर, 2023


प्राण प्रतिष्ठा

प्राण प्रतिष्ठा

प्राण प्रतिष्ठा की घड़ी, सत्य सनातन जीत।
लिखने को तैयार है, जग शुभ नूतन रीत।।

अवध पूरी है पावन धामा। बसते इसमें अपने रामा।।
सारे जग को प्रेम सिखाया। सत्य सनातन है समझाया।।

जिनकी खातिर तरसे नयना। आज पधारे मेरे अँगना।।
दूर हुआ मन का अँधियारा। जब देखूँ प्रभु रूप तिहारा।।

प्राण प्रतिष्ठा प्रभु की होई। जाग उठी जो किस्मत सोई।।
आज अवध में बजे बधाई। सदियों बाद घड़ी शुभ आई।।

आज राष्ट्र ने नेह लुटाया। प्रभु का फिर वनवास मिटाया।।
गर्भ गृह में राम अरु सीता। आज हुआ ब्रह्माण्ड पुनीता।।

कहे देव यह शुभ दिन आया। धन्य-धन्य यह दिवस दिखाया।।
हरषित-पुलकित नर अरु नारी। पूरी हुई प्रतीक्षा सारी।।

अवध पुरी है राष्ट्र का, सबसे सुंदर धाम।
पावन भारत की धरा, कण-कण बसते राम।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
         हैदराबाद
         29 दिसंबर, 2023

साधो किससे नेह लगाये

साधो किससे नेह लगाये

कदम-कदम पे कितने मेले
भीड़ बड़ी है भारी,
किसके आगे मन की बोलें
सोच यही है भारी,
ढूँढ़ रहा है मनवा अपना
कोई तो मिल जाये,
साधो किससे नेह लगाये।

कितने सपने कितने वादे
पग-पग मन भरमाये,
पाँच बरस में द्वारे आते
आकर के फुसलाये,
कौन यहॉं पर इनसे पूछे
कइसे प्रश्न उठाये,
साधो किससे नेह लगाये।

धरम-करम की बात करें पर
सच से रखते दूरी,
ताकत की कठपुतली बनते
कैसी है मजबूरी,
इस पाले या उस पाले की
सत्ता में ललचाये,
साधो किससे नेह लगाये।

प्यार मुहब्बत दया धरम सब
बातें हुईं पुरानी,
स्वार्थ सिद्धि में मन डूबे जब
गढ़ते रोज कहानी,
विरह, वेदना झूठ साँच अब
कितने जतन उठाये,
साधो किससे नेह लगाये।

पुरुष नारि में भेद बहुत है
किसको व्यथा सुनाये,
कोख में फिर न मारी जावें
कुछ तो करो उपाये,
बेटी का जब मान घटेगा
सृष्टी ये मुरझाये,
साधो किससे नेह लगाये।

धन दौलत के पीछे भागे
कैसी दुनियादारी,
सिसक रही है नैतिकता क्यूँ
आयी कउन बिमारी,
चीर हरण हो रहा सत्य का
केशव कहाँ लुकाये,
साधो किससे नेह लगाये।

कहे समय अब माँग यही है
अपनी-अपनी देखें,
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा
छोड़ स्वयं की चेतें,
देखें अपने मन के भीतर
जीवन ये हरषाये,
साधो किससे नेह लगाये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 दिसंबर, 2023

दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो

दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो

घट विरह के नयन में सँभाले हुए
दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो।

माना लम्हों में तुमने गुजारी सदी,
थी कभी दूर तो पास थी जो कभी।
स्वप्न जिसके नयन में सजाते रहे,
याद में गीत तुम गुनगुनाते रहे।

गीत में भाव मन के छुपाए हुए
दर्द कितना यहाँ पर सहोगे कहो।
घट विरह के नयन में सँभाले हुए
दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो।

कौन प्यासा यहाँ राह सब जानती,
नभ की मजबूरियाँ भी सब जानती।
रात आयी गयी द्वार पर नैन थे,
पलकों पे नींद से उलझे चैन थे।

बूँद का दर्द मन में दबाए हुए,
कोर में बूँद कब तक रखोगे कहो।
घट विरह के नयन में सँभाले हुए
दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो।

एक सी है व्यथा एक सा चित्त है,
मौन के भाव सारे प्रकाशित भी हैं।
फिर कहो दूर कैसे रहोगे यहाँ,
मौन का दर्द कब तक सहोगे यहाँ।

मौन का घाव मन में छुपाए हुए,
भाव का दर्द कब तक सहोगे कहो।
घट विरह के नयन में सँभाले हुए
दूर कितना यहाँ पर चलोगे कहो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27दिसंबर, 2023



तुम मुझे आजमाते रहे।

तुम मुझे आजमाते रहे

टूट कर मैं बना बस तुम्हारे लिये,
और तुम बस मुझे आजमाते रहे।
हर घड़ी माना हमने तुम्हें ही खुदा,
और तुम बस मुझे बरगलाते रहे।

वादों की भीड़ में और वादा किया,
पूरा करना था जो वो भी आधा किया।
उम्र हमने गुजारी बस तेरी चाह में,
फूल ही बस बिछाए तेरी राह में।
पथ से काँटे हटाये तुम्हारे लिए,
और तुम बस मुझे आजमाते रहे।

एक विश्वास की हमने चादर बुनी,
कितने आये मगर न किसी की सुनी।
तुमने जो भी कहा हमने बस वो सुना,
लाखों की भीड़ में तुमको ही बस चुना।
कितने सपने सजाए तुम्हारे लिए
और तुम बस हमें आजमाते रहे।

छोड़ना ही था हमको तो आये ही क्यूँ,
जो था मुमकिन नहीं गीत गाये ही क्यूँ।
रात अँधियारों में छटपटाती रही,
दीप उम्मीदों के, पर जलाती रही।
अँधियारे हमने मिटाये तुम्हारे लिए,
और तुम बस हमें आजमाते रहे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18दिसंबर, 2023



अभिमन्यु

अभिमन्यु 

भाग 1

कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, तेरहवाँ दिन जब आया,
तब धर्मराज को बंधक करने, की रणनीति बनाया।

अर्जुन के रहते मुश्किल था, यूँ धर्मराज को छूना,
अर्जुन के रण कौशल से था, उत्साह वहाँ का दूना।

अर्जुन को दूर हटाने की, फिर गुरु ने रणनीति बनाई,
युद्ध भूमि में तेरहवें दिन, लड़ने जब सेना आई।

त्रिगर्तों और संसप्तकों ने, जब अर्जुन को ललकारा,
दूर किया फिर युद्ध भूमि से, कौरव को दिया सहारा।

चक्रव्यूह की बात सुनी, हाथ-पांव पाण्डव के फूले,
खेमे में सन्नाटा था, धर्मराज चिंता में झूले।

गुरु द्रोण ने युद्ध विजय, मंशा ले नीति बनाया,
इसीलिये इस युद्ध भूमि से, अर्जुन को दूर फँसाया।

देख वहाँ का दृश्य कठिन जब, अभिमन्यु का मन डोला,
चक्रव्यूह में मैं जाऊँगा, चहक उठा हँसकर बोला।

चक्रव्यूह को रण कौशल से, मैं अपने तोड़ूँगा,
तात वचन देता हूँ अरि को, जीवित ना छोड़ूँगा।

यहाँ भेदना चक्रव्यूह को, नहीं किसी को आता है,
हम सब में अर्जुन को केवल, व्यूह भेदना आता है।

हे तात था गर्भ में माँ के, तब ये सुनी कहानी थी,
सुना रहे थे माता को जब, अपनी पिता जुबानी थी।

छह द्वार को खोलूँगा जब, सातवाँ स्वयं खुल जायेगा,
सुत पर अपने करें भरोसा, पार न कोई पायेगा।

एक बार अंदर पहुँचा तो, बाहर मैं आ जाऊँगा,
चक्रव्यूह को भेद विजय श्री, द्वार यहाँ मैं लाऊँगा।

हुआ वीरगति लड़ते-लड़ते, सौभाग्य तात मैं जानूँगा,
लेकिन अरि के सम्मुख अपनी, हार नहीं मैं मानूँगा।

सुन अभिमन्यू की बात वहाँ, पाण्डव को ढाँढस आया,
रचने को इतिहास वहाँ पर, अपना रथ वहाँ सजाया।

क्रमशः--

भाग 2- अभिमन्यु- द्रौपदी संवाद

अभिमन्यू की बात वहाँ, सुनी द्रौपदी रुक ना पाई,
हृदय मात का डोल गया, वो दौड़ी घबराती आई।

माता का मुख देख कहा, माँ ऐसे क्यूँ घबराती हो,
अब मैं बालक नहीं रहा, आँचल में मुझे छुपाती हो।

माता है सौगंध मुझे ये, युद्ध जीत जब जाऊँगा,
विजय घोष के साथ यहाँ मैं, अपना मुख दिखलाऊँगा।

चिंता मात वृथा करती हो, मुझको क्या वो मारेंगे,
युद्ध क्षेत्र के चक्रव्यूह में, मुझसे सारे हारेंगे।

यदि रण में मैं नहीं गया तो, जीवन ये निष्फल होगा,
युद्ध नीति सफल हुए तो, कौरव का फिर कल होगा।

अपने रहते कौरव को मैं, सफल नहीं होने दूँगा,
बंदी यहाँ तात को अपने, कभी नहीं होने दूँगा।
 
दूर किया युद्ध क्षेत्र से, पिता के लिए नीति बनाई,
चक्रव्यूह रचकर रण में, खुद अपनी मंशा जतलाई।

लेकिन उनकी इस मंशा को, सफल नहीं होने दूँगा,
कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध को, विफल नहीं होने दूँगा।

चिंता मात वृथा करती हो, युद्ध क्षेत्र में जाने दो,
दो अपना आशीष मुझे माँ, मुझको धर्म निभाने दो।

है मुझे आशीष तुम्हारा, अरि को यहाँ हराऊँगा,
सौगन्ध मुझे है पायस की, तब ही मुख दिखलाऊँगा।

उसकी बातों का पांचाली, उत्तर दे ना पाती है,
अनहोनी की आशंका से, मन ही मन घबराती है।

भाग 3- अभिमन्यु-उत्तरा संवाद

माँ का ले आशीष अभिमन्यु, उत्तरा के सम्मुख आया,
सूने-सूने वहाँ कक्ष में, चिंतित वो उसको पाया।

आखिर वो दिन आ पहुँचा है, जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी,
कुरु सेना को धूल चटाऊँ, मेरी उत्तम इच्छा थी।

मुझको हँसकर करो विदा तुम, रण कौशल दिखलाने को,
थाल सजाकर सज्ज करो अब, विजय प्राप्त कर आने को।

अभिमन्यु को सुनकर उत्तरा, घबराई सी बोल पड़ी,
बुझे नैन से उसको देखा, मन की गाँठें खोल पड़ी।

आर्य आज मन डरता है, अनहोनी की आशंका से,
कैसे विदा करूँ पिय मैं, घिरी यहाँ मैं शंका से।

मैं कब कहती हूँ रिपु से, के नहीं आपको लड़ना है,
आप हमारी बात सुनें, फिर करें वही जो करना है।

जाने क्यूँ कर हृदय हमारा, भय से बैठा जाता है,
अनहोनी की आशंका से, मेरा मन घबराता है।

जानती हूँ नाथ सब कुछ, ना वीर कोई आप सा है,
आज के इस युद्ध में भी, गंभीर कोई आप सा है।

क्षत्राणियों का धर्म है, और है यही उच्च कर्म भी,
थाल सजाये विदा करे, आगे बढ़कर स्वयं आप ही।

वीरता पे स्वयं पति के, संदेह पत्नी यदि पालती,
हो विमुख कर्तव्य पथ से, नर्क में वो खुद को डालती।

वीरता पर आर्य मुझको, तनिक न आपके संदेह है,
पर रोकती हूँ आज प्रिय, है मन में घिरा संदेह है।

जाने क्यूँ कर वाम नेत्र भी, मेरी यहाँ फड़कती है,
अनहोनी की आशंका से, हृदय की गति धड़कती है।

जाने क्यूँ लग रहा मुझे, के ये दिन नहीं अनुकूल है,
चुभ रहा मेरे हृदय में, आर्य जाने कैसा शूल है।

नहीं चाहिए कोई वैभव, मुझे राज की न आस है,
ब्रम्हांड का सब सुख वहीं है, के आप मेरे पास हैं।

अरण्य भी महल लगेगा, कर्तव्य पथ पर मै चलूँगी,
आपको यदि कुछ हुआ तो, ले राज सुख मैं क्या करूँगी।

ये बात कहते उत्तरा के, नेत्र झर-झर झरने लगे,
और कक्ष की उस शून्यता को, हर शांति को हरने लगे।

उत्तरा की बात सुनकर, भय दुर्भावना की भीत से,
शांत स्वर अभिमन्यु बोले, अति भोलेपन से प्रीत से।

हे प्रिये सुखदायिनी, संगिनी, शक्ति हर पथ की तुम हो,
है प्रकाशित हर पंथ मेरा, कैसा भय फिर तम से हो।

वो चित्त व्याकुल देखकर, प्रिय को अंक में लेते हुए,
अभिमन्यु ने हँसकर कहा, प्रिय को सांत्वना देते हुए।

शांत कर के चित्त अपना, सोचो स्वयं अपनी योग्यता,
वीर का श्रृंगार हो तुम, प्रिये छोड़ो मन की व्यग्रता।

कहो वीर की भार्या का क्या, ये चित्त होना चाहिये,
क्षत्राणियों को इन पलों में, क्या कहो रोना चाहिये।

जानता हूँ मैं कि मन में, इस पल जल रही इक ज्वाल है,
शीश जिसके हाथ हरि का, कब कर सकेगा कुछ काल ये।

व्यर्थ की चिंता हृदय में, क्यूँ हे प्रिये तुम पालती हो,
व्यर्थ ही अपने हृदय को, अवसाद से यूँ सालती हो।

प्रिय जानती हो बातें सभी, शंका सभी निर्मूल है,
हाँ शत्रु का मर्दन करूँ मैं, बस युद्ध का ये मूल है।

ज्ञान शिक्षा और समर्पण, मेरा सभी तब व्यर्थ होगा,
इस युद्ध से मुख फेरना, अधर्म होगा अनर्थ होगा।

सुन चुकी हो कौरवों ने, हमको घाव हैं कितने दिए,
पुण्यता से दूर रहकर, कुकर्म पाप हैं कितने किये।

क्या भूल सकती कौरवों ने, माँ के संग जो कुछ किया,
दे धैर्य की पल-पल परीक्षा, अपमान ही अब तक जिया।

कैसे भूलूँ तात के संग, उस द्यूत का हर एक छल,
प्रिये कैसे भूलूँ तुम कहो, उस घाव का हर एक पल।

अपशब्द कितने बोलकर, कितना घाव कौरव ने दिया
है ग्लानि होती सोचकर, के पल था वहाँ कैसे जिया।

उस अपमान का प्रतिशोध यदि, मैं आज ले न पाऊँगा,
ताउम्र मैं कायर रहूँगा, कैसे जी फिर पाऊँगा।

इस व्यूह को यदि आज रण में, तोड़ ना मैं सकूँगा,
जाकर पिता के सामने मैं, तुम कहो के क्या कहूँगा।

मैं जीत कर उस व्यूह को, शीघ्र आऊँगा यहाँ पर,
बस धैर्य मन में प्रिय धरो तुम, और जाऊँगा कहाँ पर।

सप्तपदी का एक-एक प्रण, हम साथ में निभायेंगे,
चिंतित करो न मन को अपने, प्रिय दूर हम न जायेंगे।

है समग्र जीवन तुम्हारा, तुमसे जुड़ी सब आस है,
मैं दूर कैसे हो सकूँगा, तुममें बसी जब श्वास है।

प्रिय है वृथा अवसाद सारा, जब स्वयं हरि हैं पक्ष में,
अब अरि नहीं जीवित बचेगा, आकर हमारे लक्ष्य में।

ले पाश में फिर उत्तरा को, यूँ धैर्य था उसने दिया,
हो मौन दोनों ने पलों में, बस धड़कनों को था जिया।

भाग 4- अभिमन्यु  चक्रव्यूह में

फिर चले अभिमन्यु रण में, छोड़ कर कितनी कहानी,
जाते हुए देखती थीं, भर कोर में दो नैन पानी।

अभिमन्यु का सान्निध्य पा, था सैन्य का उत्साह दूना,
अरि के लिए मुश्किल हुआ, अभिमन्यु को अब आज छूना।

आज रण को भेदने को, उस व्यूह का मद तोड़ने को,
इक नया इतिहास रचने, उस युद्ध का सम्मान रखने।

सज्ज होकर वीर बालक, षोडश वर्ष का आगे बढ़ा,
सैन्य का नेतृत्व करने, अब सौभद्र रथ पर आ चढ़ा

आज लिखने को खड़ी थी, वहाँ सृष्टि एक नूतन सदी,
इतिहास के हर पृष्ठ पर, नव प्रतिमान रचने को सदी।

फिर देखते ही देखते, दोनों सैन्य दल आगे बढ़े,
युद्ध इतना तीव्र था के, हो चकित काल रह गये खड़े।

लगीं गूँजने दशों दिशायें, उस युद्ध के जयघोष से,
ब्रम्हाण्ड भी गुंजित हुआ था, सैनिकों के उद्घोष से।

उस वीर बालक के समक्ष, न कोई टिक पाता वहाँ था,
एक पल में वो यहाँ था, तो दूसरे में वो वहाँ था।

देख उसका प्रचंड रूप अरि सेना तब लगी काँपने,
अपने प्राण बचाने को इधर-उधर सब लगे भागने।

जिधर नजर करता था वो, त्राहि-त्राहि था मचता जाता,
मुड़ जाता जिस ओर वीर, उस ओर शत्रु घटता जाता।

लगता था कौतूहल वश, वो अरि सेना काट रहा था,
अरि सेना के मुण्डों से, धरती सारी पाट रहा था।

सब वीर से अतिवीर तक की, शक्ति सारी थक चुकी थी,
यूँ लग रहा था आज रण में, सृष्टि सारी रुक चुकी थी।

थे वीर तो लाखों वहाँ, नहीं कोई रुक पाता वहाँ,
दो घड़ी को भी नहीं था, कोई शत्रु टिक पाता वहाँ।

देखते-देखते पहुँच गया,वो द्वार पर उस व्यूह के,
सब काँपने थर-थर लगे थे, वहाँ सैन्य अरि समूह के।

बस देखते ही देखते, व्यूह के द्वार सभी ध्वस्त थे,
उस वीर के सम्मुख वहाँ, सब रणनीति अरि के पस्त थे।

द्वार पर रक्षक जयद्रथ उपस्थित था बड़े ही शक्ति से,
पर पार न वो पा सका वहाँ अद्भुत वीर की शक्ति से।

तब कर्ण का भ्राता वहाँ पर शोण सम्मुख आकर कहा,
और तुम्हारा खेल मुझसे है अब नहीं जाता सहा।

हो वीर तो आ सामने, तुझे युद्ध मैं सिखलाऊँगा,
मैं आज इस रणभूमि में, तुझे युद्ध क्या बतलाऊँगा।

उसकी बात सुन अभिमन्यु ने, बस शांत रह हँसभर दिया,
और फिर एक ही प्रहार से, वो शांत उसको कर दिया।

देख भाई की दशा को, फिर राधेय अति क्रोधित हुआ,
हश्र देखा युद्ध का तो, वो अत्यंत ही क्षोभित हुआ।

बाण छोड़ा अनगिनत वो, जिसकी तीव्रता विकराल थी,
जो सामने आता वहाँ, उसकी मृत्यु बस तत्काल थी।

सौभद्र पूरे धैर्य से, उसके वार को खण्डित किया,
और कर्ण के प्रहार को, पूरे धैर्य से दण्डित किया।

युद्ध कौशल से वहाँ पर, उसने कर्ण को चिंतित किया,
वो काट कर रिपु चाप को, था रणभूमि में दण्डित किया।

कर्ण को यूँ देखकर के, दुर्योधनात्मक वीर लक्ष्मण,
सौभद्र के सम्मुख हुआ, वो हुंकारता वीर तत्क्षण।

देख लो अपने जनों को, आज अंतिम समय निहार लो,
अंत समय है तुम्हारा, अपनी हार तुम स्वीकार लो।

सौभद्र बोले वीर योद्धा, संवाद यूँ करते नहीं,
रणभूमि में होकर खड़े वो, बर्बाद क्षण करते नहीं।

यूँ अभिमन्यु के सुनकर वचन, मन में लग गयी आग सी,
फिर तीव्र गति से बाण छोड़ा, थी शक्ति जिसकी नाग सी।

स्वागत किया अभिमन्यु ने तब, उस शक्ति को करके विफल,
फिर काट करके कण्ठ उसका, रिपु को दिया तत्काल फल।

जैसे गिरा शीश रिपु का, हाहाकार रण में छा गया,
कौरवों के सैन्य दल में, था अँधियार जैसा छा गया।

शीश गिरते ही वहाँ दुःशाशन युद्ध में सम्मुख हुआ,
सामने अभिमन्यु के वो अरि सैन्य दल का प्रमुख हुआ।

देख कर सम्मुख उसे अर्जुन सुत क्रोध में जलने लगा,
धमनियों का रक्त सारा, वहाँ क्रोध में उबलने लगा।

रे दुष्ट पापी तू छुपा था, अब तक कहो किस आड़ में,
या छुपा बैठा कहीं था, कोई ओट लेकर त्राण में।

ले मेरा ये बाण तेरा अंत अब यहाँ सुनिश्चित है,
तेरे सारे पापों का अब यहीं आज प्रायश्चित है।

अभिमन्यु ये कह कर वचन, उस दुष्ट पर तब बाण छोड़ा,
उसने नराधम नीच का, सारा वहाँ अभिमान तोड़ा।

मूर्छित समझ उसको वहाँ से, दूर सेना कुरु ले गयी,
थे कौरवों के दर्प टूटे, वो चोट ऐसी दे गयी।

व्यूह टूटा देख कुरु की, सारी नीतियाँ अब ध्वस्त थीं,
सौभद्र के हर वार से, सेना कौरवों की पस्त थी।

गुरु द्रोण से कहने लगा, जाकर कर्ण फिर संताप से,
जल रहा कुरु सैन्य दल ये, गुरु मात्र बालक के ताप से।

पार्थ सुत के विरुद्ध, यदि कोई टिक ना पायेगा,
कुरुक्षेत्र का युद्ध सारा, बस आज यहीं चुक जाएगा।

यही श्रेष्ठ होगा के इसे, अब जैसे भी हो मार दें,
व्यूह के इस युद्ध को हम, मिल कर अंत अब परिणाम दें।

जैसे हो इसे मारना, गुरुवर श्रेष्ठ बस होगा यही,
अन्यथा कुरु वंश खातिर, अब परिणाम ना होगा सही।

तब सप्त रथियों ने वहाँ, त्यागे युद्ध के सारे नियम,
टूटे वहाँ सौभद्र पर, सातों छोड़ कर सारे धरम।

था सह रहा हर वार उनका, वो वीर बालक जोश से,
था तोड़ता रणनीति रिपु की, वो वीर पूरे होश से।

लेकिन अचानक वार से, उसके अश्व रथ के गिर पड़े,
कूद पड़ा फिर वीर सौभद्र, पहुँचा जहाँ सब थे खड़े।

श्वास जब तक प्राण में हो, जो वीर हैं झुकते नहीं हैं,
सत्य जिनके साथ होता, वो जीतने तक रुकते नहीं।

टूटा धनु जब खड्ग उठाया, वो वीर बस लड़ता रहा,
वो दुष्टता के वार सारे, वो ध्वस्त सब करता रहा।

घेर कर सातों ने वहाँ पर, शस्त्र उसके काट डाले,
फिर भी मुश्किल था के उसपर, कौन आ कर हाथ डाले।

जब नहीं था शस्त्र कोई, वो वीर फिर पहिया उठाया,
और रिपु की ओर देखा, फिर हाथ से उसको घुमाया।

कह पड़ा वो वीर मुख से, यही वीरता क्या तुम्हारी,
निःशस्त्र पर वार करते, कहाँ नीतियाँ है तुम्हारी।

कह कर वहाँ लड़ने लगा, फिर वो शत्रु के संघात में,
टूट पड़ा अरि सैन्य दल पर, लिए रथ का पहिया हाथ में।

घेर कर सातों ने वहाँ, उस पर प्रहार किया साथ में,
भेदने उसके लगे थे, रिपु के बाण सारे गात में।

निःशस्त्र पर हो वार करते, क्या वीरता है ये कहो,
मेरे हाथ में भी शस्त्र दो, फिर वार मेरा तुम सहो।

हे गुरु अब आप बोलें, क्या युद्ध का ये ही धर्म है,
निःशस्त्र पर वार करना, कहिये आप क्या सत्कर्म है।

कुलगुरु कहें हैं मौन क्यूँकर, अब आप का क्या स्वार्थ है,
हैं पूज्य हम सबके लिये जब, क्या आपका परमार्थ है।

प्राण दान में न माँगता हूँ, हो युद्ध केवल भीति से,
यूँ ही आप सब मुझसे लड़ें, पर युद्ध हो बस नीति से।

निःशस्त्र पर यूँ वार करना, ये सर्वदा अन्याय है,
यूँ कायरों की भाँति लड़ना, किस युद्ध का पर्याय है।

मैं पूछता हूँ वीरता का, बोलो यही क्या धर्म है,
सब लड़ रहे हो युद्ध जैसे, क्या नीति है क्या धर्म है।

कर्म का अपने सभी तुम, दण्ड यहीं सारे पाओगे,
व्यूह की जब बात होगी, बस कायर ही कहलाओगे।

पीठ पर अपने जयद्रथ का, वार बालक सह सका ना,
फिर गिर पड़ा ऐसे धरा पर, चाह कर भी उठ सका ना।

हे तात मेरा अंत है, अंतिम मेरा प्रणाम तुमको,
भूल मत जाना कभी, सबने किया जो घात मुझको।

लड़ता रहा मैं अंत तक, अफसोस पर कुछ कर न पाया,
व्यूह मैंने तोड़ डाला, पर धूर्तता से लड़ न पाया।

कहते हुए वो वीर बालक, फिर गिर पड़ा रणभूमि में,
ऐसे लगा जैसे सितारा, कोई गिर पड़ा हो भूमि में।

जीत के उन्माद पाले, जैसे दुष्ट कुछ रहते सदा,
वैसे दुःशाशन पुत्र ने, उसके शीश पर मारी गदा।

धोखे से उस प्रहार से, वो दृग बंद कर के सो गया,
और धरती के अंक से, एक वीर सितारा खो गया।

वीरता की बात जब भी, गीतों में गाया जायेगा,
हर पृष्ठ पर इतिहास के, तुमको ही पाया जायेगा।

तुम श्रेष्ठ का प्रतिमान हो, तुम ही श्रेष्ठ हो परिणाम हो,
बीतते सारे युगों में, तुम हर श्रेष्ठ का अभिमान हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23 दिसंबर, 2023








दोहे

चुनाव परिणाम पर कुछ दोहे--

संस्कारों के समर में, दिया श्रेष्ठ परिणाम।
अतिवादी व्यवहार का, भला करेंगे राम।।

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अति की बोली बोलकर, पहुँचाई थी चोट।
जनता ने समझा दिया, नीयत में थी खोट।
(पनौती)
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जनता के विश्वास का, रख न सके जो मान।
जनता ने उनको दिया, सदा उचित परिणाम।।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁

सत्य सनातन सर्वदा, कहे देव इक बात।
राष्ट्रप्रेम सर्वोपरि, करें न कोई घात।।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏

✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

सँभल जाये

सँभल जाये

तुझको देखे न तो  मचल जाये
देख ले तुझको तो सँभल जाये

यूँ तो सँभले हैं गिर-गिर के यहाँ
तू जो देखे तो फिर फिसल जायें

बाँध रक्खा है यहाँ ख्वाहिशें कितनी
तू जो कह दे तो सब निकल जायें

जब से देखा है तुम्हें दूर हुआ है खुद से
तू जो मिल जाये तो ये भी मिल जाये

यूँ तो मुश्किल है बदलना इसको
तुझको पाए तो फिर बदल जाये

क्या पता दूर कहाँ तक अँधेरी गलियाँ
साथ जो चल दे  शमा खिल जाये

"देव" बिखरा है कई बार जमाने में 
तू जो दे हाथ तो सँभल जाये

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       21नवंबर, 2023

करवा चौथ

करवा चौथ

अच्छा लगता संग तुम्हारे आसमान को तकना
अच्छा लगता प्रिये मुझे बस साथ तुम्हारे रहना

एक जनम क्या जनम-जनम का रिश्ता तेरा-मेरा
अच्छा लगता प्रिये मुझे बस तुमसे जुड़ कर रहना

तन भी सुंदर मन भी सुंदर सुंदरता की मूरत हो
अच्छा लगता प्रिये देखना तुमको ऐसे सजना

छत पर रात चाँद देखना धीरे से मुस्काना
अच्छा लगता प्रिये तुम्हारा फिर से दुल्हन बनना

छलनी के पीछे चुपके से नयनों का मुस्काना
अच्छा लगता अर्पित जल से व्रत का पारन करना

प्रेम भावना त्याग समर्पण विश्वासों की डोरी
अच्छा लगता प्रिये हमारे रिश्ते का यूँ बढ़ना

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02नवंबर, 2023


समर्पण के गीत

समर्पण के गीत

आ लिखें गीत हम तुम सुहाने यहाँ,
उम्र जिस गीत को गुनगुनाती रहे।
अर्थ हर शब्द का यूँ समर्पित रहे,
जिंदगी छाँव में मुस्कुराती रहे।

धूप राहों में अपने जो होगी कभी,
धूप को छाँव से हम सजाते रहें।
काँटे भी राहों में जो मिलेंगे कभी,
रास्तों से उन्हें हम हटाते रहें।

पथ बुहारें सदा जिंदगी के यहाँ,
पुष्प से उम्र जिसको सजाती रहे।
आ लिखें गीत हम तुम सुहाने यहाँ,
उम्र जिस गीत को गुनगुनाती रहे।

पुण्य के गीत मन में बसाए हुए,
वेद की पंखुरी से सजायें सदा।
हास परिहास से पथ निभाते हुए,
इक दूजे को दिल में बसायें सदा।

अंजुरी प्रीत की हो न खाली कभी,
प्रीत से अंजुरी जगमगाती रहे।
आ लिखें गीत हम तुम सुहाने यहाँ,
उम्र जिस गीत को गुनगुनाती रहे।

पंथ वो ही सुखद राम सीता चले,
जिंदगी में कभी लड़खड़ाए नहीं।
लाख कठिनाइयाँ राह आईं मगर,
निर्णयों में कभी हड़बड़ाए नहीं।

पंथ की धूल माथे लगायें सदा,
जो अँधियारों में पथ दिखाती रहे।
आ लिखें गीत हम तुम सुहाने यहाँ,
उम्र जिस गीत को गुनगुनाती रहे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अक्टूबर, 2023


श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...