क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।
अपने हर एकाकीपन में, मन को साथ मिला तुम्हारा।
सदा जीतता आया सबसे, लेकिन मन तुमसे ही हारा।
लेकिन मिला छलावा मन को, जाने कैसी भूल हुई थी,
आँसू जब पलकों ने खोये, मिला नहीं तब उसे सहारा।
नहीं किसी पर दोष मढ़ा जब, कैसे कहूँ दोष तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।
छूकर तुमको पवन चली जब, मेरे मन को कष्ट हुआ था।
चाँद किरण ने छुआ कभी जब, मेरा मन अभिशप्त हुआ था।
कभी किसी महफ़िल में कोई, लेकर तुमको नाम पुकारा,
समझ नहीं पाया था क्यूँ कर, मन ये मेरा तप्त हुआ था।
मैं ही तुमको समझ न पाया, सारा था अपराध हमारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।
शपथ मुझे उन बीते पल की, अब उन्हें नहीं दुहराऊँगा,
अधरों पर प्रतिबंध लगा दूँ, के नाम नहीं अब लाऊँगा।
जितने मैंने गीत लिखे थे, ढाई आखर वाले तुमपर,
सौगंध मुझे उन गीतों की, अब कभी नहीं मैं गाऊँगा।
बिखरे मेरे सपने गिरकर, कोई दोष नहीं तुम्हारा,
मैं ही स्नेहिल मुस्कानों को, क्यूँ जाने प्यार समझ बैठा।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25 जनवरी, 2024
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